कृष्णा

जिन्दगी है धूप छाँव,
                       तू मेरी परछाई है।
हर घडी हैसाथ तेरा,
                    फिर कहाँ तन्हाई है।

वक्त की गर्दिश में हरदम,
                     साथ तू ही आई है।
देख मेरे गम को हमदम,
                      आँख तेरी भर आई है।

भोर की लाली भी लेती,
                       तुम से ही अरुणाई है।
साथ तेरे हर सुबह,
                       हर शाम इक शहनाई है।

जीवन की इस संध्या में जब,
                       वक्त हुआ हरजाई है।
साथ अपना बना रहे ये,
                        रब से टेर लगाई है।

'ललित'

       

समान/सनाई छंद रचनाएँ

 
समान/सनाई छंद रचनाएँ

5.9.16

समान छंद
प्रथम प्रयास
राकेश जी के सुझाव से परि

श्री राम तुभ्हारे चरणों में,ये शीश झुकाने आया हूँ।
मेरे अपराध क्षमा करना,यह अरज लगाने आया हूँ।
जप तप पूजा मैं क्या जानूँ,मन में सुमिरन कर लेता हूँ।
भवसागर से तरना चाहूँ,तन मन अर्पण कर देता हूँ।

ललित

समान छंद
प्रथम प्रयास
राकेश जी के सुझाव से परि

जीवन में कभी निराशा की,जब छाया इक घिर आती है।
उस जीवन दाता की मुझको,छवि याद बहुत फिर आती है।
मन से फरियाद निकलती है,इस मन को कुछ संबल दे दो।
हर लो मन का संताप प्रभो,खुशियों के पल दो पल दे दो।

ललित

समान छंद
दूसरा प्रयास

चंचल सजनी सुंदर सजना,जब यौवन का सुख लेते हैं।
हर ओर बहारें दिखती हैं,सब सपने भी सुख देते हैं।
हर ओर दिखे है खुशहाली,इक दूजे में खो रहते हैं।
जग की उनको परवाह कहाँ,मदमस्ती में जो रहते हैं?

'ललित'

जीवन में कभी निराशा की, जब छाया इक घिर आती है। 👈🏻 ऐसे करें ललित जी....बहुत सुंदर सृजन...हार्दिक बधाई..👍🏻💐💐💐👍🏻

समान छंद
तीसरा प्रयास

वो अपने भी क्या अपने हैं,जो खुद सपनों में डूबे हैं?
जिनकी आँखो में हरदम ही,बस दिखते निज मंसूबे हैं।
दिखता हर रिश्ते में लालच,हर दिल में गहरी खाई है।
अपनों से हर आशा छोड़ी,अब खुद ही अलख जगाई है।

'ललित'

समान छंद
गीत का मुखड़ा और एक अंतरा
राकेश जी के सुझाव से परि

क्यूँ छोड़ दिया ब्रज को तूने,क्यूँ राधा रानी बिसरायी?
नटवर नागर तेरी लीला,राधा रानी न समझ पायी।

जब जाना ही था मथुरा तो,फिर ब्रज में धूम मचायी क्यों?
रास रचाकर रातों में यूँ, गोपियाँ तूने नचायी क्यों?
क्यूँ नजर चुरा कर देखा था,जब राधा ने ली अँगड़ायी?
नटवर नागर तेरी लीला,राधा रानी न समझ पायी।

'ललित'

दूसरा अंतरा

तू तीन लोक का स्वामी था,गोकुल की धरती भायी क्यों?
मुख में ब्रम्हाण्ड समाया था,फिर माटी तूने खायी क्यों?
जब द्वार सुदामा आया तो,क्यों आँखें तेरी भर आयी?
नटवर नागर तेरी लीला,राधा रानी न समझ पायी।

'ललित'

समान छंद

अपनों -सपनों में भेद यहाँ,कब कौन सदा कर सकता है?
अपने तो हरदम साथ रहें,कब कौन जुदा कर सकता है?
इस चंचल दिल की घातों से,अपने दिखते हैं सपनों से।
इस दिल पर एक नशा छाए,अपने मिलते जब अपनों से।

'ललित'

समान छंद

हमने मुट्ठी में पकड़ा जो,वो रेती का ढेला निकला।
समझे थे शीतल धार जिसे,वो शोलों का रेला निकला।
जो फूल बहारें लाता था,वो ही पतझड़ को ले आया।
जो पेड़ हवाएं देता था,वो ही अंधड़ को ले आया।

