आल्हा छंद विधान एवँ रचनाएँ

18.07.16

प्रणाम मित्रों 


13.01.2021

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 ----- आल्हा छंद विधान---

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1.सममात्रिक छंद

 2.कुल चार चरण।

3.विषम (पहले व तीसरे) चरण में 16 मात्रा 

4.सम (दूसरे व चौथे) चरण में 15  मात्रा

5.अंत सदैव गुरु लघु वर्ण से होता है

6.यति पूर्व गुरु+ गुरु वर्ण  (2 गुरु वर्ण)

होते हैं।

7.दो- दो पंक्तियों में तुकांत सुमेलित किया जाता है।

8.इसे वीर छंद भी कहते हैं।योद्धाओं का जोश बढाने के लिए इस छंद में सृजन किया जाता है।

9.किसी प्रसंग या कथा को आगे बढाने वाला जोशीली लय वाला छंद है।


            *** उदाहरण ****

                  आल्हा छंद


बदल गई सब परिभाषाएँ,बदले सब आचार-विचार।

निर्विकार वो कहलाते हैं,जिनके मन में भरे विकार।

फटे वस्त्र से बढ़ती शोभा,धनवानों की वैसे आज।

साजों का पारंगत जैसे,बजा रहा हो बिगड़े साज।

********रचनाकार*************

       ललित किशोर 'ललित'

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आल्हा छंद रचनाएँ

1

सोच रही हूं आज यही मैं,भर लूँ इक ऐसी परवाज।
नीलगगन में मैं उड़ जाऊँ,छेड़ूँ अपने मन के साज।
काम करूँ जग में कुछ ऐसे,ऊँचा होवे मेरा नाम।
बेटी होकर भी कर डालूँ,बेटे जैसा कोई काम।

'ललित'

आल्हा छंद
2

आल्हा छंद
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित

आज गुरू चरणो में मेरा,नमस्कार है बारम्बार।
छंद और लय ज्ञान दिया है,और दिया है बेहद प्यार।
शब्दों का संयोजन सीखा,उनसे ही है मैंने आज।
छंदों की रचना में खोया,भरता हूँ मैं नित परवाज

गुरू देव की इच्छा में ही,मिल जाती है
जिनकी चाह।
ऊँची फिर परवाज भरें वो,और सुगम हो जाती राह।
नियमों का पालन करने से,लेखन पाता और निखार।
माँ शारद को हैं वो प्यारे,जो नर करें गुरू से प्यार।

गुरू रूप में ईश्वर आए,देने हमें ज्ञान भण्डार।
गुरू तत्व को तुम पहचानो,इसकी महिमा अपरम्पार।
मंगल सदा शिष्य का होता,गुरू कृपा से ही तो खास।
गुरू शिष्य का बंधन ऐसा,जो आता है दिल को रास।

मात-पिता गुरु के चरणों में,जो नित अपना शीश झुकाय।
सदा विजय उसकी है होती,मनचाही मंजिल वो पाय।
एकलव्य सा शिष्य मिले तो,गुरु मूरत भी दे दे ज्ञान।
गुरू द्रोण की किरपा से ही,अर्जुन ने सीखा संधान।

'ललित'

3

आल्हा छंद

दीपक कहाँ जला करता है,बाती ही जलती हर बार।
पिघल-पिघल कर घी जलता है,दीपक की होती जयकार।
सबकी अपनी अपनी गाथा,अपने-अपने चरित्र खास।
घी बाती औ' दीपक तीनों,मिलकर फिर भी करें उजास।

'ललित'

आल्हा
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

सात सुरों में नहीं समाए,क्यूँ गाते हो ऐसा गीत?
हर उलझन में उलझोगे तो,कैसे पाओगे तुम जीत?
मछली की आँखों को देखो,मछली को तुम जाओ भूल।
अर्जुन से तुम सीख जरा लो,लक्ष्य साधने का ये मूल।

'ललित'
कृष्ण कहें अर्जुन से रण में,खास बात ये तू ले जान।
सुख दुख लाभ हानियों को तू ,मान सदा ही एक समान।
स्वर्ग मिलेगा मरने पर तो,राज्य मिलेगा पाकर जीत।
मन में कर ले निश्चय रण का,युद्ध पुकारे तुझ को मीत।

ललित

आल्हा
1

सात सुरों में नहीं समाए,क्यूँ गाते हो ऐसा गीत?
हर उलझन में उलझोगे तो,कैसे पाओगे तुम जीत?
मछली की आँखों को देखो,मछली को तुम जाओ भूल।
अर्जुन से तुम सीख जरा लो,लक्ष्य साधने का ये मूल।

'ललित'

आल्हा

इस मन को कितना समझाया,मत चलना तू टेढ़ी चाल।
लेकिन यह कुछ बेढंगे से,कर बैठा अनबूझ सवाल।
सीधे सीधे चलने वाले,क्यों होते हैं सदा हलाल?
टेढ़ी चाल चलें जो नेता,नहीं करें क्यो कभी मलाल?

'ललित'

आल्हा
शिव धनुष खण्डन

मन में नमन किया गुरुवर को,उठा लिया शिव-धनुष विशाल।
धनुष तेज से चमक उठा था,काँपे धरती औ' पाताल।
फुर्ती से खींची प्रत्यंचा,देख नहीं पाए नर-नार।
हुआ भयंकर शोर मच गया,तीन लोक में हाहाकार।

ललित
क्रमश:

आल्हा
चिन्ता नहीं करूँगा कोई,मानव मन में करे विचार।
लेकिन चिन्ता चुपके से आ,कर लेती मन पर अधिकार।
सुलगा कर फिर तनमन को वो,चिन्ता रूप धरे विकराल।
भूख-नींद सब हर लेती वो,और श्वेत कर देती बाल।

ललित

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