जुलाई 17

ओजुलाई 17

गीतिका छंद
हड्डियों का एक ढाँचा,आज बनकर रह गयी।
जिन्दगी ने यूँ बजाया,साज बनकर रह गयी।
स्वप्न सब आँसू बने अब,आँख से हैं बह रहे।
साथ छोड़ा चाम ने भी,प्रेम-पर्वत ढह रहे।
30

3.7.17
तोटक छंद

जपता रहता हरि नाम सदा।
उसको न कभी दिखती विपदा।
हरिनाम सदा दिल में रखता।
कब दुःख कहाँ उसको दिखता।

ललित

तोटक छंद

लिखदो कुछ तो दिल की अपने।
कब टूट गए कितने सपने।
कब साँस लगी  रुकने थमने?
कब राम लगा मन में जमने?

ललित

तोटक छंद

सुत से अब आस नहीं करना।
अपने हित नोट बचा धरना।
जब रोग निवास करे तन में।
तब डाक्टर वास करे धन में।

'ललित'

तोटक छंद

घन श्याम सुनो मन की बतियाँ।
अब रास बिना कटती रतियाँ।
सब चंचल शोख हँसें सखियाँ।
अरु सूख गई दुखिया अँखियाँ।

ललित

मुक्तक

कैसा दिखता था कान्हा जब,घुटनों-घुटनों  चलता था?
कैसी थी वो मुरली जिसमें,राग अलौकिक
पलता था?
कैसा दिखता था कान्हा जब, मुख पर माखन लिपटा था?
कैसा था वो मोर-पंख जो राधा जी को छलता था?

कैसे थे वो माखन मिश्री,मोर पंख था वो कैसा ?
कैसे नटखट ग्वाल बाल सब,और शंख था वो कैसा ?
एक झलक दिखला दे कान्हा,मात यशोदा थी कैसी?
कितना प्यारा मीत सुदामा,और रंक था वो कैसा?

तोटक छंद

कर जोड़ गुहार हमार यही।
करना प्रभु आप विचार यही।
बरसा अपनी  किरपा बदरी।
भर दो हमरे हिय की गगरी।

नित प्रात विचार करें बस ये।
हरि नाम स्वरूप चखें रस ये।
अरजी इतनी छुटकी सुन लो।
इस सेवक के मन की गुन लो।

'ललित'

6.7.17
मुक्तक कुकुभ
किरपा

इतनी किरपा कर दे कान्हा,गीत मधुर मैं लिख पाऊँ।
छू कर तेरे अधरों को मैं,धुन मुरली की बन जाऊँ।
राधा जी के चरणों को जो,पायल है हर-पल छूती।
बन वो ही पायलिया निश-दिन,छम-छम-छम-छम-छम गाऊँ।

'ललित'
राधे राधे

कैसा दिखता था कान्हा जब,घुटनों-घुटनों  चलता था?
कैसी थी वो मुरली जिसमें,राग अलौकिक
पलता था?
कैसा दिखता था कान्हा जब, मुख पर माखन लिपटा था?
कैसा था वो मोर-पंख जो राधा जी को छलता था?

ललित
7.7.17
तोटक छंद

कब कौन बना मनमीत 
यहाँ?
कब कौन सका गम जीत यहाँ?
मत पीर कभी सबसे कहना।
हर दर्द पड़े खुद ही सहना।

बस आस उसी हरि से करना।
चित और किसी पर क्यों धरना?
हर टेर प्रभो सुनते सबकी।
वरना दुनिया लुटती कबकी।

ललित
9.7.17
मुक्तक कुकुभ

एक झलक दिखला दे कान्हा,बरसाने की छोरी की।
तेरी मुरली की दीवानी,राधा गोरी गोरी की।
बाल सखा सब गोप-गोपियाँ,जो तेरे दीवाने थे।
एक झलक दिखला दे उनकी,लीला माखन चोरी की।
'ललित'

