दोहे


--- --दोहा छंद
1
राधा गोविंद 21.2.17
विषय:  माँ

बचपन में था पूछता,माँ से बहुत सवाल।
अब वो माँ से बोलता,काहे करे बवाल।।

दान  किये जप भी किये,तीरथ किये हजार।
माँ को जो बिसरा दिया,सब कुछ है बेकार।।

माँ के आँचल की जिसे,मिली हुई है छाँव।
हरदम सीधे बैठते,उसके सारे दाँव।।

माँ की याद सुवास सी,मन निर्मल हो जाय।
जैसे तुलसी आँगने,हरि की याद दिलाय।।

हरि का सुमिरन जो करे,माँ चरणों में बैठ।
हरि उसको आशीष दें,माँ के उर में पैठ।।

माँ साँसों में बस रही,माँ धड़कन,माँ प्राण।
माँ से उऋण न हो सके,सुत देकर भी जान।

'ललित'

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2

महाभारत के मूल कारण पर मेरी प्रस्तुति
 
दुर्योधन जब गिर गया,
                  जल को धरती जान।
पांचाली तब हँस पडी,
                   उस को मूरख मान।

अंधे के अंधा हुआ,
                    बोली बिना विचार।
महानाश करके रही,
                     इक छोटी सी रार।

हँसो किसी पर ना कभी,
                     कडवी बात सुनाय।
ना जाने कब कौनसी,
                     बात किसे चुभ जाय।

परिष्कृत दोहा:

धर्मराज खेलें जुआँ,
                 लगा द्रोपदी दाँव।
वो दरख्त भी चुप रहे,
                  जो देते थे छाँव।
  ललित
                  
3

(गौमाता को समर्पित कुछ दोहे )

हम यों अपने देश में,
                  हुए हैं पराधीन।

गौ हत्याएं करा रहे,
                   वही हैं पदासीन।

मक्खन-मट्ठा-दूध-दही,
                    सब कुछ लिया छिनाय।
बालक अब इस देश का,
                      दूध कहाँ ते पाय।

नकली हर इक चीज है,
                       नकली रुपया वोट।
मानव का वध कर रहा,
                         अब तो है रोबोट।

प्रगति करने को करते,
                         प्राकृत से खिलवाड़।
जीना दूभर हो रहा,
                          खोले मौत किवाड़।

'ललित'

 दोहे

कौन सजन कैसा पिया,औ' कैसा विश्वास?
तीन तलाकों से बँधी,हो जब हर इक श्वास।

औरत की हर श्वास पे,किसका है अधिकार?
कौन करेगा फैसला,नारी या भर्तार?

दोहे

कुछ खुशियाँ कुछ गम मिले,इस जीवन के साथ।
खुशियाँ धोखा दे गईं,गम ने थामा हाथ।

चाहा खुशियाँ भींचना,जब मुट्ठी के बीच।
मुट्ठी ढीली रह गई,दो अँगुली के बीच।

प्रकाशन 8 कुकुभ छंद

कान्हा मेरे मन मन्दिर में,
            आकर तुम यूँ बस जाओ।
जब भी बन्द करूँ पलकों को,
             रूप मनोहर दरशाओ।
गंगाजल-पंचामृत से प्रभु,
              रोज तुम्हें मैं नहलाऊँ।
वस्त्र और गहने अर्पण कर,
              केसर-चन्दन घिस लाऊँ।

धूप-दीप नेवैद्य चढ़ाकर,
             पुष्प-हार सुन्दर वारूँ।
त्र-गुलाल लगाकर कान्हा,
             चरणों की रज सिर धारूँ।
मन ही मन फिर करूँ आरती,
             चरण-कमल में झुक जाऊँ।
जग की झूठी प्रीत भुलाकर,
              प्यार तुम्हीं से कर पाऊँ।

जग की झूठी माया सच से,
            ओत-प्रोत हो रहती है।
सच की अनगिन पर्तों की वो,
            ओट लिए जो रहती है।
मृग मरीचिका माया मन को,
            यों दबोच कर रखती है।
चंगुल से वो छूट न पाये,
            माया ही सच दिखती है।

        विष से क्यूँ भर दीनी प्रभु जी,
              मानव की सुंदर काया।
नव द्वारों की देह भेदकर,
               गरल सदा बाहर आया।
ऐसी कृपा करो अब भगवन,
               यह विष अमृत बन जाए।
मानव इस धरती पर हरदम,
                प्रेम सुधा रस बरसाए।

'

प्रकाशन 7 गीतिका छंद

गीतिका छंद

वो दुआएं ही फली जो,दी मुझे हैं मात ने।
और सब संसार की हैं,तालियाँ खैरात में।।
माँ तुम्हारी हर दुआ से,भाल चमका है सदा।
भूल सकता मैं नहीं माँ,अब तुम्हारी आपदा।।

कौन सी माटी लगाकर,देह माँ की है घड़ी।
कौन सी विद्या लगाकर,पूत में तृष्णा जड़ी।।
दो जहाँ का प्यार माँ से,पूत को मिलता यहाँ।
मात की सेवा करे जो,पूत वो मिलता कहाँ।।

