दिसम्बर 2019 की रचनाएँ

दिसम्बर 2019 की रचनाएँ

शायद...।
सदियों पुरानी है ये कहावत
'देर है अंधेर नहीं'  

मगर शायद न्याय-पालिका से
कभी किसी ने नहीं पूछा
इस देर की कोई सीमा है या नहीं?
सीमा नहीं है तो क्यों नहीं है?
और यदि सीमा है तो कितनी है?
कितनी है सीमा उस देर की?
वह सीमाहीन देर क्या
त्वरित अंधेर को जन्म नहीं देगी?

9.12.19

मुक्तक
मौत की मुस्कान
दर्द-दुख-गम से भरा संसार नर पाता यहां।

मौत सम्मुख देख लेकिन,कौन मुस्काता
यहाँ?

लाख दुख भोगे भले पर चाहता जाना नहीं।
मुस्कुराते-मुस्कुराते कौन है जाता वहाँ?

ललित

5.12.19
गीतिका छंद
मुस्कान ममतामयी

गर्भ में नौ माह रख निज,रक्त से सींचा जिसे।
प्रसव-पीड़ा झेल माँ संसार में लाई उसे।

देख उसकी इक झलक माँ भूल अपना दुख गई।
प्यार-ममता से भरी मुस्कान चमका मुख गई।

ललित

05.12.19
गीतिका छंद
फूल की मुस्कान
 
फूल ऐसे मुस्कुराएँ,भोर से संध्या तलक।

सूँघते सौरभ सभी हैं,बंद कर अपनी पलक।

खुशबुओं का है खजाना,पुष्प की मुस्कान में।

हर खुशी का आशियाना,पुष्प की मुस्कान में।

ललित
05.12.19
गीतिका छंद
बिन बात मुस्कुराना

मुस्कुराहट का दिवाना,यार हर कोई जहाँ।

मुस्कुराकर बेच देते,माल घटिया भी वहाँ।

मुस्कुराने की अदा उन,सेल्स गर्लों  में दिखे।

बात बिन जो मुस्कुरातीं,माल चुटकी में बिके।

ललित




शक्ति छंद

बहे दर्द के अश्रु इतने कहीं।
बचा आँख में एक आँसू नहीं।
ग़मो से भरा दिल सिसकता रहा।
नहीं दर्द अपना किसी से कहा।

जली मोमबत्ती कहे ये कथा।
सुनेगा यहाँ कौन दिल की व्यथा?
वही देश है ये वही राज है।
जहाँ द्रोपदी थी वहीं आज है।

ललित

शक्ति छंद

मटकती हुई चाँदनी आ गई।
धवल-कांति-काया ज़मीं पा गई।
मिली चाँदनी से धरा यूँ गले।
कि जैसे सखी इक सखी से मिले।

मुलाकात वो रात ही भर चली।
हुई भोर फिर चाँदनी घर चली।
धरा ओढ़ स्वर्णिम चुनरिया हँसी।
हँसा चाँद अब चाँदनी थी फँसी।

ललित

10.12.19
शक्ति छंद

हवा प्यार की बाग में यूँ चले।
भ्रमर मिल रहे हर कली से गले।
नहीं प्यार ये वासना है खरी।
कली रो पड़ी लाज से वो मरी।

ललित

10.12.19
शक्ति छंद

चटकने लगी हर कली धूप में।
नई ताज़गी भर गई रूप में।
महकने लगे पुष्प जब बाग में।
भ्रमर खो गए प्यार के राग में।

हवा प्यार की बाग में यूँ चले।
भ्रमर मिल रहे हर कली से गले।
पिया ओ भ्रमर अब न जाना कहीं।
किसी और से दिल लगाना नहीं।

भ्रमर हर कली को लगा चूमने।
दिवाना हुआ वो लगा झूमने।
नहीं प्यार ये वासना है खरी।
कली रो पड़ी लाज से वो मरी।

ललित

11.12.19
शक्ति छंद

गुलों से महकती हुई क्यारियाँ।
खुशी बाँटती शोख फुलवारियाँ।
मिली बाग में चार सखियाँ जहाँ।
हँसी की खिली फूलझड़ियाँ वहाँ।

ललित

शक्ति छंद
बपावर गाँव-ननिहाल

'बपावर' यही नाम था गाँव का।
कि ननिहाल रूपी घनी छाँव का।
रहा शाँत वातावरण जो वहाँ।
दिखेगा शहर में  भला वो कहाँ?

न फैशन न ईर्ष्या भरी होड़ थी।
हवा में घुली प्रीत बेजोड़ थी।
दिलों में बड़ा प्यार देखा वहाँ।
निगाहों में सत्कार देखा वहाँ।

नदी नाम 'परवन' वहाँ बह रही।
कि नानी हमारी जहाँ रह रही।
नहाए बड़े शौक से तैर कर।
पड़ी डाँट लौटे बहुत देर कर।

अभी तक हमें याद है वो घड़ी।
खड़ी द्वार नानी लिए थी छड़ी।
बने दोस्त ऐसे निराले वहाँ।
मिले शुद्ध घी के निवाले वहाँ।

खुशी गाँव के मन्दिरों में मिली।
भजन-भाव-गंगा दिलों में मिली।
न नानी रही अब न ननिहाल है।
'बपावर' मगर गाँव खुशहाल है।

'ललित'

11.12.19
शक्ति छंद

न व्रजधाम सा गाँव देखा कहीं।
कन्हैया नचैया पला था यहीं।
यहीं बाँसुरी थी सुरीली बजी।
यहीं वाटिका थी गुलों से सजी।

हजारों भ्रमर घूमते थे यहाँ।
सभी रास में झूमते थे यहाँ।
यहीं राधिका कृष्ण मिलते रहे।
सुमन प्यार के सुर्ख खिलते रहे।

ललित

14.12.19
शक्ति छंद
सुता

सुता जन्म ले तो मनाओ खुशी।
सुता को पढ़ाकर भुनाओ खुशी।
सलोनी सुघड़ बेटियाँ हों जहाँ।
सुखों के समन्दर सदा हों वहाँ।

धरा भारती की सिखाती यही।
सुतों से नहीं बेटियाँ कम रही।
नहीं भार बेटी बने बाप पर।
मिलाए कदम वक्त की थाप पर।

मिला मार्गदर्शन सदा गर सही।
सुता आसमाँ को झुकाकर रही।
सुता पर खुशी हर निछावर करो।
सदा गर्व अपनी सुता पर करो।

ललित

शक्ति छंद

न देखा कहीं कृष्ण जैसा सखा।
सदा भक्त का ध्यान जिसने रखा।
पुकारा जिसे चोर संसार ने।
रिझाया उसे भक्त के प्यार ने।

कभी रास करता रहा रात-भर।
कभी रूठ बैठा ज़रा बात पर।
कभी राधिका का दिवाना बना।
कभी गोपियों का निशाना बना।

कभी इंद्र को जा चखाया मजा।
कभी पापियों को स्वयं दो सजा।
कभी सत्य का वो बना सारथी।
कभी कृष्ण-गीता सुना सार दी।

चढ़ाएँ कली-फूल या पत्तियाँ।
पढे प्यार से भक्त की चिट्ठियाँ।
जपे कृष्ण का नाम जो प्यार से।
उसे तारते मृत्यु-संसार से।

ललित

मुक्तक

जिंदगी के बाग में हरदम खिलें बस फूल ही।
मत करो ये आस मत इस बात को दो तूल ही।
फूल की आभा क्षणिक बस साँझ तक ही साथ दे।
शूल कोई जब चुभे उसको निकाले शूल ही।

ललित


पीयूष वर्ष छंद
2122 2122 212

पुष्प काँटों से घिरा रहता जहाँ।
फूल से खुशियाँ मिलें सबको वहाँ।
कंटकों बिन फूल की शोभा नहीं।
दुःख में ही सुख छिपा रहता कहीं।

ललित

पीयूष वर्ष छंद

ठंड का मौसम सुहाना आ गया।
गर्म पानी से नहाना भा गया।
धूप में मालिश करें सारा बदन।
झूमने लगता वदन में वो मदन।

ललित

16.12.19
पीयूष वर्ष छंद

सोच सोचो सोचकर सोचो जरा।
स्वर्ण सा अब कौन कितना है खरा?
आदमी से आदमी है लड़ रहा।
धर्म कोने में पडा़ है सड़ रहा।

ललित

17.12.19
पीयूष वर्ष छंद

ओ कन्हैया! श्याम सुंदर साँवरे।
आ कभी तो देख मेरा गाँव रे।
फिर बजा वंशी मधुर इस ग्राम में।
ज्यों बजाता तू रहा व्रज-धाम में।

बाँसुरी तेरी निराली सोहनी।
तान उसकी है मधुर मनमोहनी।
श्याम तेरी वो मुरलिया जब बजे।
सात सुर से आत्म का मंदिर सजे।

गोप-गोपी झूमते जिस गान पर।
नाचती थी राधिका जिस तान पर।
फिर बजा उस तान में मुरली जरा।
मुस्कुरा दे फिर जरा मुरलीधरा।

मुस्कुराहट से भरी जादूगरी।
नैन मटका कर करे जो मसखरी।
वो अदा हमको दिखा इक बार तो।
आत्म-रस हमको चखा इक बार तो।

ललित

पीयूष वर्ष छंद 2122 2122 212

शीत जैसी शीत हो तो ठीक है।
शीत ने क्यूँ आज छोड़ी लीक है?
टोपियाँ मफलर बिगाड़ें रूप को।
हम खड़े छत पर तरसते धूप को।

ओढ़ भाया ओढ़ ले दादी कहे।
पैर-नंगे घूमते बालक रहे।
नाक बहती है बड़ी रफ्तार से।
विक्स डॉक्टर सब लगें बेकार से।

ललित


पीयूष वर्ष छंद

चाँदनी के दर्प से उकता गए।
वो सितारे सब धरा पर आ गए।
आसमाँ सूना हुआ रौनक गई।
चाँदनी आँसू बहाकर थक गई।

चाँद भी गुम-सुम हुआ बौरा गया।
चाँदनी को पड़ हृदय-दौरा गया।
सब सितारे मौन हो पछता रहे।
लौटकर सब आसमाँ में आ रहे।

ललित

पीयूष वर्ष छंद

पूर्व में लाली मचलती जोर की।
आसमाँ में खूबसूरत भोर की।
शीत का कुहरा धरा को घेरता।
चाँद भी अब मुख धरा से फेरता।

वाटिका-वन और उपवन बाग में।
चहचहाते खग अनोखे राग में।
मस्त नर-नारी भ्रमण में योग में।
और कुछ निद्रा-स्वपन में भोग में।

ललित

छंदमुक्त रचना

ज़िन्दगी क्या है.......?