'ललित'

समान छंद

कैसी लीला है तेरी प्रभु,कैसा ये संसार बसाया ?
नीला अम्बर जब भी रोया,धरती का मन है हर्षाया ।
प्रीत शमा से करे पतंगा,उसमें ही जल जान गँवाए।
और शमा उसका रस पीती,प्रीत कभी भी जान न पाए।

'ललित'

दोहा रचनाएँ(काव्य सृजन)18.01.16 से

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काव्य सृजन
👀👀👀👀👀👀👀👀👀
18.01.16

दोहे

बचपन कहाँ चला गया,पथ में छुड़ाय हाथ।
पता झूठ का था नहीं,बस सच का था साथ।
अब ये ज्ञान हुआ हमें,जीवन फिसला जाय।
माटी की काया यहाँ,माटी में मिल जाय।।

ललित

दोहे

किससे करें शिकायतें,किससे करें गुहार।
कच्चे घट को फोड़ता,खुद ही आज कुम्हार।

मन की बात सुने नहीं,जग के सुनता ढोल।
ऐसे नर की आप ही,नैया जाती डोल।।

ललित

दोहे

मन ही मन में बोलता,रहता जो हरिनाम।
ऐसे जापक का भला,कौन बिगाड़े काम।।

राधे राधे जो रटे,निशि दिन आठों याम।
उसके पीछे चल पड़ें,मुरलीधर घनश्याम।

ललित

दोहे

नाम जपे जा प्रेम से,भृकुटी में धर ध्यान।
तब ही दीनदयाल के,भनक पड़ेगी कान।।

हर घट में है रम रहा, अविनाशी वो राम ।
घट घट में जो पूज लो,जीवन हो निष्काम।।

ललित

भोर भई अब जाग जा, ले कर हरि का नाम।
भूलेगा दिन भर जिसे,करते हजार काम।

😃😃😃😃😃😃

दोहे

शरद

शीत लहर औ' कोहरा,करते दोनों वार।
आजाओ अब साजना,ले बाहों का हार।

शीतल-शीतल भोर है,शीतल मन के छोर।
मन में प्रीत मचा रही,शीतल सा इक शोर।।
'ललित'

दोहे

प्रकृति

शीतल सुरभित चाँदनी,धरती को सहलाय।
ज्यों अधनींदी प्रेयसी,पिय से लिपटी जाय।

बूँद बूँद बरखा गिरे,माटी खुश हो जाय।
सौंधी खुशबू भीगते,मनवा को हर्षाय।।

'ललित'

दोहे

प्रकृति

कारे कारे बादरा,करें गगन में शोर।
हर्षित होकर नाचते,वन उपवन में मोर।

नाच सजन का मोरनी,देखे होय निहाल।
पिया मिलन की कामना,डोरे देती डाल।।

'ललित'

चिड़िया कहती उड़ चलो,दूर गगन की ओर।
बच्चों का दाना चुनो,फिर लौटो घर ओर।

💥💥💥💥💥💥
रवि को दे कर अर्घ्य तुम,कर लो रोज प्रणाम।
बल-बुथि-विद्या-यश मिलें,पूरण हों सब काम।
'ललित'
😀😀😀😀😀😀

आए खाली हाथ थे,जाना खाली हाथ।
फिर धन-दौलत-मान की,क्यों तुम भरते बाथ।।
'ललित'
29.02.16

दोहे

अजन्मी बेटी की व्यथा

मैया तेरी कोख का,मैं इक नन्हा बीज।
बनने दे पौधा मुझे,मत तू मुझ पर खीज।।

बेटा-बेटी हैं सदा,इक डाली के फूल।
बेटी दो कुल तारती,कभी न जाना भूल।।

दुनिया मैं भी देखना,चाहूँ मैया तात।
कैसे होते फूल हैं,कैसे होते पात।।

आँगन पावन हो वहाँ,सुता रखे जहँ पाँव।
सब का मन शीतल करे,ज्यों तुलसी की छाँव।।

'ललित'

दोहे

फेस बुक(मुख पुस्तक)

