हरि गीतिका छंद रचनाएं 26.10.15 और14.12.15से

26.1015

26.10.15

हरिगीतिका छंद
प्रथम प्रयास
राकेश जी के सुझाव से
परिष्कृत

मन में जपो तुम नाम निशिदिन,
                   भक्तवत्सल राम का।
नित ही करो तुम रूप दर्शन,
                    प्रेम से उस श्याम का।
जब तुम जपोगे नाम मुख से,
                     चित्त निर्मल होयगा।
जो भूल हरि को काम चिंतन,
                     सतत करता रोयगा।

ललित

हरिगीतिका छंद
द्वितीय प्रयास
समीक्षा हेतु
स्व परिष्कृत

दर्शन करो नित प्रात उठकर,
                ओम् के निज हाथ में।
गोविन्द,लक्ष्मी,सरसुती का,
                  वास है जहँ साथ में।

कर प्रात वंदन नित्य ही जो,
                       वृध्द की सेवा करे।
विद्या,यशोबल,आयु सबकी,
                       वृध्दि प्रभु देवा करें।

'ललित'

हरिगीतिका छंद
तृतीय प्रयास
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

गोपी गीत
प्रथम भाग

प्यारे तुम्हारे जन्म से ब्रज,
             लोक में महिमा बढ़ी।
वैकुण्ठ से बढ़कर लगे है,
             आज पावन व्रज गढ़ी।
सौन्दर्य औ' माधुर्य देवी,
              श्री महा लक्ष्मी यहाँ।
बसने लगी हैं नित्य अब तो,
               छोड़ वैकुण्ठी वहाँ।

'ललित'
क्रमश:

27.10.15

हरिगीतिका छंद
प्रथम प्रयास
नवीन जी के सुझाव से परिष्कृत

गोपी गीत

हम खोजती हैं कृष्ण तुमको,
                गोपियाँ वन-वन यहाँ।
जिन धर दिये हैं प्राण अपने,
                आपके चरणों वहाँ।
स्वामी हमारे प्राण के तो,
                  आप माधव खास हैं।
कान्हा सदा बिन मोल की हम,
                   आपकी ही दास हैं।

'ललित'

हरिगीतिका छंद
प्रथम प्रयास
नवीन जी के सुझाव से परिष्कृत

गोपी गीत

हम खोजती हैं कृष्ण तुमको,
                 रात-दिन वन-वन यहाँ।
लो धर दिये हैं प्राण हमने,
               है चरण तव रज जहाँ।
तुम हो हमारी प्राण डोरी ,
                  प्राण तुमसे खास हैं।
कान्हा सुनो बिन मोल की हम,
                   बस तुम्हारी दास हैं।

'ललित'

हरिगीतिका छंद
द्वितीय प्रयास
समीक्षा हेतु
स्व परिष्कृत
फे/बुक 20.11.15

नाना विचारों के भँवर में,
             डूबते बिन बात वो।
मुख पर लगाते हैं मुखौटे,
             नित नये दिन रात वो।
जो बात मन में सोचते हैं,
             भाव वो तन में नहीं।
जो भाव मुख पर दीखते हैं,
             सोच वो मन में नहीं।

'ललित'

हरिगीतिका छंद
तृतीय प्रयास
समीक्षा हेतु

बैठा हुआ जिस डाल पर है,
                काट उसको फँस रहा।
पागल हुआ मानव, खुदा भी,
                 देख उसको हँस रहा।

वन-बाग,उपवन,शैल-सरिता,
                  नाश सबका कर रहा।
भगवान ने सौंपा दया कर ,
                  वो खजाना हर रहा।

'ललित'

28.10.15

1
हरिगीतिका छंद
आज का प्रथम प्रयास
समीक्षा हेतु
   काव्यांजलि फेस बुक 24.11.15       
               'जय श्री राम'

संसार की आशा तजो तुम,
                राम रघुवर को भजो।
उद्धार यदि हो चाहते तो,
                आप अन्दर से सजो।
जिस नाम से तुम को पुकारे,
                आज ये संसार है।
वह नाम इस तन को मिला ये,
                 मानने में सार है।
तन के किरायेदार तुम क्यों,
                 प्यार तन से कर रहे।
प्रभु को बना लो यार तुम क्यों,
                 खार मन  में भर रहे।
नर तन विषों की खान है ये,
                 बात मन से मान लो।
प्रभु राम सुख के धाम हैं ये,
                  राज पावन जान लो।