9.7.17
रोला छंद
दर्शन दे दो

प्यासे हैं ये नैन,श्याम दर्शन के तेरे।
पूरी कर दे आस,साँवरे मन की मेरे।

जाप करे निष्काम,कन्हैया वो मन दे दो।
सपनों में ही श्याम,कभी तुम दर्शन दे दो

'ललित'
9.7.17
रोला छंद
सावन

साँवरिया चितचोर,जरा सावन बरसा दो।
नाचे मन का मोर,गीत वो मनहर गा दो।

दादुर करते शोर,मोर भी हैं अकुलाते।
इंद्र देव पर राज,नहीं क्यों श्याम चलाते?

®'ललित'©

10.7.17
गीतिका छंद
श्यामसुंदर साँवरे की,मोहनी छवि पावनी।
हर हृदय को मोह लेती,बाँसुरी मन-भावनी।

लट लटकती नैन मटकें,मोरपंखी ताज वो।
राधिका का प्राण-प्यारा,नंद का युवराज वो।

'ललित'

10.7.17
गीतिका छंद
आम के पौधे लगाए,नीम फिर क्यों कर हुए?
दानवों से भी भयंकर,आज क्यों ये नर हुए?
दिल हुए पाषाण इनके,कारनामे छल भरे।
अन्न दूषित हो गया सब,हैं गरल से फल भरे।

'ललित'

10.7.17
गीतिका छंद

बावरी ऐसी हुई वो,घूमती वन-वन फिरे।
साँवरे की याद में हैं,स्वप्न से तन-मन घिरे।
क्या हवा क्या आग पानी,बाग-उपवन क्या लता?
भूल सब को ही गई वो,रोग क्या है क्या पता?

'ललित'
11.7.17
गीतिका छंद
1
दीपकों की रोशनी से, जगमगाहट हो रही।
दीप के तल में मगर कुछ,सुगबुगाहट हो रही।
तेल औ' बाती वहाँ कुछ,इस तरह से जल रहे।
दीप के तल में गमों के,घुप अँधेरे पल रहे।
2
क्यों न दीपक के तले हम,रोशनी कर पा रहे?
छोड़ कर क्यों देश सारे,नौजवाँ हैं जा रहे?
आज भारत की जमीं क्यों,इस कदर बंजर हुई?
क्यों किसानों की जवानी,मौत का मंजर हुई?
'ललित'

11.7.17
गीतिका छंद

क्या हुआ कैसे हुआ रे,श्याम मथुरा चल दिया?
गोप-गोपी और राधा, से अरे क्यों छल किया?
माधुरी लीला करी क्यों,बाँसुरी की टेर से?
भर गई व्रज की तलैया,आँसुओं के ढेर से।

'ललित'

12.7.17
गीतिका छंद

भाग्य का लेखा मिला कुछ,फागुनी बरसात सा।
पूर्णिमा सा कुछ चमकता,कुछ अमावस-रात सा।
टूटते सपने समेटे,वृद्ध बेबस तात सा।
औ' कभी गजगामिनी के,कसमसाते गात सा।
'ललित'

गीतिका छंद

प्यार की हर इक कसौटी,पर खरी वो बेटियाँ।
तात-माता की दुलारी,हैं परी वो बेटियाँ।
हौसला दामन छुड़ाए,माँ-पिता का जब कभी।
बेटियाँ देती सहारा,हौसला रख कर तभी।

'ललित'
13.7.17
मुक्तक
काजल

तेरे नैनों की कोरों पर,बैठा जो काजल बन कर।
उसने क्या-क्या पुण्य किए थे,सोचा करता हूँ अक्सर?
राधा से भी बढकर कान्हा,कजरे को तूने माना।
भूल गया था राधा को तो,मोहन मथुरा में बसकर।

®'ललित'©

14.7.17
कुण्डलिनी

शोर

बरसाने की छोकरी,व्रज का नंद किशोर।
मिलते हैं चोरी-छिपे,मचा बिरज में शोर।
मचा बिरज में शोर,मिलें वो नंदन वन में।
राधामय है श्याम,श्याम राधा के मन में।

