नव सृजन प्रतियोगिता


ताटंक छंद

रंग चढ़ा सुख दुख के मन को,रब ने खूब निचोड़ा है।
सुख दुख में गोते खाता ये,मानव तभी निगोड़ा है। 
मन हरदम उलझा रहता है,सुख दुख की परिभाषा में।
सुख हाथों से निकला जाए,और सुखों की आशा में।

घर की दीवारों की भाषा,मानव समझ कहाँ पाया?
मौन खड़ी मीनारों से भी,ये मन सुलझ कहाँ पाया?
ताजमहल क्या कभी किसी को,अंदर का सुख दे पाया?
रिश्तों की दुनिया से भी क्या,ये मन वो सुख ले पाया?

पकड़ नहीं पाता क्यों सुख को,मन ये अपनी मुट्ठी में?
माँ भी नहीं पिला सकती क्यों,सुख बचपन की घुट्टी में?
कितना समझाया इस मन को,मत भागो सुख के पीछे।
लेकिन ये तो दीवाना सा,भाग रहा आँखे मींचे।

दुख में कोई हँसता देखा,कोई सुख कम ही आँके।
खुद के सुख को भूला कोई,दूजे के सुख में झाँके।
दूजे का दुख हरकर कोई,अंदर का सुख पाता है।
अंदर का सुख पाकर मानव,मंद मंद मुस्काता है।

सुख दुख के बादल इस नभ में,रह रह कर
यूँ छाते हैं।
बिन बरसात किये ही बादल,दूर कहीं उड़ जाते हैं।
पर मानव क्यूँ डर जाता है,देख बादलों को आया।
सूरज पर विश्वास करें तो,मिले बादलों से छाया।

'ललित'

17.12.17
चित्र पर आधारित
#नवसृजन" प्रतियोगिता के अंतर्गत

विष्णुपद छंद

चाँद-चाँदनी प्रेमांकुर को,रोपित जब करते।
टिम -टिम करते तारे नभ में,प्रेम रंग भरते।
खुले आसमाँ के नीचे तब,प्रीत कमल खिलता।
साजन सजनी के अधरों से,अधर मिला मिलता।

शीतल शांत सरोवर जल में,श्वेत चाँद चमके।
मंद समीर सुगंध बिखेरे,नयन काम दमके।
प्रीत पगी अँखियों से साजन,को चूमे सजनी।
देखा उनका प्यार जवाँ तो,झूम उठी रजनी

नीम निमोरी पग से चटकें,गुलमोहर महके।
रिमझिम बरस रही है बरखा,दादुर भी बहकें।
सजनी की भीगी जुल्फों से,मोती जब टपकें।
हर मोती मुखड़े पर निखरे,पलक नहीँ झपके।

रह रह कर चमके जो बिजली,जियरा है धड़के।
साजन की बाहों में सजनी,चुनरी भी सरके।
चमक चमक चमकें हैं जुगनू,कोयल कूक रही।
साजन सजनी के मन में उठ,चंचल हूक रही।

काले काले बदरा नभ में,रह रह गरज रहे।
ऊँचे पर्वत की चोटी पर,जम कर बरस रहे।
पत्ता पत्ता खड़क रहा है,बरखा यूँ बरसे।
चाँद चाँदनी से अपनी अब,मिलने को तरसे।

'ललित'
                  समाप्त
11

दिसम्बर 17


'काव्य सृजन परिवार' के
साझा काव्य संग्रह
'राज की काव्यांजलि' का भव्य विमोचन ,
काव्य गोष्ठी व अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन दिनांक 26.12.17 व 27.12. 17 को ऋषभदेव उदयपुर के प्रांगण में सफलतापूर्वक पूर्ण उल्लास के साथ संपन्न हुआ।
       आदरणीय उपेंद्र अणु जी व वागड़ परिषद ऋषभदेव का इस आयोजन को सफल बनाने में अपूर्व सहयोग के लिए हृदय तल से आभार... 
        काव्य सृजन  परिवार  के एडमिन आदरणीय राकेश दीक्षित 'राज' जी को नवोदित रचनाकारों को छंद बद्ध सृजन सिखाने एवं साहित्य जगत में अभूतपूर्व योगदान के लिए वागड़ मंच ऋषभदेव,उदयपुर के द्वारा 'छद श्री' सम्मान से अलंकृत किया गया।
       आपके मित्र को इस अवसर पर
'काव्य भूषण' सम्मान से अलंकृत किया गया..
        आदरणीय अणु जी व वागड़ मंच ऋषभदेव का इस आयोजन को सफल बनाने में अपूर्व सहयोग के लिए हार्दिक आभार...
      दिव्य भव्य समारोह की कुछ सुनहरी यादें आपके साथ साझा करते हुए अपार हर्ष हो रहा है....