कुछ मोतियों को माला में पिरोने का प्रयास,
कुछ को सहेज कर रखने की आस।

कुछ मोतियों का बिखर जाना...
कुछ का माला में बँधकर चिकने हो जाना।

कुछ मोतियों का रंग बदल जाना,
और कुछ का हर रंग में ढल जाना।

कुछ मोतियों का बेवजह मुस्कुराना,
और कुछ का तमतमाना।

कुछ मोतियों की कुटिल मुस्कुराहट
और कुछ की हसीन चहचहाहट।

कुछ के ग़मगीन चेहरे,
और कुछ कानों से बहरे।

कुछ माला में बँधने का दर्द महसूस करते हुए,
और कुछ सहज मुस्कान से माला को सुशोभित करते हुए।

इन्हीं मोतियों के इर्द-गिर्द जो घूमती है,
रेंगती है या दौड़ती है.......बस...

वही है ज़िंदगी.....!

ललित

पीयूष वर्ष छंद
चित्रानुसार सृजन

चूड़ियाँ सुंदर हरी गगरी भरी।
सुर्ख साड़ी की किनारी भी हरी।
केश काले रूप निखरा धूप में।
शूल क्यूँ आकर चुभा इस रूप में

ललित

पीयूषवर्ष छंद


पैर-नंगे राह शूलों से भरी।
कंटकों से कब यहाँ नारी डरी।
कंटकों के बीच ही फूली-फली।
शुद्ध-जल भरने कली पनघट चली।

ललित

पीयूषवर्ष छंद

नीर भरने जब चले गजगामिनी।
कंटकों से कब डरे वो दामिनी।
राह में  चाहे बिछे हों शूल ही।
छू वदन चंचल बनें वो फूल ही।

ललित


21.12.19
मुक्तक

देश हमारा धरती अपनी,फिर काहे ये आग लगाई?
देख मनुज का ऐसा ताण्डव,अग्नि देव को लज्जा आई।
लिए मशालें घूम रहे जो,लगा रहे हैं अद्भुत नारे।
देश किसे कहते वो अपना,धर्म कौन सा उनका भाई?

ललित


पियूषवर्ष छंद
शीत

शीत की है रात सजना मदभरी।
जा बसे परदेश तुमने हद करी।
रात ये बाइस दिसंबर की बड़ी।
और धीमे चल रही घर की घड़ी।

ललित

पियूषवर्ष छंद
शीत 2

चाँद को शीतल हवा नहला गई।
चाँदनी भी धुंध में कुम्हला गई।
ठण्ड में टिम-टिम सितारे कर रहे।
कुछ सितारे शीत-मारे फिर रहे।

हर नगर हर गाँव में ठण्डी हवा।
चुभ रही तन में नहीं कोई दवा।
शॉल स्वेटर कार्डिगन फर-कोट भी।
कर न सकते सूट थोड़ी ओट भी।

ललित

23.12.19
मुक्तक

मुस्कुरा कर मुस्कुराना सीख लो।
जिंदगी के गीत गाना सीख लो।
शीत की शीतल सुहानी धूप से।
रूठते को भी मनाना सीख लो।

ललित

छंद रजनी
2122 2122,2122 2

जन्मदिन शुभकामनाएँ,आज हम लाए।
आपकी आभा बढ़े जी,खूब बढ़ जाए।
शारदे माँ साथ दे जी,आपका हरदम।
भोर हर खुशियों भरी हो,छू न पाए ग़म।

ललित

छंद रजनी
2122 2122,2122 2

गूँजता है धड़कनों में,नाम बस तेरा।
रात-दिन ये नाम सुनना,काम बस मेरा।
प्यार में नादान ये दिल,डूबता जाए।
प्रीत के नव-गीत हर-पल,झूमकर गाए।

ललित

छंद रजनी
2122 2122,2122 2

आज जाने किस भँवर में,मित्रता खोई।
मित्र उस घनश्याम जैसा,है नहीं कोई।
जिस सुदामा को लगाया,था गले अपने।
कर दिए साकार उसके अनकहे सपने।
ललित

छंद रजनी

साँवरा नट-खट कन्हैया,नंद का लाला।
भागता माखन चुराकर,कृष्ण मतवाला।
गोपियाँ दौड़ी पकड़ने,श्याम प्यारे को।
माँ यशोदा नंद-बाबा,के दुलारे को।

ललित

दोहा
नव वर्ष

सब ग़म पिछले साल के,भूलें अपनी राह।
मुस्कानें नव-वर्ष में,बढ़ें माह-दर-माह।


ललित

नव-वर्ष

ठण्डे बस्ते में रखो,उन्निस का ये साल।
नव-ग्रह की नव-वर्ष में,सुधरेगी जी चाल।

ललित

छंद रजनी

मान हो,अपमान हो या,औपचारिकता।
मन सदा निर्लिप्तता में,क्यों नहीं टिकता?
मान दौलत का करें नर,शुभ्र-वस्त्रों का।
और कुछ बस मान करते,अस्त्र-शस्त्रों का।

ललित

छंद रजनी

भागता ये वर्ष उन्निस,क्या हमें सिखला गया?
ग़म-खुशी-आनंद-मस्ती,क्या हमें दिखला गया?
जो हुआ अच्छा हुआ उन्नीसवें को भूलिए।
बीसवें नव-वर्ष की संकल्पना में झूलिए।

ललित


माही जन्म दिवस शुभकामना
गीतिका छंद

तात-माँ की लाडली माही सदा महकी रहो।
दे 'ललित' आशीष माही तुम सदा चहकी रहो।
मात शारद की कृपा से विद्वता हासिल करो।
पुष्प राहों में बिछे हों,पार हर मंजिल करो।

ललित

गीतिका छंद
कँप-कँपाती ठण्ड

पूर्व में लाली मचलती,नाचता कुहरा घना।ओस की बूँदें चमकती,सुरमई मोती बना।
मंदिरों में आरती की,घंटियाँ टन-टन बजें।
कँप-कँपाती ठण्ड में कैसे भला बिस्तर तजें?

ललित

गीतिका छंद
नव-वर्ष

क्या हुआ क्यों रूठकर ये,वर्ष उन्निस चल दिया?
दे चला खुशियाँ किसी को,औ' किसी को बल दिया।
हाय रे ज़ालिम ज़माना,भूल उन्निस को गया।
पूजता नव-वर्ष को आती न पिछले पर दया।

ललित


छंद रजनी

ज़िंदगी दो पल कहीं रुक,साँस लेने दे।
दम घुटा जाता ज़रा सा,खाँस लेने दे।
किस भँवर में आ फँसी है,नाव जीवन की?
खींच लूँ मैं डोर थोड़ी,भागते मन की।

ललित


नव-वर्ष

नया साल दे नयी उमंगें,पूर्ण करे सब सपनों को।
सुख-शांति-हर्ष के नव-पल्लव,नव-पंख मिलें सब सपनों को।
विगत वर्ष के भूल तराने,नए गीत अब लिखने हैं।
श्याम-रंग रँग डालो सब,रंग-बिरंगे सपनों को।

ललित

नवम्बर 2019 की रचनाएँ

नवम्बर 2019


विधाता छंद
मुस्कान पत्नी की

बड़ी शीतल बड़ी प्यारी,बड़ी शालीन मुस्कानें।

हँसे पत्नी तभी लगता,कि लेगी जान ही जाने।

जरा सा मुस्कुराएँ हम,चलें बाज़ार कहती वो।

दिला बस एक साड़ी दो,इसी को प्यार कहती वो।

ललित



विधाता छंद
मुस्कान रहित

मिली है अफसरी उनको,अजी क्या बात है उनकी?
नहीं वो मुस्कुरा सकते ,बड़ी औकात है उनकी।
नहीं वो हँस सकें ढँग से,सदा गर्दन अकड़ती है।
न जाने अफसरी की बू  ,उन्हीं को क्यूँ जकड़ती है?

ललित




विधाता छंद
सरल मुस्कान

सरल मुस्कान पोती की,बढाए शान दादू की।
मगर दादू यही सोचे,छड़ी मिल जाय जादू की।
बचाए पोतियों को जो,दरिंदों की निगाहों से।
नहीं सरकार से आशा,हटाए शूल राहों से।

ललित

 
विधाता छंद
मधुर मुस्कान
मधुर मुस्कान तो केवल,दिखे उस श्याम के मुख पर।

सदा जो मुस्कुराता है,दुखी होता नहीं दुख पर।

उसी मुस्कान की वो राधिका रानी दिवानी थी।

समाई बाँसुरी में प्रीत की ये ही कहानी थी।

ललित



विधाता छंद
सहज मुस्कान

सहज मुस्कान अधरों पर,दिखे मन-भावनी न्यारी ।
सुने जब झुन-झुने की धुन,ममा की लाडली प्यारी। 
कभी हँस दे इशारों पर,बजा 'जयकृष्ण' पर ताली।
कभी गुम-सुम दिखाई दे,
हिलाए हाथ वो खाली।

ललित

30.11.19

मुक्तक

आदमी की मुस्कुराहट खो गई जाने कहां?
हर कली की चुलबुलाहट खो गई जाने कहाँ?
हाथ मोबाइल लिए हर आदमी खुद में रमा।
वो हँसी वो खिलखिलाहट खो गई जाने कहाँ?