'ललित'

गीतिका छंद

किस कदर ये आज मेरा,तन-वदन मुरझा गया?
जिंदगी भर का सफर क्यों,राह को उलझा गया?
देह को हर पल तपाती,कामनाओं की अगन।
मानवी सद्भावना की,धारणाओं की लगन।
ललित

गीतिका
राधिका बिन श्याम आधा,श्याम के बिन राधिका।
श्याम की पक्की पुजारिन,थी अनोखी साधिका।
श्याम की वंशी बजे ज्यों,गूँजती शहनाइयाँ।
पैर राधा के उठें तो,नाचती पुरवाइयाँ।

ललित

छंद मुक्त

राधे-राधे-राधे-राधे-राधे-राधे बोल।
श्याम के नम्बर पे तेरी तभी लगेगी कॉल।
राधे-राधे-राधे-राधे जप ले सुबहा-शाम।
राधे की किरपा से मन में बस जाएँगें श्याम।

15.7.17
दोहे

कान्हा तेरी प्रीत में,बड़ी अनोखी बात।
जागें राधा-गोपियाँ,सारी सारी रात।

राधा जी को प्यार का,मिला यही उपहार।
राधा-राधा जप रहे,सारे ही नर-नार।

®'ललित'©

कुण्डलिनी
पनघट

पनघट पे रहता खड़ा,साँवरिया चितचोर।
राधा जी को देखके,नाचे मन का मोर।

नाचे मन का मोर,श्याम नैना मटकावे।
मधुर मुरलिया तान,राधिका के मन भावे।

®'ललित'©
गीतिका छंद

देखने को एक नारी,रूप हैं जितने मगर।
माँ,सुता,पत्नी,बहू की,है कठिन उतनी डगर।
भाभियाँ,दोरानियाँ वो,और बनती बाँदियाँ।
पर नहीं उनके कदम को,रोक सकती आँधियाँ।

'ललित'
16.7.17
गीतिका छंद

व्यर्थ है बरखा सुहानी,साथ साजन जब नहीं।
तप रही हर बूँद ही है,शीत सावन अब नहीं।
प्रीत तेरी याद करके,बावरा ये मन हुआ।
आग बरखा भर रही ये,तप्त सारा तन हुआ।

ललित

17.7.17
गीतिका छंद

जिन्दगी में हर किसी को,प्यार मिलता है नहीं।
पीर समझे जो जिया की,यार कब मिलता कहीं?
आसमानों को छुए जो,प्री ऐसी कीजिए।
प्यार के दो पल मिलें तो,जिन्दगी जी लीजिए।

ललित

17.7.17
गीतिका छंद

प्यार की गर्मी पिघलती,आँच कम होती गई।
वक्त के पादान चढ़ते,साँस नम होती गई।
मुष्टिका से रेत जैसे,स्वप्न कण-कण बन झरे।
ख्वाब की किरचें समेटे,आज मन आहें भरे।

'ललित'

गीतिका छंद

कौन सुनता है यहाँ अब,पीर दिल की ध्यान से।
दर्द दिल का कौन नापे,श्वाँस के उन्मान से।
जिन दिलों में है दया वो,धार बैठे मौन हैं।
निर्दयी हर शख्स मरहम ,अब लगाता कौन है।
ललित
गीतिका
खुश भले ही दिख रहा हो,आदमी हर इक यहाँ।
दर्द की खामोश आँधी,उठ रही दिल में वहाँ।
दर्द दिल में ही छिपाये,मुस्कुराते हैं अधर।
प्यार के जज्बात को अब,कौन समझेगा इधर?
'ललित'