राह सीधी छोड़कर तू,चाल टेढ़ी चल रहा। राम को भूला अरे तू,काम मन में पल रहा।।
काम जो मन में बसे तो,आत्म को दे घाव रे।।
राम जो मन में बसे तो,पार कर दे नाव रे।।

दो दिशाओं को मिलाना,कौन मुश्किल काम है।
चाँद तारों को हिलाना,कौन दुष्कर काम है।
जो दिलों में ठान लें वो,मंजिलें तय कर सकें।
जोड़ कर टूटे दिलों को,घाव गहरे भर सकें।

गीतिका छंद विधान एवँ रचनाएं




गीतिका छंद विधान एवँ रचनाएँ

******************************
     -------गीतिका छंद विधान-----
********************************

 गीतिका छंद का विधान ः

1. इसमें चार चरण होते हैं।
2. प्रत्येक चरण में 26 मात्रायें होती हैं।
3.14,12 मात्रा पर  यति दर्शायी जाती है।
2.इसमें 2/4 चरणों में समतुकांत मिलाए जाते हैं।

मापनीः
2122  2122 ,
2122  212

            **** उदाहरण ****

गीतिका छंद

नींद खुलते ही खुशी से मुस्कुरा भर दीजिए।
उस प्रभो को शुक्रिया फिर मुस्कुरा कर
दीजिए।
हे प्रभो धन-धान्य वैभव आपने मुझको दिया।
शांति-सुख-आनंद दे कर धन्य है मुझको किया।