'ललित'

2

हरिगीतिका छंद
आज का द्वितीय प्रयास
सुरेश जी के सुझाव से परिष्कृत
          
श्रृंगार रस में पहली बार लिखने की
तुच्छ कोशिश

गजगामिनी सी चाल तेरी,
             देख अम्बर डोलता।
मधुमालती सी झूमती तू,
             मेघ जब रस घोलता।
मृगनयन तेरे कातिलों से,
              कुछ इशारे कर रहे।
लब काँपते हैं प्रीत-रस के,
              ज्यों घड़े हों झर रहे।
            

ललित

हरिगीतिका छंद
आज का तृतीय प्रयास
समीक्षा हेतु

आज मेरी बेटी रूचि के जन्म दिन
पर विशेष

जन्मदिन है ये रूचि तेरा,
           आज हम खुश हैं यहाँ।
तुझको जहाँ की रौनकें हों,
            रोज ही हासिल वहाँ।
दिन-रात खुशियाँ वास तेरे,
            द्वार पे करती रहें।
गम और दुख की छाँव तेरे,
            द्वार से डरती रहें।

'ललित'

29.10.15

हरिगीतिका छंद
आज का प्रथम प्रयास
नवीन जी के सुझाव से परिष्कृत

भगवान ने भेजी धरा पर,
                 बेटियाँ विश्वास से।
भरती रही माँ-बाप को वो,
                  प्यार के अहसास से।
बेटी सदा वरदान बनकर,
                  जिंदगी रौशन करे।
माँ-बाप कन्या दान दे कर,
                   कोष पुण्यों का भरे।
'ललित'
                  
हरिगीतिका छंद
आज का द्वितीय प्रयास
समीक्षा हेतु
स्व परिष्कृत

कुछ बात शेयर की करें वो,
              और कुछ व्यापार की।
जो दोस्त आये हैं कराने,
                अंत-यात्रा यार की।
सब मीत हैं अपने सुखों के,
                 कौन किसका खास है।
सत्कर्म जीवन में किया जो,
                  एक उसकी आस है।
'ललित'

हरिगीतिका छंद
आज का तृतीय प्रयास
समीक्षा हेतु

देखी हजारों सूरतें जो,
               दीखती ज्यों तितलियाँ
घायल हुए नादाँ कई तों,
                देखकर ये बिजलियाँ।
इन सूरतों की फितरतें भी,
                 जानलेवा कम नहीं,
मारें निशाना ये कहीं औ',
                  तीर लगता है कहीं।
ललित

हरिगीतिका छंद
आज का चतुर्थ प्रयास
समीक्षा हेतु

हम आज हैं कुछ यूँ फँसे इस,
                   शायरी के जाल में।
अब तो मजा आने लगा है,
                    बाल की हर खाल में।
जो बात हम लिखने लगे हैं,
                    बात की ही बात में।
रचना नई बनने लगी वो,
                     छंद की ही जात में।

ललित

30.10.15
                   
   हरिगीतिका छंद
आज का प्रथम प्रयास
समीक्षा हेतु

करवा चौथ स्पेशल

है आज करवा चौथ का व्रत,
                 आप ही तो खास हो।
मैं प्यार करतीे आपसे ही,
                 आज तो विश्वास हो।
व्रत आज ये मैंने रखा जी,
                  आपके हित के लिए।
ला दीजिए उपहार कोई,
                  इस पुजारिन के लिए।
                   
ललित
               
हरिगीतिका छंद
आज का द्वितीय प्रयास
समीक्षा हेतु

माँ चौथ तुमको पूजती मैं,
               आज करके कामना।
रूठे कभी नहि चाँद मेरा,
                 हो न गम से सामना,
सौ साल का सौभाग्य देना,
                 काल को तुम रोकना।
देना न दारुण पीर मुझको,
                  मान मेरा ढोकना।
ललित
                   

हरिगीतिका छंद
आज का तृतीय प्रयास
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

यदि तात शिक्षा दें उन्हें तो,
              मातु श्री कहती वहीं।
डाँटो न लल्ला को हमारे,
              नौकरी मिलनी नहीं।
इस देश के जो हाल हैं वो,
               जानते हैं हम सभी।
विद्यालयों की बाढ़ है जो,
               ज्ञान से सूने अभी।
ललित
               

