मन के मीत ताटंक मुक्तक

6-5-17
1
मुक्तक 16:14ताटंक आधारित

परिधान

कैसे कैसे परिधानों में,नारी खुशियाँ है पाती
सोच सोच कर सोचो इसमें,समझ कहाँ से है आती।
क्या ये कहना चाह रही है,कैसी इसकी है भाषा?
तम्बू जैसा पहन लबादा,क्यूँ ये खुद को दर्शाती?

1.5.17
2
ताटंक मुक्तक
सपने

टूटे सपनों की कुछ किरचें,बाकी हैं अब झोली में।
कैसे कैसे रंग दिखे हैं,सपनों की इस होली में।
स्वप्न सुनहरे खो देते हैं,कब क्यूँ अपने रंगों को?
बेरंगा मन बैठा रहता,क्यूँ सपनों की डोली में?
ललित

27.2.17
3
ताटंक छंद मुक्तक
माँ

क्यूँ होता है अक्सर ऐसा,माँ छुप-छुप कर रोती है?
बेटा नजरें फेर रहा क्यूँ,सोच दुखी वो होती है।
माँ के अरमानों का सूरज,दिन में क्यूँ ढल जाता है?
एक अँधेरे कोने में वो,बेबस सी क्यूँ  सोती है?

4
ताटंक मुक्तक

माँ की याद
उलझा आज हुआ है जीवन,जैसे झंझावातों में।
याद मुझे आती है माँ की,ऐसी गमगीं रातों में।
माँ के दामन की खुशबू ही,गम सारे हर लेती थी।
हल कर देती थी मेरी हर,मुश्किल को वो बातों में।

5
ताटंक मुक्तक
अरमान

कितने अरमानों से बेटे,मैंने तुझको पाला था।
जग की सारी खुशियाँ तुझको,देता मैं मतवाला था।
आज उन्हीं खुशियों के बदले,हार गमों के देता तू।
जिन खुशियों की खातिर मैंने,खुद को ही मथ डाला था।

...............................................................
6
ताटंक मुक्तक
रिश्ते (भाग 1)

सड़े-गले रिश्तों की बदबू ,जबरन सहनी है होती।
उन रिश्तों की बोरी सिर पर,काया जबरन है ढोती।
प्यार कभी जिनमें बसता था,वो रिश्ते अब हैं सूने।
पावन मन की सारी खुशबू,उन रिश्तों में है खोती।

7
ताटंक मुक्तक
रिश्ते (भाग 2)

मानव से मानव का रिश्ता,चलता है बस पैसे से।
प्यार भरे दिल में भी रिश्ता,पलता है बस पैसे से।
प्यार और पैसे का रिश्ता,मानव तोड़ कहाँ पाता?
देवालय का घण्ट जहाँ पर,हिलता है बस पैसे से।

8
ताटंक मुक्तक

रिश्ते (भाग 3)

क्यूँ बँधता है रिश्तों में मन,क्यूँ उलझा है रिश्तों में?
प्यार जहाँ मिलता है उसको,छोटी छोटी किश्तों में।
जग से जीत गया जो मानव,रिश्तों से वो है हारा ।
प्यार लुटाने वाला दिल तो,होता खास फरिश्तों में।

9
ताटंक मुक्तक
रिश्ते (भाग 4)

कुछ रिश्ते ऐसे होते जो,मानव छोड़ नहीं पाए।
कुछ रिश्तों का बन्धन भी तो,ये मन तोड़ नहीं पाए।
आस करे रिश्तों से मानव,रिश्ते धोखा दे जाते।
रिश्ते के  टूटे धागे को,गाँठें जोड़ नहीं पाएं।

10
ताटंक मुक्तक
रिश्ते(भाग 5)

जितनी भी सुलझाएँ गाँठें,और उलझती जाती हैं।
गाँठें भी शायद मानव की,चाल समझती जाती हैं।
गाँठ गाँठ में गाँठ लगी हो,तो कैसे सुलझा पाएँ।
थोड़ी ढीली कर दो तो हर,गाँठ सुलझती जाती है।

11
ताटंक मुक्तक
रिश्ते (भाग 6)

मन करता है अब तो मेरा,दूर कहीं उड़ मैं जाऊँ।
रिशतों की दुनिया से अपना,पिण्ड छुड़ा फिर मैं पाऊँ।
जिन रिश्तों में उलझ उलझ कर,आज दुखी मन है होता।
भूल उन्हें अपने जीवन में,सारी खुशियाँ ले आऊँ।

12
ताटंक मुक्तक

रिश्ते (भाग 7)

बड़ी अनोखी माया नगरी,रिश्तों की मैंने पाई।
खास जहाँ रिश्तेदारी थी,पीर वहीं से है आई।
तिल तिल कर जलता है ये मन,इन रिश्तों के शोलों में।
अब तो करले रिश्ते दारी,राम नाम से ही भाई।

13
ताटंक मुक्तक
रिश्ते (भाग 8)

जो कान्हा से रिश्ता जोड़े,संग राधिका नाचेगा।
दुखते रिश्तों की पोथी फिर,उसका मन क्यूँ बाँचेगा।
राधा रूपी रंग रचाया,हो जब अपने हाथों में।
रंग भला पिसते रिश्तों का,हाथों में क्यूँ राचेगा?
ललित
समाप्त
...............................................................

