चार कदम मुक्तक दिवस 2018

28.06.18
चार– कदम
मुक्तक दिवस-260
समारोह अध्यक्ष आदरणीया रेखा लोढ़ा 'स्मित' जी एवं मंच को सादर समर्पित..

मुक्तक

कपट और छल छिद्र भरे जो,इंसाँ गुरु कहलाते थे।
खुद गहरे दल-दल में धँस कर,शिष्यों को नहलाते थे।
शिष्य जिन्हें पूजा करते थे,ख्वाबों और खयालों में।
खुद वो पूजा के फूलों से,जुल्फों को सहलाते थे।

ललित किशोर 'ललित'

11.4.18
चार– कदम
मुक्तक दिवस-249
समारोह अध्यक्ष आदरणीय प्रदीप कुमार दीपक जी एवं मंच को सादर समर्पित..

मुक्तक

प्रेम भरा हो दिल में जितना,उतना ही वो छलकेगा।
नैन झरोखे से वो शीतल,मोती बनकर ढलकेगा।
जिसके सीने में नाजुक सा,प्यार भरा इक दिल होगा।
उसकी उठती गिरती पलकों,में हरदम वो झलकेगा।
ललित किशोर 'ललित'
22.3.18

चार– कदम
मुक्तक दिवस-246
समारोह अध्यक्ष आदरणीया डॉ.हेमलता सुमन जी एवं मंच को सादर समर्पित

मुक्तक

उलझन सुलझाने चला,चंचल मन के साथ मैं।

और उलझ बैठा वहीं,अपने मन के हाथ मैं।

मन तो मन की ही करे,जोड़े हाथ विवेक है।

परिणामों को देखकर,पकड़ूँ अपना माथ मैं।

ललित किशोर 'ललित'

14.3.18

चार– कदम
मुक्तक दिवस-245
समारोह अध्यक्ष आदरणीय श्री रवि प्रसाद केडिया जी एवं मंच को सादर समर्पित

नैन मटक्का   करे कन्हैया, राधा  गोरी  गोरी  से।
छाँव कदम की बतियाता है,बरसाने की छोरी से।
गोप गोपियाँ आनन्दित हो,प्रेम-पुष्प वर्षा  करते।
राधा रानी  हाथ  छुड़ाए, पकड़े  कान्हा जोरी से।

ललित किशोर 'ललित'

7.3.18
चार– कदम
मुक्तक दिवस-244
समारोह अध्यक्ष आदरणीय श्री विनोद चंद्र भट्ट जी एवं मंच को सादर समर्पित

मुक्तक 16:14

फूल एक दिन मुख मोड़ेंगें,माली ने ये था माना ।
फूलों की फितरत से माली,नहीं रहा था अंजाना।
अपना फर्ज मान कर उसने,सींचा था फुलवारी को।
फूलों की दुनिया से नाता,तोड़ चला वो दीवाना।

ललित किशोर 'ललित'

8.2.17
चार– कदम
मुक्तक दिवस-240
समारोह अध्यक्ष आदरणीय श्री ऋतु राज श्रीवास्तव जी एवं मंच को सादर समर्पित

मुक्तक 16:14

माँ-बेटी का होता जग में,सबसे सुंदर नाता है।
प्यार दिया जो तू ने मुझको,झोली में न समाता है।
अपनी इस बेटी का दामन,खुशियों से माँ भर देना।
चूमे जब तू माथा मेरा,रोम रोम खिल जाता है।

ललित किशोर 'ललित'
17.1.18

चार कदम : मुक्तक दिवस 237
समारोह अध्यक्षा आदरणीया आशा सोनी 'आन'  जी के सम्मान में सादर प्रेषित....

मुक्तक 16:14

टूट -टूट कर टुकड़े होते,सपने हरजाई हरदम।
रूठ-रूठ कर दूर खिसकते,दिखते जो अपने हमदम।
दिल के अरमानों की कश्ती,भी टूटे मझधारों में।
चोट उन्हीं से है मिल जाती,बनना हो जिनको मरहम।

ललित किशोर 'ललित'
3:1:18

चार कदम : मुक्तक दिवस 235
समारोह अध्यक्ष आदरणीय विनोद साँवरिया
राजपूत जी के सम्मान में सादर प्रेषित....