18.7.17
उल्लाला

खड़े सुदामा मित्र थे,दर्द लिए हर श्वास में।
पीताम्बरधारी तभी,दौड़े आए पास में।

गले लगाया मित्र को,नैन सजल थे चार वो।
सारी दुनिया भूल के,लिपटे थे दो यार वो।

देख सुदामा की दशा,कान्हा थे बेहाल जी।
आँसू निर्झर बन बहे,गीले चारों गाल जी।

कण्ठ हुए अवरुद्ध थे,अधर रहे थे काँप जी।
जिव्हा को मानो वहाँ,सूँघ गया था साँप जी।
ललित

19.7.17
उल्लाला छंद

मन से तन के तार को,धीरे से लो जौड़ जी।
हरि चरणों में ध्यान को,फिर पाओगे मोड़ जी।

माटी का तन एक दिन,माटी में मिल जाय
है।
तन से सेवा जो करे,वो ही मेवा पाय है।

कुछ खोया कुछ पा लिया,कुछ पाने की
चाह है।
अनगिन सपनों से सजी,जीवन की ये राह है।

सपनों में खोया रहे,जीवन भर इंसान ये।
एक ईश के सत्य से,बना रहे अंजान ये।

नाते रिश्ते दोसती, झूठे सब व्यवहार हैं।
सच्चा हरि का नाम है,सच्चा उसका प्यार है।

नैनों में छवि बस गई,यदि राधा-घनश्याम की।
फिर दुनिया की प्रीत क्या,माला फेरो नाम की।

ललित

उल्लाला छंद
खुद को भूला आदमी,भूल गया हरिनाम है।
खुद को वो ही पा सके,जिसके मन में राम है।

जीवन की हर दौड़ का,अंत सदा विश्राम जी।
अंध-दौड़ से पर कभी,नहीं मिलेंगें राम जी।

थोड़ी-थोड़ी दौड़ हो,थोड़ा पूजा-ध्यान भी।
भगवद्गीता को पढ़ो,सुनो जरा तुम ज्ञान भी।

चिन्ता मन के चैन को,ऐसे बैठे चोर के।
जैसे तारे लुप्त हों,आते ही नित भोर के।

भोर सुहानी यूँ कहे,प्यारे चिंता त्याग दे।
किसी पुराने गीत को,एक नया तू राग दे।

कुछ मानव जलते रहें,चिन्ता की इस आग में।
कुछ चिन्ता को भूलते,बाँसुरिया के राग में।

ललित

20:7:17
मुक्तक 16:12

जो किसान दुनिया भर को था,प्याज रोटियाँ देता।
उसको ही धोखा दे बैठे,व्यापारी औ' नेता।
सरकारी कारिंदों ने भी,ऐसी लूट मचाई।
लिया उसी से प्याज 'आठ' में,'दो' में था जो लेता।

मुक्तक

एक-एक कर टूट गए सब,स्वप्न भोर से ही पहले।
जिनको हम समझे थे नहले,निकले वो सब ही दहले।
एक नाव में बैठे हम थे,इकलौती पतवार लिए।
छेद हुए हैं नैया में अब,गहराई से दिल दहले।

ललित
दोहे

चश्मों के संसार में,ऐनक भी थी एक।
खुद्दारी से थी भरी,खद्दर सा दिल नेक।

ऐनक से चश्मा हुई,गोगल है वो आज।
नहीं उसे कुछ है शरम,अंधों की सरताज।

काली करदे धूप को,नयनों  को दे ढाँक।
दिखती कोई हूर तो,करती ताँका-झाँक।

गोगल पहने हूर भी,इतराती है खूब।
महँगे गोगल काँच में,दुनिया जाती डूब।

ललित

उल्लाला
एकाग्री मन से सदा,ध्याया था श्री राम को।
शबरी माँ प्रेम वो,भाया था श्री राम को।

चखती थी हर बैर वो,फिर देती थी राम को।
मीठे छप्पन-भोग से,लगते थे सुख-धाम को

ललित

मुक्तक लावणी

यूँ ही

कभी कभी ऐसा होता है,कोई भोज नहीं रुचता।
खून चढा लो कितना ही पर,दिल में खून नहीं बचता।
आँखों में भर आएँ आँसू,बाहर नहीं निकल पाएँ।
बीमारी को हरने वाला,चूरण सदा कहाँ पचता?