14

ताटंक मुक्तक
लीला

रच डाला संसार सुहाना,रंग भरा प्यारा-प्यारा।
संग राधिका रास रचाता,फिर ब्रज में कान्हा कारा।
ऐसी लीला करी बिरज में,असुर कंस भी था काँपा।
छोड़ दिए सब रास-रसीले,और कंस को जा मारा।

15
ताटंक मुक्तक
कजरा

श्याम तुम्हारे नयनों का ये,कजरा मुझे सताता है।
कान्हा की आँखों में रहता,कहकर ये इतराता है।
आज तुम्हीं सच कहना कान्हा,देखो झूँठ नहीं बोलो।
क्या ये काला काजल तुमको,मुझसे ज्यादा भाता है।

16
ताटंक मुक्तक
पत्थर

पत्थर पत्थर में भी देखो,कितना अन्तर है होता।
इक मूरत बन पूजा जाता,इक नाली में है रोता।
इस किस्मत का खेल निराला,कर्मों का सब है खेला।
धनवानों की नींद उड़ी है,रंक चैन से है सोता।

17
ताटंक मुक्तक
बरसात

सावन की रिमझिम बरसातें,ये झूलों की सौगातें।
और झूलती सखियाँ सारी,करती चुहल भरी बातें।
शीतल बूँदे टप-टप-टप-टप,तन में आग लगाती हैं।
साजन की बाहों में कितनी ,छोटी लगती हैं रातें।

18
ताटंक मुक्तक
शीतलता

पूनम का जो चाँद गगन से,शीतलता बरसाता है।
देख तुम्हारी शीतलता को,मन ही मन शरमाता है।
फूलों का मादक रस पी जो,भँवरा मदमाता घूमे।
देख तुम्हारे मादक नैना,वो भी भरमा जाता है।

19
ताटंक मुक्तक
आहें

देख तुम्हारे कोमल तन को,फूलों की निकलें आहें।
छूकर तुम्हें हवा जो गुजरे,सौरभ से महकें राहें।
वसन भीग कर चिपके तन से,बरखा की मनमानी से।
नख शिख सुंदर रूप तुम्हारा,जिसे निरखना सब चाहें।

.................................................................
20
ताटंक मुक्तक
सुख दुख -1

गम हरदम ही देकर जाते,खुशियों की कुछ सौगातें।
खुशियाँ जाते जाते कहतीं,कानों में गम की बातें।
सुख औ' दुख मिलकर इस जीवन,को रंगीन बनाते हैं।
मत उलझो सुख-दुख में यारों,ये तो हैं आते जाते।

21
ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 2

घर की दीवारों की भाषा,मानव समझ कहाँ पाया?
मौन खड़ी मीनारों से भी,ये मन सुलझ कहाँ पाया?
ताजमहल क्या कभी किसी को,अंदर का सुख दे पाया?
रिश्तों की दुनिया में भी तो,ये मन सहज कहाँ पाया?

22
ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 3

पकड़ नहीं पाता क्यों सुख को,मन ये अपनी मुट्ठी में?
माँ भी नहीं पिला सकती क्यों,सुख बचपन की घुट्टी में?
कितना समझाया इस मन को,मत भागो सुख के पीछे।
लेकिन ये तो दीवाना सा,सुख को खोजे छुट्टी में।

23

ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 4

दुख में कोई हँसता देखा,कोई सुख कम ही आँके।
खुद के सुख को भूला कोई,दूजे के सुख में झाँके।
दूजे का दुख हरकर कोई,अंदर का सुख पाता है।
अंदर का सुख पाकर मानव,इत उत कभी नहीं ताँके।

24

ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 5

सुख दुख के बादल इस नभ में,रह रह कर यूँ छाते हैं।
बिन बरसात किये ही बादल,दूर कहीं उड़ जाते हैं।
पर मानव क्यूँ डर जाता है,देख बादलों को आया।
सूरज पर विश्वास करें तो,घन छाया ले आते हैं।

25

ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 6

रंग चढ़ा सुख दुख के मन को,रब ने खूब निचोड़ा है।
सुख दुख में गोते खाता ये,मानव तभी निगोड़ा है।
मन हरदम उलझा रहता है,सुख दुख की परिभाषा में।
सुख हाथों से निकला जाए,हर सुख लगता थोड़ा है।

26

ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 7

मन्दिर की दीवारों से भी,सुख का संदेशा आये।
मूरत वो ही रूप दिखाये,मन में तू जैसा ध्याये।
मन मंदिर में बस वो मूरत,भीतर सुख उपजाती है।
जीवन सुख से रौशन होवे,दारुण-दुख कम हो जाये।

'ललित'

27
ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 8

पायी थी कुछ खुशियाँ मैंने,जीवन की फुलवारी से।
पर दुख ने भी डेरे डाले,रुक-रुक बारी बारी से।
सुख-दुख के झोंको ने ऐसा,नाच मुझे नचवाया है।
अब तो मन बहला रहता है,सुख-दुख की हर पारी से।
............................................................
28

