सितम्बर 17


30.9.17

मृदुगति छंद

है तार तार दिल का,कुछ इस कदर टूटा।
लगने लगा हमें तो,सारा जहान झूठा।

कोई दवा मिले जो,हर तार जोड़ पाए।
कोई गरल मिले जो,हर भरम तोड़ जाए।

विश्वास टूटता है,हर आस छूटती है।
बस छटपटाहतों में,निःश्वास छूटती है।

ये बेवफा जमाना,कितना बदल रहा है?
हर रंग ही कलेवर,अपना बदल रहा है।

ललित

मृदुगति छंद

कुछ और क्यों न दिखता,मनमोहना सिवा अब?
क्यूँ गोपियाँ रँगी हैं,उस श्याम रंग में सब।
उद्धव तुम्हें पता क्या,कितनी मधुर बजे है?
निर्जीव बाँसुरी जब,कान्हा अधर सजे है।

दुनिया लगे न प्यारी,माखन हमें न भाता।
मनमोहना पिया ही,हर ओर नजर आता।
उद्धव हमें सुनाओ,उस श्याम की कहानी।
क्या याद रोज आतीं,हम गोपियाँ दिवानी?

ललित

मृदुगति छंद

क्या आज खत्म होगा,लंकेश वो दशानन?
यूँ तार-तार होगा,क्या अब न पाक-दामन?

क्या राम राज्य है ये,रावण विहीन ऐसा?

मृदुगति छंद

लंकेश तू बता दे,बदनाम क्यूँ हुआ है?
मिटता रहा बरस हर,बन पाप का धुँआ है?

लाखों दिलों बसा जो,रावण नहीं मरे क्यों?
कोई न फोड़ पाता,घट पाप के भरे क्यों?

'ललित'
मृदुगति छंद

क्या पा लिया जहाँ में,सोचो जरा कभी तुम?
क्या और है कमाना,सोचो जरा अभी तुम?

पर साथ क्या चलेगा,अंतिम समय तुम्हारे?
ये भी जरा विचारो,क्या तुम यहाँ न हारे?
ललित

मृदुगति छंद

क्या जीत क्या खुशी है,क्या हार क्या ग़मी है?
जो खूब खास अपना,वो कौन आदमी है?
आता समझ न हमको,क्या ज़िन्दगी जुआ है?
या सिर्फ ज़िन्दगी ये,माँ -बाप की दुआ है?

ललित

29.9.17
कुण्डलिनी छंद
आधार कार्ड

भारत का इक नागरिक,पहुँचा यम के द्वार।
पूछ लिया यमदूत ने,लाया क्या आधार?

लाया क्या आधार,बोल दे तेरा नम्बर।
अगर नहीं आधार,नहीं जाएगा अंदर।

'ललित'

28.9.17
मृदुगति छंद
भजन-गीत आगे बढाया

हे मनमोहना....!

वो प्यार का तराना,इक बार गुनगुना दो।
इस बेकरार दिल को,धुन प्यार की सुना दो।

हर-पल गुजर रहा है,बस इंतजार में ही।
ये दिल धड़क रहा है,बस ऐतबार में ही।

तुम ऐतबार को ही,इक बार यूँ भुना दो।
इस बेकरार दिल को,धुन प्यार की सुना दो।

क्या-क्या नहीं किया है,पाने झलक तुम्हारी?
इस ओर पर न उठती,प्यारी पलक तुम्हारी।

दीदार का तुम्हारे,दे मुझ को झुन-झुना दो।
इस बेकरार दिल को,धुन प्यार की सुना दो।

हे! श्याम दिल तुम्हारा,है प्यार का समन्दर।
दो बूँद प्यार की दो,निष्काम प्रीत मंतर।

बस प्यास को मिलन की,कर श्याम दोगुना दो।
इस बेकरार दिल को,धुन प्यार की सुना दो।

ललित

मृदुगति छंद

इक आस के सहारे,दुख-दर्द गम सहे थे।
बेदर्द जिन्दगी के,जुल्मो सितम सहे थे।

बेटा चला गया है,उल्टी किताब पढ़कर।
अब तात रो रहा है,उसके हिसाब पढ़कर।

क्या बात हो गई है,कुछ भी समझ न आए?
वो सुत चला गया क्यों,अब तात गुन न पाए?