हरिगीतिका छंद
आज का चतुर्थ प्रयास
समीक्षा हेतु

पूजा करूँगी मैं तुम्हारी,
             मान लो मनुहार तुम,
जो बन पड़े तुम से वही कुछ,
              आज दो उपहार तुम।
लो सूट ये पहनो नया तुम,
               और टाई घाल दो।
सेल्फी खिंचा कर साथ मेरे,
               फेस बुक पर डाल दो।
ललित

 हरिगीतिका छंद
एक और प्रस्तुति
समीक्षा हेतु

साहब बुलाते हैं तुम्हें ये,
               आज संदेशा मिला।
वह भी जरा सकुचा रहा था,
                 साब को है क्या गिला।
बोले मिला कर हाथ साहब,
                  मुस्कुराता मुख बना।
उपहार दीवाली हमें तुम,
                   दाल अरहर भेजना।

ललित

31.10.15

हरिगीतिका छंद
आज का प्रथम प्रयास
नवीन जी के सुझाव से परिष्कृत

पैसा
प्रथम भाग

ये आज जो आया जमाना,
                    देख प्रभु हैरान है।
पैसा बना ईमान सबका,
                    और पैसा जान है।
हर नर यहाँ भगवान अब तो,
                     मान पैसे को रहा।
जिसके नहीं है पास पैसा,
                    मान वो है खो रहा।
'ललित'

हरिगीतिका छंद
आज का द्वितीय प्रयास
समीक्षा हेतु
स्वपरिष्कृत

पैसा
द्वितीय भाग

हर आदमी बिकता यहाँ पर,
                     बहुत सस्ते मोल में।
जिसने खरीदा आदमी को,
                      काम हो बस बोल में।
क्यों बेचता ईमान अपना,
                      आदमी हर पल खड़ा।
जब जानता है उस खुदा का,
                      फैसला होगा बड़ा।

ललित

हरिगीतिका छंद
आज का तृतीय प्रयास
समीक्षा हेतु

पैसा
तृतीय भाग

माया बड़ी मन मोहनी है,
             भासती सबको यहाँ।
घर-बार सुंदर चाहता है,
              आदमी हर-दम जहाँ।
बाकायदा,बेकायदा,वो,
               कुछ नहीं है जानता।
बस नाम अपना हो बड़ा ये,
              चाह सच्ची मानता।

ललित

हरिगीतिका छंद
आज का चतुर्थ प्रयास
समीक्षा हेतु

पैसा
चतुर्थ भाग

बस एक नाता पारखी तो,
                 मान-दौलत से रखे।
निर्धन तथा कमजोर प्राणी,
                 बस अकेला पन चखे।
माँ-बाप अपना आज बेटा,
                 कर रहे नीलाम हैं।
वो आम के तो आम खाएँ,
                 गुठलियों के दाम हैं।
ललित

01.11.15

हरिगीतिका छंद
आज का प्रथम प्रयास
समीक्षा हेतु

नित प्रात जल्दी स्नान करके,
                 सूर्य दर्शन कीजिए।
लोटा भरा जल लाल चंदन,
                   अर्घ्य सादर दीजिए।
जो नित्य करते नमन दिनकर,
                    दें उन्हें यश-लाभ भी।
बल-बुद्धि विकसित होय उनकी,
                   जाय बढ़ती आभ भी।

    ललित

हरिगीतिका छंद
आज का द्वितीय प्रयास
समीक्षा हेतु

लाद्यो न मोबाइल मने भी,
                साँवरा म्हारा धणी।
बाताँ करूँली रोज माँ सूँ,
                मायका में मूँ घणी।
हो फेसबुक वाट्सेप जी में,
                  कैमरो भी हाथ में।
सेल्फी जदै आपाँ बणावाँ,
                   कायदा री साथ में।
ललित
                  
हरिगीतिका छंद
आज का तृतीय प्रयास
नवीन जी के सुझाव से परिष्कृत

वो चाँद जो नभ में दिखा है,
              दाग उसमें खास है।
जो चाँद घूँघट में छिपा वो,
               प्यार है विश्वास है।
क्या दाग क्या बेदाग जग में,
               प्यार ही मशहूर है।
वो चाँदनी उस पर फिदा जिस,
               चाँद में बस नूर है।
ललित

