कुण्डलिनी

कुण्डलिनी

2
गहरे दलदल में धँसी,हर रिश्ते की नाव।
ऊपर आ पाती नहीं,लाख लगालो दाँव।
लाख लगालो दाँव,सदा ही डगमग डोले।
रुपयों की पतवार,चले तो जय जय बोले।
'ललित'
कुण्डलिनी

कृष्ण दीवाने 11.1.17

कान्हा तेरे प्रेम में,बड़ी अनोखी बात।
नाचें प्यारी गोपियाँ,सारी सारी रात।
सारी सारी रात,भूल सुध बुध वो डोलें।
भूलें अपने गात,साँवरी खुद भी हो लें।
'ललित'

रोला सृजन 26.5.16 से

रोला
1

धरती प्यासी आज,गगन भी रीत रहा है।
लहरें देती थाप,समन्दर बीत रहा है।

धूप जलाए गात,हवा लपटों सी चिपके।
आँसू की बरसात,गाल अन्दर को पिचके।
ललित

कुण्डलिनी

मन ही मन में मत रखो,अपने मन की बात।
मन की कहने को मिली,आँखों की सौगात।
आँखों की सौगात,मिली मानव को ऐसे।
सौरभ की बारात,मिली फूलों को जैसे।

'ललित'

कवि सम्मेलन


अपने आगमन का सम्भावित समय अवश्य बताएँ...3 जून को शाम 4 बजे तक आपको
" भार्गव वाटिका मैरिज होम"
पैलेस के सामने, गुलाब बाग़, धौलपुर ( राज.) आना है।
1
हरि गीतिका
बाल विवाह
क्या भूल मुझसे होगयी माँ,त्याग जो मुझको रही।
यदि प्यार करती है मुझे तू,ज्ञान दे मुझको सही।
बाली उमर में ब्याह मत माँ,दे मुझे परवाज तू।
इस बाग की नाजुक कली को,दे विदा मत आज तू।
देखा नहीं जाना नहीं है,जिंदगी के खेल को।
तू दे सहारा बेसहारा,बाग की इस बेल को।
देखे निराले स्वप्न मैं ने,क्या बताऊँ माँ तुझे।
हों स्वप्न वो साकार माँ दे,एक मौका तू मुझे।

'ललित'
2
हरिगीतिका छंद
16:12
बाल विवाह

बाली उमर में ब्याह जीवन ,नष्ट मत कर दीजिए।
पढ़-लिख बनूँ मैं आत्म-निर्भर,नेक अवसर दीजिए।
नाजुक कली हूँ बाग की मैं,रौंद यूँ मत डालिये।
सौरभ बनूँ इस बाग की मैं,नेह से यूँ पालिये।।

ललित
3
जलहरण घनाक्षरी
कन्या भ्रूण हत्या
अजन्मी की व्यथा

मुख मत मोड़ना माँ,मुझे मत मारना माँ।
तेरी परछाई हूँ मैं,कातिल ये जहान है।

चलती है पुरवाई,बरखा है बरसती
दुनिया है फुलवारी,गायब बागबान है

लहराता समंदर,ऊपर नीला अम्बर।
सतरंगी बहार है,ये प्यारा गुलिस्तान है।

घूमी लख चौरासी मैं,मानुष योनि पाने को।
मुझको भी देखने दे,दुनिया आलीशान है।

'ललित'
4
रुबाई

माँ तेरे दामन की खुशबू,मन को शीतल कर जाए।
तेरे ये दो नैना मुझ पर,स्नेह सुधा नित बरसाएँ।
पथ में जो काँटे बिखरे माँ,दूर उन्हें तुम कर देना।
तेरे आँचल की छाया माँ,मन में खुशियाँ भर जाए।
माँ-बेटी का होता जग में,सबसे सुंदर नाता है।
प्यार दिया जो तू ने मुझको,झोली में न समाता है।
अपनी इस बेटी का दामन,खुशियों से माँ भर देना।
चूमे जब तू माथा मेरा,रोम रोम खिल जाता है।

'ललित'
5
ताटंक छंद

माँ की याद में

माँ मैं मूरख समझ न पाया,तेरे दिल की बातों को।
मेरी राह तका करती थी,क्यूँ सर्दी की रातों को?
मेरे सारे सपनों को माँ,तू ही तो पर देती थी।
मेरी हर इक चिन्ता को तू,आँचल में भर लेती थी।
आज अकेला भटक रहा हूँ,मैं इस जग के मेले में।
तेरी कमी अखरती है माँ,जब भी पड़ूँ झमेले में।
माँ तेरी यादों में मेरी,आँखें नीर बहाती हैं।
तेरी सीखें अब भी मुझको,राह सदा दिखलाती हैं।