**********रचनाकार*************
ललित किशोर 'ललित'
*******************************




7.12.15
गीतिका छंद
1
खोजते हैं साँवरे को,हर गली हर गाँव में।
आ मिलो अब श्याम प्यारे,आमली की छाँव में।।
आपकी मन मोहनी छवि,बाँसुरी की तान जो।
गोप ग्वालों के शरीरोंं,में बसी ज्यों जान वो।।
2
प्रार्थना
हे प्रभो!अब ज्ञान ऐसा,दो यही विनती करें।
रात दिन हर साँस में प्रभु, नाम की गिनती करें।।
अति मनोहर आपकी छवि,नैन नित देखा करें।
आपका शुभ नाम लेकर,भाग्य का लेखा भरें।।
8.12.15
3
विषय...स्वच्छता
भूमि निर्मल स्वच्छ हो यह,भावना मन में रखें।
गंद कचरा-पात्र में हो,पात्र आँगन में रखें।।
नागरिक इस देश के यह,बात मन में ठान लें।
हर गली हर गाँव अपना,साफ रखना जान लें।।
स्वच्छता मन में रखें हम,आचरण भी स्वच्छ हो।
स्वस्थ तन हो स्वस्थ मन हो,आवरण भी स्वच्छ हो।।
मन प्रफुल्लित तन प्रफुल्लित,स्वच्छता से भासते।
देश भारत चल पड़ा है,स्वच्छता के रास्तेे।।
'ललित'
4
प्रकृति से खिलवाड़
काट डाला अब वनों को,स्वार्थ साधन के लिए।
कंकरीटी-लौह निर्मित, भवन वा धन के लिए।
नद-सरोवर सोख डाले,भूमि कर दी बाँझ ही।
क्यों पुकारे ईश को जब,भोर कर दी साँझ ही।
5
दो दिशाओं को मिलाना,कौन मुश्किल काम है।
चाँद तारों को हिलाना,कौन दुष्कर काम है।
जो दिलों में ठान लें वो,मंजिलें तय कर सकें।
जोड़ कर टूटे दिलों को,घाव गहरे भर सकें।
11.12.15
6
राज रजवाड़े गये तो,भूख के मारे मिले।
देश को चूना लगाते,आज वो सारे मिले।।
राजनेता आज सारे,शोषकों से कम नहीं।
देश को लूटें नहीं तो,राज नेता हम नहीं।
7
आज भारत देश सारा,मानता नेता जिन्हें।
खीजती हैं माइयाँ भी,आज पैदा कर उन्हें।।
किस घड़ी किस काल में था,पूत ये पैदा किया।
बिन चबाये खा गया सब,नाज को मैदा किया।।
8
पायजामा और कुर्ता,पहन के खुश हो रहे।
गाँव के सब लोग उनकी,क्रीज में ही खो रहेे।
आज हमको याद आया,देश का जो हाल है।
देश की भी क्रीज अब तो,दीखती बदहाल है।
12.12.15
9
वो दुआएं ही फली जो,दी मुझे हैं मात ने।
और सब संसार की हैं,तालियाँ खैरात में।।
माँ तुम्हारी हर दुआ से,भाल चमका है सदा।
भूल सकता मैं नहीं माँ,अब तुम्हारी आपदा।।
10
कौन सी माटी लगाकर,देह माँ की है घड़ी।
कौन सी विद्या लगाकर,पूत में तृष्णा जड़ी।
दो जहाँ का प्यार माँ से,पूत को मिलता यहाँ।
मात की सेवा करे जो,पूत वो मिलता कहाँ।
11
राह सीधी छोड़कर तू,चाल टेढ़ी चल रहा। राम को भूला अरे तू,काम मन में पल रहा।।
काम जो मन में बसे तो,आत्म को दे घाव रे।।
राम जो मन में बसे तो,पार कर दे नाव रे।।
काव्य सृजन
गीतिका छंद
12
माँ
माँ बलाओं से बचाकर,पूत को पाले सदा।
वो न जाने पूत देगा,क्या बला क्या आपदा?
दो जहाँ का प्यार माँ से,पूत को मिलता यहाँ।
मात की सेवा करे जो,पूत वो मिलता कहाँ।
13
जान ले जो पीर मन की,मीत उसको मानिए।
थाम ले जो डोर मन की,प्रीत उसको जानिए।
कामना मन की मिटा दे,प्यास सारी दे बुझा।
ज्ञान उसको मानिए जो,राह सच्ची दे सुझा।
14
माँ तुम्हारे प्यार की मैं,थाह भी नहिं पा सका।
मैं तुम्हारे आँसुओं के,पास भी कब आ सका?
मूढ़ मैं था माँ तुम्हारी,आँख का तारा रहा।
पर तुम्हारी आँख से मैं,बन सदा धारा बहा।।
15
धर्म
धर्म जीवन की धुरी है,धर्म मय जीवन सही।
धर्म अपना त्याग दे जो,मूढ मानव है वही।
धर्म है विश्वास देता,धर्म देता है खुशी।
धर्म से जो च्युत हुआ वो,कर रहा अब खुदकुशी।
16
वह सफल है जिन्दगी में,सादगी से जो जिए।
छलकपट पाखण्ड से जो,बैर है पाला किए।
17
माँ को समर्पित
माँ तुम्हारा पाक दामन,याद मुझको आ रहा।
वो तुम्हारा स्नेह मन को,आज भी सहला रहा।
रोज पाता था जहाँ मैं,दो जहाँ का प्यार माँ।
खोजता मैं फिर रहा हूँ,फिर वही संसार माँ।
18
आँचल
आपका आँचल वदन से,आज ढलका जो जरा।
कह रहे धरती गगन ये,और ढलका दो जरा।
बस रही खुशबू नशीली,आपके आँचल तले।
चाँद तारों को लजाते,आप बल खाते चले।
19
नकाब
वो नकाबों में छुपे कुछ,चाल ऐसी चल रहे।
बेनकाबों के दिलों पर,दाल जैसे दल रहे।
जब नकाबों को उठाकर,कनखियों से झाँकते।
ढेर हो जाते वहीं जो,खूब ऊँची हाँकते।
'ललित'
20
देवर भाभी
आज भाभी आप देवर,की सुनो ये कामना।
चाँद सा मुखड़ा चुनो हो,नेक जिसकी भावना।
फिर मुझे दूल्हा बना दो,उस परी सी मेम का।
रात दिन सेवा करे जो,हो समन्दर प्रेम का।
21
जीजा साली
झूलबा ने चालरी छै,कै अरी तू दामली।
और थारी बै ने मत,साथ लीजै बावली।।
बाग में बाताँ कराँगाँ,फूल तोड़ाँगाँ घणा।
आज दिन भर मौज लेवाँ,खूब खावाँगाँ चणा।
22
हाथ में हाथ
हाथ में जो हाथ थामा,साजना मत छोड़ना।
प्रीत के वादे किये जो,तुम कभी मत तोड़ना।
है भँवर में नाव मेरी,और तुम पतवार हो।
जिन्दगी बेज़ार मेरी,आप से गुलजार हो।
29.02.16
23
भोर-संदेश
अनसुने कुछ गीत गाती,
                     भोर उतरी आँगने।
चाँद शरमाकर लगा फिर,
                     आशियाना माँगने।।
भोर की लाली छुपाये,
                     फिर रही ये राज रे।
जिन्दगी का गीत गालो,
                     हाथ में ले साज रे।।
'ललित'
चौपयी छंद
बच्चों के लिए एक रचना
शेरों का जंगल में राज
जंगल में मंगल है आज।
बंदर जी लाये बारात
बंदरिया से फेरे सात।
आज दोपहर होगा भात
डाँस चलेगा सारी रात।
बंदरिया का लहँगा लाल
सखी सहेली करें धमाल।
बंदर सारे हैं उस्ताद
चम्मच से खा रहे सलाद।
सखियाँ दिखा रही है नाच
बंदर भी भर रहे कुलाँच।
पंडित जी हैं धोती बाज
झूठ बोलते आवे लाज।
हँसकर बोले मंतर चार
दूल्हे को दुल्हन से प्यार।
'ललित'
काव्य सृजन परिवार

प्रकाशन 6 चौपाई रचनाएँ

पिता

तिनका तिनका चुनकर लाया।
प्यारा सा घर एक बनाया।।
अपने तन का खून जलाया।
बच्चों को पर दूध पिलाया।।

दुनिया भर से लड़ता आया।
घर पर दादा बड़ सा छाया।।
दिन रहते कुछ देखे सपने।
साँझ ढले सब बिछड़े अपने।।