ये चाल जिन्दगी की,शतरंज की बिसातें।
अब वृद्ध है अकेला,दिन कट रहे न रातें।

'ललित'

मृदुगति
छोटी रचना बड़ा संदेश

बारात थी रँगीली,औ' था जुलूस न्यारा।
बिंदास नाचने का,अंदाज खूब प्यारा।

औ' ट्यूब लाइटों की,थी रोशनी वहाँ तक।
सिर पर उन्हें लिए थीं,कुछ लड़कियाँ जहाँ तक।

ललित
27.9.17

मृदुगति छंद

संसार कर्म शाला,कर कर्म कुछ निराले।
ये देह धर्म-शाला,तू आत्म ज्ञान पा ले।
रिश्ते न काम आएँ,नाते न साथ जाएँ।
कर मत फिजूल बातें,बातें न साथ जाएँ।

ललित

27.9.17
मृदुगति छंद
विचारणीय

जो आज जा रहा है,अर्थी-सवार होकर।
कल तक अकड़ रहा था, तहसीलदार हो कर।
तहसील औ' जिले सब,छूटे धरे धरा पर।
वो छोड़ जा रहा है,धन-धान्य से भरा घर।

संसार कर्म-शाला,कर कर्म कुछ निराले।
ये देह धर्म-शाला,पी धर्म के पियाले।
रिश्ते न काम आएँ,नाते न साथ जाएँ।
कर मत फिजूल बातें,बातें न साथ जाएँ।

'ललित'

27.9.17
मृदुगति छंद
विचारणीय

जो आज जा रहा है,अर्थी-सवार होकर।
कल तक अकड़ रहा था, तहसीलदार हो कर।
तहसील औ' जिले सब,छूटे धरे धरा पर।
वो छोड़ जा रहा है,धन-धान्य से भरा घर।

'ललित'

26.9.17
मृदुगति छंद

ये पायलें हमारी,हैं बेजुबान तब से।
तूने किया कन्हैया,मथुरा प्रवास जब से।

जाएँ कहाँ कन्हैया,हम गोपियाँ दिवानी?
कर प्रीत पागलों सी,बोझिल हुई जवानी।

तू है बड़ा सयाना,हम जान क्यूँ न पाए?
अब तू चला गया तो,ये जान क्यूँ न जाए?

रो-रो पुकारती हैं,दिन-रात जो वनों में।
क्या खोट थी कन्हैया,राधा व जोगनों में?

'ललित'

मृदुगति
यूँ ही एक विचार

क्यों जिन्दगी गुजारी,ले आस का सहारा?
आशा बनी निराशा,कैसे मिले किनारा?

पतवार ही लगाती,हर नाव को किनारे।
पतवार छोड़ दी क्यों,विश्वास के सहारे?

ललित

24.9.17
मृदुगति
1
है द्वार पर खड़ा इक,अद्भुत स्वरूप जोगी।अर्धोन्मिलित नयन वो ,संसार सेे वियोगी।

वो राख सब वदन पर,आया लपेट मैया।
वो सर्प-नाग तन पर,लाया लपेट मैया।

उलझी हुई जटाएँ,दिखता मशान वासी।
मृग-चर्म का वसन ज्यों,कैलाश का निवासी।

माँगे दरश यशोदा,वो बाल-कृष्ण का माँ।
खुद को कहे पुजारी,गोपाल-कृष्ण का माँ

विकराल रूप वाला,बाबा बड़ा भयंकर।
ऐसा न हो लला पर,कर जाय जादु-मंतर।

दे दान-दक्षिणा कुछ,कर दो विदा उसे तुम।
जो नजर लग गई तो,हो जायगी खुशी गुम।

ललित
क्रमशः
22.9.17
मृदुगति

गम को गले लगाना,अब रास आ गया है।
ये दर्द का फसाना,मन को लुभा गया है।
जो रोज छोड़ भागे,है वो खुशी पराई।
प्रभु राम से निकटता,दुख-दर्द ने कराई।

'ललित'
20.9.17
मृदुगति

क्यों  सौत को कन्हैया,हरदम अधर लगाए?
क्यूँ राधिका दिवानी,तुम को नजर न आए?
कान्हा अधीर कितनी,राधा बिना तुम्हारे?
क्यूँ तुम न जान पाए,राधा किसे पुकारे?

