अगस्त 17

30.8.17
ताटंक

निगुरा मानव मोक्ष न पाए,धर्मग्रंथ बतलाते हैं।
सद्गुरु ही तो नर-नारी को,मोक्ष-मार्ग दिखलाते हैं।
आत्म-शांति पाने को मानव,संतों के दर जाता है।
संत कलयुगी चमत्कार कर,मानव को फुसलाता है।

ललित

30.8.17

ताटंक आधारित मुक्तक

कपट और छल छिद्र भरे जो,इंसाँ गुरु कहलाते थे।
खुद गहरे दल-दल में धँस कर,शिष्यों को नहलाते थे।
शिष्य जिन्हें पूजा करते थे,ख्वाबों और खयालों में।
खुद वो पूजा के फूलों से,जुल्फों को सहलाते थे।
'ललित'

29.8.17
आल्हा छंद
रास लीला
भाग 2

पलक नहीं झपके राधा की,कान्हा है ऐसा चितचोर।
बिन बोले सब कुछ कह देता,साँवरिया वो नंदकिशोर।
झूम-झूम कर बरसें बदरा,झूम-झूम कर नाचें गोप।
राधा की सौतन होने का,वंशी पर लगता आरोप।

वंशी की धुन सुन-सुन डोलें,व्रज रज औ' यमुना की धार।
थिर-थिर-थिर-थिर थिरक रहे हैं,कृष्ण-राधिका के गल-हार।
घुँघरू बजें पायलों के ज्यों,शब्द-ब्रम्ह का हों अवतार।
पहुँच रही धुन रुन-झुन-रुन-झुन,यमुना की लहरों के पार।

भरे बाँसुरी हौले हौले,कर्णों में मधु-रस की धार।
गोप-गोपियाँ सारे बोलें,जय-जय-जय-जय कृष्ण मुरार।
दर्शन करने को लालायित,सूर्य उदित हो करे प्रणाम।
धन्य-धन्य हैं कृष्ण-राधिका,धन्य गोपियाँ औ' व्रजधाम।
ललित

27.8.17
आल्हा
2

राम कृष्ण नारायण शिव को,भूल धियाया बाबा खास।
खीज उतारें अब दुनिया पर,होता है जग में उपहास।
अरे बंधुओं भगवद्गीता,को लो अपना गुरू बनाय।
ध्यान करो उस नारायण का,घर में लो मंदिर बनवाय।
'ललित'

27.8.17
आल्हा
रास लीला
3
नंदन-वन में राह निहारे,मुरलीधर राधा का दास।
कर सुंदर श्रृंगार राधिका,आई है कान्हा के पास।
कृष्णप्रिया राधा सुकुमारी,चपल नैन हिरणी सी चाल।
वंशी वादक कृष्ण मुरारी, मुरली सुन राधा बेहाल।

रूप निरखकर हुआ अचम्भित,मुरली को दी ऐसी तान।
वंशी की धुन में यूँ खोई,रहा नहीं जग का कुछ भान।
गोप-गोपियां ताल बजाएं, मटकें ज्यों कान्हा के नैन।
उगते ही चंदा छुप जाए, कितनी छोटी है ये रैन।

बदल-बदल कर रूप कन्हैया,नाचे हर गोपी के साथ।
चाहेे गोपी हाथ पकड़ना,मगर न आए कान्हा हाथ।
इक पल दिखे बजाता मुरली,दूजे पल वो करता
रास।
इक पल दिखे बगल में कान्हा,दूजे पल राधा के पास।

ललित
26.8.17
आल्हा
4
सावन की रिम-झिम बौछारें,छतरी में सजनी थी साथ।
और सजनवा भी मतवाला,दबा रहा हाथों से हाथ।
उलझ गईं कुछ चंचल बूँदें,सजनी के केशों के बीच।
टिम-टिम तारे चमक रहे ज्यों,बदरा के रेशों के बीच।
ललित

26.8.17
आल्हा

तीव्र लालसा लिए मिलन की,मन में सुंदर स्वप्न हजार।
दूल्हा राजा जा ही पहुँचा,इक दिन तो सजनी के द्वार।
दुल्हन बोली दूल्हे राजा,कार लक्जरी लाओ साथ।
तभी देखना ख्वाब सुनहरे,और पकड़ना मेरा हाथ।
ललित