14.12.15

हरिगीतिका छंद
आज का प्रथम प्रयास
समीक्षा हेतु

लेता रहूँ मैं नाम तेरा,रात-दिन प्रतिपल प्रभो।
ऐसा मुझे वरदान दे दो,जाप हो अविरल प्रभो।।
चाहूँ नहीं धन-धान्य वैभव,मान औ' सम्मान मैं।
करता रहूँ हरि-भजन का ही,गान औ' रसपान मैं।

💞💞💞'ललित'💞💞💞

हरिगीतिका छंद
आज का द्वितीय प्रयास
समीक्षा हेतु

बाँके बिहारी श्याम की छवि,माधुरी मनभावनी।
राधा निहारे एकटक वो,साँवरी छवि पावनी।।
गौ-ग्वाल गोपी झूमके सब,तान बंसी की सुनें।
माता यशोदा हुलस सुनती,खास बंसी की धुनें।।

'ललित'

15.12.15

हरिगीतिका छंद
आज का प्रथम  प्रयास
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

प्रकृति और मानव

जिस डाल पर तेरा बसेरा ,अब वही रूखी पड़ी।
कैसा घिनौना खेल तेरा,हा ! जमीं सूखी पड़ी।।
कुछ सोच अब भी बावरे तू,मत करे खिलवाड़ रे।
नुचती रहेगी देह तेरी, बस रहेगा हाड़ रे।।

ललित

हरिगीतिका छंद
आज का द्वितीय  प्रयास
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

आकाश-धरती-वायु-जल औ',अग्नि सारे देवता।
देते मनुज को प्राण सूरज,चाँद तारे देवता।।
वन-बाग-उपवन-घाटियों से,शोभती है ये धरा।
लेकिन दनुज से मानवों को,कोसती है ये धरा।।

'ललित'

16.12.15

हरिगीतिका छंद
आज का प्रथम प्रयास
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

विषय : नारी शोषण

2212 2212 2 , 212 2212

क्या हो रहा अन्याय देखो,जानकी के देश में।
दानव यहाँ पैदा हुए हैं,मानवों के वेश में।।
अब नारियों की लाज कुचली, जा रही पैरों तले।
माँ भारती आँसू बहाती ,काँपती नव कोंपलें।।

ललित

हरिगीतिका छंद
आज का द्वितीय प्रयास

अज्ञान- अशिक्षा

14-14

2212  2212,  2212  2212

जो हाथ नन्हे से बड़े परिवार को हैं पालते।
वो हाथ ही जानें कड़े हालात कैसे सालते।।
क्या ज्ञान क्या अज्ञान है इससे नहीं मतलब उन्हें।
दो जून की रोटी मिले सबसे बड़ी हसरत जिन्हें।।

ललित

17.12.15

हरिगीतिका छंद
आज का प्रथम प्रयास
नवीन जी व राकेश जी के
सुझाव से परिष्कृत

2212 2212 2 ,212 2212

16:12

मासूम बचपन भूख से जो , मर रहा है लिख यहाँ।
कमसिन वदन शैतान से जो,डर रहा है लिख यहाँ।
महँगा हुआ है दाल आटा,खून सस्ता लिख यहाँ।
कानून का है देश में जो,हाल खस्ता लिख यहाँ।

ललित

हरिगीतिका छंद
आज का प्रथम प्रयास
नवीन जी व राकेश जी के
समीक्षा हेतु

2212 2212 2 ,212 2212

16:12

नादान महँगाई
बदनाम महँगाई

कल एक शादी में गया था,झीमने मनुहार से।
आये वहाँ सम्भ्रान्त जन थे,वैभवी श्रृंगार से।
क्या शान औ' शौकत वहाँ थी,और क्या खाना रहा।
नादान महँगाई करे क्या,नोट का दाना रहा।

ललित

18.12.15

हरिगीतिका छंद
आज का प्रथम प्रयास
समीक्षा हेतु

2212 2212 2 ,212 2212

16:12

जब भ्रष्ट को इक भ्रष्ट पकड़े,भ्रष्ट कैसे नष्ट हो।
जब भ्रष्ट सारा राज हो तो,भ्रष्ट से क्यूँ कष्ट हो।
जब भ्रष्ट नौका भ्रष्ट नाविक,भ्रष्ट हर पतवार हो।
तब क्यों भला ईमानदारी,की कहीँ दरकार हो।