1
कन्या भ्रूण हत्या

माँ तू नारी होकर इतनी,निष्ठुर क्यूँ बन जाती है।
कन्या की आहट सुन तेरी,चिन्ता क्यूँ बढ़ जाती है।
तेरी हिम्मत से ही माता,युग परिवर्तन आएगा।
तू आवाज उठाएगी तो,कोई दबा न  पाएगा।
माँ मै तुझ सी प्यारी सूरत,लेकर जग में आऊँगी।
किलकारी से घर भर दूँगी,पैंजनियाँ छनकाऊँगी।
तेरी गोद हरी कर दूँगी,साँस मुझे भी लेने दे।
जीवन रूपी रथ की ऐ माँ,रास मुझे भी लेने दे।
जब तू मुझको छूती है माँ,अपने मन की आँखों से।
मन करता है उड़ जाऊँ मैं,तेरे मन की पाँखों से।
माँ इतना ही वादा कर ले,मुझको जग में लाएगी।
किसी दुष्ट की बातों में आ,मुझको नहीं मिटाएगी।

2
गर्भवती माँ की संवेदना

मेरे अन्दर पनप रही जो,एक कली अरमानों की।
नजर न लगने दूँगी उसको,इन बेदर्द सयानों की।
बेटी मेरी माँ बनने की,आस तभी पूरी होगी।
गोदी में खेलेगी जब तू,नहीं तनिक दूरी होगी।
लड़ जाऊँगी मैं दुनिया से,बेटी तुझे बचाने को।
सीखूँगी सब दाँव पेंच मैं,ताण्डव नाच नचाने को।
मेरे आँगन में किलकारी,भरने तू ही आएगी।
तेरी जान बचाने में ये,जान भले ही जाएगी।
'ललित'
नारी शक्ति
3
नारी शोषण

मन ही मन में खुश होकर हम, नारा खूब लगाते हैं।
जहाँ होय नारी की पूजा ,देव वहीं रम जाते हैं।
नारा देने वाले ने यह,सपने में कब सोचा है।
नारी के अधिकारों को तो,हर युग में ही नोंचा है।
4
बेटी
"चार कदम"
मुक्तक दिवस 157
समारोह अध्यक्ष आदरणीय आर.सी.शर्मा.
आर सी जी को समर्पित

मुक्तक

बेटी बनकर जन्मी हो तुम,बेटा बनकर जी जाओ।
अपनी रक्षा करने के गुर,घुट्टी में ही पी जाओ।
जिसने मन में ठानी उसके,कदमों तले जमाना है।
पीछे मुड़कर नहीं देखना,आगे बढ़ती ही जाओ।

'ललित'
11
हरि गीतिका

माँ की याद

माँ आज तेरी याद में मन,चाहता है डूबना।
हर ओर खुशियाँ तैरती पर,मन न चाहे झूमना।
वो डाँट के आँखे दिखाना,वो झिड़कना प्यार से।
फिर लाड से मुझको मनाना,चूमना मनुहार से।
हर बात आती याद जैसे,बात हो कल रात की।
क्यों मैं न तेरा प्यार समझा,कलयुगी सुत पातकी।
इस लाडले की जिन्दगी की,डोर तूने थी बुनी।
पर कब कहाँ बातें तुम्हारी,मूढ सुत ने थी सुनी।

'ललित'

विधाता छंद

सुखों को भोगने में ही,जवानी तू बिताता क्यूँ।
बुढापे के दुखों का डर,नहीं तुझको सताता क्यूँ।।
जवानी के दिनों में ही,प्रभू का नाम चख ले रे।
बुढापे के सुखों की तू,अभी से नींव रख ले रे।।
'ललित'

वाहह्ह्ह ललित जी.....लाज़वाब सृजन...सर्वकालिक...श्रेष्ठ रचना...हार्दिक बधाई....👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👍🏻👍🏻👍🏻💐💐💐🙏🏻🙏🏻🙏🏻
24
विधाता छंद

भला क्या है बुरा क्या है,नहीं तू जो समझ पाये।
लगा ले आत्म में गोता,वहीं से ज्ञान ये आये।।
जरा तू मौन रहने की,अदा भी सीख ले प्यारे।
जमीं,आकाश औ' तारे,सदा से मौन हैं सारे।
'
ललित'

ताटंक छंद

कितने अरमानों से बेटे,मैंने तुझको पाला था।
जग की सारी खुशियाँ तुझको,देता मैं मतवाला था।
आज उन्हीं खुशियों के बदले,हार गमों के देता तू।
कब जाओगे दुनिया से तुम,पूछ प्यार से लेता तू।

सोरठा सृजन

16.5.16
सोरठा
समीक्षा हेतु
1
गौसेवा की बात,समझाऊँ कैसे यहाँ।
गौ में हैं साक्षात,सारे देवी देवता।

मणि जी करें प्रणाम,गौमाता को सर्वदा।
पायेंगें परिणाम,सुख-शांति और सम्पदा।
ललित

सोरठा
समीक्षा हेतु
2
देख देश का हाल,नेता खुश होने लगे।
खूब गलेगी दाल,जनता प्यासी मर रही।

