विनती माँ सुन लो

विनती यह शारद माँ सुन लो।
तुम शिष्य मुझे अपना चुन लो।
कविता सविता सम ही चमके।
हर शब्द सही लय में दमके।

नव छंद रचूँ नवगीत लिखूँ।
कुछ हार लिखूँ कुछ जीत लिखूँ।
कुछ प्यार भरी कविता लिख दूँ।
कुछ नश्वर की भविता लिख दूँ।

लिख दूँ मन के सब भाव अभी।
दिल के दुखते कुछ घाव अभी।
मन में पलते सुख के सपने।
लिख दूँ सब मीत यहाँ अपने।

यह कविता तोटक छंद में रचित की गयी है 

तोटक छंद विधान 
👉 यह एक वार्णिक छंद है जिसमें कुल चार पंक्तियाँ होती हैं।
👉 प्रत्येक पंक्ति में कुल चार सगण अर्थात् लघु लघु गुरू x 4  कुल 12 वर्ण होते हैं।
👉 दो या चार समतुकांत होते हैं।
⭐ भक्ति, नीति, तथा आदर्श परक रचनाओं के लिए ये छंद प्रसिद्ध है।

छम-छम नाचे राधिका

रास रचाए श्याम,छम-छम नाचे राधिका।
मुरली से अविराम,रस बरसे आनन्द का।

नजरों से ही श्याम,जादू ऐसा कर रहा।
खुशियों से निष्काम,झोली सबकी भर गई।

नंदनवन व्रजधाम,वन-उपवन अरु वाटिका।
बाल-सखा सँग श्याम,नित्य नयी लीला करे।

कैसा ये भगवान,वृन्दावन में आ गया।
देता गीता-ज्ञान,नित्य रास में झूमता।

नाच रहे सब ग्वाल,नाचे गोरी राधिका।
मुरली करे कमाल,बेसुध हैं सब गोपियाँ।

सुन वंशी की तान,लतिकाएँ सब झूमती।
भूले निज का भान,व्रजवासी आनन्द में।

पूनम की है रात,कितनी खुश है चाँदनी?
नाचे माधव साथ,बौराई सी राधिका।

बरस रही है प्रीत,आलौकिक आनन्द है।
सुन वंशी के गीत,पायलियाँ मदहोश हैं।

हर गोपी के साथ,दिखे नाचता साँवरा।
मुरली की क्या बात ,अधर लगी जो झूमती?

दिखला दे गोपाल,एक झलक उस रास की।
जिसमें दे दे ताल,आत्म मिले परमात्म से।

नंद-यशोदा लाल,बाँके ओ घनश्याम रे।
आँखों देखा हाल,जरा सुना दे रास का।


यह कविता सोरठा छंद पर आधारित है।

सोरठा छंद विधान:
  1. यह मात्रिक छंद है।
  2. इसमें चार चरण होते हैं।प्रथम और तृतीय चरणों में 11-11 मात्राएँ तथा द्वितीय व चतुर्थ चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं।
  3. विषम चरणों का अंत एक गुरु व एक लघु अर्थात गुरु लघु मात्रा से होना अनिवार्य है।
  4. यह दोहे से उल्टा होता है।

अप्रेल 18 ई मेल

अप्रेल 18

सोरठा छंद

बाँसुरिया की तान,छेड़ रहा घनश्याम यों।
भगवद्गीता ज्ञान,भरा हुआ हर तान में।

उद्धव करके ध्यान,नहीं कभी जो पा सका।
गोपी को वो ज्ञान,मधुर मुरलिया दे गई।

ललित

30.4.18
सोरठा छंद

हो जाना है मौन,इक दिन हर इंसान को।
बच पाया है कौन,उस अनदेखी मौत से।

जीवन में ये काम,कर लेना इंसान तू।
निशि-दिन जपना राम,भव से होगा पार तू।

ललित

सोरठा

इतना है विश्वास,कान्हा राधा पर मुझे।
पूरी होगी आस,भजनों की पुस्तक छपे।

माँ शारद से आज,इतनी है मेरी अरज।
करें 'राज' भी नाज,छंद सृजन ऐसा करूँ।

ललित

कुण्डलिनी छंद

मोबाइल प्यारा लगे,मानव को यूँ आज।
जैसे होती दाद में,मीठी-मीठी खाज।

मीठी-मीठी खाज,शुरू में मन को भाती।
खुजलाने से हाय,और बढ़ती ही जाती।

ललित

रुबाई

गलती से दीवानी राधा,ऐसी गलती कर बैठी।
श्याम साँवरे की सुंदर छवि,नैनों में वो भर बैठी।
चला गया मथुरा मनमोहन,अँखियों को देकर धोखा।
छैल-छबीले की वो मूरत,चैन हिया का हर बैठी।