'ललित'

19.12.15

हरिगीतिका छंद
आज का प्रथम प्रयास
समीक्षा हेतु
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

2212 2212 2 ,212 2212

16:12

माँ

सौभाग्यशाली जन वही हैं,मात जिनके साथ है।
माँ का दुआओं से भरा शुभ,हाथ जिनके
माथ है।।
कुछ लोग बस माँ की दुआ में,भाग्य अपना देखते।
कुछ और जो माँ की दुआ का,मात्र सपना देखते।।

'ललित'

हरिगीतिका छंद
आज का द्वितीय प्रयास
समीक्षा हेतु

2212 2212 2 ,212 2212

16:12

माँ

टेढा सदा चलता रहा माँ,
                  लाल तेरा बावरा।
तेरी कदर नहि कर सका माँ,
                  बाल तेरा साँवरा।।
संसार सारा छान मारा,
                माँ नहीं तुझ सा कहीं।
तेरे हृदय को समझ पाया,
                पूत माँ मुझ सा नहीं।।

'ललित'

हरिगीतिका छंद
आज का तृतीय प्रयास
समीक्षा हेतु

2212 2212 2 ,212 2212

16:12

माँ

माँ की दुआओं में छुपा है,आसमानों का पता।
औ' आसमानों में छुपा है,चाँद तारों का पता।।
यदि चाँद तारों पर निशाना, साधना तुम चाहते।
माँ की परम सेवा करो यदि,जीतना तुम चाहते।।

ललित
हरिगीतिका छंद
आज का प्रथम प्रयास
समीक्षा हेतु
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

2212 2212 2 ,212 2212

16:12
बाल विवाह

बाली उमर में ब्याह जीवन ,नष्ट मत कर दीजिए।
पढ़-लिख बनूँ मैं आत्म-निर्भर,नेक अवसर दीजिए।
नाजुक कली हूँ बाग की मैं,रौंद यूँ मत डालिये।
सौरभ बनूँ इस बाग की मैं,नेह से यूँ पालिये।।

ललित

कुण्डलिया छंद रचनाएँ

12.10.15
1
कुण्डलिया छंद
गजानन

राजा महा गजानना,आये तेरे द्वार।
हाथ जोड़ विनती करे,कायसृजन परिवार।

काव्यसृजन परिवार,विनायक आस लगाये।
कर दो ये उपकार,कभी भी विघ्न न आये।

'ललित' सहित कविराज, रचें नित रचना ताजा।
प्रथम पूज्य हो आप,गजानना महा राजा।

ललित

2

कुण्डलिया छंद
काया

काया सुंदर देख के,मन में करो विचार।
इस तन के भीतर बसे,लाखों एब विकार।

लाखों एब विकार,करें जो अनगिन घातें।
सुंदरता कीआड़,कई अवगुण छिप जाते।

कहे ललित समझाय,बला की है ये माया।
ऋषि मुनि भूले राह,देख के सुंदर काया।

ललित

3

कुण्डलिया छंद
काल

न्यारी है गति काल की,बिना सवारी देख।
बिना रुके चलता रहे,नहीं छोड़ता रेख।

नहीं छोड़ता रेख,समय ऐसा हरजाई।
जिसे हुआ अभिमान,उसकी लुटिया डुबाई।

कहे ललित अविराम,वक्त की है  बलिहारी।
घाव करे गम्भीर,काल की गति है न्यारी।

'ललित'

4

13.10.15

कुण्डलिया छंद
मैया

मैया तेरे नाम का,जयकारा चहुँ ओर।
तेरे दर सी पावनी,और न कोई ठौर।

और न कोई ठौर,जहाँ हो शांति अपारा।
आया जो भी द्वार,भवानी तूने तारा।

'ललित' लगाये टेर,भँवर में जीवन नैया।
तर जाए कर जाप,नाम का तेरे मैया।

'ललित'

5

13.10.15

कुण्डलिया छंद
माता

माता के दरबार की,बड़ी अनोखी शान।
खाली हाथ न लौटता,कोई भी इन्सान।

कोई भी इन्सान,करे जो दर्शन प्यारा।
पाये वो वरदान,लगाए जो जयकारा।

'ललित' कहे कर जोड़,सुनो माँ भव की त्राता।
हम को भी दो ठौर,अब दरबार में माता।

'ललित'