मुक्तक 16:14

दिल छोटा औ' पीर बड़ी है,नहीं किसी से कह पाऊँ।
दिल में उठती टीस बड़ी है,नहीं जिसे मैं सह पाऊँ।
अपनों ने जो घाव दिए वो,दिल में गहरे उतरे हैं।
घावों का अपनापन प्यारा,कैसे उन बिन रह पाऊँ।

ललित किशोर'ललित'

मुक्तक 16:14

दिल छोटा औ' पीर बड़ी है,नहीं किसी से कह पाऊँ।
दिल में उठती टीस बड़ी है,नहीं जिसे मैं सह पाऊँ।
दुनिया ने जो घाव दिए वो,दिल में गहरे उतरे हैं।
घाव नया नित अनुभव देते,कैसे उन बिन रह पाऊँ।

ललित

जनवरी 2018

31.1.18
दोधक छंद

श्याम लला व्रज में जब डोले।
तो वृषभानु लली सँग हो ले।
सोच रही कब श्याम निहारे।
मोहन को लख नैन न हारे।

ललित

दोधक छंद
1
वार करें अँखियाँ कजरारी।
नार चले बल खा मतवारी।
घायल थाम रहे दिल ऐसे।
देख हँसे वह नार न कैसे?

ये दिल घायल होकर टूटे।
वो नयना मटका कर लूटे।
होंठ लिपिस्टिक से रँग लाए।
प्रीतम से मिलने जब आए।

प्रीत करे न डरे दुनिया से।
नैन भरे रँग फागुनिया से।
प्रीतम की सजनी नखराली।
पालिश-नेल रँगे नख वाली।

नाच रही झुमके नथ वाली।
लालम लाल हुई मतवाली।
नैन सुधा सजना जब पीते।
नैन सुधा सब रैन न बीते।

ललित

दोधक छंद

पायलिया मुँह जोर हुई है।
पाँव बजे जब भोर हुई है।
साजनवा मदहोश पड़े हैं।
आस लिए हम पास खड़े हैं।

ललित

दोधक

पैंजनियाँ चुभती सब रैना।
छीन रहे घुँघरू अब चैना।
साजन जो तुम पास न आते?
जीवन के रस रास न भाते।

दोधक

दान करे जप-ध्यान करे तू।
मन्दिर में गुण-गान करे तू।
पुण्य बढ़ें कुछ खास न तेरे।
मात पिता यदि पास न तेरे।

मात-पिता पद-पंकज छू ले।
अंत उसे घन श्याम न भूले।
जो उनको नित शीश नवाता।
वो सुत जीवन में सुख पाता।

मात-पिता सम देव न दूजा।
है जननी सम सेव्य न पूजा।
जन्म दिया सँग कंचन काया।
कौन चुका उसका ऋण पाया।

जीवन ये ऋण-दान पिता का।
भूल न तू अहसान पिता का।
ध्यान जरा उनका रख लेना।
दर्द जरा उनका चख लेना।

ललित

दोधक छंद
पूरी रचना

पावस की ऋतु रास न आवे।
साजन के बिन प्यास न जावे।
प्रीत सुधा रस साजन  संगा।
प्यास लिए जल जाय पतंगा।

सावन में हुलसे मन मेरा।
साजन आ झुलसे तन मेरा।
आग बुझा बरखा कब पाती?
बारिश की हर बूँद जलाती।

प्रीत लगाकर प्यास जगाई।
प्यास नहीं बुझ साजन पाई।
छोड़ पिया परदेस चला आ।
है अपना यह देश भला आ।

अंग लगूँ सजना मन चाहे।
काम नहीं तजना तन चाहे।
साजन मैं सज ना अब चाहूँ।
प्रीत नहीं तजना अब चाहूँ।

ललित

दोधक छंद

जीवन में मन मीत मिले जो।
प्रीत भरे सब गीत मिले जो।
आज अचानक छोड़ गए वो।
प्यार भरा दिल तोड़ गए वो।

ललित

दोधक छंद
गीत

बाँसुरिया मधु तान सुना रे।
आन मिलो अब श्याम सखा रे।

यूँ हम से मुख तो मत मोड़ो।
यूँ  व्रज-वासिन को मत छोड़ो।
गोप-सखा  सब राह निहारें।
आन मिलो अब श्याम सखा रे।

नित्य सुभोर भए बज जावे।
वो मुरली सब के मन भावे।
नंद-जसोमति के तुम प्यारे।
आन मिलो अब श्याम सखा रे।

माखन के घट फूट न पाते।
गोपिन-माखन लूट न पाते।
सून पड़े वन बाग बहारें।
आन मिलो अब श्याम सखा रे।

रास नहीं व्रज में अब होते।
नाच बिना घुँघरू अब रोते।
नैन करें कब दर्श तुम्हारे?
आन मिलो अब श्याम सखा रे।

मोहन ये रज भूल गए क्या?
गैयन का व्रज भूल गए क्या?
वो वृषभानु सुता न भुला रे।
आन मिलो अब श्याम सखा रे।

दोधक छंद
कुछ यूँ ही मन की बात...