ललित

कुटिल मुस्कान

सरल मुस्कान मुखड़े पर,दिखे जब वोट माँगे वो।
बने मंत्री,तभी मुख पर,कुटिल मुस्कान टाँगे वो।
नहीं फिर हाथ जोड़े वो,न वादे याद ही करता।
नहीं जनता दिखे उसको,उड़ानें खूब है भरता।

ललित

29.11.19
नकली मुस्कुराहट

बाग में कुछ लोग मिलकर,नित लगाते हैं ठहाके।
गम भुलाने को सभी वो,साथ मिलकर चहचहाते।
मुस्कुराहट ओढ़ नकली,बाग में फिर हैं टहलते।
इस बहाने से सभी के, गम-भरे दिल हैं बहलते।

ललित


विधाता छंद

कभी वो मुस्कुराते हैं,कभी नज़रें झुका लेते।
कभी तिरछी निगाहों को,गगन में वो टिका देते।
न हम कुछ भी समझ पाते,हँसे हैं या फँसे हैं वो।
कि हमको ही फँसाकर बेतहाशा यूँ हँसे हैं वो।

ललित


28.11.19
विधाता छंद

तुम्हारी मुस्कुराने की,अदाएँ ही निराली हैं।
नज़र के तीर चलने दो,निगाहें क्यूँ चुराली हैं।
धरा को चूमती देखो,धवल ये चाँदनी प्यारी।
तुम्हारी मुस्कुराहट पर,हसीं ये चाँदनी वारी।

ललित


गीतिका छंद

मुस्कुराने के लिए बस इक बहाना चाहिए।
एक सुंदर सा मुबाइल साथ लाना चाहिए।
सैलफी अपनी जरा सा मुस्कुरा कर लीजिए।
और अपने मित्रगण को भेज जल्दी दीजिए।

ललित


27.11.19
मुस्कान
मुक्तक 16:14

कुछ मुस्कानें अपने भीतर,दर्द समेटे हैं होतीं।
अधर-मधुर मुस्कान बिखेरें,पलकें छुप-छुप कर रोतीं।
बुझी-बुझी सी आँखें दिल का,दर्द बयाँ हैं कर देती।
चिंता के गहरे सागर से,अँखियाँ ले आतीं मोती।

ललित



मुक्तक

मुस्कुराहट के यहाँ दिखते कईआयाम हैं।

मदभरी मुस्कान में मय के छलकते जाम हैं।

कौन सी मुस्कान अधरों पर सजानी है कहाँ?

जानता ये बात जो उसके सँवरते काम हैं।

ललित




26.11.19
गीतिका छंद

मुस्कुराते हैं कई जन,इक अलग अंदाज से।
भींच लेते हैं अधर वो,दीखते नाराज से।
अति कुटिल मुस्कान से कुछ,पातकी नर यों हँसें।
सोचने लगते सभी हम,क्यों यहाँ पर आ फँसे?

ललित


26.12.19
महाश्रृंगार छंद
श्रृंगार प्रयास

नैन शर्बतिया गोरे गाल,मटकती मटकी वाली नार।
चली पनघट से भरकर नीर,साथ में कमसिन सखियाँ चार।
सभी इठलाकर करती बात,सुनातीं-सुनतीं 
हँस-हँस राज।
राज की बातें ऐसी खास,जिन्हें सुन शर्माए खुद लाज।


'ललित'


26.11.19
गीतिका छंद

मुस्कुराने का खजाना खोजना मुश्किल हुआ।
क्यों कहाँ कब मुस्कुराएँ सोचना मुश्किल हुआ?

मुस्कुराने की अदाएँ इस कदर महँगी हुई।
आदमी में मुस्कुराहट पोसना मुश्किल हुआ।

ललित

25.11.19
महाश्रृंगार छंद

चला आ कान्हा यमुना-तीर,राह देखें सब गोपी-ग्वाल।
सुना है नन्हा सा गोपाल,बजाए वंशी बड़ी कमाल।
राधिका भी सखियों के साथ,करेगी रास आज की रात।
चाँद का भी निखरा है रूप,चाँदनी भिगो रही है गात।

ललित


24.11.19
छंदमुक्त 
चिंता

मन कहता है
चिंता मत कर चिंतन कर।
मगर दिल...
वह तो चिंतन को 
चिंता में बदल देता है।
और दिमाग...
मत पूछिए
दिन भर में चिंता के
हजारों शूल पैदा कर देता है
जो चुभ-चुभ कर 
प्राणों को घायल करते रहते हैं।
सोचिए जरा...
ये दिल,दिमाग और मन 
क्या हैं?
कहाँ रहते हैं?
इंसान के वश में क्यों नहीं आते?
प्राणों को क्यों हैं तड़पाते?
और चिंता करने से...
क्या झंझावात नहीं आते?

महाश्रृंगार छंद
आज का प्रयास
समीक्षा हेतु


प्रार्थना इतनी सी है श्याम,करो तुम सदा हृदय में वास।
बंद जब नैन करूँ गोपाल,दिखो राधा सँग करते  रास।
मुझे दिल की धड़कन में श्याम,सुनाई दे वंशी की तान।
अंत जब निकलें तन से प्राण,करे हर साँस श्याम गुण-गान।

ललित



महाश्रृंगार छंद

पुष्प से करते हैं सब प्यार,फूल के कदमों तले बहार।
बहारों का मतलब है फूल,पुष्प के पीछे चले बहार।
न हो जिसको फूलों से प्यार,उसी को तो कहते हैं शूल।
शूल को भी पनपाएँ खूब,बहारें करती भारी भूल।

ललित


गीतिका

क्यों ललित मन बावरा ये लिख ग़ज़ल सकता नहीं?
दूर लिखना तो बहुत ये कर नकल सकता नहीं।

ज़िंदगी भर जब ललित बोता रहा था आम तू।
क्यों अभी फिर आम की तू पा फसल सकता नहीं?

क्या हुआ कैसे हुआ ये ज़िंदगी की शाम में?
सोच बैठा क्यों ललित तू ,फल बदल सकता नहीं?

है अभी दम बाजुओं में,कर ज़रा तदबीर तू।
कौन कहता है अभी खिल नव-कमल सकता नहीं?

ललित

20.11.19
महाश्रृंगार छंद

बहन की प्रीत बड़ी निःस्वार्थ,प्रेम भाई का
ज्यों सौगात।
सुता-सुत की वो भोली जिद्द,लुभाती पत्नी की हर बात।
पिता के दिल में छिपा सनेह,छलकता माँ का निश्छल प्यार।
प्यार के पहियों पर ही यार,टिका है यह सारा संसार।

ललित


20.11.19
महाश्रृंगार छंद


हुई हमसे ये कमसिन भूल,कि कर बैठे हम उनसे प्यार।
नहीं है जिन्हें प्यार की कद्र,उन्हीं को पहना बैठे हार।
अटपटा इकतरफा ये प्यार,चुभे ज्यों पग में कोई शूल।
चल रही इक पहिए पर हाय,गई ये गाड़ी रस्ता भूल।

ललित



महाश्रृंगार छंद

ज़रा दे दो मुझको घनश्याम,तुम्हारे चरणों की वो धूल।
जिसे लूँ मैं अपने सिर वार,खिले फिर मेरे मन का फूल।
ज़रा मेरे नयनों में श्याम,बसेरा कर लो राधा संग।
मगन हो किया करूँ दीदार,खिले फिर मेरा हर इक अंग।

ललित


महाश्रृंगार छंद

यशोदा माँ का पकड़े हाथ,ठुमक-ठुम ठुमके नंद-कुमार।
बजे पायल छुटके के पाँव,चले जब फुदक-फुदक सुकुमार।
सुनहरी बाँसुरिया ली थाम,हिलाए छोटे-छोटे हाथ।
हिले सिर मोर-पंख का ताज,किलोलें करे जगत का नाथ।

ललित


18.11.19
महाश्रृंगार छंद

अरे ओ मुरलीधर घनश्याम,सुना दे वो वंशी इक बार।
जिसे सुनते ही नंगे पाँव,दौड़ आती थी हर व्रज-नार।
भाग्य मुरली सा दे-दे श्याम, करूँ मैं नित अधरामृत पान।
भूल कर जग के सारे काम,सुनूँ मैं बाँसुरिया की तान।

ललित

मुक्तामणि छंद

कभी ज़िंदगी के लिए,प्यार जताना सीखा। 
कभी बंदगी के लिए,फूल चढ़ाना सीखा।

निखर उठी ये ज़िंदगी,प्यार तुम्हारा पाया।
निखर उठी जब बंदगी,फूल चढ़ाना आया।

ललित

मुक्तक

राधा गोरी हुई बावरी,श्याम तुम्हारे लिए।
भूल गई कान्हा खुद का भी,नाम तुम्हारे लिए।
बैठी रहती है पनघट पर,प्यासी तव दर्शन की।
भूल गई सुबहा वो भूली,शाम तुम्हारे लिए।

ललित


मुक्तामणि छंद


पायल के घुँघरू बजें,मधुर ताल से जैसे।
इठलाती नवयौवना,चली जा रही ऐसे।

घूँघट में से झाँकते,कजरारे दो नैना।
इक पल में ही ले गए,साजन जी का चैना।

दिल की धड़कन हो गई,दिल से गायब जैसे।
चैन चुरा कर ले गयी,मतवाली वो ऐसे।

गगरी में पानी भरा,कुछ ऐसे गोरी ने।
पल्लू ढलका कर किया,दिल घायल छोरी ने।

ललित



15.11.19
कुण्डलिया छंद

चौराया जो एक है,नयापुरा में खास।
बृजटाकिज में से यहाँ,आती दूषित बास।

आती दूषित बास,यहाँ नित कचरे में से।
लगे कचोरी स्वाद, भला बदबू में कैसे?