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सोरठा

पुष्प गुच्छ इतराय,देख भ्रमर की चाह को।
कली-कली बल खाय,खिलने को व्याकुल बड़ी।

गुंजन में सब प्यार,भौंरे ने बरसा दिया।
दे बाहों के हार,फूलों ने अपना लिया।
ललित
सोरठा

मंगलमय नव वर्ष,प्रेम सुधा बरसा रहा।
हर दिल को दे हर्ष,वर्ष पुराना जा रहा।

दिल के सारे दर्द,साल पुराना ले गया।
छँट जाएगी गर्द,वर्ष नया ये गा रहा।

सोरठा

दिल से हो जो प्रीत,दिल को भाती है बड़ी।
झूठे-सच्चे मीत,दिल को तड़पाते सदा।

करना प्रीत सुजान,सच्चे यारों से सदा।
उसको अपना मान,जो सुख दुख में साथ दे।

सोरठा

रास रचाए श्याम,छम-छम नाचें गोपियाँ।
थिरक रहा व्रज धाम,वंशी-वट भी झूमता।

नाचे नटवर श्याम,गोप-गोपियाँ ताल दें।
राधा की हर शाम,रास रचाते बीतती।

ललित

सोरठा

दिल में हैं जो भाव,क्यों न कलम लिख पा रही?
नये साल में नाव,बरबस मेरी जा रही।

कैसा होगा साल,यार अठारा का नया?
उग आएँगें बाल,गंजों के सिर पर नए?

दोहे

अब जल्दी घर जायगा,ये सतरा का साल।
धूम  मचाता  आयगा, अठरा  दे  दे  ताल।

मुक्तक प्रयास

कई घाव ऐसे भी होते यहाँ।
जिन्हें देख पाता नहीं है जहाँ।
नासूर वो बन न जाएँ कहीं।
दवा है जरूरी लगाना वहाँ।

ललित
मुक्तक
खामोशियाँ पसरी हुई क्यों, हर दिशा में आज हैं?
ये चाँदनी सहमी हुई जो,इस कदर क्या राज हैं?
ये आदमी की आदमी से,हर तरफ है जंग क्यों?
क्यों आज नर हर पल दिखाते,नित नए अंदाज हैं।