ललित
27.4.18
रुबाई

दिल में बसकर कैसे कोई,दिल के टुकड़े करता है?
सोच-सोच कर टूटा दिल ये,निशि-दिन आहें भरता है।
दिल के टुकड़े रोते हैं पर,चीख़ नहीं बाहर आती।
बन्द हुए नैनोंं में से इक,शीतल मोती झरता है।

ललित
रुबाई

शबरी के झूठे बैरों को,बड़े चाव से जब खाया।
प्रीत भरी थी उन बैरों में,लक्ष्मण नहीं समझ पाया।
चुटकी की सेवा हनुमत ने,सिया राम से जब माँगी ।
राज छुपा था क्या चुटकी में, समझ किसी को कब आया?

ललित

रुबाई

1
प्यारी-प्यारी बातें करना,मधु लपेट कर
मुस्काना।
छल औ' कपट भरे हों दिल में,
पर अपना पन जतलाना।
जान गए हम अच्छे से अब,तेरी बड़ी अदाकारी।
अपनी शोख अदाओं से ही,सबको पागल कर जाना।
ललित

ललित

रुबाई

सागर से गहरे नैनों में,ऐसी हाला भर लाई।
पीने को सब मचल उठें वो,ऐसा प्याला भर लाई।
चोरी-चोरी नजरों से ही,पी बैठे सब परवाने।
अपनी आँखो में ऐसा मधु,वो मधुबाला भर लाई।

ललित

24.4.18
रुबाई

सुंदर-सुंदर तस्वीरों से,दीवारें मनहर होतीं।

लेकिन घर में रहने वालों,की वो नफरत पर रोतीं।

आपस में जब गहन प्रेम हो,तो घर सुंदर बन पाए।

वरना तो वो तस्वीरें भी,सुंदरता अक्सर  खोतीं।

ललित
रुबाई छंद

धक-धक करना भूल गया दिल,कविताएं अब लिखता है।

हरदम ये भावों की भँवरों,में ही फँसता दिखता है।

खुश रखना हर दिल को यारों,हरदम ही ये दिल चाहे।

बदले में खुद दीवानों सा,गम के हाथों बिकता है।

ललित
24.4.18
दोहा
कैसा तेरा न्याय है,ओ राजा मुस्तैद।
फाँसी देता एक को,दूजे को बस कैद।

सनाई छंद

इस जीवन से ये सीख मिली,जीवन इक सुंदर सपना है।
अपना दिखता है जो हमको,वो रहता कब तक अपना है?
बस आशा और निराशा में,ये जीवन बीता जाता है।
क्या ले जाता है दुनिया से,क्या ले कर ये नर आता है?

ललित

22.4.18
सनाई छंद

बड़ी अनोखी है प्रभु जी ये,लख-चौरासी भूल-भुलैया।
अंध कूप भी हैं कुछ इसमें,जिनमें अटकी मेरी नैया।
सुमिरन आठों याम करूँ मैं,मन में ऐसी अलख जगा दो।
नाम रूप पतवार थमा दो,नैया मेरी पार लगा दो।

ललित
21.4.18

सनाई छंद

धवल चाँदनी में मृगनयनी,चली जा रही
है इठलाती।
साजन से मिलने को आतुर,नैनों में ले दिल की पाती।
नैन कहेंगें दिल की बतियाँ,मौन रहेंगें साजन सजनी।
दिल की बातें कहने-सुनने,को कम पड़ जाएगी रजनी।

ललित

20.4.18
सनाई

कल-कल कल-कल बहती अविरल,
पावन शीतल गंगा धारा।

चम-चम चम-चम चमके ऊँचे,
हिम-शिखरों में भारत प्यारा।

वन उपवन झरने मनभावन,
बागों में सावन के झूले।

वो घाटी फूल-बहारों की,
कश्मीर न भारत का भूले।

ललित

20.4.18

सनाई छंद

जय-जय जय-जय कृष्ण-राधिका,जय-जय-जय सिया-राम प्यारे।

बरसे जिस पर कृपा तुम्हारी,होते उसके वारे-न्यारे।

मैं भी आया द्वार तुम्हारे,लेकर इक छोटी सी आशा।

भव सागर में नाव न अटके , नाथ न देखूँ और तमाशा।

ललित

17.4.18
सनाई छंद

श्याम साँवरे नटवर नागर,कृष्ण कन्हैया
मुरली वाले।
बिसराए क्यों रात-रात भर,रास रचाते गोपी-ग्वाले?
नंदन-वन को भूल गए क्यों,बाल-सखा क्यों याद न आएँ?
राधा-रानी मात-यशोदा,तुझ बिन कान्हा कौर न खाएँ।