ललित

20.9.17
मृदुगति छंद

ये ध्यान क्या बला है,हम गोपियाँ न जानें?
पूजा विधान क्या है,व्रजवासियाँ न जानें?
उद्धव हमें बताओ,मनमोहना कहाँ है?
वो बाँसुरी बजैया,भव-मोचना कहाँ है?
ललित
क्रमशः

20.9.17
मृदुगति छंद
साँवरा

देखा कहीं किसी ने,क्या साँवरा मुरारी?
वंशी रहे बजाता,जो मोर मुकुट धारी।
हैं कमल-नैन चंचल,सुंदर मुखारविंदा।
उसकी शरारतों से,रहती बहार जिंदा।

खोजे गली-गली में,वो राधिका दिवानी।
पूछे कली-कली से,राधा बता निशानी।
नटखट न गोप कोई,उस श्याम के सरीखा।
पूछा भ्रमर-भ्रमर से,पर साँवरा न दीखा।

ललित

17.9.17
मनोरम
पहचान

आदमी हूँ या कि नम्बर।
सोचता हूँ देख अम्बर।
इक हसीं किरदार हूँ मैं।
नम्बरी आधार हूँ मैं।

देह माटी का खिलौना।
कागजी नम्बर सलोना।
भूल मैं नम्बर गया था।
ट्रेन के अंदर गया था।

खो गई पहचान मेरी।
कागजी वो जान मेरी।
एक टीटी पास आया।
ट्रेन से बाहर भगाया।

'ललित'

17.9.17
मनोरम

फूल जब पूरा खिला वो।
छोड़ माली को चला वो।
भूल बचपन को गया है।
आत्म निर्भर हो गया है।

बीज बोना खाद देना।
प्यार से फिर पाल लेना।
जान उसने भी लिया है।
फर्ज माली ने किया है।

सामने जीवन पड़ा है।
नेह परियों का बड़ा है।
अलविदा कह चल दिया वो।
बागबाँ का था जिया जो।

आज मुड़कर भी न देखे।
क्या यही थे कर्म लेखे?
हो गया माली रुआँसा।
भाग्य में आया न पाँसा।

ललित

16.9.17

मनोरम छंद
व्यथा और प्रार्थना

भाव की गंगा नहीं है।
हाय दिल चंगा नहीं है।
शब्द सब सोये पड़े हैं।
शाम के साये बड़े हैं।

कौन सा अब गीत गाएँ?
सुन जिसे सब गुनगुनाएँ।
कौन से सुर हैं निराले?
जो सभी का प्यार पालें।

दिल नहीं कुछ जान पाता।
शारदे माँ ज्ञान दाता।
आप ही हम को सँभालो।
लेखनी में जान डालो।

ललित
14.9.17
मुक्तक
हिंदी के आँसू

गुड मैनर वाला बच्चा जब,बंदर को मंकी बोले।
पापा मम्मी खुश हों जब वो,तुतला कर डंकी बोले।
हनी मनी बेबी चिंकी सब,नाम रखें हैं बच्चों के।
हिंदी आँसू छलकाती जब,'डैडी' वो चंकी बोले।

'ललित'

13.9.17
मनोरम

दिल किसी गम से न घिरता।
आँख से आँसू न गिरता।
तुम हमें यदि जान पाते।
प्यार को पहचान पाते।

जिंदगी का सार क्या है?
प्यार का उपहार क्या है?
काश ये दिल जान पाता
प्यार गम का दान दाता।

प्यार में भी क्यों छलावा।
नेह है या ये भुलावा।
हँस रहा हम पर जमाना
प्यार की फितरत न जाना।

ललित

मनोरम छंद
कुछ विचार यूँ ही

आँसुओं की मौन भाषा
दूर तक छाई निराशा।
क्या समझ आई किसी को
ढूँढती आँखें उसीको।

आँख सब कुछ बोल देती
राज दिल के खोल देती।
आँख की है कौन सुनता।
मौन नेता और जनता।

सब कहें अपनी कहानी।
रोटियाँ अपनी पकानी।
दर्द दिल में आह भरता
कौन दिल के घाव भरता।

घाव दिल का फूटता है
आँख आँसू टूटता है।
पर जमाना ढोंगियों का
गम न समझे रोगियों का।
ललित

मनोरम

कौन कैसे कब कहाँ ये
छोड़ जाएगा जहाँ ये।
सोचना है बेनतीजा।
हैं दुखी चाचा भतीजा।
ललित

मनोरम छंद
रायन विभीषिका से आहत मन को
शायद शब्द ही नहीं मिल रहे दुख प्रकट करने को......थ

क्या कहीं कुछ टूटता है?
हाथ से कुछ छूटता है?
क्या हवा कुछ है कसैली?
या महज ये है पहेली?