जिन पर जीवन व्यर्थ गँवाया।
वे ही कहते आज पराया।।
तात तुम्हारी यही कहानी
अब तो छोड़ो ये नादानी।।

दोहा

भूल नहीं उस तात को,पाला जिसने तोय।
काटेगा तू कल वही,आज रहा जो बोय।।

तुलसी

विष्णु प्रिया तुलसी घर जाके।
प्राण वायु पावन घर वाके।।

तुलसी दर्शन नित उठ करिए।
स्नान ध्यान कर जल फिर धरिए।।

प्रात: तुलसी रस पी ली जै।
बल औ' तेज में वृध्दि की जै।।

तुलसी है अनमोल रसायन।
सेवा से खुश हों नारायन।।

तुलसी सर्व रोग हर लेवे।
तन-मन को पावन कर देवे।।

तुलसी वन रखिए सदा,घर आँगन में बोय।
नित उठ दर्शन जो करे,मोक्ष-मुक्ति फल होय।।

प्रकाशन 4 दोहा रचनाएँ


दोहे

मन ही मन सुमिरन करो,धरो रैन दिन ध्यान।
जाके मन में राम हैं,वाको है कल्यान।

मूरत सीताराम की,मन में लीनि बसाय।
हनुमत नाचें प्रेम से,राम नाम मन लाय।

राम नाम जपते हुए,तन से निकलें प्रान।
यह वर मोहे दीजिये,रघुवर कृपा निधान।

साथी इस संसार में,झूठा है हर एक।
केवल रब है आपना,साथी सब से नेक।

कहे विभीषण राम हैं,श्री भगवत अवतार।
रावण सच माने नहीं,राम उतारें पार।

बाँधी हनुमत पूँछ से,जलती हुयी मशाल।
वानर ने इक मूँज से,लंका दीनी बाल।

काम क्रोध मद लोभ से,बिगडें सारे काज।
धू-धू करके जल रही,निसिचर नगरी आज।

धर्मराज खेलें जुआँ,लगा द्रोपदी दाँव।
वो दरख्त भी चुप रहे,जो देते थे छाँव।

ललित

प्रकाशन 3 भुजंग प्रयाति छंद


भुजंग प्रयाति छंद

बड़ा ढीठ गोपाल  बंसी बजैया,बिना राधिका के न आये कन्हैया।
कहे श्याम राधा दुहाई तुम्हारी,जहाँ राथिका है वहीं है मुरारी।
बड़ी दूर है श्याम तेरा बसेरा,यहीं दूर से मैं जपूँ नाम तेरा।
बुलाले हमें श्याम तेरे ठिकाने,कहीं रूठ जाएं न तेरे दिवाने।
दसों ही दिशा गूँजता नाम मेरा,न कोई किसी धाम है खास डेरा।
पुकारे मुझे जो दिलो जान से है,जपे जो सदा नाम ईमान से है।
उसी का सदा मैं बना हूँ खिवैया,बड़े प्रेम से जो पुकारे कन्हैया।
कभी नाम मेरा जुबाँ से न लेता,निरा मूर्ख है वो डुबा नाव देता।

निराकार ओंकार साकार देवा,चहौं हाथ माथे न बादाम मेवा।
दया कौन चाहे न दातार तेरी,करो आस पूरी जगन्नाथ मेरी।
गले से लगाया सुदामा यहीं था।लिया चावलों के अलावा नहीं था।
मिला जो सुदामा नहीं जान पाया।दुआएं मिली और सम्मान पाया।
वही यार संसार में है निराला।करे दोसतों के घरों में उजाला।
चलेगा न कोई बहाना पुराना,पुकारूँ तुझे तू गले से लगाना।
मिले जो तुम्हारा जरा सा इशारा।जमीं तो जमीं आसमाँ हो हमारा।
करो आप वासा दिलों में कन्हाई।नहीं और कोई सुने है दुहाई।

प्रकाशन 2 हरिगीतिका छंद

हरिगीतिका छंद

ये आज जो आया जमाना,देख प्रभु हैरान है।
पैसा बना ईमान सबका,और पैसा जान है।
हर नर यहाँ भगवान अब तो,मान पैसे को रहा।
जिसके नहीं है पास पैसा,मान वो है खो रहा।

हर आदमी बिकता यहाँ पर,बहुत सस्ते मोल में।
जिसने खरीदा आदमी को,काम हो बस बोल में।
क्यों बेचता ईमान अपना,आदमी हर पल खड़ा।
जब जानता है उस खुदा का,फैसला होगा बड़ा।

माया बड़ी मन मोहनी है,भासती सबको यहाँ।
घर-बार सुंदर चाहता है,आदमी हर-दम जहाँ।
बाकायदा,बेकायदा,वो,कुछ नहीं है जानता।
बस नाम अपना हो बड़ा ये,चाह सच्ची मानता।