कौन कहाँ कब छंद लिखेगा?
भाव कहाँ किस रूप दिखेगा?
सोच कहाँ सकता अब कोई?
शारद माँ वर दे कब कोई?

ललित

बरवै छंद

आज अचानक यूँ ही,उठा विचार।
क्यों दिल में छुप बैठे,दर्द हजार?

तानों के तीरों के,घाव हजार।
देते क्यों इस दिल के,तोड़ न तार?

दिल के छालों को जो,देख न पाय।
ऐसा मानव क्यों कर,मित्र कहाय?

राहत दे जो दिल को,करे सहाय।
एक वही तो सच्चा,मीत कहाय।

ललित

बरवै छंद

समझ नहीं पाता दिल,रीत-रिवाज।
बेबस सारा जिनमें,हुआ समाज।

इक माँ के दो बेटे,रहें न साथ।
सिसके ममता कुछ क्यों,लगा न हाथ?

माँ दिल में ममता है,नयन दुलार।
ममता को भगवन भी,सकें न मार।

ममता का कर्जा जो,सकें उतार।
ऐसी संतानें  तन,सकी न धार।

ललित

बरवै छंद
ममता की छाँव तले,बसे बहार।
मैया करे प्यार की,सदा फुहार।

माता देती शिशु को,प्यार अपार।,
नेह और ममता की,हुई न हार।

ललित

बरवै छंद

कैसे कैसे दिन ये,समय दिखाय।
हरे -भरे पौधे के,पात सुखाय।

डोर समय की है ये,बड़ी अमोल।
तनी रहे सदा दे,कभी न झोल।

बरवै छंद

गोप-गोपियाँ व्रज में,रहे पुकार।
आजाओ मथुरा से,किसी प्रकार।

याद करो क्यों व्रज को,आप न श्याम?
राधा का क्यों समझो,ताप न श्याम?

विरह-पीर राधा से,सही न जाय।
राधा की हालत क्या,कही न जाय।

व्रज की धरती को हम,करें प्रणाम।
चरण श्याम के छू जो,बनी सुधाम।

ललित

25.1.18
बरवै छंद

भक्तों की हे प्रभु जी,सुनो पुकार।
काम क्रोध के मन से,हरो विकार।

दीनदयाल हमें तुम,करो निहाल।
राग द्वेष दो मन से,प्रभो निकाल।

लोभ मोह के काँटे,चुभें हजार।
आप चुभन कम कर दो,किसी प्रकार।

ध्यान-भक्ति में मन क्यों,लगे न नाथ?
केवल आप लगो क्यों,सगे न नाथ?

ललित

25.1.18

बरवै छंद
जय श्री राधा कृष्ण
जय व्रज धाम

मधुर-मधुर जो वंशी,बजे सुभोर।
करती हर गोपी को,भाव विभोर।

कान्हा की मुस्कानें,भाव प्रधान।
राधा जी को जग का,रहे न भान।

वंशी-वट यमुना-तट,शीत बयार।
राधा के सँग मोहन,करें विहार।

व्रज के जैसा सुंदर,कहीं न गाँव।
राधा नाचे छम-छम,रुकें न पाँव।

ललित किशोर 'ललित'

बरवै छंद

पाश मोह माया का,दिखे न हाय।
जकड़े कैसा मन को,कहा न जाय?