26.8.17
आल्हा छंद

रूप-माधुरी निखरी-निखरी,भरे गुलाबी डोरे नैन।
कुछ इठलाती कुछ बल खाती,बोल गई वो मीठे बैन।
मुख देखा मैंने शीशे में,लगा सोचने फिर ये बात।
निश्छल प्रेम प्रकट करती थी,या करती थी कोई घात।
'ललित'

26.8.17
आल्हा छंद

नंदन-वन में राह निहारे,मुरलीधर राधा का दास।
कर सुंदर श्रृंगार राधिका,आई है कान्हा के पास।
रूप निरखकर हुआ अचम्भित,मुरली को दी ऐसी तान।
वंशी की धुन में यूँ खोई,रहा नहीं जग का कुछ भान।

'ललित'

26.8.17
ताटंक मुक्तक 16:14

कान्हा के दर्शन को तरसे,बरसाने की वो राधा।
बन्द नैन से दर्शन होते,खुले नैन डालें बाधा।
कान्हा के चिन्तन में राधा,रहती हर पल यूँ डूबी।
साँसे चलें न दिल ही धड़के,वदन रह गया है आधा।
'ललित'

23 8 17
मुक्तक

बांसुरिया की मधुर तान पर,नैना क्यों मटकाता है?
बहियाँ पकड़ मरोड़ी मेरी,उँगली क्यों चटकाता है?
मटकी फोड़ चुका ओ कान्हा,अब क्यों कंकर तू मारे?
मोर मुकुट सिर पर सोहे क्यों,लट मुख पर लटकाता है?

'ललित'

22 817
आल्हा छंद रचना

गया शहर में शिक्षा पाने,माता का बालक सुकुमार।
सीख न पाया मात-पिता से,वो कोई आचार-विचार।
और उच्च शिक्षा पाने वो,चला गया इकदिन परदेश।
मिले नये परदेशी साथी,भूल गया अपना परिवेश।

अंग्रेजी में गिट-पिट बोले,माता को बोले अब मोम।
और पिता बेचारे को तो,'डेड' बोलता है अब ओम।
हाय बुढापे की लाठी तो,भूल गयी अब वो दो हाथ।
जिन हाथों ने पाला पोसा,और दिया था हरदम साथ।
'ललित'

22 817
आल्हा छंद रचना

गुरू मिले सौभाग्य हमारा,गुरू कृपा से हो कल्याण।
गुरु मूरत की किरपा से ही,एकलव्य सीखा संधान।
अंधकार से ले जाते हैं,वो नित-नव प्रकाश की ओर।
गुरू-शिष्य का पावन-रिश्ता,कभी न हो सकता
कमजोर।

'ललित'

22 817
आल्हा छंद रचना

सुंदर फूल खिलें बगिया में,लिए लबों पर नव मुस्कान।
चहुँ दिशि सौरभ फैला कर वो,देते हैं सबको ये ज्ञान।
सदा रहो जग में मुस्काते,चाहे कंटक चुभें हजार।
खुद के गम को भूल सभी में, बाँटो खुशियाँ अपरम्पार।

'ललित'
दिनांक 21 8 17
आल्हा छंद रचना

चिंतन कब कैसे ले लेता,है भारी चिंता का रूप?
नर के मन को छाया में भी, क्यों छूती चिंता की धूप?
मानव मन पर भय अनदेखा,क्यों फैलाता अपना जाल?
प्राणी को पटकी दे दे क्यों,हँसता रहता काल -कराल?
ललित

दिनांक 21 8 17
आल्हा छंद

कान्हा सुन लो अर्जी मेरी,एक बार तो दे दो ध्यान।
राधा राधा नाम जपूँ मैं,रहता कोटा राजस्थान।
सब कहते हैं राधा जी के, पीछे पीछे चलते श्याम।
आ जाओ फिर घर में मेरे,संग राधिका के अविराम।
'ललित'

21.8.17
आल्हा छंद रचना
कैसे कैसे व्यवधानों से,होना पड़ता है दो चार।
जीवन नैया ऐसी डोले,पार न कर पाए पतवार।
पतवारों से नाव चलाना,मुझको सिखला दो भगवान।
भवसागर तरने की राहें,मुझको दिखला दो भगवान।
ललित

21.8.17
आल्हा छंद रचना

प्रातकाल ले लेते हैं जो,राम-राम अति पावन नाम।
उन के दुखड़े हर लेते हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम राम।
दीनबंधु दुखहर्ता उसको, सुख-वैभव देते हैं खूब।
राम नाम सुमिरन में जिसका,मन पूरा जाता है डूब।
ललित