छाँव में भी धूप क्यूँ है?
प्रेम भी विद्रूप क्यूँ है?
रंग हर बेरंग क्यूँ है?
हर खुशी में जंग क्यूँ है?

आँख में आई नमी क्यों?
हर तरफ पसरी गमी क्यों?
शाम सा है क्यूँ सवेरा?
साँप के वश में सपेरा।

आज माता रो रही क्यूँ?
पुत्र-गम में खो रही क्यूँ?
नाग क्यूँ बसते चमन में?
विष भरा क्यूँ नाग फन में?

ललित

12.9.17
मनोरम

बाँसुरी का राग जैसा।
राधिका का नाच वैसा
छम छमा छम छम छमा छम।
दस दिशा गूँजे धमा धम।

है कन्हैया या गवैया।
बाँसुरी का वो बजैया।
कर्ण मधुरस से भरे वो।
स्वर्ग धरती पर धरे वो।
ललित

11.9.17
मनोरम

क्या हुआ जो है उदासी?
बात दुख देती जरा सी।
क्यूँ हृदय है आह भरता?
क्यूँ नयन से नीर झरता?

जब दुखों का दौर आता।
मित्र हर मुख मोड़ जाता।
तब दिलासा कौन देता?
कौन जो हर पीर लेता?

घेर लेती जब निराशा।
राम से ही एक आशा।
आत्म विश्वासी जनों का।
दूर दुख होता मनों का।

ललित

मनोरम
विवाहिता माडर्न

चाल है गजगामिनी सी।
आँख उसकी दामिनी सी।
पायलों को पैर तरसें
हाथ में चूड़ी न दरसें।

माथ पर बिन्दी न दीखे।
शर्म की चिन्दी न दीखे।
देखकर ऐसा नजारा
शर्म भी है बेसहारा।

ललित

11.9.17

मनोरम

ये सजा किस को दिला दी।
साधुओं को क्यों पिला दी?
सींखचों में बन्द क्यों हैं?
साधुओं में द्वंद क्यों है?

जो समाजों को चलाते
ज्ञान का दीपक जलाते।
क्यों वही निष्ठुर हुए हैं?
कुंद ज्यों झींगुर हुए हैं।

आततायी होगए क्यों?
आज साधू खो गए क्यों?
ईश को ढूँढे जमाना।
साधु की फितरत न जाना।

ललित

11.9.17
मनोरम
राशनों में प्यार पाया
प्यार क्या बस खार पाया?
भाषणों से क्या मिला है?
राशनों से घर चला है।

प्यार की मखमल पुरानी
टाट की कीमत न जानी।
प्रीत के ही मीत हैं सब।
रीत के मन मीत हैं कब?

क्यूँ समन्दर खार देता
प्यार किस पर वार देता।
प्यार का प्यासा समन्दर
गम लिए दिखता न अन्दर।

ललित

11.9.17

मनोरम छंद

संत का चोला हमारा
बेवकूफों का सहारा।
मूरखों की कब कमी है
आँख में जिनके नमी है।

प्यार से उसको निचोड़ा
जो गधा दिखता निगोड़ा।
एक दुनिया ही बसा ली
प्यार से पगड़ी कसा ली।

आज वो ही बादशा है
जो दिलों में जा बसा है।
ठीक औ' बेठीक क्या है
कायदे की लीक क्या है?