बस एक नाता पारखी तो,मान-दौलत से रखे।
निर्धन तथा कमजोर प्राणी,बस अकेला पन चखे।
माँ-बाप अपना आज बेटा,कर रहे नीलाम हैं।
वो आम के तो आम खाएँ,गुठलियों के दाम हैं।

प्रकाशन 1 ताटंक छंद

ताटंक छंद

मेरा तो चितचोर वही है,गोवर्धन गिरधारी जो।
बाँका सा वो मुरली वाला,मटकी फोड़े सारी जो।
आसानी से हाथ न आवे,नटखट नागर कारा है।
राधा जी के पीछे भागे,उन पे वो दिल हारा है।

राम जपे है मुख से लेकिन ,मन में माया  का वासा।
ऐसे जापक का तो अक्सर,उल्टा पड़ता है पासा।
ज्ञानी था वो रावण जिसने,सतत राम को ध्याया था।
बन कर शत्रु राम का जिसने,परम मोक्ष को पाया था।

नन्हे-नन्हे हाथों में वो,लकुटी ले वन जाते हैं।
गैयाँ हैं उनको अति प्यारी,मुरली मधुर बजाते हैं।
गोप-ग्वाल सब मुग्ध हुए हैं,दर्शन निपट निराले हैं।
राधा मोहन की छवि ऐसी,बेसुध सारे ग्वाले हैं।

कितने अरमानों से बेटे,मैंने तुझको पाला था।
जग की सारी खुशियाँ तुझको,देता मैं मतवाला था।
आज उन्हीं खुशियों के बदले,हार गमों के देता तू।
कब जाओगे दुनिया से तुम,पूछ प्यार से लेता तू।

मुक्तक काव्या 30:11:15 से

मुक्तक

30.11.15

1

मुक्तक  16   ..14

बहुत दिया दाता ने हमको,
         हम ही कुछ न समझ पाये।
इतनी महर करी भगवन् ने,
         झोली छोटी पड़ जाये।
फिर भी हम इंसाँ तो हरदम,
          रोना गम का हैं रोते ।
हँसकर जीना सीख लिया तो,
          गम ही गम को खुद खाये।

'ललित'

2

मुक्तक  16   ..14

पुष्प बहुत ऐसे देखे हैं,
          काँटों में जोें पलते हैं।
चुभन सहें कंटक की फिर भी,
          मुस्कानों में ढलते हैं।
सौरभ उनकी चहुँ दिशि फैले,
          काँटे बेबस रह जाते।
कंटक चुभ-चुभ थक जाते हैं,
          दिल ही दिल में जलते हैं।

       💖💖'ललित'💖💖

3

मुक्तक  16   ..14
          
जिनको हमने चुनकर भेजा,
           सत्ता के गलियारों में  ।
देखो वो सुख ढूँढ रहे हैं,
            परदेशी बाजारों में।
नैना सबके तरसें अब तो,
             उनके दर्शन पाने को।
मन की बातें सुन क्या खायें,
             दाल नहीं दीदारों में।
ललित
   
1.12.15

4
कृष्ण दीवाने 12.1.17
मुक्तक  16   ..14

बिन पतवार चले ये नैया,
             कुछ हिचकोले खाती रे।
नज़र न आये माँझी कोई,
             नदिया भी गहराती रे।
मन कहता है मेरा कान्हा,
              तुम वो अंतर्यामी हो।
पार करे जो नैया सबकी,
              बिना अरज बिन पाती रे।
       
          💝💝'ललित'💝💝
5

मुक्तक  16   ..14

फूलों ने हँसना छोड़ा है,
         कलियाँ भी मुरझाई हैं।
माली सींच रहा बगिया पर,
          पानी भी हरजाई है।
कली-कली पर भौंरे डोलें,
           प्रेम नहीं कुछ मन में है।
खिलने से पहले रस चूसा,
           अब केवल तनहाई है।

        ❤❤ललित❤❤

2.12.15.

6

मुक्तक 

28 मात्रा भार में
14  ..14 की यति पर
1222,  1222,  1222,  1222

नहीं है जेब में पैसा,
           न ही मुँह में निवाला है।
हमारी वो सदा देतीं,
           पड़ोसन का हवाला हैं।
नया टीवी,नई मिक्सी,
           नई इक कार भी ले ली।
निकम्मे लोन वालों ने,
            हमारा दम निकाला है।

ललित
7
मुक्तक 

28 मात्रा भार में
14  ..14 की यति पर
बहर  1222,  1222,  1222,  1222

जन्म दिन शुभकामना

सदा महको ,सदा चहको,
        सदा सबको हँसाओ तुम।
सुहाने प्यार के नगमे,
        हमेशा गुन गुनाओ तुम।
मनाएं आज हम सारे,
        तुम्हारा जन्म दिन प्यारा।
खुशी की धूप जीवन में,
         सदा यूँ ही खिलाओ तुम।
'
ललित'

8

मुक्तक। 14    14

सभी के मुक्तकों ने ये,
           हरी क्यारी सजा दी है।
जिसे देखो लिखे मुक्तक,
           यहाँ दस्तक बजा दी है।
बडा दिलश नजारा है,
           बहारों का इशारा है।
नया इक चाँद लायेंगें,
            नजारों ने रजा दी है।