कुण्डलिनी
हरिपद

मधुर मधुर वो बाँसुरी,सुन ले जो इक बार।
ध्यान लगे उसका वहीं,हो जाए भव पार।

हो जाए भव पार,पाप सारे कट जाएँ।
इसीलिए हर भोर,गोपियाँ भागी आएँ।

दोहे

संग राधिका रास जो,करता है निष्काम।
जपती सारी गोपियाँ,उस कान्हा का नाम।

खुशकिस्मत वो फूल जो,गजरे में गुँथ जाय।
राधा पहने हाथ में,नाच-नाच लहराय।

राधा-राधा जो जपे,कर कान्हा का ध्यान।
कान्हा कान लगा सुने,राधा का गुण-गान।

कान्हा तेरे प्यार की,जिसे मिली हो छाँव।
पल दो पल को भेज दे,उसको मेरे गाँव।

दोहे
सुदामा

सुना सुदामा नाम तो,कान्हा पहुँचे द्वार।
गले लगाया मित्र को,दे बाहों का हार।

बचपन का जो मित्र था,खेला था जो साथ।
पूछे उसके हाल यों,ले हाथों में हाथ।

चावल में अनुभव किया,जब भाभी का प्यार।
मीत सुदामा को दिया,वैभव अपरम्पार।

ललित

15.12.
दोहात्रय

दुनिया तेरी देखली,ओ नटवर घनश्याम।
करे कभी मशहूर ये,और कभी बदनाम।

बित्ते भर का छोकरा,व्रज में धूम मचाय।
बजा अनोखी बाँसुरी,गोपिन रहा नचाय।

यमुना तीरे साँवरा,वंशीधर गोपाल।
कंकर से घट फोड़ता,गोप हँसें दे ताल।

ललित

दोहे

पलकों पर बैठा किया,हमने जिनका मान।
उनकी नजरें ही हमें ,नहीं रही पहचान।

दो पल की थी दोसती,लोक-लुभावन प्यार।
जीवन भर की दुश्मनी,अब है उससे यार।

प्यार सदा सच्चा वही,जो दिल को ले जीत।
दिल को देते चीर हैं,झूठे-सच्चे मीत।

ललित

मान और अपमान को,कभी न दे जो तूल।
शीतल मंद सुगंध दें,कंटक भी बन फूल।

दोहा

मुरली मधुर बजा रहे,नंदनवन में श्याम।
बरसाने की छोकरी,आ पहुँची व्रज धाम।

पवन करे सरगोशियाँ,यमुना मचली जाय।
सुन कान्हा की बाँसुरी,कली-कली मुस्काय।

पादप सँग झूमे लता,कृष्ण राधिका साथ।
नृत्य करें सब गोपियाँ,ले हाथों में हाथ।

बजी सुरीली बाँसुरी,नंद-भवन के पास।
दौड़ी आई गोपियाँ,दर्शन की है आस।

13.12.17
दोहे

व्रज की सारी गोपियाँ,करती जिससे प्यार।
कितना सुंदर श्याम वो,होगा करो विचार।

व्रज में माखन चोरियाँ,करता है जो चोर।
उसकी वंशी से बँधी,सबके मन की डोर।

नज़र मिलाकर ले गए ,जो राधा का चैन।
भूल न पाए राधिका,कजरारे वो नैन।

आगे-आगे भागता,नटखट नंदकिशोर।
पीछे-पीछे गोपियाँ,पकड़ न पाएँ चोर।

भ्रमर सभी चुप हो गए,और हुए चुप मोर।
अभी बजेगी बाँसुरी,होगी स्वर्णिम भोर।

12.12.17

प्रार्थना पंच दोहे

छू कर देखूँ मैं तुझे,ओ कान्हा इक बार।
मेरी इतनी प्रार्थना, कर ले तू स्वीकार।

राधा जी के साथ में,हो तेरा दीदार।
नाथ-द्वारिका साथ मैंं,लूँ सैल्फी इक बार।

चरण-धूलि सिर पर धरूँ,बस इतनी है आस।
एक बार राधा सहित,आओ मेरे पास।

राधा-राधा मैं जपूँ,निशि-दिन आठों याम।
चाहूँ बस मैं देखना,कैसा था व्रज-धाम?

कैसी थी वो बाँसुरी,कैसे उसके गीत?
राधा के मन को सदा,लेती थी जो जीत।

ललित

तीन दोहे

कुछ दूरी तो साजना,चलते मेरे साथ।
क्यों छोड़ा मझधार में,इस सजनी का हाथ?

प्यार तुम्हें है साजना,तो कर लो स्वीकार।
इस सजनी का प्यार भी,कर लो अंगीकार।

तेरे हिय में थी बसी,अब तक मेरी प्रीत।
आज वही घायल हुई,क्यों मेरे मनमीत?

'ललित'

11.12.17
विरह दोहे

कुछ तो है जो है छुपा,बादल के उस पार।
शायद चंदा हो उधर,या हो मेरा प्यार।

चंदा से ये चाँदनी,आज हुई क्यों दूर?
बतला तो दे साजना,क्यों है तू मजबूर?

तन मन को सुलगा रही,विरह अगन अविराम।
आग विरह की क्यों हुई,इस प्यासी के नाम?

'ललित'

दोहे विरह

सूना-सूना आँगना,सूने मेरे नैन।
आजा अब तो साजना,मनवा है बेचैन।

नैना निश-दिन देखते,सपने तेरे मीत।
जिव्हा मेरी सूखती,गा विरहा के गीत।

गर्म गर्म है बह रही,नैनों से रसधार।
आस मिलन की है जगी,आ जा मेरे प्यार।

ललित

दोहे

शब्द तीर भी बन सकें,शब्द हर सकें पीर।
लगे आग दिल में अगर,शब्द बन सकें नीर।

शब्दों से आहत हुआ,जिस मानव का मान।
उसकी तो समझो वहीं,निकल गई हो जान।

अपनी-अपनी ढपलियाँ,अपने-अपने राग।
अपनी-अपनी बुद्धियाँ,अपने-अपने भाग।

'ललित'

दोहे

रचना सुंदर हो तभी,मर्यादित हों शब्द।
नहीं भरा कुछ द्वेष हो,और न कोई खप्त।

सोच समझ कर शब्द लो,रचना में वो खास।
पढने वाले को सदा,आते हों जो रास।

सुंदर सुंदर शब्द हों,प्रेम-डोर के पाश।
भाव-छंद में बाँध लो,चाँद और आकाश।

'ललित'

दोहे पाँच
बिलकुल साँच

दिखने में पक्की लगे,हर रिश्ते की डोर।
दुख में रिश्ते का मगर,दिखे न कोई छोर।

रिश्ता तो हरि से रखो,इस रिश्ते में सार।
बाकी रिश्ते अंत में,देते केवल खार।

जग में जीना सीख लो,चलो अकेले यार।
सबको अपनी है पड़ी,कौन करेगा प्यार।

ऊपर-ऊपर से रखो,हर रिश्ते से प्रीत।
मन में इतना जान लो,झूठे हैं सब मीत।

मेला दुनिया का दिखे,कितना भी रंगीन।
मेले की आत्मा मगर,दिखती है गमगीन।

'ललित'