माया बाँधे मन को,खूब नचाय।
फिर भी माया में मन,खूब नहाय।

ललित

24.1.18
बरवै छंद

देखे मन ये सपने,नित्य हजार।
चकमे देकर भागे,दूर बहार।

सपनों की नौटंकी,बड़ी खराब।
कब गिर जाए पर्दा,नहीं हिसाब।

ललित

दोहा

विनती मेरी आप से,इतनी सी है श्याम।
खुशियों की तकदीर में,लिख दो मेरा नाम।

बरबै छंद

राधारानी चंचल,नयन कटार।
फँस गए श्याम सुंदर,कृष्ण मुरार।

बाँसुरी बजाए जब,नंद-कुमार।
मात यशोदा पाए,खुशी अपार।

ललित

21.1.18
मुक्तक 16:12

देखी रंग रँगीली दुनिया,देखे दुनिया वाले।
कुछ चितकबरे कुछ चिकने से,कुछ गोरे कुछ काले।
रंग सभी का ऐसा पक्का,रंग न चढ़ता दूजा।
अपने-अपने रंगों में सब,झूम रहे मतवाले।
ललित किशोर 'ललित'

शैर
2122 2122 212
मौत पर आँसू बहाता और है।
जान पर खुद खेल जाता और है।

प्यार करने का सलीका और है।
प्रीत का झूठा दिखावा और है।

क्या करोगे आजमा कर तुम उसे।
या खुदा जिसका ठिकाना और है।
ललित

21.1.18
बरवै छंद

आ जा श्याम साँवरे,नंद कुमार।
भूल मत राधिका का,प्यार अपार।

प्रीत लगा के कान्हा,हमें न भूल।
हमसे मिलेंगें तुझे,कहीं न फूल।

सारे गोप-गोपियाँ , रहे पुकार।
भूल मत राधिका का,प्यार अपार।

नटवर राजा तू जो,रास कराय।
गोपियों को आत्म का,भास कराय।

ललित किशोर 'ललित'

बरवै छंद
भोले

कान्हा सँग झूम रहे,गोप-कुमार।
शिव-भोले नाच रहे,बन कर नार।

कान्हा जी की नजरें,खूब कमाल।
भाँप लिया दिखते ही,भाल विशाल।

ललित

बरवै छंद

बाँका बिहारी लला,माखन-चोर।
मुरली-मनोहर श्याम,नंद किशोर।

राधिका का साँवरा,कर-कर वार।
फोड़े माखन-गगरी,कंकर मार।

ललित

20.1.18
बरवै छंद
12,7
12,7
अंत  121

दिल को अब धड़कन,नहीं सुहाय।
नयनों से आँसू इक, निकल न पाय।

पूजा की थाली तक,फूल न आय।
भगवन को ही ये दिल,भूल न जाय।

अरज करूँ माँ शारद,करो सहाय।
बरवै छंद लिख सकूँ,'राज' सुहाय।

बजती छम-छम-छम-छम,पायल जाय।
इठलाती गौरी कर, घायल जाय।

भिगो गयी गौरी का,श्यामल गात।
बरसी मूसलाधार,जो बरसात।

सिंधु छंद

करो कुछ देश की सेवा युवा वीरों।
कराओ 'कर' जमा अपना अरे धीरों।
तभी हो देश की सीमा सुरक्षित भी।
कमाओ तो करो कुछ देश का हित भी।

ललित

18.1.18
सिन्धु छंद
राधा श्रृंगार
1

निहारे राधिका को वो कन्हैया यों।
अनोखी हो कनक पूरित चिरैया ज्यों।
नयन झपके नहीं कान्हा पलक ठहरी।
हँसे राधा नयन में ले चमक गहरी।
2
मुकुट जो मोर पंखी शीश पर सोहे।
दिवानी राधिका का दिल वही मोहे।
मिला जब श्याम से नैना हँसी राधा।
उसी पल प्रीत में उसकी फँसी राधा।

3
न जाने कौन सा जादू चलाता है।
मटक कर श्याम जब पलकें हिलाता है।
बजाए बाँसुरी ऐसी करामाती।
किशोरी राधिका दौड़ी चली आती।

4
बिरज की ये धरा शोभित कन्हैया से।
मधुर हर भोर वंशी के बजैया से।
चुरा कर बाँसुरी ऐसे हँसे राधा।
लिया दिल चोर जैसे श्याम का आधा।
5
बजें जब राधिका की पायलें छम-छम।
कन्हैया का हृदय करने लगे धम-धम।
श्रवण पहचानते हैं पायलों की धुन।
बजें वो पायलें भी बाँसुरी को सुन।
6
नथनिया राधिका की यों अधर ढ़कती।
मुरलिया श्याम की वो ज्यों अधर ढ़कती।
बजे वो बाँसुरी जितनी मधुर जैसे।
नथनिया झूम कर छूती अधर वैसे।

