निश्चल छंद

17.4.17

निश्चल छंद
जीवन की संध्या

जीवन की संध्या में अब क्या,होगी भोर?
साँसों की भी लगती अब तो,टूटी डोर।
जीवन क्या क्या दिखलाता है,नाटक आज?
बन्द हुई सब आशाओं की,फाटक आज।

क्यों उठता रहता है मन में,झंझावात?
क्यों चुभती है कंटक सी इक,छोटी बात?
क्यों मन बेबस हो बैठा है,इतना आज?
क्यों दुनिया में बसते इतने,धोखे बाज?

कैसे कैसे नाच नचाता,नटवर श्याम।
आत्मानंदी रास रचाता,वो निष्काम।
मधुर बाँसुरी से छेड़े कुछ,ऐसी तान।
आलौकिक मद से भर देता,सबके कान।

चमत्कार की करता मन क्यों,हरि से आस?
छोटा सा दुख भी क्यों मन को,करे निरास?
रातों की क्यूँ नींद उड़ाए,चिंता रोज?
दुख के मारे मन को कब है,भाता भोज?

मेरी विनती सुन लो अब तो,भोले नाथ।
आया हूँ मैं दर पर तेरे,जोड़े हाथ।
अंतर्यामी शिव तुम कर दो,मेरा काज।
इक बार फिर से जोड़ दो सब,टूटे साज।

निश्चल छंद
छलिया घनश्याम

राधा जी की रूप माधुरी,ललित ललाम।
चकित नैन कनखी से निरखे,मनहर श्याम।

अँखियों ही अँखियों से पीता, माखन चोर।
राधा के नैनों की मदिरा,वो नित भोर।

ऐसा जादू करता छलिया,वो घनश्याम।
खिंची चली आती है राधा,सुबहो शाम।

गोप-गोपियाँ हँसी उड़ायें,दे दे ताल।
वो नटखट नैना मटकाए,चूमे गाल।

कैसे कैसे नाच नचाता,नटवर श्याम।
आत्मानंदी रास रचाता,वो निष्काम।

मधुर बाँसुरी से छेड़े कुछ,ऐसी तान।
आलौकिक मद से भर देता,सबके कान।

जादू की मुरली ले आया,माखन चोर।
बजा मधुर वंशी खींचे वोे,मन की डोर।

बाँसुरिया से छेड़े नटखट ,ऐसी तान।
राधा के अधरों पर नाचे, मधु-मुस्कान।

व्रज का छोरा बरसाने की,छोरी साथ।
जोरा-जोरी करे छुड़ाए ,गोरी हाथ।

निश्चल छंद
जीवन की धूप छाँव

जीवन की ये धूपछाँव भी,प्यारी आज।
ये ही तो सिखलाती जीने,का अंदाज।

नहीं गगन से और पवन से,कुछ भी आस।
अपनी साँसों पर ही करना, है विश्वास।

दिल के सारे ख्वाब सुनहरे,टूटे आज।
कौन सँवारेगा अब दिल के,टूटे साज।

दिल की छिपी दरारों से हम,थे अंजान।
टूट गया इक ठोकर से ही,ये नादान।

जिनकी साँसों को हमने दी,अपनी साँस।
जिनकी राहों से हमने चुन, ली हर फाँस।

जिनकी हर धड़कन पर अपना,था अधिकार।
हर धड़कन अब उनकी हमको,रही नकार।

टूटे दिल को लेकर फिरते,हम बेज़ार।
किस जादू से जोड़ें दिल के,टूटे तार।

कितने नाजुक होते हैं ये ,दिल के साज।
हौले से टुकड़े हो जाते,बिन आवाज।

कौन कहाँ कब कैसे दिल को,देता तोड़।
जान न पाए कोई है ये,कैसी दौड़?

दिल अपने दिलवर से ही क्यूँ,खाता मात?
दिलवर के दिल से ही क्यूँ दिल,करता घात?

धूपछाँव से जीवन की ये,निकला सार।
हर दिल अपने दुखड़ों से ही,है बेज़ार।

अपने दिल में ही अब खोजो,खुशियाँ आप।
दिल में रब ने खुशियाँ भर दी, हैं बेमाप।

ललित 19.4.17

लोकतंत्र

लोकतंत्र का मतलब हमने,समझा आज।
जनता को जो झाँसा दे दे,उसका राज।
जनता भी सपनों की दुनिया,में ही डूब।
सपनों के सौदागर को 'मत' देती खूब।

ललित

चाँद-चाँदनी

झिलमिल झिलमिल करती तारों,की बारात।
चाँद चाँदनी चुपके चुपके,करते बात।

मगर बादलों को कब भाया,उनका प्यार।
किया अलग दोनों को मिलना, है दुश्वार।

ललित

निश्चल छंद
चाँदनी

प्यारी प्यारी धवल चाँदनी,खुश है आज।
चाँद और तारों ने छेड़े,अद्भुत साज।
पवन तराने छेड़ रही है,आधी रात।
नूरानी आभा है मुख पर,शीतल गात।

बाँह पसारे धरा निहारे,उसकी राह।
मावस से पूनम तक भरती,रहती आह।
धरा करे श्रृंगार चँदनिया,जब हो साथ।
अलबेली वो रात कि चंदा,जब हो माथ।

धरती की वो खास सहेली,जैसे मात।
धरती का जो रूप सँवारे,आधी रात।
आज चाँदनी कैसे सकती,है ये भूल।
बिना धरा के वो भी तो है,जैसे धूल।

ललित

छलिया

कैसे कैसे छलिया दुनिया,में आबाद।
करते फिरते मासूमों को,जो बर्बाद।
कोई तो उनको दिखलाए,दो दो हाथ।
देते हैं जो जालिम बन्दों,का ही साथ।

ललित

काले बाल

भौंरे जैसी गुँजन करती,वो आवाज़।
चंचल हिरणी के नैनों सा,वो अंदाज़।
भूल नहीं पाता दिल उसकी,मादक चाल।
वो घुटनों तक लम्बे उसके,काले बाल।

ललित

रम्भा

रम्भा जैसा रूप निखारे,सुंदर नार।
पार्लर में जा रोज लगाती,घंटे चारः
मन तो लेकिन रोज पुकारे,दे आवाज।
हाय सँवारोगी कब अपने,मन के साज।

ललित