दोहे

लिखना वो ही है भला,जिसमें हो कुछ खास।
माँ शारद उस लेख के,सदा रहेगी पास।

माँ शारद किरपा करो,लिख पाऊँ कुछ खास।
शब्दों में भी ज्ञान की,होवे मधुर सुवास।

छोटे-छोटे शब्द लो,भाव-भक्ति में घोल।
छंदों में बँध कर सभी,शब्द बनें अनमोल।

ललित

8.12.17
दोहे

पल-पल-पल-पल कर मुआ,जीवन बीता जाय।
रीता आया रे मना,रीता वापस जाय।

जीना हर नर चाहता,मरना किसे सुहाय।
मरने की तैयारियाँ,किए बिना मर जाय।

मरने की तैयारियाँ,करने की हो चाह।
बाँधो गठरी पुण्य की,चलो धर्म की राह।

मरना निश्चित है यहाँ,मृत्युलोक है नाम।
माया-नगरी झूठ है, सत्य एक है राम।

कोड़ी-कोड़ी जोड़ के,कोठी-महल बनाय।
कच्ची माटी की मगर,देह न साथ निभाय।

'ललित'

6.12.17
हरिगीतिका छंद

इस जिंदगी ने जो सिखाया,सीख मैं पाया नहीं।
मैं जिंदगी से सुर मिला कर,गीत गा पाया नहीं।
जीता रहा बस स्वप्न में ही,ख्वाब में ही खो रहा।
वो स्वप्न आखिर टूटना था,टूटकर ही वो रहा।

ललित

हरिगीतिका छंद

वो प्यार की लेकर पताका,जिन्दगी जीता रहा। जो भी दिए गम जिन्दगी ने,प्रेम से पीता रहा।
भरता रहा था इंद्रधनुषी,रंग अपने प्यार में।
बदरंग सब सपने लिए,अब डोलता संसार में।

ललित

हरिगीतिका छंद

कब कौन कैसे किस जगह पर,छोड़ तन को जायगा?
ये है सुनिश्चित साँस कितनी,जीव ये ले पायगा।
मरना अटल इक सत्य है ये,बात मन से मान लो।
इक रोज माटी में मिलेगी,देह ये तुम जान लो।

हरिगीतिका छंद
प्रार्थना

हे श्याम सुंदर साँवरे,मेरी अरज सुन लो जरा।
कर जोड़ विनती मैं करूँ,है शीश चरणों में धरा।

मन कामना मेरी यही,हर लो प्रभो हर कामना।
गिरने लगूँ जब धर्म-पथ से हाथ मेरा थामना।

ललित
4.12.17

हरिगीतिका छंद

है नाव ये मझधार में,देखो खिवैया भी नया।
पतवार थामे भागता है,देखकर आती दया।
मझधार हो तो ठीक है,लेकिन भँवर गहरा यहाँ।
सब उँगलियाँ है होंठ पर, हर अधर पर पहरा यहाँ।
'ललित'

4.12.17
हरिगीतिका छंद

क्यूँ दे दिया दुख ये जुदाई का मुझे बैरी पिया।
दुख और सह सकता नहीं नाजुक बड़ा मेरा जिया।
बरसात भी बरसे झमाझम हूक मन में उठ रही।
हर कामना पिय से मिलन की आँसुओं में बह रही।
ललित

3.12.17
हरिगीतिका छंद

जब श्याम सुंदर राधिका सँग,रास गोकुल में करे।
तब चाँद झुक जाता जमीं पर,चाँदनी झर-झर झरे।
कण-कण बिरज का कृष्ण-राधा,के चरण चूमे वहाँ।
बाँके-बिहारी लाल की मुरली मधुर गूँजे जहाँ।

ललित

दिसम्बर 17
हरिगीतिका
वो बाग का माली खड़ा अब,पूछता है बाग से।
किसने जलाया है तुझे तू,जल गया किस आग से?
गुलजार था गुलशन कभी जो,आज क्यों सुनसान है?
क्यों रंग सब धुँधला गए हैं,फूल सब बेजान हैं?

ललित
2.12.17
हरिगीतिका छंद
ये बावरा मन चाहता है,चूमना आकाश को।
मुश्किल बड़ा है तोड़ना अब,मोह के इस पाश को।
आकाश को छूना नहीं है,सहज कोई काम यों।
चंचल मगर मन देखता है,ख्वाब आठों याम क्यों?

ललित