जनता की औकात,नेता समझेंगें तभी।
पड़ें जूत औ' लात,चौराहे के बीच में।

सोरठा
समीक्षा हेतु
3
होगी उसकी भैंस,लाठी जिसके हाथ में।
नेताओं की रेस,अंधों की चौपाल में।

खुल जाएंगें राज,महाकाल के राज में।
गरजेंगें जब 'राज',क्षिप्रा जी के तीर पे।
ललित

सोरठा
समीक्षा हेतु
4
दया-धर्म के काम,निशिदिन तुम करते रहो।
अपना लेंगें राम,सुमिरन जो चलता रहे।

नैना नीर बहायँ,बेटी को करते विदा।
काहे तू पछताय,पढा-लिखा जब है दिया।
ललित

सोरठा
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत
1
जैसा तेरा नाम,वैसा कर दे काम भी।
मुरलीधर घनश्याम, मधुर बजाकर बाँसुरी।

राधा तकती राह,मधुवन में घनश्याम की।
सखियाँ करती डाह,राधा के वश श्याम हैं।

ललित

सोरठा
समीक्षा हेतु
1
इस दिल के जजबात,समझेगा कैसे जहाँ।
कविता में हर बात,लिखना सम्भव है नहीं।

लिखते जैसे 'राज',अंतर में गोते लगा।
हम सब करते नाज,सौरभ फैली चहुँ दिशा।
ललित
सोरठा
समीक्षा हेतु
2
साजन तेरी याद,मन को मथ मथ डालती।
मन होना आजाद,चाहे ऐसी प्रीत से।

कान्हा तेरा प्यार,जीवन को महका रहा।
वारूँ सब संसार,मुरली की हर तान पे।

ललित
केडी आरजी28.1.17
सोरठा

बाँकी सी वो चाल,राधा को प्यारी लगे।
घुँघराले हैं बाल,मोर मुकुट सुंदर सजे।

चंचल वो चितचोर,राधा का चित ले गया।
ग्वाल-बाल हर ओर,कान्हा को ढूँढत फिरें।

ललित
सोरठा
समीक्षा हेतु
1
छज्जे पर जो काग,काँव काँव करता रहा।
फूटे उसके भाग,कंकरीट बढता गया।
नजर न आता आज,कौआ घर की डाल पे।
कौन बताए  राज,आने वाले का भला।
कोयल की वो कूक,हमें न सुनने को  मिले।
मन में उठती हूक,वन-उपवन सूने पड़े।

'ललित'

सोरठा
समीक्षा हेतु
2
मकड़ी से लो सीख,सदा गिर गिर कर उठना।
चींटी तोड़े लीक,नहीं ऐसा हो सकता।

पानी में रह आप,मगर से बैर न करना।
मछली देती श्राप,सूखे सब सरवर नदी।

गौ माता के रोज,प्रात में दर्शन करना।
पाना हो जो ओज,चरण रज सिर पर रखना।

'ललित'

सोरठा
समीक्षा हेतु
1
भूला तेरा नाम,ऐसा मन सुख में रमा।
बैठा दिल को थाम,आई जब दुख की घड़ी।

जग में तेरा नाम,लेता जो सुख में रहा।
कभी न आई शाम,जीवन भर सुख से जिया।
ललित

सोरठा

राकेश जी के सुझाव से सहित परिष्कृत

नैन बहायें नीर,सूखी सब नदियाँ पड़ी।
सूरज देता चीर,आपा धरती खो रही।
संग चाँदनी ताप,ऐसा है घुल मिल गया।
दोपहरी सी आप,जलती है अब चाँदनी।
ललित

सोरठा

ठण्डी मीठी बात,गर्मी में सूझे नहीं।
सावन की बरसात,सपनों में गुम हो गई।

सजनी साजन द्वार,प्यासी है कब से खड़ी।
पानी की मनुहार,साजन अब कैसे करे।

'ललित'

सोरठा

हल्की कर दो धूप,सूरज जी इस देश में।
झुलस रहा है रूप,बालाएं मुँह ढाँकती।

काले दिखते लाल,गोरे काले हो रहे।
कर दो बंद धमाल,नेताओं के देश में।

'ललित'

सोरठा

धरती हुलसत जात,पात-पात बिलखत रहे।
कण-कण आग समात,सूरज है इतरा रहा।

चाँद हुआ है लाल,मुरझाई अब चाँदनी।
गोरी के वो बाल,गर्मी से बल खा रहे।

'ललित'
सोरठा
केडी आरजी27.1.17

कान्हा जाता हार,राधा की मनुहार से।
छेड़े मन के तार,मुरली की हर तान से।

सखियाँ जाती झूम,मोहन की छवि देखके।
गोकुल में है धूम,लीलाधर के नाम की।

'ललित'

सूरज
सॉरी
विषय से परे

गर्मी तो ए यार,सूरज की अर्द्धांगिनी।
करती है बौछार,शीतलता की चाँदनी।

धूप नहीं कहलाय,सूरज की प्यारी कभी।
चाँद सदा इतराय,बाहों में है चाँदनी।

'ललित'