ललित

3-12-15

9

मुक्तक  28 मात्रा भार
            यति।    16    12

इक पल दो पल,आज और कल,
                 समय फिसलता जाये।
लाख जतन कर अरब खर्च कर,
                  कोई रोक न पाये।
धर्म-कर्म मय जीवन जी लो,
                  समय न वापस आता।
वृद्धावस्था दस्तक दे पर,
                  मानव मन भरमाये।

ललित

10

मुक्तक 

28 मात्रा भार में
14  ..14 की यति पर
       
चलो इक बार फिर से हम,
           नयी दुनिया बसाते हैं।
नयी सुर-ताल सरगम पर,
           नया इक गीत गाते हैं।
गिले-शिकवे दिलों में जो,
           दिलों में ही दफन कर दें।
चलो पतवार बनकर हम,
            भँवर को भी हराते हैं।

'ललित'

   4.12.15

11

मुक्तक 

26 मात्रा भार में
14  ..12 की यति पर

जीवन कब ये बीत गया,जान न पाया देही।

भीतर से कब रीत गया,भान न पाया ये ही।
अब क्या खाक कमायेगा,साथ चले जो तेरे।
छिनना है सब कुछ तेरा,नयन बंद करते ही।

ललित

12

मुक्तक 

26 मात्रा भार में
14  ..12 की यति पर

चाँदनी ने दाग सारे ,चाँद के हैं धो दिये।
आइना चुप होगया है,आप ही कुछ बोलिये।

चाँदनी का दिल जलाने, आ गये तारे सभी।
चाँद क्यूँ चुप हो गया है ,राज कुछ तो खोलिये।

'ललित'

13

मुक्तक 

26 मात्रा भार में
14  ..12 की यति पर

चाँदनी ने चाँद को कुछ, यूँ इशारा कर दिया।
बादलों ने रोष में आ,चाँद को ओझल किया।
चाँद से नजरें चुरा कर,चाँदनी रुखसत हुयी।
चाँद गुम-सुम सोचता क्यूँ, चाँदनी ने छल किया।

ललित

14

मुक्तक 

26 मात्रा भार में
14  ..12 की यति पर

आसमाँ में चाँद ने जब, यूँ बसेरा कर लिया।
चाँदनी रानी बनी तब,तिमिर को ओझल किया।
चाँदनी का प्यार अपने,चाँद से जो कम हुआ।
दौड़ तम आया वहाँ फिर,चाँद को हर गम दिया।

ललित

15

मुक्तक 

26 मात्रा भार में
14  ..12 की यति पर

आसमाँ में उड़ रहा जो,उड़ कहाँ तक पायगा।
वक्त की इक मार से वो,गिर जमीं पर जायगा।
वक्त तो हरदम किसी का, एक सा रहता नहीं ।
वक्त को कमतर गिने जो,मूर्ख ही कहलायगा।

5.12.15

16

मुक्तक 

26 मात्रा भार में
14  ..12 की यति पर

साथ कुछ दिन जो चला था,राह में ही था मिला।
राह अपनी वो गया तो,अब किसी से क्या गिला।
यार जब तूने धरा पर,था कदम पहला रखा।
रो रहा था तू अकेला,दर्द का था सिलसिला।

ललित

17

मुक्तक 

26 मात्रा भार में
14  ..12 की यति पर

कारवाँ जब ये चला था,जोश-मस्ती से भरा।
दीखता हर आदमी था,देश का सेवक खरा।
कारवाँ बढता गया तो,धुंध भी छँटती गयी।
आज नेता दीखता है,स्वाँग करता चरपरा।

'ललित'

18

मुक्तक 

26 मात्रा भार में
14  ..12 की यति पर

ज़िन्दगी से आज हमको,चोट इक प्यारी मिली।
कौन सा मरहम लगाएँ,हर दवा खारी मिली।
ज़ख्म जो दिल में हुआ है,दीखता हरदम नहीं।
घाव पर मरहम लगाती,ख्वाहिशें सारी मिली।

'ललित'

19

मुक्तक 

26 मात्रा भार में
14  ..12 की यति पर

अब चिरागों को उजाले,कैद करने आगये।
घाव दिल को दे गये जो,ज़ख्म भरने आगये।
देह हल्दी घाट की भी,स्याह अब होने लगी।
हुक्मराँ आतंकियों को,माथ धरने आगये।

ललित

20

मुक्तक 

26 मात्रा भार में
14  ..12 की यति पर
2122   2122    2122    ,212

नाज से पाला जिसे था,आज वो बेटी चली।
बागबाँ को छोड़ देखो,जा रही नाजुक कली।
रीत ये कैसी बना दी,दिल पिता का रो रहा।
खून के आँसू रुला कर, जारही है लाडली।

'ललित'

21

एक मुक्तक

28 मात्रा भार
    यति  14   12  
2122  2122  2122 212

कोय गौतम कह रहा है,
और कोई एडमिन।
नाम प्यारा है नवीना,
साथ सबके रातदिन।
काव्य वो सबको सिखाता,
छंद मात्रा भार से।
सीख ले जो चाहता हो,
ठीक से लिखना कठिन।