21.8.17
आल्हा छंद रचना

छप्पन इंची सीने का तो,हरदम करते रहे बखान। सीने से बाहर निकलो जी,सीमा पर आया तूफान।
बड़ा ढीठ है दुश्मन अपना , नहीं बदल सकता जो चाल।
छलनी कर दो सीना उसका , जो बनता दुश्मन की ढाल।

'ललित'

20.8.17

नेता जी की टेढ़ी चाल

19.8.17
मनहरण
सुविचार

दुखी है सारा जहान
सुखी एक भगवान
सुख की किरण एक
बच्चों को दिखाइए।

पूजा करना न आए
ध्यान करना न भाए।
गीता और रामायण
पढ़ना सिखाइए।

भूल गए संसकार
करें रूखा व्यवहार।
राम-नाम बार-बार
उनसे लिखाइए।

खाएँ पीजा बरगर
रोकना चाहो अगर।
होटलों में भोज रोज
आप भी न खाइए।

'ललित'

19.8.17
मनहरण

कैसे कह दूँ ये हाल
जीना है हुआ मुहाल।
मैके चली गई बीवी
निंदिया न आय है।

रोटी कैसे बने गोल
चकला जहाँ चौकोर।
गैस भी तो कह गई
मुझे बाय-बाय है।

आलू प्याज और दाल
कैसे देते हैं बघार।
बिना सब्जियों के रोटी
कैसे खाई जाय है।

कॉफी कड़वी हो जाए
चाय न बनानी आए।
दे दो कोई सही राय
अब क्या उपाय है।

'ललित'

19.8.17
मनहरण
मोह का ये माया जाल
काल से भी है कराल।
काटना जो चाहे इसे
मानव है हारता।

लोभ की नदी विशाल
चले ऐसी टेढी चाल।
इसमें जो डूबा उसे
कोई नहीं तारता।

कामदेव की कमाल
मोहक वो सुरताल।
सुनने लगे जो उसे
पटकी दे मारता।

क्रोध आए चुपचाप
बिना किए पदचाप।
मूरख मानव इसे
नाक पर धारता।

ललित

17.8.17

मनहरण

छोड़ सारे काम काज
लिखो सभी छंद आज
मन की व्यथा को जरा
प्रकट भी कीजिए।

देख गुरु आए 'राज'
सभी दौड़े आए आज
पटल को अब जरा
रंग भी दे दीजिए।

बिछुड़े मिले हैं आज
कई महीनों के बाद
बिखरे भावों को जरा
बाँध भी तो लीजिए।

हवा महँगी है आज
बच्चे हुए मोहताज
मौन बैठे योगीराज
कुछ तो पसीजिए।

ललित

मनहरण

कान्हा के हजार नाम
सबसे है प्यारा श्याम।
मुरली मनोहर का
ध्यान कर लीजिए।

राधा को है प्यारा श्याम
और प्यारा व्रजधाम।
राधा जी के नाम पर
कान धर लीजिए।

मुरली मधुर सुन
राधा नाचे रुन-झुन।
राधा नाम सुरमे से
नैन भर लीजिए।

सुमिरन आठों याम
चलता रहे निष्काम ।
कान्हा जी से हो सके
तो ऐसा वर लीजिए।

ललित

15.8.17
मुक्तक लावणी

क्यों तू हर गोपी के दिल में ,आस जगा कर चला गया।
क्यों तू राधा के नैनो में ,प्यास जगा कर चला गया।
नंदनवन का पत्ता पत्ता ,कृष्ण कृष्ण क्यों है  जपता।
क्यों तू ब्रज के कण-कण में यूं ,रास जगा कर चला गया।
'ललित'
15.8.17

मन हरण घनाक्षरी

बिरज का कण-कण
रास करे क्षण-क्षण।
साँवरा सलोना कान्हा
बाँसुरी बजा रहा।

यमुना की कल-कल
बढ़ रही पल-पल।
गोपियों का प्यारा कान्हा
वेणियाँ सजा रहा।

बाँसुरी की धुन सुन
चाँदनी हुई मगन।
रास का रचैया कान्हा
चाँद को लजा रहा।

पायलों की छम-छम
बढ़ रही छन-छन।
गोपी संग नाच कान्हा
राधा को खिजा रहा।

'ललित'