मुख पुस्तक कैसी बला,कोई समझ न पाय।
इक लाइक की चाह में,हाथ निराशा आय।।

लड़की ने कुछ लिख दिया,लाइक मिलते जायँ।
लायक कुछ लायक लिखें,लाइक एक न पायँ।।

खास दोस्त सब ही कहें,इक दूजे को यार।
नैनों में उनके मगर,नहीं दीखता प्यार।।

हम भी आखिर जुड़ गये,मुख-पुस्तक से खूब।
अब लाइक की चाह में,रोज रहे हैं डूब।।

'ललित'

हाय रे नोट

सब कुछ नश्वर है इस जग में, ज्ञानी जन ये कहते थे।
नोट मगर हैं अमर जहाँ में,सब ये सोचे रहते थे।
नोटों की थी सेज बनाई,नोटों से दीवाली थी।
हाय करें क्या उन नोटों का,जिनसे सेज सजाली थी?

ललित

कुण्डलिया छंद रचना(काव्यसृजन)


    👀👀काव्य सृजन👀👀
        कुण्डलिया छंद

कुण्डलिया

भागे सब चूहे फिरें,जंगल में चहुँ ओर।
बिल्ली पूछे प्यार से,क्यूँ करते हो शोर।

क्यूँ करते हो शोर,कान में पहने झुमके।
क्यूँ भागो चहुँ ओर,लगाते रहते ठुमके।
'ललित' सोचता हाय,यहाँ क्या होगा आगे।
बिल्ली मौसी देख,वहाँ से चूहे भागे।

'ललित'

कुण्डलिया

जंगल में बढने लगी,बेईमानी खोट।
बंदर जी देने चले,बाघराज को वोट।।

बाघराज को वोट,जानवर सारे देंगें।
है मन में विश्वास,पीर सब की हर लेंगें।।
कहे 'ललित'समझाय,वोट का जीतोे दंगल।
राजा हो जब बाघ,तभी महकेगा जंगल।।

'ललित'

कुण्डलिया

काले बादल झूमते,देखे जब चहुँ ओर।
लगे नाचने झूमके, सुंदर प्यारे मोर।
सुंदर प्यारे मोर,खूब फैलाएँ पाखें।
कान्हा जी चितचोर,पंख माथे पर राखें।
'ललित' कहे मदहोश,मोरनी पीछे चाले।
देख मोर का नाच,थमे हैं बादल काले।

'ललित'

कुण्डलिया

शादी तोते की हुई,जब मैना के साथ।
सूट-बूट में सब सजे,निकली जब बारात।।

निकली जब बारात,सभी नाचे इतराए।
बूफे में पकवान,सभी ने जमकर खाए।।
भूले सारे यार,नहीं वरमाला आई।
बिन माला के आज, नहीं हो सकती शादी।।

'ललित'

कुण्डलिया

माला मन में गुँथ रखो,दुख के मोती पोय।
खुद को दुख है भोगना,और न बाँटे कोय।।

और न बाँटे कोय,दुखी कोई नहिं होवे।
ढलता सूरज देख,कभी कोई नहिं रोवे।
कहे 'ललित' समझाय,दुखों की पी लो हाला।
सुख देकर दुख जायँ,दुखों में जपलो माला।।

4.3.16

कुण्डलिया छंद

मित्र

देते हैं सुख आँख को, सुंदर सुंदर चित्र।
जैसी जिनकी भावना,वैसे उनके मित्र।।

वैसे उनके मित्र,कभी जो साथ न छोड़ें।
आए कोई  विघ्न,वहीं सब मिलकर दौड़ें।
कहे 'ललित' समझाय,मित्र ऐसे रख लेते।
हरदम करें सहाय, नहीं दुख हमको देते।

'ललित'

कुण्डलिया छंद

मोर

काले काले पैर से,नाचें सुंदर मोर।
दूर गगन में छा रहे,काले बादल घोर।।

काले बादल घोर,जिया में आग लगाएँ।
नाचें छम छम मोर,मोरनी भी अकुलाएँ।।
'ललित' देख मुस्काय,मोर ऐसे मतवाले।
पंखों पे इतरायं,पैर हों चाहे काले।।

'ललित'

कुण्डलिया छंद

हाडौती राजस्थानी

बेटी जन्म

आजा म्हारी बींदणी,पकड़ हाथ में हाथ।
ई तबला की थाप पै,नाचाँ सारी रात।

नाचाँ सारी रात,बधावा जम के गावाँ।
बेटी जन्मी आज,कस्याँ ई ने बिसरावाँ।
आज 'ललित' रे काज,बणावाँ आपाँ खाजा।
बेटी छै सौगात,ईश की प्यारी आजा।।