नगर-निगम ये हाय,'ललित' कैसा बौराया?
बना नरक का द्वार,दिया है ये चौराया।

ललित

मुक्तामणि छंद

कई भाँति के लोग हैं,जीवन है इक मेला।
कुछ के मुख मुस्कान है,कुछ पर ग़म का रेला।

कुछ कड़वे-तीखे यहाँ,कुछ स्वभाव से मीठे।
कुछ निर्मल मन के धनी,कुछ चिकने अरु चीठे।

उनमें कुछ अपने लगें,सुंदर सपने जैसे।
जिनके हिय में प्यार हो,मीत मिलें कुछ ऐसे।

सबसे रीत निभाइए,प्रीत दिखा संसारी।
सबको गले लगाइए,मुस्कानें दे प्यारी।

ललित




15.11.19

मुक्तामणि छंद

चंचल मन चिंता करे,सोच-सोच मर जाए।
होनी तो होकर रहे,मनवा रोक न पाए।

होनी जब टलती नहीं,करो यत्न कितना भी।
मनवा चिंता मत करे,मत सोचे इतना भी।

ललित

मुक्तक 16-16

आज अचानक याद आ गये,गिल्ली-डण्डा,कंचे खो-खो।
रस्सा-कशी आईस-पाईस,छुपम-छुपाई हो-हो-हो-हो।
सतोलिया चौपड़ चंगा-पो,पोषम्पा भई पोषम्पा।
रस्सी-कूद कबड्डी हॉकी,धड़ी-मार-घूँसा दो-दो-दो।

ललित


मुक्तामणि छंद

दिल की धड़कन क्या कहे,मीत ज़रा सुन मेरे।
क्या होती है प्यार की,आहट दिल में तेरे?

धड़कन दिल की तेज है,साँसें रुक-रुक जाती।
दिल झूमे है प्यार से,कहे नज़र मदमाती।

ललित

11.11.19
मुक्तामणि छंद
13:12
यति पूर्व लघु गुरू
अंत दो गुरू
दो-दो समतुकांत

मुक्तामणि छंद

अनगिन स्वर्णिम रश्मियाँ,छुएँ धरा को ऐसे।
रात नहीं इक युग हुआ,मिले बिना हो जैसे।
धवल-चाँदनी रात में,धरती पर बिछ जाए।
सखी-धरा पर चाँदनी,प्यार-छटा बिखराए।

ललित


मुक्तामणि छंद

सुख-दुख की सरिता बहे,अविरल जीवन सारे।
वो पाए आनन्द जो,कभी न गोता मारे।

मन-मौजी बन कर रहो,कटी पतँग के जैसे।
संग हवा के चल पड़ो,दुख व्यापेगा कैसे?

ललित


कुण्डलिनी छंद

खेल चुका हर रंग से,हुआ वृद्ध वो आज।
अब हर रँग फीका दिखे,करें न नैना काज।
करें न नैना काज,दर्द घुटनों में होता।
माया-ममता-मोह,लगाएँ मन में गोता।

ललित



जयकारी छंद
समीक्षा हेतु

भिन्न जातियों वाला देश।
सब धर्मों का जहाँ प्रवेश।
अलग-अलग हैं भाषा-भेष।
प्रेम-प्यार का दे संदेश।

नहीं विश्व में कोई देश।
रखता भारत सा परिवेश।
ब्रम्हा-विष्णु-महेश-गणेश।
राम-कृष्ण के भक्त अशेष।

भगवदगीता और कुरान।
इनसे महके हिंदुस्तान।
गुरूग्रंथ साहिब दे ज्ञान।
सब धर्मों का हो सम्मान।

हिंदू-मुस्लिम औ सरदार।
मन्दिर-मस्जिद अरु गुरुद्वार।
गिरिजाघर में भली प्रकार। 
पूजा करते सब नर-नार।



ललित


कुण्डलिनी छंद

कान्हा तेरे प्यार की,कर दे इतनी छाँव।
जिसमें परमानन्द की,हो थोड़ी सी ठाँव।
हो थोड़ी सी ठाँव,ध्यान-जप मन को भाए।
सुख-दुख की बरसात,नहीं मन को छू पाए।

ललित


7.11.19

जयकारी छंद

स्वच्छ रखो नाली घर-द्वार।
शौचालय अरु स्नानागार।
छोटी सी ये मानो बात।
मच्छर से फिर मिले निजात।

पानी भरे न घर के पास।
साफ नीर मच्छर का वास।
उसमें डालो थोड़ा तेल।
हो जाए मच्छर को जेल।

ललित

5.11.19

गीतिका छंद

गूँजती हरदम जहाँ हैं,प्यार की शहनाइयाँ।
प्रीत की खुशबू हवा में,ले जहाँ अँगड़ाइयाँ।
आँख मींचे साथ मेरे,हमसफर तू चल वहाँ।
चल पड़ी है साथ तो मत,सोच मंजिल है कहाँ?

ललित

चौपाई

कलियों ने जब घूँघट खोले।बजी बाँसुरी हौले-हौले।
वंशी-वट यमुना के तीरे,झूमे कान्हा धीरे-धीरे।ल

अधर मुरलिया में रस घोलें।गोप-गोपियाँ धुन-सुन डोलें।
नैन कन्हैया के जब मटकें।राधा जी की पलकें अटकें।

पायलिया मुँहजोर हुई है।घुँघरूओं ने तान छुई है।
नारी बन शिव-शम्भू घूमें।घूँघट में 
कान्हा सँग झूमें।

नंदन-वन की शोभा न्यारी।छम-छम नाचें 
कृष्ण-मुरारी।
बेसुध होकर गोपी-ग्वाले,आत्म-ज्ञान के पीते प्याले।

दोहा

बजा सुरीली बाँसुरी,यमुना जी के तीर।
व्रज-वासी नर-नार की,कान्हा हरते पीर।

ललित

ताटंक छंद

जितना कोमल जितना छोटा,प्यारा दिल है सीने में।
उतना ये उत्पात मचाए,मजा न आए जीने में।
रोज़ नया इक स्वप्न दिखाए,नहीं कभी जो हो पूरा।
दिल मुश्किल कर दे जीना जब,अरमानों का हो चूरा।

ललित

चौपई छंद
बाल कविता

चाँद-चाँदनी खाकर पान।
चले घूमने हिंदुस्तान।
देख हिमालय  श्वेत विशाल।
हुई चाँदनी आज निहाल।

गंग नदी की शीतल धार।
भारत-माता का गलहार।
संगमरमरी सुंदर ताज।
चाँद-चाँदनी देखें आज।

लाल-किला दिल्ली की शान।
और स्वच्छता का अभियान।
चमक रहा नव-हिंदुस्तान।
देख चाँद की निकली जान।

ललित


मुक्तक

स्वप्नों की मायानगरी ये,कैसी 
श्याम बना डाली।
झोली भरते जीवन बीते,अंत-समय मिलती खाली।
स्वप्न-स्वप्न बस स्वप्न देखते,समय बिताता जो सारा।
अंत-समय वो मानव पाता,खुद को स्वप्नों से हारा।

ललित

जयकारी छंद

गरल हवा में डाला घोल।
क्या कर बैठा नर तू बोल?
मुश्किल में बच्चों की जान।
नहीं साँस लेना आसान।

अम्बर नीला दिखे न आज।
धूल-धुआँ का है बस राज।
कीचड़ में बदला है आब।
सूखे कूप-नदी तालाब।

लिया दानवों ने है धार।
पॉलीथिन रूपी अवतार।
नर-नारी बालक आवाम।
पॉलीथिन के सभी गुलाम।

निश्चय ग़र कर लें हम आज।
पॉलीथिन का रहे न राज।
आतिश-बाजी कर दें बंद।
रखें हवा को हम स्वच्छंद।

ललित

1.11.19
जयकारी छंद

देख लिया सारा जग घूम।
कहीं नहीं दिल पाया झूम।
सबसे प्यारा हिंदुस्तान।
प्यारी जिसकी है मुस्कान।

स्वर्णिम होती इसकी भोर।
नाच उठे जब मन का मोर।
रंगीली होती हर शाम।
साँध्य-आरती हो निष्काम।

ललित

जयकारी छंद

नारंगी केला अमरूद।
सार-तत्त्व इनमें मौजूद।
कुछ खट्टा कुछ मीठा आम।
उससे मीठा काला जाम।

काजू किशमिश और बदाम।
पिश्ता चिलगोजा के नाम।
रखना बच्चों हरदम याद।
बड़ा अनूठा इनका स्वाद।

ललित




रात की दीवार पर

मुक्तक

चाहता कुछ राज लिखना,रात की दीवार पर।
चाँद की मीठी नज़र पर,चाँदनी के प्यार पर।
प्यार के अरमान मेरे,चूर दिल में ही हुए।
कौनसी कविता लिखूँ अब,ज़िंदगी की मार पर?