14.8.17

मुक्तक 14:12

आवाज ही गुम होगई,हर आदमी खामोश है।
काला धुआँ छाया हुआ,वो आसमाँ निर्दोष है।
बागबाँ खुद ही चमन का,
आज दुश्मन होगया है।
सिमटी सभी हरियालियाँ,
परजीवियों में जोश है।

ललित

11.8.17
मुक्तक 16:14
कुछ अपनों ने कुछ सपनों ने,सिखा दिया हमको जीना।
कुछ रिश्तों ने कुछ नातों ने,सिखा दिया आँसू पीना।
अपने-सपने-रिश्ते-नाते,अब सब हैं लगते फीके।
हमने भी इन सबके ऊपर,डाल दिया पर्दा झीना।

'ललित'

्10.8.17
मुक्तक 16;12

जीवन के कुछ रंग सुनहरे,रोज बिखर हैं जाते।
और सुनहरे रंगों पर कुछ,मानव हैं इतराते।
कैसी केसी चालें चलते,रंगीं दुनिया वाले।
रंगों से ही तोलें हरदम,सारे रिश्ते नाते।
'ललित'

9.8.17
मुक्तक
पुण्य किए क्या मोरपंख ने,जिसको सिर पर धार लिया?
उसकी मटकी फोड़ी जिसने,तप था वर्ष हजार किया।
क्या वो कान्हा माखन के इक,लौंदे का ही था भूखा?
या उसने माखन चोरी कर,निज-भक्तों को तार दिया?

9.8.17
मुक्तक

बहार ही बहार की,नकाब ओढ़ते रहे।
कभी फिजाँ दिखी नहीं,सितम कभी नहीं सहे।
न प्यार मिल सका कभी,न प्यार खुद ही कर सके।
खुदा बने रहे खुदी,न बोल प्यार के कहे।

ललित

9.8.17
कुकुभ आधारित मुक्तक

चरण बाद में छुए धरा के,पायल पहले बज जाए।
भोर भये मुरली सुनने को,राधा रानी जब आए।
बाँसुरिया की न्यारी धुन सुन,शरमा जाते सुर सातों।
बदरा भूलें जल बरसाना,जब वंशी रस बरसाए।

'ललित'
8.8.17

सरसी छंद

हाथों की रेखाएँ बदलें,चाल समय के साथ।
इतराता मानव फिर खाता,मार समय के हाथ।
मार समय के हाथों खाकर,सीधी होती चाल।
सीधा चलने से भी लेकिन,गले न उसकी दाल।
ललित

8.8.17

सरसी छंद

हो जाएगी कब अनहोनी,मानव जान न पाय।
तोड़ कर नाता पिंजरे से, पंछी कब उड़ जाय।
गिनती की साँसों की संख्या,गिन पाता है कौन?
अच्छा भला बोलता मानव,हो जाता हे मौन।

ललित
[08/08/17
सरसी छंद

मौन हुए मानव का मन भी,कब रह पाया मौन?
मन की हर उलझी गुत्थी को,सुलझा पाया कौन?
जितनी चाबी भरकर भेजे,मानव को भगवान।
उतनी ही साँसें ले पाए,
धरती पर इंसान।
ललित
[08/08/17
सरसी छंद

इंसानों की इस दुनिया की,बड़ी निराली रीत।
उसके ही गुण दिखते जिसकी,साँसें जाती बीत।
साँस-साँस में प्राण बसा है,मानव जान न पाय।
साँस-साँस में नाम जपे जो,वो ही संत कहाय।
ललित

[08/08/17
सरसी छंद

संतों की वाणी पर मानव,करता है विश्वास।
लेकिन ऐसी बातें मन को,
कब आती हैं रास?
रास करे मानव का मन तो,कामदेव के साथ।
अंत समय मानव मलता ही,रह जाता है हाथ।

ललित

8.8.17

सरसी छंद

हाथों की रेखाएँ बदलें,चाल समय के साथ।
इतराता मानव फिर खाता,मार समय के हाथ।
मार समय के हाथों खाकर,सीधी होती चाल।
सीधा चलने से भी लेकिन,गले न उसकी दाल।
ललित

6.8.17
सरसी छंद

मिला मित्र ऐसा हमको जो,गुरुवर 'राज' कहाय।
नये-नये छंदों की निर्मल,सरिता रोज बहाय।
स्नेह पूर्ण व्यवहार समादर,आनन्दित कर देत।
निश्छल औ' निस्वार्थ भाव से,सेवा कर हँस लेत।
ललित
काव्यसृजन परिवार
5-8-17