ललित

उल्लाला छंद

लिखना मैं हूँ चाहता,
कोई मीठी बात रे।
पर ये मनवा बावरा,
करता है कुछ घात रे।

माँ शारद के पास में,
ज्ञान बुद्धि का कोष है।
खुले हाथ से बाँटना,
गर बालक निर्दोष है।

'ललित'
उल्लाला छंद

निराधार आघात से,कहाँ हिले आधार जी।
इक छोटी सी बात से,कब टूटे परिवार जी।

थामी है जब हाथ में,कलम-तीर-तलवार जी।
'काव्यसृजन' कर आपका,पायेंगें हम प्यार जी।
'ललित'

मधुमालती छंद

माँगें क्षमा हम आपसे
संतप्त हैं संताप से।
कर जोड़ कर सब हैं खड़े
गुरु द्वार पर आँखें जड़े।

अब और मत तरसाइए
मीठी नजर बरसाइए।
आजाइए ऋतु सावनी।
माँ शारदा मनभावनी।

'ललित'
मधुमालती छंद
सुदामा

ब्राम्हण सुदामा नाम का।
इक मित्र था घनश्याम का।
जपता रहा निष्काम वो।
उस साँवरे का नाम वो।

वंदन करे अर्चन करे।
वो आँख में आँसू भरे।
गुरु मंत्र का विश्वास से।
वो जप करे इस आस से।

दर्शन मिले इक बार तो।
हो श्याम का दीदार तो।
चंदन तिलक कर माथ में।
थामे लकुटिया हाथ में।

चल ही पड़ा इक बार वो।
ले अक्षतों में प्यार वो।
दरबार से मिलने चला।
जो था गरीबी में पला।

कंटक भरी राहें रही।
दीदार की चाहें रही।
पहुँचा सुदामा द्वारका।
बस लक्ष्य था उद्धार का।

दरबान से बोला यही।
आया सुदामा है वही।
था साथ गुरु कुल में वहाँ।
वो श्याम का प्यारा यहाँ।

मुरलीमनोहर है जहाँ
संदेश दो जाकर वहाँ।
हे नाथ आकर दर्श दो
वो स्नेहमय अब स्पर्श दो।

दरबान ने जाकर कहा
आया सुदामा इक रहा।
जो मित्र बनता आपका।
है तेज मुख पर जाप का।

सुनकर सुदामा नाम वो
कान्हा सदा सुखधाम वो।
हर काम अपना छोड़ कर।
आए चले वो दौड़ कर।

लगकर गले ऐसे मिले।
भूले सुदामा सब गिले।
वो चार आँखें रो पड़ी।
थी वक्त की टूटी लड़ी।

इक मित्र खाली हाथ था।
इक द्वारिका का नाथ था।
दोनों दिलों में प्यार था।
जो तत्त्व का विस्तार था।

आसन सुदामा को दिया।
था कृष्ण मय जिसका जिया।
पग धोय असुवन धार से।
कंटक निकाले प्यार से।

फिर पूछ कान्हा ने लिया।
उपहार क्या भावज दिया?
जो अक्षतों की पोटली।
रख बाजुओं की ओट ली।

छीनी कन्हैया ने वही।
जो भेंट प्यारी सी रही।
जो चावलों में प्यार था।
वो भक्त का उपहार था।

जैसा निराला भक्त था।
वैसा समाँ उस वक्त था।
त्रैलोक का स्वामी जहाँ।
था खा रहा चिवड़ा वहाँ।

जो अक्षतों में स्वाद था।
वो प्रीत का उन्माद था।
सोचे सुदामा बावरा।
है कृष्ण कैसा साँवरा?