ताटंक मुक्तक
नादान

पूछ रही हैं आज हवाएं,हम मूरख नादानों से।
कैसे अपनी लाज बचाएं,धरती के हैवानों से।
नदियाँ सूखी,पर्वत रूखे,इनकी कारस्तानी से।
कहलाते जो बाग कभी थे,दिखते आज मसानों से।

29
ताटंक मुक्तक
नेता

खोल रहे हैं सारे नेता,एक दूसरे की पोलें।
लेकिन भारत के विकास के,ताले कौन यहाँ खोलें।
जितने सीधे हैं ये नेता,वोटर उतने ही टेढ़े।
पैसे लेकर नेताओं की,जय जय जय जय जो बोलें।

30
ताटंक मुक्तक
जीवन-नैया

डूबी जीवन नैया उसकी,उथले उथले पानी में।
जीवन भर जो रहा तैरता,यौवन की नादानी में।
जीने की जो कला सीख ले,नदिया के उन धारों से।
क्यों डूबेगी नौका उसकी,किसी नदी अनजानी में?

31
ताटंक मुक्तक
कान्हा

उन सुजान कान्हा को अब मैं,भूल भला सकती कैसे?
जिनकी याद बसी आत्मा में,जीवन प्राणों में ऐसे।
नित्य निरंतर खोया है मन,प्रिय की अनन्य यादों में।
नित्य नवीन भावों की यादें,संचित हैं मन मे
जैसे।

32
ताटंक मुक्तक 16 ..14
पतवार

बिन पतवार चले ये नैया,
कुछ हिचकोले खाती रे।
नज़र न आये माँझी कोई,
नदिया भी गहराती रे।
मन कहता है मेरा कान्हा,
तुम वो अंतर्यामी हो।
पार करे जो नैया सबकी,
बिना अरज बिन पाती रे।

33

ताटंक मुक्तक
पाक

अब तो तेरी बर्बरता ने,सारी सीमायें तोड़ी।
देख जरा अब आईना तू,शर्म जरा करले थोड़ी।
लेंगें हम चुन -चुन कर बदला,तेरी सब करतूतों का।
ओ नापाक पाक अब तेरी,बनने वाली है घोड़ी।

34
ताटंक मुक्तक
बेगाने

अपनों की बस्ती में मैंने,कुछ बेगाने देखे हैं।
बेगानों से प्यार करें जो,वो मस्ताने देखे हैं।
भेद नहीं कर पाता अब मैं,अपनों और परायों में।
पैरों के नीचे दबते कुछ,फूल पुराने देखे हैं।
'ललित'

35
ताटंक मुक्तक
भेद

कुछ तो भेद छिपा है तेरी,प्यार भरी इन बातों में।
कुछ तो भेद छिपा है प्यारी,प्यारी इन सौगातों में।
दिल मेरा कहता है तेरे,दिल में कुछ कुछ होता है।
तभी चली आती है मेरे,सपनों की बारातों में।
ललित

36
ताटंक मुक्तक
साथी

कौन यहाँ अब अपना साथी,सब को मतलब है घेरे।
आग जली थी मतलब से ही,मतलब से ही थे फेरे।
आग भुला दी मण्डप की वो,जिसकी कसमें खाई थी।
जाएगा जब देह छोड़ तू,साथ कौन जाए तेरे?

ललित
37
ताटंक मुक्तक
चाँद

खिला है चाँद भी पूरा चँदनिया गुनगुनाती है।
सितारों के लगे मेले हवा दामन हिलाती है
तुम्हारे नाम की मेहंदी रचाई आज हाथों में।
चले आओ सजन मेरे तुम्हारी याद आती है।
ललित

होली

होली
1

होली को कब किसने जाना,किसने माना होली को।
होली का सब नाम दे रहे,गुपचुप आँख मिचोली को।
प्रेम प्यार से गले मिलें जो,भूल शिकायत शिकवों को।
होली का मतलब वो समझें,समझें दिल की बोली को।

2

दिल की ये बगिया है सूनी,बाहर खूब मची होली।
कुछ पी कर वो झूम रहे हैं,जो हैं गम के हमजोली।
हुडदंगी जो घूम रहे हैं,गलियों और बजारों में।
उनके दिल का दर्द दबाने,ढोल बजाता है ढोली।

3

कुछ तो भेद छुपा है यारों,इन होली के रंगों में।
बेशर्मी से समा गए हैं,जो गोरी के अंगों में।
दूर सदा हम से रहती थी,जो शर्माई गुड़िया सी।
आज हुई खुश हो के शामिल,इन होली के पंगों में।

इश्क का भूत

इश्क बहुत महँगा है हमने,प्यार किया तब ये जाना।
रोज देखना पिक्चर विक्चर,मॉल उन्हें फिर ले जाना।
पिज्जा का भी शौक उन्हें है,होटल पाँच सितारा हो।
घबराकर अब छोड़  दिया है,उनकी गलियों में जाना।