सिन्धु छंद
3
महादेवा

गले में नाग है शशि भाल पर जिसके।
बजें डमरू अजब सुरताल पर जिसके।
महादेवा बड़ा भोला कहाता वो।
धतूरा भाँग पाकर मुस्कुराता वो।

सिन्धु छंद
3
अलौकिक धुन

निकाले बाँसुरी ऐसी अलौकिक धुन।
अचम्भित नार-नर होते चतुर्दिक सुन।
बजें हैं गोपियों की पायलें छम-छम।
नशे में आँख से आँसू गिरें झम-झम।

नशा उन गोपियों पर रास का छाया।
नहीं जिनको कभी छू भी सकी माया।
नशे में झूमती हैं श्याम के सँग वो।
नहीं रँगती कभी भी काम के रँग वो।

कन्हैया का चढ़ा ऐसा धवल रँग है।
खिवैया का मिला ऐसा नवल सँग है।
कि बेरँग होगए सब गोपियों के मन।
कि श्यामल होगए सब गोपियों के तन।

ललित किशोर 'ललित'

सिन्धु छंद
2
अरे ओ साँवरे

अरे ओ साँवरे मुरलीधरा प्यारे।
जरा वंशी मधुर हमको सुना जा रे।
सुना है बाँसुरी तेरी निराली है।
उसी ने नींद राधा की चुरा ली है।

किए उस राधिका ने कौन से जप थे?
किए सब गोपियों ने कौन से तप थे?
लुभाता था जिन्हें मुरली बजा कर तू।
नचाता था जिन्हें आँखें नचा कर तू।

जरा तू आज हम को भी नचा दे रे।
मधुर उस रास का हमको मजा दे रे।
चखा दे आत्म रस का स्वाद  कुछ ऐसा।
चखाया गोपियों को स्वाद था जैसा।

ललित किशोर 'ललित'

सिन्धु छंद

न चाहूँ श्याम मैं धन-धान्य या सोना।

न चाहूँ  साजना की प्रीत में खोना।

मुझे बस चाहिए मीठी नजर तेरी।

भरे जो प्रीत से हर इक डगर मेरी।

दिखा दे श्याम तेरी इक झलक मुझको।

रखूँ फिर याद मैं मरने तलक तुझको।

मरूँ जब साँस में मेरी समाना तू।

नहीं पथ में अकेला छोड़ जाना तू।

ललित किशोर 'ललित'

सिंधु छंद
बुरी आदत

न फेंको आप कचरा बीच राहों में।
गिरो मत आप औरों की निगाहों में।
कि कचरा पात्र कोई खोज लेना जी।
उसी में डाल कचरा रोज देना जी।

ललित

सिंधु छंद

करो मत बालपन में ब्याह बच्चों का।
करो भावी न जीवन स्याह बच्चों का
उन्हें दो पूर्ण अवसर तुम पनपनेका।
कली को फूल बन जग में महकने का।

ललित

सिन्धु छंद
कोख से पुकार

अरे ओ तात माँ तुमसे करूँ विनती।
जरा तुम पाप की अपने करो गिनती।
न मारो कोख में मुझको बचाओ तुम।
न अपने पाप का बोझा बढ़ाओ तुम।

कि मैं भी चाहती हूँ देखना जग को।
न रोको आप अपने ईश के मग को।
करूँगी नाम रौशन आपका ऐसे।
नहीं करता कभी सुत तात का जैसे।

ललित

सिंधु छंद
नुक्ता

नहीं सेवा करे जो सुत पिता माँ की।
सजाता है वही फिर श्राद्ध में झाँकी।
करे नुक्ता बहुत वो भोज भी देता।
खिलाकर ब्राम्हणों को नाम कर लेता।

ललित

सिन्धु छंद

चमकते चाँद को नीरद हसीं भाया।
सरक कर गोद में उसकी चला आया।
पुकारे चाँदनी वो सर्द रातों में।
गया है चाँद क्यों मग भूल बातों में?

ललित

सिन्धु छंद
प्रकृति

बिखेरे चाँदनी ने रंग मनभावन।
लताएँ झूमती ........।
करें अठखेलियाँ हर फूल सँग भँवरे।
भ्रमर का गान सुन हर इक कली सँवरे।

ललित

सिंधु छंद

कभी भी रोशनी नकली चिरागों की।
बढ़ा सकती न रौनक सब्ज बागों की।
दिया इक ज्ञान का ऐसा जलाएँ हम।
कि रौशन हो जहाँ औ' दूर भागे तम।

ललित

सिंधु छंद

धरा पर किसलिए किस काम से आया?
अरे नर याद कर जिस काम से आया।
गया तू भूल उस हरि को यहाँ आकर।
करेगा याद कान्हा को कहाँ जाकर?