है जमीं प्यासी यहाँ पर।
और प्यासा है समन्दर।
प्यास जो इनकी बुझाता
वो जहाँ में है पुजाता।

ललित

10.9.17
कोशिशे गजल
2122 2122 2122 212

नहीं

वो गजल कैसे लिखे जो जानता लिखना नहीं।
वो किसी को क्यूँ दिखे जो जानता दिखना नहीं।

खो गया है आज हर इक शख्श अपने आप में।
क्यूँ किसी का दिल रखे जो जानता रखना नहीं।

रात सपनों में समाई दिन गुजारा ख्वाब में।
टूटते ख्वाबों तुम्हें मैं चाहता चखना नहीं।

बात करते ख्वाब की वो तोड़ते जो ख्वाब हैं।
ख्वाब के दुश्मन तुम्हें मैं चाहता सहना नहीं।

क्रमशः

ललित

10.9.17
पीयूष वर्ष

जानकी श्री राम की अनुगामिनी।
कंटकों से कब री वह दामिनी।
जन्म लव-कुश को दिया वनवास में।
राम की यादें रही बस पास में।

'ललित'

9.9.17
पीयूष वर्ष

जिंदगी से क्या मिला है सोचिए?
बंदगी का क्या सिला है सोचिए?
जिंदगी में बंदगी कर लीजिए।
नाव भव से पार यूँ कर लीजिए।

ललित

8.9/17
पीयूष वर्ष
पहला प्रयास
समीक्षाहेतु

आदमी से आदमी की लूट में।
सत्य लिपटा फिर रहा है झूठ में।
औ' रहीमो-राम के ही वेश में।
ठग-लुटेरे हैं बसे इस देश में।

पीयूष वर्ष

प्यार में ही जिंदगी का सार है।
प्रीत से ही जिंदगी रसदार है।
जिंदगी प्यारे रसों की खान है।
आदमी बिन प्रेम के बेजान है।

जान की बाजी लगा दे प्रेम में।
आदमी क्यों कर दगा दे प्रेम में?
प्यार तो बस ईश का उपहार है।
हाय धन बिन प्यार भी दुश्वार है।

ललित

सार छंद

बसे राधिका के नैनों में,कान्हा बनकर कजरा ।
और कभी मन में हर्षाए,बनकर उसका गजरा।
कजरा गजरा पायल वेणी,झुमका और नथनिया।
सब कान्हा के दास बनें जब,राधा बने नचनिया।

ललित

6.9.17
पीयूष वर्ष

फूल करते प्यार का इजहार हैं।
कंटकों के भी दिलों में प्यार है।
प्रीत करना कंटकों का काम है।
फूल तो इजहार का इक नाम है।

ललित

6.9.17
पीयूष वर्ष

नैन कान्हा से जहाँ जिनके मिले।
मिट गए उनके दिलों के सब गिले।
श्याम की मीठी नजर जादू भरी।
राधिका की नींद रातों की हरी।
ललित

जिन्दगी
5.9.17
पीयूष वर्ष

प्यार की दीवानगी भी देख ली।
साधुओं की बानगी भी देखली।
देखना अब और क्या बाकी रहा?
साधुओं की नात में साकी रहा।

ललित
5.9.17
पीयूष वर्ष

क्यूँ नहीं मन ये कभी वश में रहे?
कामिनी के प्यार के गश में रहे।
संत, बाबा और सारे देवता।
अप्सराओं से सदा खाते खता।

5.9.17
पीयूष वर्ष

क्या चमकती बिजलियाँ कुछ दे सकीं?
या खनकती चूड़ियाँ कुछ दे सकीं?
आदमी की ये रही दुश्मन सदा।
कौन बच पाया कहर से याखुदा?

ललित

5.9.17
पीयूष वर्ष छंद
गुरू वन्दन

शिक्षकों से ज्ञान जो हमको मिला।
जिन्दगी है ये उसी का तो सिला।
तार देते हैं गुरू मझधार से।
ताड़ देते हैं बड़े ही प्यार से।

है गुरू औ' शिष्य का रिश्ता सरल।
घुल नहीं सकता कभी इसमें गरल।
हर गुरू को आज मैं करता नमन।
जब गुरू आशीष दें महके चमन।

'ललित'

पीयूष वर्ष

जिन्दगी से जो मिला कुछ कम नहीं।
हाथ खाली ही रहे कुछ गम नहीं।
या खुदा गम बेरहम उतना हुआ।
बागबाँ निश्चल निडर जितना हुआ।

'ललित'

4.9.17
पीयूष वर्ष छंद
2
समीक्षा हेतु

राधिका की प्रीत ऐसी श्याम से।
बावरी सी घूमती है शाम से।
पूछती है श्याम का सबसे पता।
बाग उपवन वृक्ष हो या हो लता।
ललित