पडोसन से होली

रंग भरी पिचकारी हमसे,हाय पड़ोसन ने छीनी।
रंग हमारा हम पर मारा,पहन रखी साड़ी झीनी।
हमने मग्गा भर पानी का,उनके ऊपर ज्यों डाला।
शर्माकर वो दुबक गई यों,नजरें नीची कर लीनी।

होली या होला

होली है या होला यह तो,हम भी नहीं समझ पाये।
बाजारों का हाल हुआ जो,पत्नी को क्या बतलायें।
नोट भरा थैला ले जाकर,मुट्ठी में हैं कुछ लाते।
अब तो केवल पैठा लाकर,होली घर में मनवायें।

'ललित'

युगों-युगों से राजा-महाराजा 'योगी' संत
आते रहे हैं।
अपनी अपनी ढपली बजा
अपना अपना राग
गाते रहे हैं।
मगर न ये दुनिया बदली
न बदले यहाँ के वाशिंदे।
हाँ बदल रही हैं तारीखें,
दिन-रात-माह और साल
आ-आ कर जाते रहे हैं....

स्वच्छता

स्वच्छता

भूमि निर्मल स्वच्छ हो यह,भावना मन में रखें।
गंद कचरा-पात्र में हो,पात्र आँगन में रखें।।

नागरिक इस देश के यह,बात मन में ठान लें।
हर गली हर गाँव अपना,साफ रखना जान लें।।

स्वच्छता मन में रखें हम,आचरण भी स्वच्छ हो।
स्वस्थ तन हो स्वस्थ मन हो,आवरण भी स्वच्छ हो।।

मन प्रफुल्लित तन प्रफुल्लित,स्वच्छता से भासते।
देश भारत चल पड़ा है,स्वच्छता के रास्तेे।।

'ललित'

होली

होली

कुछ तो भेद छुपा है यारों,इन होली के रंगों में।
बेशर्मो से समा गए हैं,जो गोरी के अंगों में।
दूर सदा हम से रहती थी,जो शर्माई गुड़िया सी।
आज हुई खुश हो के शामिल,इन होली के पंगों में।

इश्क का भूत

इश्क बहुत महँगा है हमने,प्यार किया तब ये जाना।
रोज देखना पिक्चर विक्चर,मॉल उन्हें फिर ले जाना।
पिज्जा का भी शौक उन्हें है,होटल पाँच सितारा हो।
घबराकर अब छोड़  दिया है,उनकी गलियों में जाना।

पडोसन से होली

रंग भरी पिचकारी हमसे,हाय पड़ोसन ने छीनी।
रंग हमारा हम पर मारा,पहन रखी साड़ी झीनी।
हमने मग्गा भर पानी का,उनके ऊपर ज्यों डाला।
शर्माकर वो दुबक गई यों,नजरें नीची कर लीनी।

होली या होला

होली है या होला यह तो,हम भी नहीं समझ पाये।
बाजारों का हाल हुआ जो,पत्नी को क्या बतलायें।
नोट भरा थैला ले जाकर,मुट्ठी में कुछ लाते हैं।
अब तो केवल पैठा लाकर,होली घर में मनवायें।

'ललित'

Posted 2nd August 2015 by ललित किशोर गुप्ता

Labels: कावयांजलि 10.11.15

मन के मीत कुकुभ मुक्तक


मुक्तक (कुकुभ आधारित)
26.2.17
1
काव्य सृजन

माँ शारद की किरपा से ये,मन भावों में बहता है।
छंदो की नक्काशी से कवि,सुंदर कविता कहता है।
गुरू ज्ञान की सरिता से ही,'काव्य सृजन' ये निखरा है।
गुरू बिना तो मानो सब कुछ,बिखरा बिखरा रहता है।

2
माँ

माँ तेरे दामन की खुशबू,मन को शीतल कर जाए।
तेरे ये दो नैना मुझ पर,स्नेह सुधा नित बरसाएँ।
पथ में जो काँटे बिखरे माँ,दूर उन्हें तुम कर देना।
तेरे आँचल की छाया माँ,मन में खुशियाँ भर जाए।

3
भोला बाबा

आज बिरज में कान्हा का इक,बाबा ने दर्शन पाया।
मोहन भी रोना भूला जब,भोला बाबा बन आया।
बाबा भूल गया बाबापन,जब मोहन की छवि देखी।
बाबा अपलक देख रहा था,अलख निरंजन हरि माया।

4
रास

रास रचाए रस बरसाए,रसिक रास की इक छोरी।
गोप गोपियों को नचवाए,बरसाने की इक गोरी।
मुरली से पायल बजवाए,वंशी का वादक न्यारा।
मट मट मट आँखें मटका जो,करता सबका दिल चोरी।

5

झूठी प्रीत
प्रेम जगत के सुंदर सुंदर,ख्वाब हमें क्यूँ दिखलाए?
बरखा-सावन के वो नगमे,क्यूँ हमको थे सिखलाए?
झूँठी प्रीत तुम्हारी निकली,झूँठे निकले सब वादे।
हाय हमें बहलाने को तुम,झूँठे खत क्यूँ लिखलाए?