ललित

सिंधु छंद

अरे ओ आसमाँ तूने किया ये क्या?
जमीं के प्यार का बदला दिया ये क्या?
कभी सूरज तपाए गर्म बाहों से।
कभी वो चाँद सींचे सर्द आहों से।

ललित

सिंधु छंद

बने इक नार भोला हास में आए।
कन्हैया राधिका के रास में आए।
सुनी जो बाँसुरी नाचे वहीं भोला।
कि छम-छम-छम बजी पायल जहाँ डोला।

ललित

सिंधु छंद
4
न जाने बागबाँ वो सुस्त सा क्यों है?
बुढ़ापे में दिखे वो पस्त सा क्यों है?
कि बोए बीज थे उसने सदा जैसे।
नहीं क्यों बाग में हैं फल हुए वैसे?

ललित

सिन्धु छंद
3

नहीं जब चाह की थी कुछ कभी हमने।
दिखाए क्यों हसीं सपने हमें तुमने?
अदाएँ जब हमारी थी तुम्हें प्यारी।
दबाई क्यों हमारी हसरतें सारी?

ललित किशोर 'ललित'

सिंधु छंद

बला की शोख मतवाली नज़र वाली।
मटक कर थी दिखाती कान की बाली।
वही दिल ले गई इस उम्र में मेरा।
अधर जिसके लिए थे गोल सा घेरा।
ललित किशोर 'ललित'

सिंधु छंद

कभी मत जल्दबाजी में लिखो रचना
पटल पर जाँच कर खुद ही रखो रचना।
समय मत व्यर्थ करना तुम समीक्षक का।
करो मत हौसला तुम कम समीक्षक का।

ललित

सिंधु छंद

अधर पर शर्म की लाली मधुर लाई।
कि राधा श्याम से मिलने चली आई।
नयन में प्रीत के उपहार हैं ऐसे।
मधुर उस बाँसुरी की तान हो जैसे।

ललित किशोर 'ललित'

सिंधु छंद

अधर पर शर्म की लाली मधुर लाई।
कि राधा श्याम से मिलने चली आई।
नयन में प्रीत के उपहार हैं ऐसे।
मधुर उस बाँसुरी की तान हो जैसे।

ललित किशोर 'ललित'

सिंधुछंद

सुनो ओ प्यार के सागर कन्हैया जी।
बजाकर बाँसुरी दो तार नैया जी।

सुना है आप हो चौंसठ कला ज्ञाता।
हमें दे दो कला की लेखनी दाता।

ललित

12.1.18
सिंधु छंद

करी जो प्रीत तो उसको निभाना था।
अरे क्या प्यार का मतलब न जाना था?
निभायी प्रीत थी तुमसे सदा हमने।
न जानी प्यार की कीमत कभी तुमने।

ललित

सिंधु छंद

वफा सपने न नैनों से कभी करते।
वफा अपने न नैनों में कभी भरते।
सभी अपने लगें अब तो पराए हैं।
सभी अपने गमों में कसमसाए हैं।

ललित

11.1.18
पूरी रचना एक साथ
सिंधु छंद
1
अलौकिक वो सुना दो बाँसुरी प्यारी।
सुना जिसको हजारों गोपियाँ तारी।
नचाते थे बिरज में गोपियों को तब।
अरे कान्हा हमें वैसे नचा दो अब।
2
बिरज की वो धरा हम को लगे प्यारी।
जहाँ तुमने मचाई धूम थी न्यारी।
जहाँ माखन चुरा कर रोज थे खाते।
जहाँ वंशी बजाने रोज थे आते।
3
किया था रास राधा संग मधुवन में।
उसी को देखने की आस है मन में।
मिला दो आत्म को परमात्म से ऐसे।
कभी मिलकर अलग वो हों न फिर जैसे।

ललित

सिंधु छंद

कन्हैया ने बजाई बाँसुरी न्यारी।
कि सुनने आगई वो राधिका प्यारी।
लगाएँ गोप औ' गोपी सभी ठुमके।
नचे जब राधिका रानी हिलें झुमके।

ललित

11.1.18
छंद सिंधु

कहीं सर्दी कहीं गर्मी कहीं ओले।
कहीं पानी बताशे हैं कहीं छोले।
कहीं पर आग है फैली कहीं हिंसा।
अरे ये आदमी है या नहीं इंसाँ?