ललित

रजनी छंद विधान एवं उदाहरण

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     ------- छंद रजनी विधान-----
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1. यह एक मात्रिक छंद है।

2. इस छंद में 14, 9 = 23 कुल मात्राएँ
होती हैं।

3. दो - दो पंक्तियों में तुकांत सुमेलन किया जाता है।

4. चरणों का अंत सदैव गुरु वर्ण से किया जाता है।

5.  मापनी :-

2122 2122, 2122 2 

             **** उदाहरण ****

                    छंद रजनी

अम्बिका जगदम्बिका माँ,लाल मैं तेरा।
थाम ले इस भँवर में माँ,हाथ तू मेरा ।
है घटा घन घोर छाई,दुःख की काली।
द्वार पर तेरे खड़ा मैं,हाथ हैं खाली।

**********रचनाकार*************
ललित किशोर 'ललित'
*******************************

कलम और गम

उल्लाला छंद विधान एवँ उदाहरण

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     -------उल्लाला छंद विधान-----
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 इस छंद का नाम है....

  उल्लाला / चन्द्रमणि छन्द :-
  ================

1. उल्लाला सम मात्रिक छन्द है। 
2. इस छंद के हर चरण में 13-13 मात्राओं के हिसाब से कुल 26 मात्राएँ 
या
15-13 के हिसाब से 28 मात्रायें होती हैं।

3.इस तरह उल्लाला के दो भेद होते है। 

4. 13-13 मात्राओं वाला छन्द ही विशेष प्रचलन में है।

5. इस छन्द में 11वीं मात्रा लघु ही होती है। 
6. चरणान्त मॆं तुकान्तता अनिवार्य हॊती है ।
7.  15 मात्राओं वाले उल्लाला छन्द में 13 वीं मात्रा लघु होती है।

8.  13 मात्राओं वाले उल्लाला के सन्दर्भ में एक दिलचस्प बात यह है कि यह बिल्कुल दोहे के समान होता है,बस दूसरे और चौथे  चरण में केवल दो दो मात्राएँ और बढ़ जाती हैं।

9. चरणांत सदैव दो लघु वर्ण अथवा एक गुरु वर्ण से हो सकता है।

10. इस छन्द को चन्द्रमणि छन्द भी कहा जाता है।
            **** उदाहरण ****

उल्लाला छंद 

उलझी मन की डोर ये,माया के जंजाल में।
बुद्धिमान नर भी फँसे,मन की टेढ़ी चाल में।

मन साधे सधता नहीं,अज्ञानी इंसान से।
साध सके विरला कहीं,मन को गीताज्ञान से।

**********रचनाकार*************
ललित किशोर 'ललित'
*******************************
    

इस छन्द में बहर का कोई बन्धन नहीं होता शिल्प बिल्कुल दोहे का होता है बस दोहे की पंक्ति के अंत (अर्थात दूसरे और चौथे ) चरण के अंत में दो मात्रा बढ़ जाती हैं अतः 13,11 की जगह 13,13
मात्रा होती हैं।


  


रोला छंद विधान

28.02.2020
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     -------रोला छंद विधान-----
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रोला छंद

1. यह चार पंक्तियों अर्थात आठ चरणों वाला अर्द्धसम मात्रिक छंद है जिसकी प्रत्येक पंक्ति में 11,13  की यति से कुल चौबीस मात्राएँ होती हैं।

2. रोला छंद के 
विषम चरणों (1,3,5, और 7) में 11 मात्राएँ तथा 
सम चरणों (2,4,6और 8) में 13 मात्राएँ होती है।

3. रोला छंद में दो अथवा चार तुकांत समान होते हैं ।

4. सम चरणों का अंत 22/112/211/1111 के मात्रिक क्रम से ही होना अनिवार्य है ।

5. रोला छंद में यति पूर्व सदैव लघु वर्ण ही रखा जाता है और बेहतर लय के लिए अंत में हमेशा दो गुरू वर्ण होते हैं।

6. दोहे और रोला छंद में मात्राएँ बिलकुल विपरीत होती हैं।
 दोहा लेखन में 13,11=24 मात्रा भार रखते हैं जबकि रोला छंद में इसके विपरीत 11,13 =24 मात्रा भार रखना है किन्तु विपरीत होने पर भी रोला छंद का शिल्प दोहे से भिन्न है।

             **** उदाहरण ****

रोला छंद

चलते-चलते श्वास,कलम की जब भी रुकती।
ले शारद का नाम,कलम कागज पर झुकती।
लिख देती है पीर,कभी गहरे सागर की।और कभी दिल खोल,लिखे खुशियाँ गागर की।

**********रचनाकार*************
ललित किशोर 'ललित'
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गीतिका छंद विधान

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     -------गीतिका छंद विधान-----
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 गीतिका छंद का विधान ः

1. इसमें चार चरण होते हैं।
2. प्रत्येक चरण में 26 मात्रायें होती हैं।
3.14,12 मात्रा पर  यति दर्शायी जाती है।
2.इसमें 2/4 चरणों में समतुकांत मिलाए जाते हैं।

मापनीः
2122  2122 ,
2122  212

            **** उदाहरण ****

गीतिका छंद

नींद खुलते ही खुशी से मुस्कुरा भर दीजिए।
उस प्रभो को शुक्रिया फिर मुस्कुरा कर
दीजिए।
हे प्रभो धन-धान्य वैभव आपने मुझको दिया।
शांति-सुख-आनंद दे कर धन्य है मुझको किया।

**********रचनाकार*************
ललित किशोर 'ललित'
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दुर्मिल सवैया छंद विधान व उदाहरण

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  -------दुर्मिल सवैया छंद विधान-----
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1. यह एक वार्णिक छंद है।

2.इसमें चार चरण होते हैं।

3.चार समतुकांत रखे जाते हैं।

4.आठ सगण अर्थात्  
112 112 112 112 112 112 112 112

5.लघु लघु गूरू ×8

6.लय की सुगमता के लिए  12 वें वर्ण पर यति विधान..