सूरज का ये ताप,समझाता है प्यार से।
सुनले रेे पदचाप,प्रलय की  समझदार तू।

धरती का हर रोम,शाप है तुझे दे रहा।
मुरझाया है सोम,चाँदनी रूप खो रही।

वन करते संताप,देख कर

माँ

माँ

1
रुबाई

माँ तेरे दामन की खुशबू,मन को शीतल कर जाए।
तेरे ये दो नैना मुझ पर,स्नेह सुधा नित बरसाएँ।
पथ में जो काँटे बिखरे माँ,दूर उन्हें तुम कर देना।
तेरे आँचल की छाया माँ,मन में खुशियाँ भर जाए।
माँ-बेटी का होता जग में,सबसे सुंदर नाता है।
प्यार दिया जो तू ने मुझको,झोली में न समाता है।
अपनी इस बेटी का दामन,खुशियों से माँ भर देना।
चूमे जब तू माथा मेरा,रोम रोम खिल जाता है।

ललित किशोर 'ललित'
कोटा
2
ताटंक छंद

माँ की याद में

माँ मैं मूरख समझ न पाया,तेरे दिल की बातों को।
मेरी राह तका करती थी,क्यूँ सर्दी की रातों को?
मेरे सारे सपनों को माँ,तू ही तो पर देती थी।
मेरी हर इक चिन्ता को तू,आँचल में भर लेती थी।
आज अकेला भटक रहा हूँ,मैं इस जग के मेले में।
तेरी कमी अखरती है माँ,जब भी पड़ूँ झमेले में।
माँ तेरी यादों में मेरी,आँखें नीर बहाती हैं।
तेरी सीखें अब भी मुझको,राह सदा दिखलाती हैं।

ललित किशोर 'ललित'
कोटा

3
ताटंक छंद
कन्या भ्रूण हत्या

माँ तू नारी होकर इतनी,निष्ठुर क्यूँ बन जाती है।
कन्या की आहट सुन तेरी,चिन्ता क्यूँ बढ़ जाती है।
तेरी हिम्मत से ही माता,युग परिवर्तन आएगा।
तू आवाज उठाएगी तो,कोई दबा नहीं पाएगा।
4
ताटंक छंद
कन्या भ्रूण हत्या

माँ मै तुझ सी प्यारी सूरत,लेकर जग में आऊँगी।
किलकारी से घर भर दूँगी,पैंजनियाँ छनकाऊँगी।
तेरी गोद हरी कर दूँगी,साँस मुझे भी लेने दे।
जीवन रूपी रथ की ऐ माँ,रास मुझे भी लेने दे।
जब तू मुझको छूती है माँ,अपने मन की आँखों से।
मन करता है उड़ जाऊँ मैं,तेरे मन की पाँखों से।
माँ इतना ही वादा कर ले,मुझको जग में लाएगी।
किसी दुष्ट की बातों में आ,मुझको नहीं गिराएगी।
5
ताटंक छंद
गर्भवती माँ की संवेदना

मेरे अन्दर पनप रही जो,एक कली अरमानों की।
नजर न लगने दूँगी उसको,इन बेदर्द सयानों की।
बेटी मेरी माँ बनने की,आस तभी पूरी होगी।
गोदी में खेलेगी जब तू,नहीं तनिक दूरी होगी।
लड़ जाऊँगी मैं दुनिया से,बेटी तुझे बचाने को।
सीखूँगी सब दाँव पेंच मैं,ताण्डव नाच नचाने को।
मेरे आँगन में किलकारी,भरने तू ही आएगी।
तेरी जान बचाने में ये,जान भले ही जाएगी।
'ललित'
नारी शक्ति
6
ताटंक छंद
नारी शोषण

मन ही मन में खुश होकर हम, नारा खूब लगाते हैं।
जहाँ होय नारी की पूजा ,देव वहीं रम जाते हैं।
नारा देने वाले ने यह,सपने में कब सोचा है।
नारी के अधिकारों को तो,हर युग में ही नोंचा है।
7
ताटंक छंद
बेटी

बेटी बनकर जन्मी हो तुम,बेटा बनकर जी जाओ।
अपनी रक्षा करने के गुर,घुट्टी में ही पी जाओ।
हार किसी से नहीं मानना,आगे बढ़ते जाना है।
जिसने मन में ठानी उसके,कदमों तले जमाना है।
8
हरि गीतिका

माँ की याद

माँ आज तेरी याद में मन,चाहता है डूबना।
हर ओर खुशियाँ तैरती पर,मन न चाहे झूमना।
वो डाँट के आँखे दिखाना,वो झिड़कना प्यार से।
फिर लाड से मुझको मनाना,चूमना मनुहार से।
हर बात आती याद जैसे,बात हो कल रात की।
क्यों मैं न तेरा प्यार समझा,कलयुगी सुत पातकी।
इस लाडले की जिन्दगी की,डोर तूने थी बुनी।
पर कब कहाँ बातें तुम्हारी,गौर से मैंने सुनी।

'ललित'