6
रिश्ते-नाते

प्रेम-प्यार औ' रिश्ते-नातों,से अब मानव घबरावे।
मात-पिता,भाई-भावज की,कोई बात न अब भावे।
टूटे दिल के तार यहाँ पर,कोई जोड़ न अब पाता।
अब तो बीबी-बच्चों में ही,सब संसार नजर आवे।

7
प्राची

प्राची ने ओढ़ी है चुनरी,चमके ज्यों केसर क्यारी।
कलियों ने मुस्कान सजाली,अधरों पर निर्मल प्यारी।
तारों ने अम्बर को छोड़ा,डाल रहा दिनकर डेरा।
हर हर हर हर महादेव का,घोष कर रहे नर नारी।

8
माया

कैसी माया प्रभु ने रच दी,कैसा मन को भरमाया
मानव तन की कीमत प्राणी,जीवन भर न समझ पाया।
पैसा खूब कमाने में ही,बीता यह जीवन सारा।
खाली हाथ एक दिन जाना,कभी न मन को समझाया।

9
ममता

सतरंगी दुनिया के सातों,रंग बड़े सुंदर प्यारे।
ममता रूपी रंग जहाँ हो,फीके रंग वहाँ सारे।
जितना प्यार करे माँ सुत को,उतना रंग निखरता है।
लेकिन सुत तो बूढ़ी माँ का,निश्छल रंग न मन धारे।

10
गम

नारंगी कुछ सतरंगी कुछ,बेरंगी कुछ गम होते।
कड़ुवे कुछ तीखे-खट्टे कुछ,गम मीठे कुछ कम होते।
गम ही तो बहलाते दिल को,खुशियाँ कब खुश रख पातीं।
वो सब का दिल हैं बहलाते,जो सुख-दुख में सम होते।

11
काँटे

काँटों की पहरेदारी में,फूल सुगंधित खिलते हैं।
प्यार करें कंटक फूलों से,रोज गले वो मिलते हैं।
दुश्मन के हाथों में चुभकर,शूल पुष्प को सहलाएं।
वो कंटक बदनाम हुए जो,दिल के टुकड़े सिलते हैं।

12
माँ
इस  सुन्दर मोती को माँ तू ,रो रो कर मत बहने दे।
अपने दिल के अरमानों को,आँख के अंदर रहने दे।
तेरी दुआ से इन नैनों में,खुशी के आँसू भर दूँगा।
तेरी इस पीड़ा को माँ बस,कुछ दिन मुझको सहने दे।
              
13
भोला बाबा

भोला-भाला औघड़ बाबा,करे बड़ा गड़बड़ झाला।
शीश शशि गल नील गरल धरे,औ' नागों की गलमाला।
राख-मसानी अंग-अंग में,सिर धारे पावन गंगा।
भांग धतूरा और हलाहल,खुश हो पीता मतवाला।

'ललित'
15
कुकुभ मुक्तक 16 ..14
पुष्प

पुष्प बहुत ऐसे देखे हैं,
काँटों में जोें पलते हैं।
चुभन सहें कंटक की फिर भी,
मुस्कानों में ढलते हैं।
सौरभ उनकी चहुँ दिशि फैले,
काँटे बेबस रह जाते।
कंटक चुभ-चुभ थक जाते हैं,
दिल ही दिल में जलते हैं।

💖💖"

16
दिल

दिल छोटा औ' पीर बड़ी है,
नहीं किसी से कह पाऊँ।
दिल में उठती टीस बड़ी है,
नहीं जिसे मैं सह पाऊँ।
अपनों ने जो घाव दिए वो,
दिल में गहरे उतरे हैं।
घावों का अपनापन प्यारा,
कैसे उन बिन रह पाऊँ।

17
सपने

सपनों से सुख सपने जैसा,
हमको जैसे मिलता है।
अपनों से दुख अपना जैसा,
हमको वैसे मिलता है।
टूट गया इक सपना प्यारा,
अपना हमसे जब रूठा।
क्या बतलाएं अब वो अपना,
हम से कैसे मिलता है?
"
18

नज़रें

मात पिता की नज़रों से जो,
स्नेह सुतों को मिलता है।
उसी प्यार से जीवन बनता,
बच्चों का दिल खिलता है।
मात पिता फिर प्यार ढूँढते,
उन बच्चों की नज़रों में।
मगर प्यार का फल तो हरदम,
दूर पेड़ पर हिलता है।

ललित

कुकुभ मुक्तक
19
नजर

काम कभी ऐसा मत करना,नज़र झुकानी पड़ जाए।
एक बार नज़रों से गिरकर,कभी नहीं फिर उठ पाए।
नज़र रखो अपनी करनी पर,करनी ऐसी कर जाओ।
नाज करे ये दुनिया तुम पर,याद तुम्हारी जब आए।

ललित
20
हँसना

जब भी खुलकर हँसना चाहा,दिल ने अधरों को रोका।
जब भी हँसकर जीना चाहा,अपनों ने ही
तो टोका।
अब तो हमने सीख लिया है,दिल ही दिल में खुश रहना।
चाही दिल ने खुशियाँ तो फिर,मन्दिर में जाकर ढोका।

'ललित'