ललित

महाश्रृंगार
3
आगया अंत समय जब पास,तभी जागी दर्शन की प्यास।
जपा तब ही उसने हरि नाम,गयी जब टूट नश्वरी आस।
जमा कुछ कर न सका वो पुण्य,गया बिलकुल ही खाली हाथ।
सुनाते थे उसको सुत-दार,भागवत गीता जी के साथ।
ललित

महाश्रृंगार छंद
2
गया वो उस नगरी की ओर,नहीं है जिसका कोई छोर।
चला जाता है जो इक बार,नहीं फिर आता वो
इस ओर।
बनी थी काया बड़ी कमाल,रहा जिसमें वो सालों-साल।
गया उस काया को ही छोड़,मचाई जिसमें बड़ी धमाल।
ललित

महाश्रृंगार
1
जीव को काया से तत्काल,ले उड़ा निर्मम काल कराल।
नहीं अब उसका कहीं निशान,निशाने पर जिसके था काल।
समझता था खुदको जो देह,उसी ने छोड़ी अपनी देह।
रहा देता सबको जो नेह,अंत में छोड़ गया वो नेह।
ललित
महा श्रृंगार छंद
जय शारद माँ
जय गुरूदेव

शीश पर शारद माँ का हाथ,रहे तो बन जाएगी बात।
लिखूँगा कड़वी-मीठी बात,रहे जो भावों की बरसात।
न हो पाए जो लेखन शुद्ध,शुद्धता ले आएँगें 'राज'।
गुरू राकेश मिले हैं 'राज',तभी मैं लिख पाया हूँ
आज।

ललित
9.1.18
महाश्रृंगार छंद
मणि जी को जन्म दिन शुभकामना


जन्मदिन ले आया है आस,
मिले यूँ शारद माँ का प्यार।

मणी सर सदा लिखें कुछ खास,
लेखनी पाए रोज निखार।

हरिक दिन हो जैसे त्यौहार,
पकोड़ी चाय भगाएँ ठण्ड।

लिखें जो कविताएँ मणि राज,
न देवें भाभी उनको दण्ड।

ललित

महाश्रृंगार छंद

1.1.18

नया साल सूँ हाड़ोती माँ,
                 मूँ लिखबा छूँ जी लाग्यो।
कान्हा-राधा और रास की,
                  बाताँ लिखबा मूँ आग्यो।
छाऊँ छूँ आशीष बड़ाँ को,
                और प्यार सब मितराँ को।
लिखबो छाऊँ छूँ ऊ कान्हो,
                 माखन ले ले  क्यूँ  भाग्यो?
'ललित'

राधा-मोहन की छब न्यारी,सुंदर मनहर छे जोड़ी।
कान्हा की वा बाँसरिया भी,नटखट छे थोड़ी-थोड़ी।
मधुर-मधुर तानाँ छेड़े छे,नन्दन वन में भोर भयाँ।
रूस गयी वा राधा भी जद,कान्हा ने बहियाँ मोड़ी।

महाश्रृंगार


बजे जब बाँसुरिया बिन बात,
करे राधा मोहन से रार।
अधर से हटा बाँसुरी दूर,
साँवरा श्याम करे मनुहार।
नहीं सीधे कर पाए श्याम,
राधिका के तिरछे दो नैन।
किए बिन कान्हा से तकरार।
नहीं आए राधा को चैन।

ललित

महाश्रृंगार छंद
राकेश जी के सुझाव से परि

प्रीत के रंगों से भरपूर,
खिली थी कलियाँ सुंदर चार।
फूल बनने से पहले हाय,
किया भ्रमरों के दल ने वार।
गए वो सारा ही रस चूस,
समझ पाती वो जब तक बात।
कली को मिल पाता कब न्याय,
करें भँवरे जब ऐसी घात।

ललित

महाश्रृंगार छंद
किटी महिमा

यही है हर नारी की चाह।
महीने में हों किटियाँ चार।

किटी में जाती है जो खूब,
बड़ी खुश रहती है वो नार।

खेलना खाना मिलता और,
हाउजी देती है उल्लास।

किटी में जाती हैं जो साथ,
मित्र हो जाती हैं वो खास।

ललित
महाश्रृंगार छंद
मेरी भांजी नीशु को जन्मदिन पर शुभाशीष...