7.क्योंकि यह एक वार्णिक छंद है अतः इसमें लघु के स्थान पर लघु व गुरू के स्थान पर गुरू ही रखना होता है।

~~~~~उदाहरण~~~~~

मन के तम को अब दूर करो,विनती करता कर जोड़ हरे।
इस जीवन में अब आस यही,कर दो मन की सब त्रास परे।
प्रभु आप अधार हो प्राणन के, जब होय कृपा हर ताप टरे।
हर लो अब घोर निशा तम को, मम जीवन में नव दीप जरे।


**********रचनाकार*************
ललित किशोर 'ललित'
*******************************



 

विविध


शक्ति छंद
मधुर रास

सितारों भरी चाँदनी रात में,बजी पायलें खूब बरसात में।
गरजते हुए बादलों के तले,मिले राधिका से कन्हैया गले

बजे बाँसुरी चूड़ियाँ भी बजें,हँसें गोपियाँ कृष्ण राधा सजें।
कन्हैया सुनाता नये राग वो,सुनें गोपियाँ तो खुले भाग वो

दसों ही दिशाएं लगी झूमने,धरा भी गगन को लगी चूमने।
सजे मोगरा वेणियों में जहाँ,कन्हैया बजाए मुरलिया वहाँ।

बसन्ती हवाएं छूएं गात को,थिरकने लगीं गोपियाँ रात को।
नथनियाँ हिलें हास के साथ में,कि झुमके हिलें रास के साथ में।

ललित

निश्चल छंद
छलिया घनश्याम

राधा जी की रूप माधुरी,ललित ललाम।
चकित नैन कनखी से निरखे,मनहर श्याम।

अँखियों ही अँखियों से पीता, माखन चोर।
राधा के नैनों की मदिरा,वो नित भोर।

ऐसा जादू करता छलिया,वो घनश्याम।
खिंची चली आती है राधा,सुबहो शाम।

गोप-गोपियाँ हँसी उड़ायें,दे दे ताल।
वो नटखट नैना मटकाए,चूमे गाल।

कैसे कैसे नाच नचाता,नटवर श्याम।
आत्मानंदी रास रचाता,वो निष्काम।

मधुर बाँसुरी से छेड़े कुछ,ऐसी तान।
आलौकिक मद से भर देता,सबके कान।

जादू की मुरली ले आया,माखन चोर।
बजा मधुर वंशी खींचे वोे,मन की डोर।

व्रज का छोरा बरसाने की,छोरी साथ।
जोरा-जोरी करे छुड़ाए,गोरी हाथ।

सिंहावलोकन घनाक्षरी

प्रार्थना

थक गये अब नाथ,
नैया खेते मेरे हाथ।
आप ही सँभालो अब,
पतवार नाव की।

पतवार नाव की लो.
थाम करकमलों में।
झलक दिखादो जरा,
दयालु स्वभाव की।

दयालु स्वभाव की वो,
छवि तारणहार की।
दवा आज दे दो प्रभु,
मेरे हर घाव की।

मेरे हर घाव की वो,
दवा श्याम नाम की जो।
लगन लगा दो तव,
चरणों में चाव की।

ललित

गीतिका छंद

बेटियाँ

प्यार की हर इक कसौटी,पर खरी वो बेटियाँ।
तात-माता की दुलारी,हैं परी वो बेटियाँ।
हौसला दामन छुड़ाए,माँ-पिता का जब कभी।
बेटियाँ देती सहारा,हौसला रख कर तभी।

'ललित'

लावणी मुक्तक

मैं क्या जानूँ

बात कहूँ मैं अपने दिल की,औरों की मैं क्या जानूँ।

फूलों में जजबात नहीं हैं,भौंरों की मैं क्या जानूँ।
प्यार बिके अरमान बिकें हैं,आज यहाँ सब कुछ बिकता।
झरनों में आवाज नहीं है,धौरों की मैं क्या जानूँ।
'ललित'

ताटंक मुक्तक

किरचें

टूटे सपनों की कुछ किरचें,बाकी हैं अब झोली में।
कैसे कैसे रंग दिखे हैं,सपनों की इस होली में।
स्वप्न सुनहरे खो देते हैं,कब क्यूँ अपने रंगों को?
बेरंगा मन बैठा रहता,क्यूँ सपनों की डोली में?

मुक्तक
माँ 

क्यूँ होता है अक्सर ऐसा,माँ छुप-छुप कर रोती है?
बेटा नजरें फेर रहा क्यूँ,सोच दुखी वो होती है।
माँ के अरमानों का सूरज,दिन में क्यूँ ढल जाता है?
एक अँधेरे कोने में वो,बेबस सी क्यूँ  सोती है?

ताटंक छंद

नई धुनें

नये वर्ष में नयी धुनों पर,मुरली श्याम बजा देना।
मेरे अधरों पर मंगलमय,नित नव गीत सजा देना।
मनमंदिर में मूरत तेरी,संग राधिका प्यारी हो।
दिन तो दिन है कान्हा मेरी,नहीं रात भी कारी हो।
'ललित'

कुकुभ मुक्तक

पुष्प

पुष्प बहुत ऐसे देखे हैं,काँटों में जोें पलते हैं।
चुभन सहें कंटक की फिर भी,मुस्कानों में ढलते हैं।
सौरभ उनकी चहुँ दिशि फैले,काँटे बेबस रह जाते।
कंटक चुभ-चुभ थक जाते हैं,दिल ही दिल में जलते हैं।

ललित


कुकुभ मुक्तक

फूल और कााँँटे

फूल और काँटों का रिश्ता,मानव नहीं समझ पाये।
पुष्पों की रक्षा करते ये,काँटे ही हरदम आये।
कंटक से फूलों की शोभा,आजीवन हमदम काँटे।
काँटों में जो फूल खिले वो,कहीं न फिर ठोकर खाये।
ललित

मुक्तक

पहरेदारी


काँटों की पहरेदारी में,फूल सुगंधित खिलते हैं।
प्यार करें कंटक फूलों से,रोज गले वो मिलते हैं।
दुश्मन के हाथों में चुभकर,शूल पुष्प को सहलाएं।
वो कंटक बदनाम हुए जो,दिल के टुकड़े सिलते हैं।

ललित

कुकुभ मुक्तक


प्रेम भरा हो दिल में जितना,उतना ही वो छलकेगा।
नैन झरोखे से वो शीतल,मोती बनकर ढलकेगा।
जिसके सीने में नाजुक सा,प्यार भरा इक दिल होगा।
उसकी उठती गिरती पलकों,में हरदम वो झलकेगा।
ललित

रोला छंद
गीत

दिल के रिसते घाव

दिल के रिसते घाव,छिपाकर जग में डोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

देखे सुंदर मीत,देख ली प्रीत अनोखी।
केवल अपनी जीत,लगे है सबको चोखी।
जब भी बोलो बात,जरा मन ही मन तोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

झूठा ये संसार,यहाँ की रस्में झूठी।
जो होता गमगीन,उसी से रहती रूठी।
पी लो गम के घूँट,मगर तुम मुँह मत खोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

दुनिया की है रीत,किसी के साथ न रोये।
हँसी उड़ाये और,राह में काँटे बोये।
जपलो हरि का नाम,पाप खुद अपने धोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

भगवन दयानिधान,उन्हीं से विनती करलो।
हरि को अपना मान,शीश चरणों में धरलो।
तर जाएगी नाव,प्रभू के आगे रो लो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

ललित

रोलाछंद

गीत

दे देते हैं घाव

दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।

और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जिस पर है विश्वास,वही दिल को तोड़ेगा।
जो है अपना खास,वही फिर मुख मोड़ेगा।
सहलाता है घाव,नहीं शीतल सावन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जो होता फनकार,यशस्वी वो हो जाता।
दुनिया भर का प्यार,उसे फन है दिलवाता।
दिल के गहरे घाव,नही भर पाता फन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

ईश्वर से विश्वास,कभी यूँ ही उठ जाता।
जिसकी टूटी आस,नहीं फिर वो उठ पाता।
भर देता है घाव,कभी जानी दुश्मन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जीवन भर तो साथ,नहीं तन भी दे पाता।
विषम रोग में साथ,नहीं धन भी दे पाता।
भरें उसी के घाव,करे जो यहाँ भजन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

'ललित'

मनोरम छंद
वृद्धावस्था/बुजुर्गी

आँसुओं से तरबतर

आँसुओं से तर बतर था,एक बेबस वृद्ध नर था।
देह जर्जर हो गई थी,वासना भी सो गई थी।

प्यार की प्यासी निगाहें,जो खुली रहना न चाहें।
हर तरफ पसरी उदासी,दे खुशी क्यों कर जरा सी।

याद आती है जवानी,जब नसों में थी रवानी।
पाल बच्चों को लिया था,दो जहाँ का सुख दिया था।

बन गये लायक सभी वो,सुख न दे पाए कभी वो।
व्यस्त सब बच्चे हुए हैं,कान के कच्चे हुए हैं।

स्वप्न सब बिखरे सुनहरे,होगए हैं पूत बहरे।
दर्द में डूबी निगाहें,कण्ठ से निकलें कराहें।

जिन्दगी की क्या कला है?ये बुजुर्गी क्या बला है?
जान जीवन भर न पाया,बालकों ने जो दिखाया।

देह में रमता रहा था,नेह में जीवन बहा था।
स्वार्थमय जीवन जिया था,याद कब रब को किया था।

आज रब है याद आता,भूल इक पल वो न पाता।
या खुदा अब तो रहम कर,दु:ख दारुण ये खतम कर।

प्यार जो उसने दिया था,त्याग जो उसने किया था
काश बच्चे जान पाते,दर्द को पहचान पाते।

नेह से नजरें मिलाकर,दीप आशा का जलाकर।
घाव पर मरहम लगाते,बोल मीठे बोल जाते।

ललित

राधा कृष्ण

सार छंंद

प्रीत

प्रीत हुई कान्हा से ऐसी,राधा सुधबुध भूले।
देख अधर से लगी बाँसुरी,नथुने उसके फूले।
सौतन ये वंशी मोहन के,अधरों को क्यूँ चूमे?
कैसे पुण्य किये मुरली ने,श्याम संग जो झूमे?

ललित
सार छंद
पाती

मोहन से क्यूँ नैन मिलाए,राधा अब पछताती।