ललित

दोहा
हो जाएगा फैसला,अब दिन में दो-चार।
हर चैनल पर चल रही,है जूतम-पैजार।

मल्लिका छंद

काल यों करे प्रहार।
साथ छोड़ दे बहार।
वक्त की हसीन चाल।
दे बिगाड़ चाल-ढाल।

मल्लिका छंद

दानवी हुई बहार।
वायु ही करे प्रहार।
है कली-कली उदास।
राज से रही न आस।

रक्ष माम रक्ष माम।
बेटियाँ कहें तमाम।
राज की दिखे न रास।
न्याय की रही न आस।

पंख नोंच चाल-बाज।
धौंस दे रहा कुराज।
दो दलीय राज नीति।
वोट तंत्र की अनीति।

अंध कूप सा स्वराज।
स्वप्न ही रहा सुराज।
हाय स्लोगनी विकास।
और बेटियाँ उदास।

ललित

मल्लिका छंद

श्याम बाँसुरी बजाय।
राधिका न पास आय।
बाँसुरी बजाय मीत।
प्यार का सुनाय गीत।

राधिका खड़ी उदास।
बाँसुरी न आय रास।
कृष्ण के करीब आय।
बाँसुरी लई छुड़ाय।

ललित

बिना गेंद के गोल किया है,
गरल हवा में घोल दिया है।
नेता अपनी रोटी सेकें,
बीच सड़क पर बोटी फेंकें।

जनता को तो पिसना ही है,
घावों मरहम घिसना ही है।
वोटों की ये माया देखी,
लहू सनी हर काया देखी।

नेता खेल-तमाशा देखें,
ज्ञानी आज हताशा देखें।
बीज कभी बोए थे जैसे,
आज फसल काटेंगें वैसे।

नेताओं की फौज ये,ले डूबेगी देश को।
करने को खुद मौज ये,बदलें हर परिवेश
को।
ललित

आँखें बोलती हैं
छंद मुक्त रचना

आँखें बोलती हैं
जी हाँ...
बहुत कुछ बोलती हैं आँखें..
मगर
पिछले दस सालों में
बहुत बदल गई है....आँखों की भाषा
पहले
आदमी की आँखों में दिखता था
एक अपनत्व का भाव
एक उत्कंठा....
सामने वाले के बारे में जानने की.
बस,गाड़ी,धर्म शाला में...
मिले सहयात्री के बारे में जानने की
एक ललक होती थी बात करने की
लेकिन अब...
अब उसकी नजरें..
होती हैं...अपने मोबाइल में
ये कहती हुई कि....
तू जो कोई भी तीसमारखाँ हो ...
मुझे मतलब नहीं तुझ से...
सही भी तो है.....
उसे एक अलग ही आभासी
दुनिया अपनी ओर खींच रही होती है
मोबाइल में......
मोबाइल में.....
मोबाइल में.....

ललित

11.4.18

मल्लिका छंद

लोक तंत्र में स्वराज।
है बना मजाक आज।
वोटतंत्र भीड़ तंत्र।
मात्र एक मूल मंत्र।

देश-बंद तोड़-फोड़।
राजनीति का निचोड़।
शर्म का उड़े मखौल।
धर्म का रहा न मोल।

ललित

मल्लिका छंद

जाति देख नाम धाम।
रक्ष माम् रक्ष माम्।
अल्प बुद्धि मोहि मान।
जाति से गरीब जान।

देश का नसीब आज।
जाति के करीब आज।
जाति बद्ध लोकतंत्र।
ये विकास का न मंत्र।

ललित

मल्लिका छंद

तात पुस्तकें उधार।
ला रहा करे विचार।
ज्ञान से भरी किताब।
मूल्य का नहीं हिसाब।

लाल ढो रहा किताब।
बोझ आज बेहिसाब।
पुत्र से उठे न भार।
मात ये करे विचार।

स्कूल फीस दे रुलाय।
ड्रेस चार दी सिलाय।
शूज़ बैग और कोट।
खर्च खूब होय नोट।

खेल फीस फील्ड फीस।
तात है नहीं रईस।
क्या करे भला गरीब?
क्या पढ़े लला गरीब?