4.9.17
पीयूष वर्ष
प्रथम प्रयास
समीक्षा हेतु

राधिका का श्याम सुंदर साँवरा।
भोर में वंशी बजाए बावरा।

गोपियाँ सब छोड़ घर के काम को।
भागती हैं देखने घन श्याम को।
ललित

3.9.17
ताटंक
करुण रस

नाम गुरू का जपते थे जो, ईश गुरू को माने थे। उन शिष्यों ने गुरु के गहरे,राज कहां कब जाने थे।
राज खुले जब दानव जैसे,गुरू के कारनामों के। शिष्यों के सिर झुके हुए थे,गुरू थे दास दामों के।

'ललित'

3.9.17

ताटंक छंद
करुण रस
राजस्थान की सत्य घटना पर आधारित

महिला गर्भवती थी लेटी,शल्य क्रिया करवाने को।
कली कोख में पनप चुकी जो,उसको जग में लाने को।
पेट चीर उसका दो डॉक्टर,आपस में झगड़े ऐसे।
मानवता की लाश वहाँ हो,टेबल पर सोई जैसे।

आधा घंटा बीत गया यूँ,लड़ते-लड़ते दोनों को।
शर्म नहीं आयी उन पापी,कुत्तों बहुत घिनौनों को।
जन्म नहीं ले पाई बेटी,दुनिया देख नहीं पाई।
माता अपनी उस बेटी को,जीवित देख नहीं पाई।
ललित

3.9.17
ताटंक छंद
करुण रस
पिछले दिनों कोटा की एक सत्य घटना पर आधारित एक वृद्ध ने आत्म हत्या की रेल से कटकर
...................
एक वृद्ध बाबा सज्जन था,उम्र पिचासी से ज्यादा।
बेटे और बहू ने डाली,जीवन में इतनी बाधा।

कटा रेल के नीचे जाकर,इक दिन घोर निराशा में।
लोग आत्महत्या कहते हैं,इसे लोक की भाषा में।

आस लिए जिसको पाला वह,बेटा हुआ पराया क्यों?
बेटा जनने को माता ने,नीलकण्ठ को ध्याया क्यों?

सोच-सोच दुख इतना होता,क्यूँ नर पशु बन जाता है।
मात-पिता के जीवन में यह,दारुण दुख क्यूँ आता है।

'ललित'

2.9.17
ताटंक

सत्य यही हमने जाना जब, घूम लिए दुनिया सारी।

धरा नहीं है सुंदर कोई,भारत सी जग में न्यारी।

बीस कोस पर बोली बदले,तीस कोस बदले भाषा।

प्रेम-प्यार से रहते हैं सब, उन्नति की मन में आशा।

ललित

02.09.17
ताटंक छंद
ईद दिवाली होली हो या,विजयादशमी का मेला।
क्रिसमस गुड फ्राईडे हो या,कावड़ियों का  हो रेला।
मिल-जुल हर त्यौहार मना लो,छोड़ कपट-छल की छाया।
धर्म अलग हैं लेकिन सारी,एक ईश की है माया।

'ललित'

01.09.17
ताटंक छंद
2

चाँद चाँदनी इक दूजे से,दूर कहाँ रह पाते हैं?
इक दूजे की साँसों में वो,अमृत बन घुल जाते हैं।
पर दुनिया वालों ने उनका,प्यार कहाँ कब है माना?
कहें चँदनिया को दीवानी,और चाँद को दीवाना।

ललित

01.09.17
ताटंक छंद
(1)
क्यूँ होता है अक्सर ऐसा,माँ छुप-छुप कर रोती है?
बेटा नजरें फेर रहा क्यूँ,सोच दुखी वो होती है।
माँ के अरमानों का सूरज,दिन में क्यूँ ढल जाता है?
एक अँधेरे कोने में फिर,बिस्तर क्यूँ डल जाता है?
(2)
फर्ज पिता का याद रहा पर,फर्ज पुत्र का छोड़ा क्यों?
बेटे को तो गले लगाया,मुख पापा से मोड़ा क्यों?
प्यार दिया पत्नी को पूरा,दिल माता का तोड़ा क्यों?
सोच जरा वो पापा तेरा,सारा जीवन दौड़ा क्यों?
'ललित'