देश छोड़ परदेश बसा जो,लिखे न कोई पाती।
वन उपवन सब सूने लगते,श्याम बिना ब्रज सूना।
सखियाँ जब ताने मारें तो,दर्द बढे ये दूना।

'ललित

सार छंद
मीठी-मीठी बातेंं

मीठी मीठी बातें कर जो,राधा को बहलाए।
हर गोपी के साथ श्याम वो,नित ही रास रचाए।
नटखट कान्हा राधा के उर,में जाकर छुप जाए।
राधा वन-उपवन में ढूँढे,मोहन नजर न आए।

'ललित'


सार छंद
नटवर नागर

मोहन कान्हा श्याम साँवरा,नटवर नागर तू ही।
वृन्दावन का कृष्ण कन्हैया,रस का सागर तू ही।
रस सागर तू  प्रेम पाश में,मुझको अपने ले ले।
कहे राधिका बदले में तू,सारे सपने ले ले।

'ललित'
सार छंद
अधरामृत

कान्हा वंशी मुझे बना तू,अधरामृत बरसा दे।
कहे राधिका मत ऐ मोहन ,मुझको यूँ तरसा दे।
याद करूँ आलिंगन तेरा,सुधबुध मैं बिसराऊँ।
लगकर तेरे सीने से मैं,तुझ में ही खो जाऊँ।

ललित

सार छंद
पछतावा

मोहन से क्यूँ नैन मिलाए,राधा अब पछताती।
देश छोड़ परदेश बसा जो,लिखे न कोई पाती।
वन उपवन सब सूने लगते,श्याम बिना ब्रज सूना।
सखियाँ जब ताने मारें तो,दर्द बढे ये दूना।
पत्थर दिल बन बैठा कान्हा,तू तो मथुरा जा के।
रख ले अपनी राधा का दिल,एक बार तो आ के।
तेरी यादों में पागल हो,राधा वन-वन डोले।
आजा कान्हा आजा अब तो,व्रज का कण-कण बोले।

'ललित'

सितम्बर 2019 की रचनाएँ

सितम्बर 2019 की रचनाएँ

3.9.19
समान/सनाई छंद
मोहन

कितना सुंदर है तू मोहन,कितनी प्यारी मूरत तेरी?
राधा के चंचल नैनों में,दिखती है क्यूँ सूरत तेरी?
मोरपंख जो सिर पर धारा,उसने क्या-क्या पुण्य किए थे?
क्यों उस बाँसुरिया ने तेरे,अधरामृत के घूँट पिए थे?

ललित

समान/सनाई छंद
नंदन-वन

एक बार सपनों में आकर,कान्हा मुरली मधुर बजा दे।
नंदन-वन गोकुल सी प्यारी,स्वप्न नगरिया श्याम सजा दे।
सपनों में भी दर्शन तेरे,मिल जाएँ तो मैं तर जाऊँ।
तेरी मुरली की धुन पर मैं,नाच-नाच कर तुझे नचाऊँ।

ललित

समान/सनाई छंद
सुदामा

कृष्ण तुम्हारे दर्शन करने,इक भक्त द्वार पर है आया।
फटे वस्त्र तन पर लिपटाए,नाम सुदामा है बतलाया।
चंदन तिलक भाल पर उसके,अजब तेज से मुख दमके है।
कृशकाया है लेकिन उसका,रोम-रोम अद्भुत चमके है।

ललित

समान/सनाई छंद
सैल्फी मुर्दे की

देख रहा था बेसुध मुर्दा,ज़िन्दा लोगों की नादानी।
अंतिम सेल्फी खिंचवाने की,उसने भी थी मन में ठानी।
यमदूतों से लेकर आज्ञा,हँसा ज़ोर से वो कुछ ऐसे।
भाग लिए सैल्फी दीवाने,भूत निकल आया हो जैसे।

ललित

दोहा

अँधियारे पथ में गुरू,थामे जिसका हाथ।
कई और को शिष्य वो,तारे अपने साथ।

ललित

समान/सनाई छंद
कोरी चुनरी

कोरी चुनरी दी थी तूने,मैंने भव-रँग में रँग
डाली।
काम-क्रोध-मद-लोभ भरी ये,चुनरी बाहर भीतर काली।

बदरँग चुनरी लेकर कान्हा,आया हूँ मैं तेरे द्वारे।
ऐसे रँग में रँग दे इसको,जो भव-सागर पार उतारे।

ललित

समान/सनाई छंद
झोली

मंदिर की मूरत में बैठा,कान्हा जब तू मुस्काता है।
प्यार भरा इक निर्झर तेरे,नैनों से छलका जाता है।
मन करता है रहूँ देखता,अपलक नैनों से छवि तेरी।
जब तक तेरी दया-दृष्टि से,भरे न कान्हा झोली मेरी।

ललित
11.9.19

त्रिभंगी छंद
बाँका ग्वाला

बाँसुरिया वाले,निपट निराले,बाँके ग्वाले,
ओ प्यारे।
वो मुरली प्यारी,सब दुखहारी,धुन में न्यारी,सुनवा रे।
सुनने को व्याकुल,सारा गोकुल,यमुना- संकुल,है आया ।
मुरली जब बोले,रस यूँ घोले,नैन न खोले,
यह काया।

ललित

त्रिभंगी छंद
टिम-टिम तारे

टिम-टिम-टिम तारे,करें इशारे,मुन्ना प्यारे,
चुप हो जा।

चम-चम-चम प्यारा,चंदा न्यारा,मामा कहता,तू सो जा।

रूई सी गोरी,चंद्र-चकोरी,आयी दौड़ी,
मुन्ना रे।

मैया मुस्काती,लोरी गाती,मुन्ना प्यारे,सुनना रे।

ललित

दोहा

दिल टूटा जुड़ता नहीं,कर लो यत्न हजार।
अपनों का या गैर का,दिल मत तोड़ो यार।

ललित

त्रिभंगी छंद
जीवन-नैया

ये जीवन-नैया,ता-ता-थैया,करती भैया,डोल रही।
तुम हँस लो गा लो,दर्द भगा लो,खुशी मना लो,बोल रही।

गम में मत झूलो,चिंता भूलो,मंजिल छू लो,मन चाही।
ये राह निराली,देखी-भाली,जीवट वाली,ओ राही।

ललित

त्रिभंगी छंद
कान्हा काला

वो कान्हा काला,नँद का लाला,मुरली वाला,चोर बड़ा।
चुपके से आया,माखन खाया,मुख लिपटाया,फोड़ घड़ा।

कान्हा यमुना-तट,सूने पनघट,राधा का घट,फोड़ गया।
वो तेज हिरण सा,चंचल मन सा,तेज पवन सा,दौड़ गया।

ललित

रजनी छंद
2122 2122,2122 2
दो दो तुकांत



रजनी छंद
ज़िंदादिली

ज़िंदगी ज़िंदादिली का,नाम ही तो है।
है ग़मों से जो भरा वो,जाम ही तो है।
प्यार से जो आदमी इस,जाम को पीता।
हो न उसका जाम खुशियों,से कभी रीता।
ललित

रजनी छंद
खुशबू

फूल से खुशबू चुराना,सीखलो प्यारे।
चाँदनी से मुस्कुराना,सीखलो प्यारे।
पुष्प सौरभ का खजाना,जानती दुनिया।
चाँदनी गाती तराना,जानती दुनिया।

ललित

रजनी छंद
चाँदनी

चाँद सा महबूब पाकर,चाँदनी चहकी।
प्यार में मदहोश होकर,चाल भी बहकी।

बादलों में छुप गया जब, चाँद सजनी का।
चाँँदनी भी त्याग बैठी,साथ रजनी का।

ललित

छंद रजनी
श्याम-सुंदर

श्याम सुंदर साँवरे मन,मोहना प्यारे।
स्वप्न में ही दर्श देने,श्याम आ जा रे।

नैन में भर लूँ सलोनी,साँवरी सूरत।
लूँ बसा दिल में कन्हैया,मोहनी मूरत।

ललित 

गीतिका छंद
समय

भागता जाता समय है,एक पल रुकता नहीं।
सिर झुका देता उसी का,जो कभी झुकता नहीं।
चाहता यदि तू समय ये,साथ दे तेरा खरा।
तो समय के साथ चल ले,पथ बदल कर तू जरा। 

ललित

छंद रजनी
समंदर

प्यार का प्यासा समंदर,हाय खारा क्यों?
हर नदी ने दिल उसी पर,आज वारा क्यों?

पा समंदर का सहारा,हर नदी झूमे।
बन समंदर की लहर वो,आसमाँ चूमे।

ललित

छंद रजनी
अम्बिका

अम्बिका जगदम्बिका माँ,लाल मैं तेरा।
थाम ले इस भँवर में माँ,हाथ तू मेरा ।
है घटा घन घोर छाई,दुःख की काली।
द्वार पर तेरे खड़ा मैं,हाथ हैं खाली।

ललित



श्रृंगार छंद विधान व उदाहरण

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    **** श्रृंगार छंद विधान****

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1. यह एक मात्रिक छंद है ।

2. इसके प्रत्येक चरण में कुल 32 मात्राएँ होती हैं तथा 16,16 मात्राओं पर यति चिन्ह होता है।

3. चरण कि अंत सदैव गुरु लघु वर्ण से होता है।

4. चार पँक्तियाँ चार चरण होते हैं।

5 दो - दो अथवा चार पंक्तियों में समतुकांत मिलाए जाते हैं।

       ***उदाहरण***

श्रृंगार छंद

बाग से चुन-कर सुंदर फूल।
कन्हैया आए यमुना कूल।
बना कर मधुर मनोहर हार।
किया राधा जी का श्रृंगार।

प्यार का गजरा पहन अनूप।
खिला राधा जी का रँग-रूप।
अलौकिक सौरभ से भरपूर।
राधिका की वेणी का नूर।

****रचनाकार****
ललित किशोर 'ललित'

मदिरा सवैया छंद विधान व उदाहरण

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*** मदिरा सवैया छंद विधान ***
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मदिरा सवैया छंद का विधान व उदाहरण निम्न लिखित है...

1.यह एक वार्णिक छंद है 

2.इस छंद की हर पंक्ति में 7 भगण तथा अंत में एक गुरु वर्ण होता है।

जैसेः-गुरु लघु लघु ×7 + गुरु वर्ण।

3. इसमें चार पंक्तिया तथा चार सम तुकांत होते हैं।

4.लय की सुगमता के लिए हर पंक्ति के 12 वें वर्ण पर यति चिन्ह दर्शाएँ।

5.क्योंकि यह वर्णिक छंद है इसलिए
इसमें लघु के स्थान पर लघु और गुरु के स्थान पर गुरु वर्ण ही आना चाहिए ।
दो लघु वर्णों की गणना एक गुरु वर्ण के रूप में नहीं कर सकते।

**** उदाहरण****

मदिरा सवैया

रे मन! मानव जीवन दे कर,धन्य किया प्रभु से कहना।
तू मनमोहन केशव माधव,कृष्ण सदा जपते रहना।
कृष्ण हँसे बिन बात अहर्निश,सीख जरा उससे सहना।
तू मनमंदिर में नित जाकर,ध्यान समुंदर में बहना।