ललित

22

मुक्तक 

26 मात्रा भार में
14  ..12 की यति पर
2122   2122    2122    ,212

वक्त की बाजीगरी कुछ,यूँ हमें दम दे गयी।
हाथ मलते रह गये हम,हर खुशी गम दे गयी।
जानते थे हम खुशी गम,को छिपाये फिर रही।
थामना चाहा खुशी को,एक मरहम दे गयी।

'ललित'

मुक्तक 

28 मात्रा भार में
14  ..14 की यति पर
बहर  1222,  1222,  1222,  1222

जन्म दिन शुभकामना

सदा महको ,सदा चहको,
        सदा सबको हँसाओ तुम।
सुहाने प्यार के नगमे,
        हमेशा गुन गुनाओ तुम।
कभी गम की घटाओं का,
        न हो आगाज़ भी मन में,
खुशी की धूप जीवन में,
         सदा यूँ ही खिलाओ तुम।
'
ललित'

आज मेरे पुत्र उदित का जन्म दिवस है
आप सब मित्रों का आशीर्वाद मिल जाए तो मोबाइल की यह दुकान चल जाए

मासिक वेब


कुकुभ छंद रचनाएं

1,

कुछ छोटे कंटक होते हैं,
         चुभने में अतिशय मीठे।
कुछ मध्यम कंटक होते जो,
         घाव करें हरदम ढीठे।
और बड़े कंटक जो सीधे,
          दिल के पार उतरते हैं।
नज़र नहीं आते हैं पर वो,
          दिल को रोज कुतरते हैं।

'ललित'

   
2,
            
दिल छोटा औ' पीर बड़ी है,
            नहीं किसी से कह पाऊँ।
दिल में उठती टीस बड़ी है,
             नहीं जिसे मैं सह पाऊँ।
अपनों ने जो घाव दिए वो,
              दिल में गहरे उतरे हैं।
उन घावों से आज हुए इस,
              दिल के कतरे-कतरे हैं।

'ललित'

3,

समय बड़ा नखराला भैया,
          नखरे अनगिन करता है।
भोर रुके नहि साँय रुके औ',
            लम्बे डग ये भरता है।
इसे पकड़ नहि पाये कोई,
             बहुत बड़ा ये छलिया रे।
तोड़े ये अभिमान सभी का,
              करत गेहुँ का दलिया रे।

ललित

4,

जैसा चश्मा नज़रों पर हो,
     दुनिया वैसी दिखती है।
काम-वासना के चश्मे से,
     कामी जैसी दिखती है।
नज़रों में इक प्रभु की छवि हो,
      चश्मा हो भगवद् गीता ।
भगवद् गीता जिसने पढ़ ली,
       समझो उसने जग जीता।

ललित

5,
     
माँ तेरे दामन की खुशबू,
         अब भी घर को महकाये।
स्नेह दिया जो तूने मुझको,
        अब भी मन को चहकाये।
क्या तू मुझको देख रही है,
         नील गगन की खिड़की से।
जीवन मेरा सँवर गया माँ,
           तेरी प्यारी झिड़की से।

'ललित'

6,

सपनों से सुख सपने जैसा,
              हमको जैसे मिलता है।
अपनों से दुख अपना जैसा,
              हमको वैसे मिलता है।
टूट गया इक प्यारा सपना,
             अपना हमसे जब रूठा।
अपना ही वो समझ न पाया,
              सपना अपना कब टूटा।
ललित

7,

नज़रें    1

नज़र बचा कर चोरी करता,
          गोपी का माखन कान्हा।
नजर मिलाकर चोरी करता,
          हर गोपी का मन कान्हा।
कान्हा ऐसी किरपा करदो,
          नज़रों में तुम बस जाओ।
पलक बन्द हों फिर भी कान्हा,
          नज़र सदा बस तुम आओ।

ललित

8

नज़रें   2

कुछ शातिर ऐसे होते हैं,
          मन के भाव न दिखलाएं।
मन में उनके भाव छुपे जो,
           आँखों में न नज़र आयें।
नज़रों से सुर जैसे दिखते,
            अंतर्मन आसुर होता।
ऐसे मानव दानव ही हैं,
            जिनका अंतर्मन सोता।

ललित

9

नज़रें    3

मात पिता की नज़रों से जो,
         स्नेह सुतों को मिलता है।
उसी प्यार से जीवन बनता,
         बच्चों का दिल खिलता है।
मात पिता फिर प्यार ढूँढते,
         उन बच्चों की नज़रों में।
लेकिन प्यार कहाँ मिलता है,
           अंधे,गूंगे,बहरों में।
 
ललित      

 
10 

कौन किसी का सगा जहाँ में,
        सभी पराये मुखड़े हैं।
सबकी अपनी-अपनी दुनिया,
         अपने -अपने दुखड़े हैं।
प्रेम-प्यार का नाम नहीं है,
          मतलब से सब मिलते हैं।
कलियुग में सब फूल-कली भी,
          मतलब से ही खिलते हैं।