हरिगीतिका सृजन 9.5.16 से


9.05.16

हरि गीतिका
1

तुम प्रार्थना मेरी प्रभू सुन,लो पुकारूँ जब जहाँ।
चिन्ता मुझे कोई नहीं हो श्याम जब रक्षक वहाँ।
अब भूल मेरी माफ कर दो,नाथ तुम सा है कहाँ?
तव दर्शनों की आस में मैं,होरहा व्याकुल यहाँ।

हरि गीतिका
2
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

अब छोड़ ये घर आँगना ये,लाडली तेरी चली।
वो जा रही अब घर पराए,नाज से जो थी पली।
जाने नहीं  दुख दर्द कोई, जो दुआओं से फली।
खुशबू बिखेरेगी सदा इस,बाग की नाजुक कली ।

हरि गीतिका
3

नारी नहीं इक शक्ति हूँ मैं,जान मानव ले अभी।
तू वासना की पूर्ति का साधन समझना मत कभी।
ये नारियों का प्रण नराधम,दानवों सुन लो सभी।
देंगी तुम्हारे हर सितम का,ये तुम्हें उत्तर तभी।
'ललित'

हरि गीतिका
4

आया तुम्हारी शरण में मैं,छोड़ सारे दर हरे।
नाचूँ तुम्हारी चरण रज मैं,नाथ माथे पर धरे।
हो नाम का अब जाप निशिदिन,कामना मन ये करे।
मर्जी तुम्हारी ही करो ये,भाव मन में हैं  भरे।
हरि गीतिका
5

क्या भेंट चरणों में रखूँ मैं,सोच पाता हूँ नहीं।
सब कुछ बनाया है तुम्हीं ने,श्याम समझा हूँ यही।
जितना दिया है आपने प्रभु,खूब लगता है वही।
मर्जी न हो जो आपकी तो,कौन पाता है कहीं।
ललित

हरि गीतिका
6

अनमोल जो गहना बढाता,आदमी की शान को।
वो मोतियों का हार दीना,मात ने हनुमान को।
हनुमान ने तब तोड़ देखा,मोतियों को ध्यान से।
उनमें नहीं थे राम सीता,जो पियारे प्रान से।

'ललित'

हरि गीतिका छंद
7
माँ शारदे ये लाल तेरा,छंद लिखना चाहता।
संसार-दर्पण सा दिखे वो,बंध लिखना चाहता।
खोलो पिटारी ज्ञान की माँ,इस पुजारी के लिए।
हर राग की सरिता बहा माँ,जान कारी के लिए।

कुछ लय सिखा माँ दे दिशा इस,मूढ़ अपने लाल को।
माँ भाव सुंदर का समंदर,दे बना इस बाल को।
हो जाय पूजा माँ तुम्हारी,जब लिखूँ मैं ध्यान से।
इस लेखनी से वो सृजन हो,पूर्ण हो जो ज्ञान से।

'ललित'

हरि गीतिका छंद
8
माँ की याद

माँ आज तेरी याद में मन,चाहता है डूबना।
हर ओर खुशियाँ तैरती पर,मन न चाहे झूमना।
वो डाँट के आँखे दिखाना,वो झिड़कना प्यार से।
फिर लाड से मुझको मनाना,चूमना मनुहार से।
हर बात आती याद जैसे,बात हो कल रात की।
क्यों मैं न तेरा प्यार समझा,कलयुगी सुत पातकी।
इस लाडले की जिन्दगी की,डोर तूने थी बुनी।
पर कब कहाँ बातें तुम्हारी,मूढ़ सुत ने थी सुनी।

'ललित'
हरि गीतिका
9

वो आज बोली प्यार से इक,शर्ट सिलवा लो नई।
हम हो बड़े खुश सोचते थे,यार किरपा होगई।
जब शर्ट लेने को गये हम,शाम को बाजार में।
तो श्रीमती ने साथ साड़ी,एक लेली प्यार में।

हरिगीतिका
10

बाल विवाह
क्या भूल मुझसे होगयी माँ,त्याग जो मुझको रही।
यदि प्यार करती है मुझे तू,ज्ञान दे मुझको सही।
बाली उमर में ब्याह मत माँ,दे मुझे परवाज तू।
इस बाग की नाजुक कली को,दे विदा मत आज तू।
देखा नहीं जाना नहीं है,जिंदगी के खेल को।
तू दे सहारा बेसहारा,बाग की इस बेल को।
देखे निराले स्वप्न मैं ने,क्या बताऊँ माँ तुझे।
हों स्वप्न वो साकार माँ दे,एक मौका तू मुझे।

'ललित'

हरिगीतिका
11

वो सोचता है लौट घर को, जा रहा क्यों हाय मैं?
दो जून रोटी भी नहीं जो, ला सका कृषकाय मैं।
पैसा कमाने की कला की,कौन देता सीख है?
खुद था गरीबी में पला वो,माँगता अब भीख है।