सरसी छंद

करदो ऐसी किरपा कान्हा,मन संतोष समाय।
राधा-राधा जाप करूँ मैं,मन में काम न आय।
सब कहते हैं राधा जी के,पीछे चलते श्याम।
राधा-राधा नाम जपूँ तो,आ जाना अविराम।
'ललित'
5.8.17
सरसी छंद नये कलेवर में
शिव प्रार्थना

केवल इतनी अरज करूँ मैं,शिव हे!भोला नाथ।
कृपा दृष्टि मुझ पर रखना तुम,नित-नित जोड़ूँ हाथ।
नित-नित जोड़ूँ हाथ सदाशिव,रखना मेरी लाज।
जैसी मरजी होय तुम्हारी,वैसा करना काज।

वैसा करना काज त्रिनेत्री,राह मुझे दिखलाय।
खोले मन की आँखें मेरी,जीना भी सिखलाय।
जीना भी सिखलाय बबम बम,भव बाधा हो दूर।
बड़ी तुम्हारी दया दृष्टि है,किरपा है भरपूर।

'ललित'

5.8.17
सरसी छंद

केशव माधव मुरलीधर हे!मनमोहन  घनश्याम।
मन मन्दिर में बसों करूँ मैं,दर्शन आठों याम।
बस इतना वरदान मुझे दो,भगवन कृपानिधान।
निशि-दिन मन ही मन मैं गाऊँ,मधुर नाम का गान।

हिलती-डुलती जीवन नैया,करती है मनुहार।
वंशीधर हे! नाग नचैया,आप बनो पतवार।
मति कुछ ऐसी मुझको दे दो,करूँ तुम्हारा ध्यान।
ईश लगन मन में यूँ जागे,हो जाए कल्याण।

ललित
4.8.17

जन्म दिवस की देत बधाई,काव्य सृजन परिवार।
यश का यश चहुँ दिशि यूँ फैले,होवे जग उजियार।

2.8.17
सरसी छंद

छोटी पायल छोटे पैयाँ,छुटका नंदकिशोर।
छम-छम-छम-छम बाजे पायल,मैया भाव-विभोर।
छोटी मुरली छोटा कंबल,छुटका सुंदर श्याम।
दर्शन करने आया बाबा,शिव-भोला व्रजधाम।

नाग गले शशि शीश विराजे,गात भभूत रमाय।
सुन डमरू की डम-डम-डम-डम,मात रही घबराय।
नजर उतारेंगें लल्ला की,करके मैया धूप।
एक बार दिखला दे मैया,हरि का बाल-स्वरूप।

'ललित'

1.8.17
सरसी छंद

रोज-रोज थी चख-चख होती,रोज-रोज तकरार।
कौए जी जब इक कोयल से,कर बैठे थे प्यार।
काँव-काँव से कौए की थी,कोयल जाती काँप।
सच्ची प्रीत नहीं कर सकते,कभी नेवला साँप।
ललित

1.8.17
सरसी छंद

कैसा प्यारा वो पागल-पन,कैसी होती प्रीत।
जीवन बीत गया लेकिन तुम,जान न पाए मीत।
साजन की सजनी से बाँधे,कितनी प्यारी डोर।
संध्या उलझे तो सुलझाते,हो जाती है भोर।

ललित
1.8.17
सरसी छंद

कभी बजाऐ मुरली मोहन,कभी खड़ा मुस्काय।
कभी निहारे राधा का मुख,कभी नैन मटकाय।
कभी राह मेंं राधा की वो,बहियाँ देता  मोड़।
कभी राधिका की कंकर से,मटकी देता फोड़।

'ललित'

1.8.17

सरसी छंद

अब आगए सुरताल में सब,काव्य सृजन के वीर।
सुंदर रचनाएँ लिख दो सब,सुनो कलम की पीर।
'राज' जैसे गुरू का पावन,पाया है जब साथ।
क्यों बैठे हो मित्रों फिर तुम,रखे हाथ पर हाथ।

ललित

1.8.17
सरसी छंद

सावन झूमे पात-पात में,कली-कली मुस्काय।
बदरा झूमें गाँव-गाँव में,हृदय कली खिल जाय
बिजुरी चमके राधा चिहुँके,कान्हा करे ठिठोर।
बुँदियाँ बरसें मनवा हरषे,हुई चंचला भोर।

'ललित'