6

14.10.15
कुण्डलिया छंद
गिरगिट

जितने हैं गिरगिट यहाँ,अरु जितने हैं साँप।
दुर्गा माँ भी देखके,लेती है सब भाँप।

लेती है सब भाँप,गरल मय हवा चली है।
मान बड़ा अभिशाप,कली नाजुक मसली है।

कहे 'ललित' परिणाम,कहर ढायेंगें इतने।
रहें कुआँरे पूत,जनम अब लेंगे जितने।

'ललित'

7
14.10.15

कुण्डलिया छंद

सबसे प्यारा मीत है,भगवन् कृपानिधान।
कभी न करता जो बुरा,करे सदा कल्यान।

करे सदा कल्यान,किसी के हाथ न आता।
जपता जो अविराम,उसी के भाग्य जगाता।

'काव्यांजलि परिवार',कहे वो सबसे न्यारा।
भक्तों का भगवान,मीत है सबसे प्यारा।

'काव्यांजलि परिवार'

8

14.10.15

कुण्डलिया छंद

कच्चे-पक्के यार वो,पथ में छोड़ें साथ।
पत्नी आजीवन चले,दिए हाथ में हाथ।

दिए हाथ में हाथ,कभी भी साथ न छोड़े।
टेढ़ी-मेढ़ी राह,भले कितने हों रोड़े।

'ललित' बताये राज,खाए वो अच्छे धक्के।
रखे सदा जो साथ,यार वो कच्चे-पक्के।

'ललित'

9
15.10.10
कुण्डलिया छंद

सामाजिक विसंगतियाँ

भूखा है दर पर खड़ा,पंडित को दें भोज।
करते ऐसे श्राद्ध हैं,कई लोग हर रोज।

कई लोग हर रोज,पराई पीर न जानें।
घट घट वो ही राम,नहीं क्यों ये भी मानें।

कहे 'ललित'यह देख,पितृ का मुँह भी सूखा।
भक्त राम का एक,खड़ा है दर पर भूखा।

'ललित'

10

15.10.15

कुण्डलिया छंद
सामाजिक विसंगतियाँ

नेता बन जाता यहाँ,शिक्षा मंत्री आज।
अनपढ़ हो कर भी करे,पढ़े लिखों पर राज।

पढ़े लिखों पर राज,चलाये वो इतराये।
लाठी जिसकी भैंस,सदा उसकी कहलाये।

रहा 'ललित' है सोच,न कोई अब तक चेता।
क्यों सब का सिर मौर,यहाँ बन जाता नेता।

'ललित'

11

15.10.15

कुण्डलिया छंद

माया ऐसे बाँधती,सम्मोहन की डोर।
रिश्तों में उलझा रहे,मानव का मन मोर।

मानव का मन मोर,बड़ा कानों का कच्चा।
जीवन बीता जाय,मान नातों को सच्चा।

रहा 'ललित' ये सोच,प्यार जो प्रभु से पाया।
भुला दिया तो रोज,बाँधती ऐसे माया।

ललित

12

16.10.15

कुण्डलिया छंद

देश की वर्तमान स्थिति

माटी मेरे देश की, लुटती देखे लाज।
पापा-बेटे लड़ रहे,बिना बात के आज।

बिना बात के आज,यहाँ आजादी रोई।
भूखे मरते लोग,नहीं सुध लेता कोई।

कहे 'ललित' ये रार,बनी है अब परिपाटी।
हुई शर्म से लाल,मेरे देश की माटी।

'ललित'

13
16.10.15
कुण्डलिया छंद

यारी करते श्वान से,बड़े लोग चहुँ ओर।
उस की नित सेवा करे,होते ही वो भोर।

होते ही वो भोर,श्वान को देते मेवा।
भूले प्रभु का नाम,अरु माँ-बाप की सेवा।

'ललित' करे अफसोस,देख इनकी लाचारी।
गौमाता को छोड़,श्वान से करते यारी।

'ललित'
14
16.10.15

कुण्डलिया छंद

फैला जो तम देश में,सूर न दीखे कोय।
जो सूरज जन ने चुना,ओढ़ चदरिया सोय।

ओढ़ चदरिया सोय,लापता है उजियारा।
जनता रोती आज,कराहे भारत सारा।

'ललित' कहे इक रोज,बहेगा ऐसा रैला।
देगा घुटने टेक,देश में तम जो फैला।

'ललित'