6.7.17
मुक्तक कुकुभ
किरपा

इतनी किरपा कर दे कान्हा,गीत मधुर मैं लिख पाऊँ।
छू कर तेरे अधरों को मैं,धुन मुरली की बन जाऊँ।
राधा जी के चरणों को जो,पायल है हर-पल छूती।
बन वो ही पायलिया निश-दिन,छम-छम-छम-छम-छम गाऊँ।

'ललित'
राधे राधे

उल्लाला 2(13.2.17 से)

उल्लाला
**********************************
शादी की वर्षगाँठ की अशेष शुभकामनाएं राकेश जी व भाभीजी को......
**********************************
याद 'राज' वो दिन करो,रौनक थी बारात में।
नयी नवेली जब मिली,दुल्हन थी सौगात में।

गठबंधन जब हो गया,'ललिता' जी के साथ में।
जीवन की खुशियाँ सभी,आ बैठी थी हाथ में।

धीरे धीरे जुड़ गये,'यश'-'माही' परिवार में।
कविताएं बनने लगीं,इस सुंदर संसार में।

काव्यसृजन के मित्र सब,करते हैं ये कामना।
मंगलमय दिन रात हों,न हो गमों से सामना।

ललित

********************************
उल्लाला

छूते हैं आकाश को,हम ऊँची  परवाज से।
लक्ष्य साधना सीखते,नभ में उड़ते बाज से।

दुश्मन करता वार है,दो धारी तलवार से।
दुश्मन को है मारना,हमको इक दिन प्यार से।

ललित

********************************

राधा गोविंद15-2-17
उल्लाला
राधा-राधा

कान्हा तेरे नाम का,जयकारा चहुँ ओर है।
राधा जी के नाम का,मचा बिरज में शोर है।
राधा-राधा बोलते,कान्हा के सब दास हैं।
राधा-राधा जो जपें,मोहन उनके खास हैं।

ललित

********************************

उल्लाला

प्यार भरा दिल तोड़के,हँसते हैं वो प्यार से।
दिल के टुकड़े हो गए,जिनके नैन कटार से।

टूटा दिल का आइना,टूट गया विश्वास है।
टूटे दिल की दोसती,आज गमों से खास है।

ललित

********************************

उल्लाला
राधा गोविन्द 14-2-17
कैसे भूल हमें गया,मथुरा जाकर श्याम तू।
सारे जग में साँवरे,होगा रे बदनाम तू।

तुझ बिन मन को साँवरे,आए कैसे चैन रे?
रो-रो कर हैं थक गए,राधा के दो नैन रे।

झूठी तेरी प्रीत थी,सपनों सा मधुमास था।
पर मन को विश्वास है,सच्चा तेरा रास था।

वन-उपवन औ' वाटिका,लतिकाएं व्रजधाम की।
निश-दिन माला जप रहे,कान्हा तेरे नाम की।

ललित

********************************
उल्लाला

अँखियों से ओझल हुए,स्वप्न सुनहरे आज हैं।
बिन सजना बजते नहीं,कोई भी अब साज हैं।
साँसों की अब दोसती,हुई गमों के साथ है।
राहें धोखा दे गईं,अब केवल फुटपाथ हैं।

ललित

********************************

राधा गोविन्द

ऐसी सरगम छेड़े नटखट,आलौकिक धुन में प्यारी।
झूम उठें सब गोप-गोपियाँ,नाचें सब नर औ' नारी।

कान्हा की वंशी क्या बोले,राधा समझ नहीं पाई?
लेकिन वंशी सुनने को वो,नंगे पाँव चली आई।
मुरली की धुन ऐसी प्यारी,भूल गई दुनिया सारी।
ऐसी सरगम छेड़े नटखट,आलौकिक
धुन में प्यारी।

कान्हा की बाहों में आकर,सिमट गई गोरी-राधा।
अधर अधर से मिलना चाहें,डाल रही मुरली बाधा।
वंशी ने क्या पुण्य किये थे,अधरों पर जो है धारी?
ऐसी सरगम छेड़े नटखट,आलौकिक
धुन में प्यारी।

दुनिया में सबसे सुंदर है,राधा कान्हा की जोड़ी।
जिसने हृदय बसा ली ये छवि,प्रीत वही समझा थोड़ी।
इसीलिए राधा-मोहन की,दीवानी दुनिया सारी।
ऐसी सरगम छेड़े नटखट,आलौकिक
धुन में प्यारी।

राधागोविन्द 21.2.17
माँ

दान  किये जप भी किये,तीरथ किये हजार।
माँ को जो बिसरा दिया,सब कुछ है बेकार।।

माँ के आँचल की जिसे,मिली हुई है छाँव।
हरदम सीधे बैठते,उसके सारे दाँव।।

माँ की याद सुवास सी,मन निर्मल हो जाय।
जैसे तुलसी आँगने,हरि की याद दिलाय।।

हरि का सुमिरन जो करे,माँ चरणों में बैठ।
हरि उसको आशीष दें,माँ के उर में पैठ।।

माँ साँसों में बस रही,माँ धड़कन,माँ प्राण।
माँ से उऋण न हो सके,सुत देकर भी जान।

'ललित'