ये प्रेम का भूखा खुदा।
क्यों जीव से होवे जुदा?
क्यों आतमा भटकी फिरे?
क्यों वासना अटकी फिरे?

श्री कृष्ण का दर्शन मिला।
अब है नहीं कोई गिला।
जीवन सफल मेरा हुआ।
हर रोम अब माँगे दुआ।

श्री कृष्ण अँखियों में रहें।
अँखियाँ न दुनिया की कहें।
मन जाप में ही मस्त हो।
हर रोम जप में व्यस्त हो।

नैया-खिवैया श्याम है
फिर क्लेश का क्या काम है?
अब लौट मैं घर को चलूँ।
क्यों हाथ खाली अब मलूँ?

ललित

28.7.17
मधुमालती छंद

चारों दिशा उल्लास है।
नभ बादलों का वास है।
ये वारिदों की गर्जना।
वो नदतटों की वर्जना।

ये नाचना हर मोर का।
करता इशारा भोर का।
हर बूँद अमृत से भरी।
जो आज नभ घट से झरी।

ललित
क्रमशः

मधुमालती छंद

हैं बिजलियाँ जब कड़कती।
गजगामिनी को हड़कती।
हर दिल नयी सुरताल में।
सीटी बजे हर गाल में।

नभ बादलों को चूमता।
सारा समाँ है झूमता।
हर पात गहरा रँग हरा।
हर शाख में जादू भरा।

ललित
क्रमशः

मधुमालती छंद

ये निर्झरों का भड़कना।
प्रेमी दिलों का धड़कना।
वो झूमकर झूमे पवन।
वो भीगकर भीगें भवन।

हर इक लता है चंचला।
हर वृक्ष भी है मनचला।
पावन धरा सौरभ भरी।
सब बदलियाँ झर-झर झरी।

ललित
क्रमशः

मधुमालती छंद

टर-टर टराते दादुरे।
घन-घन घनाते बादरे।
चम-चम चमकती बिजलियाँ।
गम-गम गमकती तितलियाँ।

जादू भरा हर लहर में।
पानी भरा हर नहर में।
है व्योम मुस्काता वहाँ।
हर रोम मुस्काता यहाँ।

ललित
क्रमशः

दिखती धरा अब तृप्त है।
नगशीश भी संतृप्त है।
पर मानवों के देश में।
नव-दानवों के देश में।

हर बूँद आवारा हुई।
हर धार नाकारा हुई।
है कंकरीटों का शहर।
तो बाढ है ढाती कहर।

ललित

29.7.17

मधुमालती

वादे अधूरे छोड़ कर।
सब आज नाते तोड़ कर।
जाओ नहीं ऐसे कहीं।
है प्यार का सागर यहीं।

कुछ खो दिया कुछ पा लिया।
कुछ ले लिया कुछ दे दिया।
सुमिरन न कर पाया यहाँ।
क्या जायगा ले कर वहाँ?

बेटा सुता माता पिता।
इन संग जीवन ये बिता।
सब फर्ज अपने कर अदा।
लेकिन प्रभू को ध्या सदा।

जो एक को ध्यावे सदा।
सब फर्ज उसके हों अदा।
निष्काम सारे कर्म कर।
मत तू पराया धर्म वर।

कैसा खुदा,है राम क्या?
नास्तिक जनों को काम क्या?
कुछ तर्क में उलझे रहें।
कुछ वित्त से सुलझे रहें।

विश्वास से श्रद्धा जिये।
श्रद्धा जलाती है दिये।
हर काम हो पूरण वहाँ।
है आस का दीपक जहाँ।

ललित

30.7.17
सार छंद
चाह

नैन नहीं कुछ चाहें कान्हा,चाहें दर्शन तेरा।
निधिवन में संग राधिका वो,प्यारा नर्तन तेरा।
श्रवण चाहते सुनना अद्भुत,वंशी-वादन तेरा।
जिव्हा मेरी चखना चाहे,मिश्री-माखन तेरा।

'©ललित'