**रचनाकार**
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ललित किशोर 'ललित'
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अगस्त 2019 की रचनाएँ

अगस्त 19

चौपाई
तन-मन-धन

बड़ा लालची मानव मन है,
हर रिश्ते में खोजे धन है।

ईश्वर को भी धन दिखलाए,
हरि को भी देना सिखलाए।

तन करता धन का  साधन है,
मन काला और गोरा तन है।

नहीं मिले जब मनचाहा धन।
बिदक-बिदक जाता है ये मन।

धनवानों को सब ही पूजें।
देख रंक को मुखड़े सूजें।

धन ने रिश्तों को बिसराया।
मन मानव का समझ न पाया।

दोहा

तन-मन-धन का खेल ये,मानव समझ न पाय।
धन के पीछे मन चले,और चले तन हाय।

ललित

कुण्डलिनी छंद
माया

इतनी उलझी डोर में,माया की भगवान।
क्यों बाँधा तूने बता,भोला ये इंसान?
भोला ये इंसान,डोर में ऐसा उलझे।
खूब लगाए जोर,नहीं फिर भी वो सुलझे।

ललित

मुक्तक 16-12
हमसफर

कुछ दूर तक तो साथ मेरे,चल जरा ओ हमसफर।
ये ज़िन्दगी है खूब छोटी,खूबसूरत है डगर।
मंजिल तलक चलती रहेंगी,प्यार की पुरवाइयाँ।
हर राह की तन्हाइयों में,साथ होगा तू अगर।

ललित

चौपाइयाँ
दिल की धड़कन

दिल की धड़कन क्या कहती है?
मन को ये चिन्ता रहती है।

क्या दिल में ममता रहती है?
या थोड़ी समता रहती है?

क्या छुप-छुप कर रोता है दिल?
या गम ओढ़े सोता है दिल?

क्या खुशियों में दिल हँसता है?
या आशा में वो  फँसता है?

क्या भूखा ही रहता है दिल?
या सूखा ही रहता है दिल?

दिल करता मन से विनती है।
क्या दिल की भी कुछ गिनती है?

दोहा

दिल गूँगा-बहरा नहीं,और न ये पाषाण।
दिल से ही इंसान है,दिल में ही हैं प्राण।

ललित



.4.08.19
चौपाइयाँ
दिल

दिल अक्सर चुप ही है रहता।
सारे ग़म खुद ही है सहता।

खुशियाँ सबसे साझा करता।
ग़म अपनी झोली में भरता।

ललित

 पीयूष वर्ष छंद
श्याम सुंदर

श्याम सुंदर साँवरे मुरलीधरा।
घूम ले कश्मीर तू भी अब ज़रा।
घाटियों में बाँसुरी कुछ यूँ बजा।
आसमाँ छूने लगे भारत-ध्वजा।

'ललित'


पीयूष वर्ष छंद
प्रीत

प्रीत में भीगा हुआ सावन जगा।
प्यार दिल में दस्तकें देने लगा।
गूँजती शहनाइयाँ ले आइए।
कुछ फुहारें प्यार की दे जाइए।

ललित

पीयूष वर्ष छंद
तीन सौ सत्तर

तीन सौ सत्तर हटा ऐसे दिया।
आसमाँ में छेद कर जैसे दिया
दानवों से मुक्त कर कश्मीर को।
है सँवारा हिंद की तकदीर को।

ललित

गीतिका छंद
वादियाँ

वादियों में फूल महके,राह निष्कंटक बनी।
खिल उठे मुख हैं सभी के,और दीवाली मनी।
चाँद मुस्काने लगा है, आसमाँ भी हँस रहा।
दुश्मनों का प्राण मानो,हलक में है फँस रहा।

 ललित


गीतिका छंद
ज़िंदगी का कारवाँ

ज़िंदगी के कारवाँ में प्यार की बरसात हो।

खूबसूरत ज़िन्दगी हो प्रीत की सौगात हो।

द्वार से ही लौट जाए दुःख उल्टे पाँव से।

ज़िंदगी शीतल रहे हरदम सुखों की छाँव से।

ललित

पीयूष वर्ष छंद
कश्मीर

हिंद का सरताज जो कश्मीर है।
वो सदा से हिंद की जागीर है।
नींद से अब जाग तू इमरान जा।
हिंद का कश्मीर है ये मान जा

क्या हुआ मायूस तू क्यों होगया?
तीन सौ सत्तर हवा जो हो गया।
डाल मत कश्मीर पर गंदी नज़र।
है हमें आतंक का कुछ भी न डर।

ललित

पीयूष वर्ष छंद
बाँसुरी

बाँसुरी थी क्यों बजाई साँवरे?
छोड़ना था जब तुझे व्रज-गाँव रे।
गोपियों सँग रास भी था क्यों रचा?
राधिका को क्यों रहा था तू नचा?

ललित

पीयूष वर्ष छंद
बदरा

झूम कर बरसो बदरवा साँवरे।
नीर का प्यासा हमारा गाँव रे।
सुन जरा प्यासी धरा की सिसकियाँ।
प्यास से रोती धरा की हिचकियाँ।

ललित

दोहा

नौटंकी करते रहे,इतने दिन तक आप।
क्या अब तक लेते रहे,गहराई का नाप?

ललित

पीयूष वर्ष छंद
राधिका की प्रीत

राधिका की प्रीत ऐसी श्याम से।
राह में आँखें बिछाए शाम से।
श्याम जब आए चमन दिल का खिले।
माधुरी मुस्कान अधरों पर मिले।

ललित

पीयूष वर्ष छंद
गीत

राधिका की प्रीत ऐसी श्याम से।
राह में आँखें बिछाए शाम से।
प्रीत राधा कृष्ण की यों पावनी।
शांत शीतल ज्यों फुहारें सावनी।
रात-रानी सी महक उठती वहाँ।
श्याम राधा का मिलन होता जहाँ।


श्याम जब आए चमन दिल का खिले।
माधुरी मुस्कान अधरों पर मिले।
हर लता खुश हो हवा में झूमती।
चाँदनी निर्मल धरा को चूमती।
चाँद भी कुछ पल ठहर जाता वहाँ।
श्याम राधा का मिलन होता जहाँ।


बाँसुरी छूती अधर जब श्याम के।
गूँजते हैं सुर हृदय विश्राम के।
बंद हों जब नैन राधा के चपल।
दल-दलों में खिल उठें सुंदर कमल।
देवता सब देखते नभ से वहाँ।
श्याम राधा का मिलन होता जहाँ।

ललित

मुक्तक
राधा

बनी घनश्याम की छाया,बिरज में घूमती 
है वो।
सुरीली बाँसुरी की धुन,सुने तो झूमती है वो।
बड़ी चंचल बड़ी भोली,दिवानी श्याम की राधा।
चिढ़े वो जिस मुरलिया से,उसी को चूमती है वो।

ललित

मुक्तक 14-14
फुहारें

फुहारें छू रही तन को,अगन में झोंकती मन को।
हवा शीतल सुहानी ये,बढ़ाती और उलझन को।
करे कल-कल नदी ऐसे,नवेली ज्यों चले छम-छम।
चले आओ सजन जल्दी,करो रंगीन सावन को।

ललित

मुक्तक 14-14
सितारे

सितारों की टिमा-टिम से,यहाँ रंगीन हैं रातें।
रजत से चाँदनी-चंदा,करें गुप-गुप मुलाकातें।
हिले वो चाँद सरवर में,चँदनिया गुन-गुनाती है।
नदी के कूल पर सजनी,करें हम प्यार की बातें।

ललित


छंद सिंधु
1222 1222 1222
दो दो समतुकांत

19.08.19
छंद सिंधु
धुन

न जाने कौन सी धुन पर थिरकता मन?
नई नित चाहतों में ये सरकता मन।

बसे मद-मोह-माया लोभ हर रग में।
न मन वश में किया तो क्या किया जग में?
ललित

छंद सिंधु
सुख-दुख

बिना दुख के किसे सुख है यहाँ मिलता?
बिना कंटक चुभे गुल है कहाँ खिलता?
निराला है यहाँ पर भाग्य का लेखा।
परिश्रम से बदलता भाग्य भी देखा।

ललित

छंद सिंधु
बहारें

बहारों का रहे मौसम सदा प्यारा।
तुम्हारी ज़िन्दगी में ग़म न हो याराँ।
मिले हर भोर ताजा इक खुशी तुमको।
भुला लेकिन न देना तुम कभी हमको।

ललित


छंद सिंधु
राधा


दिवानी श्याम की ऐसी  हुई  राधा।
लुभाए साँवरा रँग और भी ज़्यादा।
निगाहें खोजती हर-पल कन्हैया को।
बजैया  बाँसुरी के,गौ-चरैया को।

ललित
 


कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा
भानमती ने कुनबा जोड़ा।
वही बना अब जानी-दुश्मन
जोड़ा था जो थोड़ा-थोड़ा।


महाश्रृंगार छंद
मुरलीधर

सुना है मुरलीधर घनश्याम,बजाता मुरली तू हर भोर।
सुने जो उस वंशी की तान,वही हो जाता
भाव विभोर।
मोरपंखी है तेरा ताज,और तू चोरों का सिरमौर।
चुराता है माखन हर रोज,मचाता है गलियों में शोर।

ललित

पंचचामर छंद
खुशी

कभी मिले खुशी कभी पहाड़ दुःख के मिले।
कभी बहार तो कभी न एक भी कली खिले।
हसीन मोड़ ज़िन्दगी कभी दिखा गई हमें।
कभी हज़ार ठोकरें मज़ा चखा गईं हमें।

ललित

पंचचामर छंद
सुता

सुता मिली नसीब से न हो दुलार की कमी।
गले लगा रखो  उसे रहे न प्यार की 
कमी।
पढ़ा-लिखा करो जवाँ छुए न आसमान क्यों?
जहाँ सुता पले वहाँ बढ़े न आन-बान क्यों?

ललित

पंचचामर छंद
राम नाम

लिया न नाम राम का जपा न श्याम नाम ही।
न लोभ-मोह से बचा भुला सका न काम ही।
हसीन जिंदगी जिया किए न पुण्य दान ही।
चला गया जहान से बचा सका न प्राण ही।

ललित

पंचचामर छंद
श्याम

बजा रहा न बाँसुरी न एक कौर खा रहा।
न नंद-लाल ग्वाल-बाल-धेनु संग जा रहा।
न खेलता न कूदता न धूम वो मचा रहा।
कि राधिका बिना न श्याम गोपियाँ नचा रहा।

ललित

पंचचामर
देशभक्ति

खिलें वहाँ हजार फूल फौज हिंद की जहाँ।
करे हजार शूल चूर्ण फौज हिंद की वहाँ।
उठा सके न आँख शत्रु देख हिंद के जवाँ।
हरेक जंग के लिए जवान हिंद के रवाँ।

ललित
कुण्डलिनी छंद
कनटोप

कमर-बेल्ट बाँधे हुए,माथ धरे कनटोप।
नहीं चले तो दस गुना,जुर्माना तू सौंप।

जुर्माना तू सौंप,भले टूटी हैं सड़कें।
साँड लड़ें हर ओर,करम-फूटी हैं सड़कें।

ललित