ललित

कुकुभ छंद रचनाएँ

कुकुभ छंद
में रचना

समय

समय बड़ा नखराला भैया,
          नखरे अनगिन करता है।
भोर रुके नहि साँय रुके औ',
            लम्बे डग ये भरता है।
इसे पकड़ नहि पाये कोई,
             बहुत बड़ा ये छलिया रे।
तोड़े ये अभिमान सभी का,
              करत गेहुँ का दलिया रे।

ललित

नजरें। कुकुभ छंद


कुकुभ छंद

नज़रें
1
नज़रों से वो करे इशारे,नज़रों पर जो मरता है।
नज़रें उसकी कातिल जैसी,नज़रों से दिल हरता है।
नज़रों का सब खेला यारों,नज़रों में प्रिय बसता है।
प्रिय के दिल में स जाने का,नज़रों से ही रस्ता है।
2
अपनों के प्रति ममता-आदर,नज़रें ही तो दिखलाएं।
नज़रें अपनी कभी न बदलो,गुरुजन ये ही सिखलाएं।
नज़रों से सम्मान सभी का,कर सकते हैं हम भारी।
नज़रों से अपमान किया तो,दिल पर चलती बस आरी।
3
कुछ लोगों की घातक नज़रें,बच्चों को हैं लग जाती।
नज़र उतारे मैया उसकी,नींदों से जग जग जाती।
काला टीका लगा उसे वो,खूब बलैयाँ फिर लेती।
नज़र लगे न लाल को मेरे,लाख दुआएँ फिर देती।
4
मनख-मनख की नज़रों में भी,फर्क बड़ा ही दिखता है।
नज़र आसमाँ में रख कोई,पैर ज़मीं पर रखता है।
नज़र रखे धरती पर कोई,करनी ऊँची करता है।
पर उपकार करे वह जग में,झोली सबकी भरता है।
5
काम कभी ऐसा मत करना,नज़र झुकानी पड़ जाए।
एक बार नज़रों से गिरकर,कभी नहीं फिर उठ पाए।
नज़र रखो अपनी करनी पर,करनी ऐसी कर जाओ।
याद करे दुनिया वर्षों तक,नज़र मोड़ जब मर जाओ।

'ललित'                                 क्रमश:

नज़रें(कुकुभ छंद) भाग -2
1
जैसा चश्मा नज़रों पर हो,दुनिया वैसी दिखती है।
काम-वासना के चश्मे से,कामी जैसी दिखती है।
नज़रों में इक प्रभु की छवि हो,चश्मा हो भगवद् गीता ।
भगवद् गीता जिसने पढ़ ली,समझो उसने जग जीता।
2
नज़र बचा कर चोरी करता,गोपी का माखन कान्हा।
नजर मिलाकर चोरी करता,हर गोपी का मन कान्हा।
कान्हा ऐसी किरपा करदो,नज़रों में तुम बस जाओ।
पलक बन्द हों फिर भी कान्हा,नज़र सदा बस तुम आओ।
3
कुछ शातिर ऐसे होते हैं,मन के भाव न दिखलाएं।
मन में उनके भाव छुपे जो,आँखों में न नज़र आयें।
नज़रों से सुर जैसे दिखते,अंतर्मन आसुर होता।
ऐसे मानव दानव ही हैं,जिनका अंतर्मन सोता।
4
मात पिता की नज़रों से जो,स्नेह सुतों को मिलता है।
उसी प्यार से जीवन बनता,बच्चों का दिल खिलता है।
मात पिता फिर प्यार ढूँढते,उन बच्चों की नज़रों में।
लेकिन प्यार कहाँ मिलता हैअंधे,गूंगे,बहरों में।
5     
शैल,समन्दर,वन उपवन सब,धरती,अम्बर अरु तारे।
सूरज,चँदा,धूप,चाँदनी,अगन,वायु, सरवर सारे।
नज़र किये हैं नारायण ने,साधन ये जीवन दाता।
कितना समझाया है इसको,पर मानव न समझ पाता।

'ललित'
       

काम कभी ऐसा मत करना,नज़र झुकानी पड़ जाए।
एक बार नज़रों से गिरकर,कभी नहीं फिर उठ पाए।
नज़र रखो अपनी करनी पर,करनी ऐसी कर जाओ।
याद करे दुनिया वर्षों तक,नज़र मोड़ जब मर जाओ।

जैसा चश्मा नज़रों पर हो,दुनिया वैसी दिखती है।
काम-वासना के चश्मे से,कामी जैसी दिखती है।
नज़रों में इक प्रभु की छवि हो,चश्मा हो भगवद् गीता ।
भगवद् गीता जिसने पढ़ ली,समझो उसने जग जीता।

मात पिता की नज़रों से जो,स्नेह सुतों को मिलता है।
उसी प्यार से जीवन बनता,बच्चों का दिल खिलता है।
मात पिता फिर प्यार ढूँढते,उन बच्चों की नज़रों में।
लेकिन प्यार कहाँ मिलता हैअंधे,गूंगे,बहरों में।