15

16.10.15

कुण्डलिया छंद

आजादी क्या है बला,समझ न पाया कोय।
अधिकारों का नाम ही,आजादी कब होय।

आजादी कब होय,करें जो सब मनमानी।
न हो देश की सोच,करें सब खींचातानी।

'ललित' कहे ए काश,देख के ये बर्बादी।
दे दे कोई ज्ञान,ला है क्या आजादी।

'ललित'

16

17.10.15

कुण्डलिया छंद

रोगी क्या करता भला,डाक्टर को दिखलाय।
डाक्टर खुश हो देखता,जेब गरम हो जाय।
जेब गरम हो जाय,रोग जो सबको घेरे।
नव कोठी बन जाय,दूर हों सभी अंधेरे।

'ललित' सुने मजबूर,एंजियोग्राफी होगी।
एंजोप्लास्टी होय,भला क्या करता रोगी।

'ललित'

17
17.10.15
कुण्डलिया छंद

प्रभु का पत्र
प्रिय मानव के नाम
(प्रथम भाग)

जागे जब तुम नींद से, मैं आया था पास।
बात करोगे प्यार से,मन में थी ये आस।

मन में थी ये आस,मुझे तुम याद करोगे।करके थोड़ा ध्यान,मेरा तुम नाम लोगे।

चुभी 'ललित' ये बात,पी के चाय वो भागे।
होने को तैयार,जब तुम नींद से जागे।

सोचा मैंने तब यही,अभी करोगे बात।
सूट कौन सा पहनना,मन में था उत्पात।

मन में था उत्पात,कलेवा करने लागे।
सारे कागज खोज,बैग में भरके भागे।

रहा 'ललित' मैं सोच,हुआ ये कैसा लोचा।
सबका पालनहार,तुमने क्यों नहीं सोचा।

गाड़ी में थे जब चढ़े,तब भी था मैं साथ।
मुझ से बातें की नहीं,बैठे खाली हाथ।

बैठे खाली हाथ,देखने पेपर लागे।
मोबाइल था साथ,खेल फिर खेलेआगे।

'ललित' मुझे अफ़सोस,बड़े हो तुम्हीं अनाड़ी।
खड़े हुए प्रभु पास,छुका-छुक भागे गाड़ी।

बातें तुमसे खास मैं,कहना चाहूँ आज।
कुछ तो समय निकाल लो,केवल मेरे काज।

केवल मेरे काज,कि मुझसे कुछ बतियालो।
पूरण हों सब काम,हजारों सुख हथियालो।

'ललित' मुझे बिसराय,गुजारे जो दिन-रातें।
जीवन भर पछताय,सुने नहीं मेरी बातें।

खाली जब बैठे रहे,कार्यालय में आज।
मुझ को याद नहीं किया,तुम्हें न आई लाज

तुम्हें न आई लाज,अकेले खाना खाया।
देता है जो अन्न,उसे ही क्यों बिसराया।

'ललित' हुई जब शाम, तुमने टी वी लगाली।
याद न आये राम,घर में बैठ के खाली।

होगा तुमको जागना,सोये मुझको भूल।
देख तुम्हारी हरकतें,चुभते मुझको शूल।

चुभते मुझको शूल,तुम्हें मैं गुनना चाहूँ।
कहना चाहूँ बात,तुम्हारी सुनना चाहूँ।

सुनो 'ललित' यह राज,जानना तुमको होगा।
सबका मालिक एक,जागना तुमको होगा।

करता तुम से प्रेम हूँ,मैं तो अपरम्पार।
इसीलिए मैं चाहता,मिलना बारम्बार।

मिलना बारम्बार,तुम्हें भव पार लगाना।जीवन में जो दोष,चाहता उन्हें भगाना।

'ललित' तुम्हें झकझोर,पाप सारे मैं हरता।
बँधा प्रेम की डोर,प्रेम मैं तुमसे करता।

करता ये ही आस मैं,आओगे इक बार।
खुशियाँ जो मुझसे मिली,मानोगे उपकार।

मानोगे उपकार,हमारा ध्यान करोगे।
दीन दुखी को देख,कभी कुछ दान करोगे

'ललित' हजारों बार,तुम्हारी झोली भरता।
कर लो मुझसे प्यार,आस मैं ये ही करता।

आते हो तुम ढोकने,जब हो कोई काम।
झटपट से कुछ माँग के,दे जाते कुछ दाम।

दे जाते कुछ दाम,न मुझसे नजर मिलाते।
बँटता रहता ध्यान,तुम्हारा आते जाते।

'ललित' करो विश्वास, हमारे शाश्वत नाते।
जपना मेरा नाम, प्रेम से रहना आते।

'ललित'