'ललित'
हरिगीतिका
12

जो दे नई खुशियाँ सभी को,
    नाम उसका भोर है।
जब पूर्व में लाली मचलती,
     नाचता मन मोर है।
चिड़ियाँ लगें जब चहचहाने,
     घण्ट मंदिर में बजें।
प्रभु राम के सुमिरन भजन के,
     भाव तब मन में सजें।
       'ललित'

हरिगीतिका
13
भाव और छंद
राकेश जी के सुझाव से परि
जो भाव मन में आरहे वो,छंद के वश में नहीं।
जो छंद रचता भाव के बिन,धार होती है  नहीं।
सब भाव मन के छंद में जो,
ढंग से है भर सके।
हर शब्द उसके छंद का ही,
कथ्य मुखरित कर सके।
'ललित'

हरिगीतिका
14

प्यार
जो भावनाओं के समंदर,में लगा डुबकी रहे।
हैं प्रेम की मूरत बने वो,प्रीत पा सबकी रहे।
संसार सारा प्यार के ही,बंधनों का सार है।
मतलब न समझा प्यार का तो,जिंदगी बेकार है।
क्या प्यार क्या मनुहार है ये,कृष्ण श्री से जान लो।
क्या जिंदगी का सार है ये,गोपियों से ज्ञान लो।
उद्धव तुम्हारे योग को तुम,पास अपने ही रखो।
जो गोपियों के पास हैं अब,प्रीत के वो फल चखो।

'ललित'

हरि गीतिका
15
करुण रस
गीत
संपूर्ण गीत
अभिव्यक्ति-'मन से कलम तक'
आयोजन अध्यक्ष आदरणीय ओम नीरव जी व मंच की सेवा में
शीर्षक-हक(बेटी का हक)
गीत
अब छोड़ ये घर आँगना ये,लाडली तेरी चली।
खुशबू बिखेरेगी सदा इस,बाग की नाजुक कली ।

क्या भूल मुझसे होगयी माँ,त्याग जो मुझको रही।
यदि प्यार करती है मुझे तू,ज्ञान दे मुझको सही।
जाने नहीं  दुख दर्द कोई, जो दुआओं से फली।
खुशबू बिखेरेगी सदा इस,बाग की नाजुक कली ।

देखा नहीं जाना नहीं है,जिंदगी के खेल को।
तू दे सहारा बेसहारा,बाग की इस बेल को।
वो जा रही अब घर पराए,नाज से जो थी पली।
खुशबू बिखेरेगी सदा इस,बाग की नाजुक कली ।

माँ तात की ये लाडली अब,क्यूँ परायी होगई?
ओ भ्रात तेरी बहन में अब,क्या बुराई होगई?
लगता यही है आज बेटी,इक गई है फिर छली।
खुशबू बिखेरेगी सदा इस,बाग की नाजुक कली ।

वन बाग उपवन वाटिका सब,आज मुझसे पूछते।
इस जिंदगी के सब सुरीले,साज मुझसे पूछते।
तुम जा रही हो छोड़ कर क्यूँ,आज ये अपनी गली?
खुशबू बिखेरेगी सदा इस,बाग की नाजुक कली ।

'ललित'

ईमेल/रुबाई छंद सृजन/ email13.8.16

I              रुबाई 2.5.16

रुबाई छंद

1
देखो सुंदर सुंदर सपने,मैं झोली में भर लाया।
सुखमय जीवन करने के मैं,वादे भी ले कर आया।
मन की बात सदा बोलूँगा,सुनने की मत तुम बोलो।
दुनिया की मैं सैर करूँगा,उड़ना मुझे बहुत भाया।
'ललित'
क्रमश:
रुबाई
2
धरती सूखी अम्बर सूखा,ताल तलैया सूखे हैं।
गैस कनेक्शन मैं करवा दूँ,मानव चाहे भूखे हैं।
आमदनी कुछ भी हो लेकिन,
शौचालय बनवा डाले।
पानी का कुछ पता नहीं है,
शौचालय अब रूखे हैं।

'ललित'
रुबाई
3
तीसरा भाग

सपने सच करना है मुश्किल,जनता को अब बहलाओ।
छोटी छोटी खुशियाँ देकर,खूब उन्हें तुम गिनवाओ।
भोली ये जनता है इसको,याद नहीं कुछ रहता है।
जो वादे वो भूल चुकी है,भूल उन्हें अब तुम जाओ।
रुबाई
4

चाँद छुपा बदली के पीछे,धरती को यूँ तड़पाए।
कान्हा जैसे राधा को छू,छेड़छाड़ कर भड़काए।
राधा-कान्हा की मस्ती को,सखियाँ छुप-छुप कर देखें।
साँवल श्याम किशोरी राधा,चाँद न आगे बढ़ पाए।

ललित

रुबाई
5

मात पिता के चरणों में ही,सुख का सागर बहता है।
वहीं डाल दो डेरा अपना,वहीं कन्हैया रहता है।
उन चरणों की सेवा करके,भार मुक्त हो
जाओगे।
कान लगा कर सुनो जरा तुम,उनका दिल क्या कहता है?