'नीशु' तुम रहो महकती खूब।
सदा आँगन में रहे बहार,
रहें खुशियाँ घर में भरपूर,
लगे हर दिन जैसे त्यौहार।
रहें गम तुम से कोसों दूर,
अधर पर रहे सदा मुस्कान।
करो हर बाधा को तुम पार,
सदा हो जीवन में उत्थान।

ललित

महाश्रृंगार छंद
समीक्षाहेतु

करूँ मैं तुमसे कितना प्यार,
नहीं है इसका तुमको भान।

तुम्हीं से करता हूँ मैं प्रीत,
तुम्हें मैं मानूँ अपनी जान।

भरी जो मेरे दिल में प्रीत,
करो अब तो उसको स्वीकार।

हुस्न का अपने मुझको मीत,
जरा कर लेने दो दीदार।

ललित

महाश्रृंगार छंद
2

जोड़ कर हाथ विनय के साथ,
चले आए नेता जी द्वार।

कड़क थी धूप भीड़ थी खूब,
लगाते सब ही थे जयकार।

कर रहे वादों की बरसात,
माँगते थे बस हमसे वोट।

जीत कर लौट न आते देश,
यही इक थी बस उनमें खोट।

ललित

महाश्रृंगार
किया था जिससे हमने प्यार।
छुड़ा कर हाथ गयी वो आज,

ठंड में हाय छोड़ कर साथ,
गयी क्यूँ उसे न आयी लाज।

गला भी हाय न देता साथ,
कलम से किसे पुकारूँ मीत।

पड़ी है ठंड रहा मैं काँप,
रजाई में गाता हूँ गीत।

ललित

महाश्रृंगार छंद
छम-छम-छम

श्याम देखे राधा की राह,
            लिए सुंदर पुष्पों  का हार।
चली आई कान्हा के पास,
            राधिका रानी कर   श्रृंगार।
करे छम-छम-छम पायल शोर,
            बजे बाँसुरिया सारी   रात।
श्याम ने छेड़ी ऐसी तान,
            महकने लगा राधिका गात।

ललित किशोर 'ललित'

महाश्रृंगार छंद
कहे जो सब के मन की बात,वही लेता दिल सब के जीत।
दिलों को आता है जो रास,मधुर होता वो ही संगीत।

सुने जो सबके दिल की पीर,वही होता है सबका खास।
अधर पर रखे सदा मुस्कान,वही आता है सबको रास।

ललित
4:1:18
महाश्रृंगार छंद
चले हिलती-डुलती ये नाव,कन्हैया थाम जरा पतवार।
एक तेरा ही है आधार,छोड़ना मत मुझको मझधार।
हुआ मन मेरा बड़ा अधीर,जरा तू दे दे इसको धीर।
अरे ओ सबके खेवनहार,लगा दे मेरी नैया तीर।

ललित

महाश्रृंगार छंद

सुनी जब बाँसुरिया की तान,छोड़ आई हर गोपी काम।
बढ़ी उस वंशीवट की शान,खड़े जिसके नीचे घनश्याम।
मोरपंखी सुंदर वो ताज,सजा है कान्हा जी के भाल।
करे वो वंशी बड़े कमाल,दे रहे गोप-गोपियाँ ताल।

ललित

महाश्रृंगार छंद
मचाता धूम रहा है घूम,बिरज की गलियों में घनश्याम।
गोप-ग्वालों को लेकर साथ,चोरियाँ करता है निष्काम।
मधुर धुन बाँसुरिया के साथ,बिरज में होती है हर भोर।
नाचती व्रज की हर इक नार,बजाए मुरली जब चितचोर।
ललित

महाश्रृंगार छंद

जपे जा राम किए जा काम,हरें वो राम सभी की पीर।
सुनेंगें राम बनेंगें काम,ज़रा रखना प्यारे तू धीर।
भले हो देर सुनेंगें टेर,नहीं अन्याय प्रभो के द्वार।
लगेगी नाव धार के पार,प्रभो को हाथ सौंप  पतवार।

ललित

महाश्रृंगार छंद

करे मत याद पुरानी बात,नया कर काम बने तकदीर।
बड़ी मजबूत वक्त की डोर,तोड़ कब पाया कोई वीर।
नयी इक डोर वक्त की बाँध,उड़ानें भर छू ले आकाश।
समय के साथ मिला के हाथ,काट सकता है तू हर पाश।

ललित