राधागोविन्द 19.2.17
आइए महारास का आभास
करें
शब्दब्रम्ह की मदद से

कान्हा की वंशी रस घोले
गुन-गुन गुन-गुन गुन-गुन-गुन।
मादक गुंजन करते भौंरे
घुन-घुन घुन-घुन घुन-घुन-घुन।

चाँद चाँदनी चमक रहे हैं
चम-चम चम-चम चम-चम-चम।
राधा जी की पायल बोले
छम-छम छम-छम छम-छम-छम।

झिल-मिल तारे ताल मिलाएं
टिम-टिम टिम-टिम टिम-टिम-टिम।
यमुना जी की लहरें बोलें
कल-कल कल-कल कल-कल-कल।

बाँसुरिया के घुँघरू बजते
खन-खन खन-खन खन-खन-खन।
बादल नभ में गरज रहे हैं
घन-घन घन-घन घन-घन-घन।

सूखे पत्ते छनक रहे हैं
छन-छन छन-छन छन-छन-छन।
गोप गोपियाँ ताली देते
तन-तन तन-तन तन-तन-तन।

©ललित©

केडी आरजी 18.2.17
भुजंग प्रयात
दया

बड़ी ही दया है मुरारी तुम्हारी,
दिया आसरा जिन्दगी ये सँवारी।

करूँ माँग आगे गवारा नहीं है।
दुआ का तुम्हारी पिटारा यहीं है।

मिले जो तुम्हारा जरा सा इशारा।
जमीं तो जमीं आसमाँ हो हमारा।

करो आप वासा दिलों में कन्हाई।
नहीं और कोई सुने है दुहाई।

©'ललित'©

17.2.17
राधा गोविंद
कुकुभ छंद
कान्हा की वंशी की सरगम,कानों में मधुरस घोले।
राधा की पायल की छम-छम,सुन कान्हा का मन डोले।
राधा जी का रूप निहारें,मोहन तिरछी अँखियों से।
राधा जी अन्जानी बनकर,बतियाती हैं सखियों से।
'ललित'

राधा गोविंद 16.2.17
कुकुभ छंद

वो ही तो है जो मेरे इस,दिल को हर पल धड़काता।
वो ही तो है जो मेरे हर ,दुश्मन को है हड़काता।
वो ही मेरी नस नस में यूँ,जीवन बनकर बहता है।
जो कान्हा मेरी साँसों में,प्राण वायु बन रहता है।

'ललित'

राधा गोविंद15-2-17
उल्लाला
राधा-राधा

कान्हा तेरे नाम का,जयकारा चहुँ ओर है।
राधा जी के नाम का,मचा बिरज में शोर है।
राधा-राधा बोलते,कान्हा के सब दास हैं।
राधा-राधा जो जपें,मोहन उनके खास हैं।
ललित

राधा गोविंद 15-2-17
तोटक

जनमा व्रज में जब नंदलला।
सब के दिल में नव प्यार पला।
उस गोप सखा मनमोहन से।
सब प्रेम करें छुटके पन से।

मुखड़े पर है लट यों लटकी।
कलियाँ लतिका पर ज्यों अटकी।
वह चाल चले लहकी लहकी।
यशुदा फिरती चहकी चहकी।

'ललित'

राधा गोविंद 15.2.17
सिंहावलोकन घनाक्षरी

प्रार्थना

थक गये अब नाथ,
नैया खेते मेरे हाथ।
आप ही सँभालो अब,
पतवार नाव की।

पतवार नाव की लो.
थाम करकमलों में।
झलक दिखादो जरा,
दयालु स्वभाव की।

दयालु स्वभाव की वो,
छवि तारणहार की।
दवा आज दे दो प्रभु,
मेरे हर घाव की।

मेरे हर घाव की वो,
दवा श्याम नाम की जो।
लगन लगा दो तव,
चरणों में चाव की।

ललित

ताटंक छंद
राधागोविंद 14.2.17
चितचोर
मेरा तो चितचोर वही है,
             गोवर्धन गिरधारी जो।
बाँका सा वो मुरली वाला,
              मटकी फोड़े सारी जो।
आसानी से हाथ न आवे,
               नटखट नागर कारा है।
राधा जी के पीछे भागे,
               उन पे वो दिल हारा है।

'ललित'

शक्ति छंद14-2-17
मधुर रास
सितारों भरी चाँदनी रात में।
बजी पायलें खूब बरसात में।
गरजते हुए बादलों के तले।
मिले राधिका से कन्हैया गले

बजे बाँसुरी चूड़ियाँ भी बजें।
हँसें गोपियाँ कृष्ण राधा सजें।
कन्हैया सुनाता नये राग वो।
सुनें गोपियाँ तो खुले भाग वो

दसों ही दिशाएं लगी झूमने।
धरा भी गगन को लगी चूमने।
सजे मोगरा वेणियों में जहाँ।
कन्हैया बजाए मुरलिया वहाँ।

बसन्ती हवाएं छुएं गात को।
थिरकने लगीं गोपियाँ रात को।
नथनियाँ हिलें हास के साथ में।
कि झुमके हिलें रास के साथ में।

ललित

उल्लाला 14-2-17
कैसे भूल हमें गया,मथुरा जाकर श्याम तू।
सारे जग में साँवरे,होगा रे बदनाम तू।

तुझ बिन मन को साँवरे,आए कैसे चैन रे?
रो-रो कर हैं थक गए,राधा के दो नैन रे।

झूठी तेरी प्रीत थी,सपनों सा मधुमास था।
पर मन को विश्वास है,सच्चा तेरा रास था।

वन-उपवन औ' वाटिका,लतिकाएं व्रजधाम की।
निश-दिन माला जप रहे,कान्हा तेरे नाम की।

ललित

उल्लाला13-2-17
बरसाने की छोकरी,देती तुझ पर जान है।
सब कुछ है तुझ को पता,क्यूँ बनता अंजान है?