'ललित'

रुबाई
6
पत्थर की छत-दीवारों से,मकान न्यारा बन जाए।
रहते हैं जब सभी प्रेम से,तब सुंदर घर बन पाए।
प्यारा सबसे वो घर जिसमें,प्यारी सी इक मुनिया हो।
आँगन में तुलसी-वन हो जो,याद प्रभू की दिलवाए।

रुबाई
7
पानी की ये मारा मारी,मानव को है तरसाए।
मानव ने जब काटे जंगल,इन्दर जल क्यूँ बरसाए।
धरती,अम्बर,वायु बेचे,पानी भी क्यूँ कर बेचा?
अपनी करतूतों पे मानव,मन ही मन क्यूँ  घबराए?
'ललित'

रुबाई
8

मैंने अपनी तनहाई को,कविताओं में जब ढाला।
सारी पीड़ा बाहर निकली,शांत हुई अंतर ज्वाला।
मात शारदे दे देती है,रोज अनोखी सुर तालें।
मन आनंद उमगता है जब,बन जाती कविता आला।

'ललित'
9
रुबाई की पुकार
😀😀😀😀😀
सूना सूना पटल पुकारे,रचनाकारों अब आओ।
लिख डालो मन के भावों को,
और पटल को महकाओ।
'काव्य सृजन' की निर्मल गंगा,
अविरल बहती रहती है।
डुबकी रोज लगाकर इसमें,
नया सृजन कर सुख पाओ।

'ललित'
राम नाम का जप जो निशि-दिन,मन में करता रहता है।

रुबाई
10

कौन किसी का मीत यहाँ पर,कौन किसी का अपना है।
सबकी अपनी अपनी दुनिया,अपना अपना सपना है।
साथी पर जब पीर पडे तो,मोड सभी मुख जाते हैं।
गाँठ बाँध लो दुख आए तो,राम नाम ही जपना है।

'ललित'
सुप्रभात
रुबाई
KD & RG 20.1.17
11
छोड़ चले तारे अम्बर को,कान्हा की बंसी बोले।
गोप-गोपियाँ लें अँगड़ाई,मोहन की छवि मन डोले।
यमुना तीरे से बाँसुरिया,देती है ये संदेशा।
उसकी बंसी बजे मधुर जो,बातों में मधु-रस घोले।

रुबाई
12
माँ तेरे दामन की खुशबू,मन को शीतल कर जाए।
तेरे ये दो नैना मुझ पर,स्नेह सुधा नित बरसाएँ।
पथ में जो काँटे बिखरे माँ,दूर उन्हें तुम कर देना।
तेरे आँचल की छाया माँ,मन में खुशियाँ भर जाए।
माँ-बेटी का होता जग में,सबसे सुंदर नाता है।
प्यार दिया जो तू ने मुझको,झोली में न समाता है।
अपनी इस 'आद्या' का दामन,खुशियों से माँ भर देना।
चूमे जब तू माथा मेरा,रोम रोम खिल जाता है।

'ललित'

रुबाई
13

देश प्रेम की ज्वाला जिनके,सीने में तब धधकी थी।
वो जाँबाज तुम्हीं थे जिन ने,अंग्रेजों की भद की थी।
देश तुम्हारे बलिदानों को,भूल नहीं अब पायेगा।
संसद में जब बम था फेंका,देश प्रेम की हद की थी।

'ललित'
रुबाई
14

बीडी के कश यार लगाऊँ,दो पल फुरसत जब होती।
साजन को बीडी दे देती,दिल की बातें तब होती।
बीडी दिल में आग लगाए,पर सुकून भी देती है।
बीडी बिन दो दिल मिल पाएं,ऐसी रातें कब होती।

'ललित'

रुबाई
15

तेरा जलवा जब से देखा,जादू सा मुझ पर छाया।
तेरी सूरत इतनी प्यारी,दिल पर काबू कब पाया।
नजरों के आगे रहती है,हरदम ही मूरत तेरी।
तेरा ही मुख देखा जब भी,शीशे के सम्मुख आया।

'ललित'

रुबाई
16

राही मैं अनजान डगर का,चलना है फितरत मेरी।
मंजिल दूर सफर मुश्किल है,साथ चले किस्मत मेरी।
हार जीत से डरना मैंने, जीवन में है कब सीखा।
मेरा प्यार जहाँ मिल जाए,वो होगी जन्नत मेरी।

'ललित'

रुबाई
17

भाई भतीजे नाम के वो,प्यार सदा जो दिखलाएं।
काम पड़े ठेंगा दिखलाते,अनुभव हम को सिखलाए।
दोस्त मगर हमने जो पाया,हमको जाँ से
वो प्यारा।
हरदम साथ निभाता है वो,जीवन में सब सुख लाए।

'ललित'

रुबाई
18

वृक्षों पर झूमें लतिकाएं,पत्ता पत्ता हर्षाए।
स्नेह मिलन की शीतल बूँदें,वन-उपवन में बरसाएं।
लेकिन मानव का पागल मन,काम वासना का भूखा।
प्रीत नहीं सच्ची कर पाए,भाव प्रणय के दर्शाए।
'ललित'