ललित

10.4.18

मल्लिका छंद

भूख से निढाल वृद्ध।
भूल से न होय क्रुद्ध।
आसमान पे निगाह।
क्यों खुदा सुने न आह?

याद आ रहा मकान।
और वो भरी दुकान।
जिंदगी बड़ी हसीन।
नौजवान पुत्र तीन।

देखते हसीन ख्वाब।
पुत्र हो गए नवाब।
वक्त से बना नसीब।
होगया फना नसीब।

खून में रही न आँच।
प्यार में रही न साँच।
वक्त आ गया खराब।
पुत्र पी रहे शराब।

वृद्ध तात-मात आज।
जो करें न काम-काज।
पुत्र को नहीं सुहायँ।
अश्रु नैन हैं बहायँ।

ललित

दोस्त यार मीत-वीत
स्वार्थ साधते न प्रीत।
स्वार्थ के हजार हाथ।
स्वार्थ के बिना न साथ।

ललित
9.4.18

मल्लिका छंद
वार्णिक छंद
चार चरण
दो दो समतुकांत
21 21 21 21
1
तात मात और भ्रात
दे सुता न दार साथ।
एक श्याम है सहाय।
दीन बंधु जो कहाय।

श्याम-श्याम तू उचार।
प्रेम से उसे पुकार।
वासुदेव वासुदेव।
नाम जो हरे कुटेव।

ललित

2
मल्लिका छंद

श्याम बाँसुरी बजाय।
गोपियाँ रहा नचाय।
प्रीत के सुनाय गीत।
रात क्यों न जाय बीत?

भोर को करे सुभोर।
बाँसुरी बजाय चोर।
राधिका रही निहार।
बाँसुरी हरे करार।

ललित

मल्लिका छंद

गोप संग नंद-लाल।
साँवरा करे धमाल।
गोपियाँ रही नहाय।
वस्त्र चोर भाग जाय।

श्याम वस्त्र दे हमार।
गोपियाँ रही पुकार।
देख ये न ठीक काज।
छोड़ यूँ न लोक-लाज।

ललित

मल्लिका छंद

ऊँच जात नीच जात।
छोड़ आज छूत-छात।
हो रही बड़ी उदास।
राज नीति आस-पास।

देश का रुका विकास।
वोट से रही न आस।
घोर अंधकार आज।
झेलता यहाँ समाज।

ललित

6.4.18
महाश्रृंगार छंद

दूत है ये अद्भुत वाचाल,अंग अब इसका
कर दो भंग।
देखकर इसका ऐसा हाल,राम आएँगें इसके संग।
बहुत सी तेल-बोरियाँ बाँध,जला दो इस वानर की पूँछ।
भूल जाएगा जपना राम,याद आएगी मेरी मूँछ।

ललित

5.4.18
महाश्रृंगार छंद

नंद-घर जन्मे नंदकुमार,पुष्प सब दौड़े आए द्वार।
चमेली चम्पा कमल गुलाब,मोगरा जूही हरसिंगार।
रात की रानी नरगिस और,गुढल गेंदा
खस सदाबहार।
मोतिया नीलकमल के संग,धतूरा करने को दीदार।

सभी फूलों ने मिलकर साथ,बनाया फूल-बंगला खास।
देव सब लगे सूँघने आज,विरज में बिखरी मधुर सुवास।
विराजी वहाँ यशोदा मात,गोद ले छोटा
सा गोपाल।
दर्श कर नाच रहे हैं झूम,गोप-गोपी सब दे दे ताल।

ललित

महाश्रृंगार
राधा श्रृंगार

करो सखियों मेरा श्रृंगार,मिलेंगें श्यामल नंदकुमार।
मोगरा जूही हरसिंगार,बाँध दो वेणी खुशबूदार।
मधुर गजरों से छलकेे प्यार,नथनियाँ चूमे नंद किशोर।
बजे पैंजनियाँ मेरे पाँव,रास में झूमे जब चितचोर।

ललित
क्रमशः

चुनरिया पचरंगी

4.4.18
महाश्रृंगार छंद

कलम से शब्द निकलते खास,जिन्हें पढ़ पुलक उठें कुछ गात।
नहीं आती जो सबको रास,कलम ऐसी कह देती बात।
कहाँ अब जग में ऐसे लोग,समझ पाएँ जो कवि की पीर।
समझ पाएँ कविता की बात,कहाँ पाठक ऐसे गंभीर।