साँझ सवेरे छेड़ता,धुन मुरली से प्रीत की।
लौकिक तो लगती नहीं,लय तेरे संगीत की।

प्रेम तरंगें उठ रहीं,यमुना की रसधार से।
सुरभित शीतल ये हवा,छूती कितने प्यार से।

इतना निष्ठुर क्यूँ भला,मोहन होता आज है।
ज्यादा क्या तुझ से कहूँ,आती मुझको लाज है।

ललित

उल्लाला
13-2-17
छोड़ो भी ये बाँसुरी,राधा बोली श्याम से।
तेरी राह निहारती,बैठी हूँ मैं शाम से।

मुझ को अधरों से लगा,घूँघट के पट खोल दो।
बाहों में भर लो मुझे,कानों में कुछ बोल दो।

ब्रज का कण कण बोलता,अमर हमारी प्रीत है।
यमुना का जल बोलता,जीवन ये संगीत है।

तेरी नीयत में मुझे,लगता है कुछ खोट है।
नाचे गोपी संग तू,वंशी की ले ओट है।

ताटंक12.2.17
नाथ तुम्हारे दर्शन को ये,
             भक्त दूर से आते हैं।
मनोकामना पूरी हो ये,
              तुमसे आस लगाते हैं।
आया मैं भी द्वार तुम्हारे,
               मुझे पिला दो वो हाला।
खो जाऊँ नैनों में तेरे,
               भूल सभी कंठी माला।
'ललित'

राधा गोविंद 12-2-17
विधाता छंद
नया संदेश लेकर फिर,नई इक भोर है आई।
प्रभू का नाम लेकर तुम,करो कुछ प्रार्थना भाई।।
बढे बरकत मिले ताकत,किसी के काम हम आयें।
दुखी जन को हँसाने के,तराने रोज हम गायें।।

'ललित'

राधा गोविंद 11-2-17
जलहरण

नाच रही राधा-रानी
साथ घनश्याम के तो।
सखियाँ भी झूम रही
बाँसुरिया की तान पे।

झूम रही लतिकाएं
पादपो की बाहों में तो।
मोरपंख नाज करे
साँवरिया की शान पे।

चाँद भूला चाँदनी को
रास में यूँ रम गया।
राधिका का रास भारी
चँदनिया के मान पे।

सुरमई उजालों में
रेशम से अंधेरों में।
राधा श्याम नाच रहे
मुरलिया है कान पे।

'ललित'

राधा गोविंद 11-2-17

राधा-राधा नाम का,रसना में रस घोल।
कान्हा जी मिल जायंगें,राधे-राधे बोल।

राधे-राधे हर घड़ी,जिसकी जिव्हा गाय।
उसके पीछे साँवरा,दौड़ा-दौड़ा आय।

राधा जी के नाम में,वृन्दावन दिख जाय।
वृन्दावन में साँवरा,मनमोहन दिख जाय।

राधा गोविंद 11-2-17
कुण्डलिनी छंद

लट

उलझा सब संसार है,तेरी लट में श्याम।
नाचें सारी गोपियाँ,भूल घरों के काम।।
भूल घरों के काम,लटकती लटें निहारें।
राधा जी हर शाम,संग ब्रजधाम गुजारें।

'ललित'

दुर्मिल सवैया
9.2.17

ललना जनमा ब्रज में सुख से,सुर पुष्प सबै बरसाय रहे

दर नंद यशोमति के सबरे,ऋषि गोपिन रूप धराय रहे।

शिव रूप धरे तब साधुन को,शिशु-दर्शन को ललचाय रहे।

डर मातु मनोहर मोहन को,निज आँचल माँहि छुपाय रहे।

'ललित'

मुक्तक
मधुर-मधुर

मधुर-मधुर है मधुर-मधुर तू, मधुर-मधुर तू है कान्हा।
मधुर-मधुर है मुरली तेरी,मधुर-मधुर तेरा गाना।
मधुर-मधुर मुस्काना तेरा,मधुर-मधुर माखन चोरी।
मधुर-मधुर वो मोर-मुकुट है,मधुर-मधुर माटी खाना।
ललित

कैसे करूँ तुम्हारी पूजा,कैसे करूँ तुम्हारा ध्यान।
पूजा की विधियों से कान्हा,मैं तो हूँ बिल्कुल अंजान।
राधा-राधा नाम जपूँगा,कान्हा मैं तो आठों याम।
भव से तर जाते हैं मानव,राधा जी का लेकर नाम।
ललित