रुबाई
19
वन-उपवन सावन मनभावन,फिर भी लगता मन सूना।
साजन के बिन आँगन सूना,शोर करे पायल दूना।
विरहन की अँखियन मेंं आँसू,बदरा आँसू बरसाएं।
स्वप्न मिलन के दिखला कर वो,चला गया साजन पूना

'ललित'

रुबाई
20

कितने भी ऊँचे उड़ लो तुम,नीचे इक दिन आना है।
झरना ये संदेशा देता,धरती एक ठिकाना है।
ऊँचाई पर जब तुम पहुँचो,एक नजर नीचे डालो।
नीचे जो बंदे बैठे हैं,उनको ऊपर लाना है।

'ललित'
रुबाई
21

चाँद चँदनिया का ये रिश्ता,जग में है सबसे न्यारा।
दाग भरा दामन है फिर भी,प्रीतम है सबसे प्यारा।
शीतलता पैदा होती जब,चाँद चाँदनी मिलते हैं।
इन दोनों के स्नेह मिलन से,रौशन होता जग सारा।
'ललित'

रुबाई
22

फूल और काँटों का रिश्ता,मानव नहीं समझ पाये।
पुष्पों की रक्षा करते ये,काँटे ही हरदम आये।
कंटक से फूलों की शोभा,आजीवन हमदम काँटे।
काँटों में जो फूल खिले वो,कहीं न फिर ठोकर खाये।

'ललित'
23

हंगामे संसद में होते,सड़कों पर नारे बाजी।
हैवानों जैसे लड़ते हैं,पंडित-मुल्ला औ' काजी।
जनता की आवाज दबी ज्यों,नक्कारों में हो तूती।
नेताओं की भेंट चढा है,भारत देश हमारा जी।
'ललित'

रुबाई
24

फँसा हुआ ये लोकतंत्र है,कैसे झंझावातों में।
उलझी सारी जनता है इन,नेताओं की बातों में।
भारत माता के चरणों में,नित जो शीश
झुकाते हों।
उनको देश बचाना होगा,इन मुश्किल हालातों में।

'ललित'

रुबाई
25
अब तो समझो देश वासियों,दो रोटी हो तुम खाते ।
फिर इन नेताओं की झूठी,बातों में क्यूँ तुम आते।
देश प्रेम की आशा भी क्यों,मक्कारों से रखते हो।
इनके झूठे सपनों में क्यों,ऐसे खो हो तुम जाते ।

'ललित'

रुबाई
26
चलो देश में आजादी की,फिर से अलख जगाते हैं।
लूट रहे जो आज देश को,उनको दूर भगाते हैं।
राम राज्य का सपना अब हम,सच करके दिखलाएंगें।
भ्रष्टाचारी शासन में हम,मिल कर सेंध लगाते हैं।

ललित
रुबाई
27
कोई मर जाता है मानव,कोई मार दिया जावे।
किसने मारा कैसे मारा,गुपचुप ही सब बतियावें।
मात पिता सुत बन्धु सखा सब,लगा मुखौटे हैं बैठे।
ऐसे निष्ठुर मानव देखे,कहते लाज मुझे आवे।

रिश्ते धूल चाटते देखे,मानव में दानव देखा।
पैसे की माया ने ऐसी,रिश्तों में खींची रेखा।
दौलत ने वो नाच नचाया,सुत भी रास नहीं आया।
देखा निर्मम बापू जिसने,बेटे का मेटा लेखा।

रुबाई
28
डूबी जीवन नैया उसकी,उथले उथले पानी में।
जीवन भर जो रहा तैरता,यौवन की नादानी में।
जीने की जो कला सीख ले,नदिया के उन धारों से।
क्यों डूबेगी नौका उसकी,किसी नदी अनजानी में?

रुबाई
29

नील गगन में उड़ता था जो,मानव कर आपा धापी।
गिरा धरा पर वो इक पल में,ऊँचाई जब हरि नापी।
उड़लो कितने भी ऊँचे तुम,मगर न छोड़ो धरती को।
पंख लगाकर उड़ सकता है,हरि के नामों का जापी।
'ललित'

रुबाई
30
प्रेम-प्यार औ' दया धर्म के,यारी औ' दुश्वारी के।
कई मुखौटे देखे सुंदर,नेता और पुजारी के।
भाव हीन मुखड़ों पर चिकने,भाव लिए जो फिरते हैं।
लोग हुए हैं कायल अब तो,उनकी इस मक्कारी के।

'ललित'
ई मेल 13.8.16

फूल महकते जब बगिया में,झूमे खुश होकर माली।
गजरे में कुछ गुँथ जाएंगें,पहने कोई मतवाली।
कुछ माला में बँध महकेंगें,मन्दिर-मस्जिद-गुरुद्वारे।
मरने वाले की अर्थी की,कुछ हर लेंगे बदहाली।
'ललित'