ललित

4.4.18

महाश्रृंगार छंद
कुछ शब्द

हुए कुछ शब्द बड़े मशहूर,बढ़ाते जो भारत का नूर।
जिन्हें सुन कहते हैं सब लोग,यही है जीवन का दस्तूर।
सुनाता हूँ अब मैं वो शब्द,ध्यान से सुनना जी श्रीमान।
बैंक से अरबों लिया उधार,देश से भागा बैठ विमान।

बंद हुड़दंग और हड़ताल,आग में झोंके बस घर कार।
राजनेता के मन की बात,चुनावी मुद्दों की तकरार।
मरे आतंकी सीमा-पार,आत्म हत्या कर मरा किसान।
करें नेता घोटाले खूब,टोल में मिनिस्टरों की जान।

बालकों के कंधों पर बोझ,निजी विद्यालय को सब छूट।
कचहरी पुलिस न्याय से दूर,अस्पतालों में मचती लूट।
डकैती चोरी लूट खसोट,नारियों का जीना दुश्वार।
दलित वोटों का है आधार,देश की कौन सोचता यार।

ललित

ललित
2.4.18
महाश्रृंगार छंद
स्वप्न में पूजा
पूरी रचना

कृपा इतनी कर दो हे श्याम,स्वप्न में दर्शन हों इक बार।
चरण में शीश नवाऊँ नाथ,करूँ पूजा लाऊँ उपहार।
कराऊँ गंगाजल से स्नान,नवल पीताम्बर
इत्र-गुलाल।
मोगरा-जूही हरसिंगार,तिलक केसर-चंदन हो भाल।

मुकुट हीरों का सोहे शीश,मोर का पंख
मनोहर माथ।
खिलाऊँ छप्पन व्यंजन भोग,साथ में माखन-मिश्री नाथ।
राधिका रानी को ले साथ,विराजो झूले में फिर श्याम।
निहारूँ युगल-रूप अभिराम,करें जो महारास निष्काम।

बाँसुरी मधुर बजाकर आप,अलौकिक रस से भर दो कान।
जलाऊँ दीप सुगंधित धूप,आरती साथ करूँ गुण-गान।
माँग इतनी करना स्वीकार,दया के सागर हे घनश्याम।
मिले सत्संग भजन आनन्द,करे मन सुमिरन आठों याम।

ललित
महाश्रृंगार

मिले हमको नेता जी एक,बड़े ही धीर तथा गंभीर।
बहुत नाजुक दिल के वो नेक,सुनें जनता की सारी पीर।
कही हमने भी अपनी बात,दिखाए कचरे के कुछ ढेर।
गए गुस्से में हम से बोल,नहीं है बाबू तेरी खैर।

ललित

महाश्रृंगार छंद

मुरलिया वाला माखनचोर,खड़ा हो पनघट पे नित भोर।
छेड़ता है मुझको मुँहजोर,साँवरा नटखट नंद किशोर।
नजरिया से मारे यूँ तीर,हुए हैं घायल तन-मन-प्राण।
किसे बतलाऊँ दिल की पीर,धड़कना भूला जो नादान।

ललित

1.4.18
महाश्रृंगार छंद

देख ली दुनिया हमने खूब,और देखे इसके दस्तूर।
कभी था जिनका दिल में वास,वही जा बैठे दिल से दूर।

नजर में रखते थे जो प्यार,फेर बैठे नजरें वो आज।
हमें ठुकराते हैं जो आज,कभी हम पर करते थे नाज।

ललित
महाश्रृंगार छंद

बजाता है मोहन नित भोर,मधुर मोहक मुरली जिस ठाँव।
बनूँ उस नंदनवन का वृक्ष,करूँ मैं तेरे सिर पर छाँव।
बिखेरे माखन माखनचोर,कंकरी जिस मटकी को मार।
बनूँ मैं वो ही मटकी श्याम,तपाए चाहे मुझे कुम्हार।

ललित

महाश्रृंगार छंद

अरे ओ मुरलीधर घनश्याम,छेड़ दे वंशी की वो तान।
जिसे सुन पाए मन विश्राम,मधुर-रस से भर जाएँ कान।
जरा सपनों में आ गोपाल,प्यार से मटका
दे तू नैन।
न हों जब तक तेरे दीदार,भला आए क्यूँ दिल को चैन?

ललित