                  समाप्त

प्रभु का पत्र
प्रिय मानव के नाम
राकेश जी व नवीन जी के सुझावों से परिष्कृत

जागे जब तुम नींद से, मैं आया था पास।
बात करोगे प्यार से,मन में थी ये आस।

मन में थी ये आस,मुझे तुम याद करोगे।करके थोड़ा ध्यान,मेरा तुम नाम लोगे।

चुभी 'ललित' ये बात,पी के चाय वो भागे।
होने को तैयार,जब तुम नींद से जागे

सोचा मैंने तब यही,अभी करोगे बात।
सूट कौन सा पहनना,मन में था उत्पात।

मन में था उत्पात,कलेवा करने लागे।
सारे कागज खोज,बैग में भरके भागे।

रहा 'ललित' मैं सोच,हुआ ये कैसा लोचा।
सबका पालनहार,तुमने क्यों नहीं सोचा।

गाड़ी में थे जब चढ़े,तब भी था मैं साथ।
मुझ से बातें की नहीं,बैठे खाली हाथ।

बैठे खाली हाथ,देखने पेपर लागे।
मोबाइल था साथ,खेल फिर खेलेआगे।

'ललित' मुझे अफ़सोस,बड़े हो तुम्हीं अनाड़ी।
खड़े हुए प्रभु पास,छुका-छुक भागे गाड़ी।

बातें तुमसे खास मैं,कहना चाहूँ आज।
कुछ तो समय निकाल लो,केवल मेरे काज।

केवल मेरे काज,कि मुझसे कुछ बतियालो।
पूरण हों सब काम,हजारों सुख हथियालो।

'ललित' मुझे बिसराय,गुजारे जो दिन-रातें।
जीवन भर पछताय,सुने नहीं मेरी बातें।

खाली जब बैठे रहे,कार्यालय में आज।
मुझ को याद नहीं किया,तुम्हें न आई लाज

तुम्हें न आई लाज,अकेले खाना खाया।
देता है जो अन्न,उसे ही क्यों बिसराया।

'ललित' हुई जब शाम, तुमने टी वी लगाली।
याद न आये राम,घर में बैठ के खाली।

होगा तुमको जागना,सोये मुझको भूल।
देख तुम्हारी हरकतें,चुभते मुझको शूल।

चुभते मुझको शूल,तुम्हें मैं गुनना चाहूँ।
कहना चाहूँ बात,तुम्हारी सुनना चाहूँ।

सुनो 'ललित' यह राज,जानना तुमको होगा।
सबका मालिक एक,जागना तुमको होगा।

करता तुम से प्रेम हूँ,मैं तो अपरम्पार।
इसीलिए मैं चाहता,मिलना बारम्बार।

मिलना बारम्बार,तुम्हें भव पार लगाना।जीवन में जो दोष,चाहता उन्हें भगाना।

'ललित' तुम्हें झकझोर,पाप सारे मैं हरता।
बँधा प्रेम की डोर,प्रेम मैं तुमसे करता।

करता ये ही आस मैं,आओगे इक बार।
खुशियाँ जो मुझसे मिली,मानोगे उपकार।

मानोगे उपकार,हमारा ध्यान करोगे।
दीन दुखी को देख,कभी कुछ दान करोगे

'ललित' हजारों बार,तुम्हारी झोली भरता।
कर लो मुझसे प्यार,आस मैं ये ही करता।

आते हो तुम ढोकने,जब हो कोई काम।
झटपट से कुछ माँग के,दे जाते कुछ दाम।

दे जाते कुछ दाम,न मुझसे नजर मिलाते।
बँटता रहता ध्यान,तुम्हारा आते जाते।

'ललित' करो विश्वास, हमारे शाश्वत नाते।
जपना मेरा नाम, प्रेम से रहना आते।

'ललित'

                  समाप्त