'ललित'

कण्डलिनी रचना(काव्य सृजन)


राधागोविन्द17-2-17
कुण्डलिनी
सुन कान्हा की बाँसुरी,हृदय कमल खिल जाय।
हर गोपी को रास में,नटनागर मिल जाय।
नटनागर मिल जाय,सुने वो दिल की बतियाँ।
चले रास अविराम,दिन हों चाहे रतियाँ।
'ललित'

कुण्डलिनी छंद (काव्य सृजन)

झूठी तारीफ

गुब्बारे सा फूलता,देखा मानव ढोल।
सुनता जब तारीफ के,झूठे-सच्चे बोल।।

झूठे-सच्चे बोल,कहें जो दुनिया वाले।
लगते हैंं अनमोल,झूठ के वो सब प्याले।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

गंगा

लहर लहर को चूमती,लहर लहर लहराय।
लहर लहर में झूमती,गंगा बहती जाय।
गंगा बहती जाय ,जगत को पावन करती।
खुद मैली हो जाय,पाप सब के है हरत़ी।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

हर सिंगार के पुष्प

हर सिंगार निशा ढले,पुष्प कुंद बरसाय।
केसरिया तन पिस बने,चंदन तिलक सहाय।
चंदन तिलक सहाय,गंध पावन मदमाती।
प्रभु के मन को भाय,राधिका को हर्षाती।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद
चित्र आधारित

काहे पकड़े साँवरे,ये चुनरी का छोर।
हाथ जोड़ विनती करूँ,मत कर जोरा-जोर।।
मत कर जोरा-जोर,सजन अब घर है जाना।
नहिं पहुंची जो भोर,सखी सब देंगीं ताना।।

'ललित'
राधा गोविंद 10.2.17
कुण्डलिनी छंद
कटार ,छुरी

चाक हृदय होता रहा,झेल वार पर वार।
तेज छुरी से भी बुरी,उसकी नैन कटार।
उसकी नैन कटार,बला की है कजरारी।
हौले से बल खाय,चले ज्यूँ दिल पर आरी।

'ललित'
राधा गोविंद 11-2-17
कुण्डलिनी छंद

लट

उलझा सब संसार है,तेरी लट में श्याम।
नाचें सारी गोपियाँ,भूल घरों के काम।।
भूल घरों के काम,लटकती लटें निहारें।
राधा जी हर शाम,संग ब्रजधाम गुजारें।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

लट,जुल्फ

उलझी लट सुलझा रहा,बैठ जुल्फ की छाँव।
उलझ लटों में जब गया,भूल गया निज गाँव।
भूल गया निज गाँव,सखा भाई वो सारे।
मात-पिता-सुत-भ्रात,पत्नी सब ही बिसारे।

'ललित'

3.3.16
कुण्डलिनी छंद

मीठी बोली

कड़वी बोली से जहाँ,शहद नहीं बिक पाय।
मीठी बोली से वहाँ,मिर्ची भी बिक जाय।।

मिर्ची भी बिक जाय,मधुर वाणी जो बोले।
सबका दिल हर्षाय,मीत वो हौले हौले।।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

अँगुली था वो थामता,जब छोटे थे पाँव।
बड़े हुए जब पाँव तो,भूला अपना गाँव।।

भूला अपना गाँव,पिता की जूती पहने।
चला गया जिस ठाँव,अजी उस के क्या कहने।।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

पीजा

पीजा खाकर चल पड़ी,इठलाती इक नार।
होटल वाला टोकता,चल दी पहले कार।

चल दी पहले कार,उड़ाती धूल धमासा।
हँसती दुनिया देख,हुआ ये खूब तमाशा।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

मोबाइल ले हाथ में,चली जा रही मेम।
सड़क पार करते हुए,खेल रही थी गेम।।

खेल रही थी गेम,बला की सुंदर थी वो।
पल में आई वैन,उसी के अंदर थी वो।।

'ललित'
गथा पुराण

पगडंडी पर इक गधा,बोझा ढोता जाय।
मालिक लठ ले हाथ में,रोता रोता जाय।

रोता रोता जाय,प्रेरणा हमको देता।
गधा बड़ा चालाक,दुलत्ती भी दे लेता।

ललित