विष्णुपद सृजन 2

Koविष्णु पद

मानव चाहे तो पुष्पों से,पट जाए धरती।
रंग-बिरंगी फुलवारी ये,दुख सबके हरती।
दिनकर की पहली किरणें जब,फूलों को चूमें।
फूलों का मादक रस पीने,सभी भ्रमर झूमें।

ललित

विष्णु प
1

प्राची में जब सूर्य रश्मियाँ,लाल रंग भरती।
खिल जाते हैं हृदय कमल मन,में उमंग भरती।
नवजीवन की धारा हर दिल,में बहने लगती।
छूने हैं उत्तंग शिखर अब,ये कहने लगती।

ललित

विष्णु पद
2

बैठ ध्यान में बात सुनो तुम,अपने इस मन की।
मन में ही ढूँढो खुशियाँ तुम,अपने जीवन की।
बाहर की खुशियाँ तो सच में,क्षण भंगुर रहतीं।
मन में खुशियों की गंगा है,हरदम ही बहती।

'ललित'

विष्णु पद
3

संसारी माया इस मन को,कितना है छलती?
मानव की अनमोल जवानी,दो दिन में ढलती।
बालों को काला करने से,जरा नहीं रुकती।
तन की अकड़ नहीं जाती है,कमर भले झुकती।

ललित

विष्णु पद
1

खूब देखली हमने तेरी, ये माया नगरी।
कहीं भरे भण्डार कहीं पर,खाली है गगरी।।
पाप पुण्य की शिक्षा दें जो,सबको खूब खरी।
उनके पापों की नैया इस,जग में खूब तरी।

ललित

विष्णु पद
2
काश राधिका मोहन से यूँ,प्यार नहीं करती।
अपने चंचल नैनों में वो,प्यास नहीं भरती।
अगन विरह की उसके दिल में,आज नहीं जलती।
उस छलिया की यादों में हर,शाम नहीं ढलती।
'ललित'

विष्णु पद

प्रथम प्रयास
राकेश जी के सुझाव से परि

अंतर में जो उथल पुथल है,सागर कब कहता?
पीकर अपने आँसू खुद ही,खारा बन रहता।
सागर की उन्मुक्त तरंगें,हर तदबीर करें।
छूने को उत्तुंग शिखर वो,नभ को चीर धरें।

ललित

विष्णु पद

द्वितीय प्रयास
समीक्षा हेतु

ऊँचे शिखर हिमालय के तो,गर्व नहीं करते।
मानव अपनी ऊँचाई का,दम्भ सदा भरते।
पावन गंगा हरदम ऊपर,से नीचे बहती।
मानव मन में ऊँचाई की,चाह सदा रहती।

'ललित'

विष्णु पद

तृतीय प्रयास
समीक्षा हेतु

पूनम की हर रात चाँदनी,निकले सज धज के।
शोख सितारे इतराते हैं,चुनरी पर सजके।
चाल बदल जाती है उसकी,गहने जब पहने।
छूकर उसके सुंदर तन को,चमक उठे गहने।

ललित

विष्णु पद

चौथा प्रयास
समसामयिक

मिश्री मावा सोहन हलवा,रसगुल्ला बरफी।
या हमको समझा था तूने,ट्रांजिस्टर मरफी।
हर दम तेरी रसना रहती,एटम बम रटती।
देख रही है दुनिया तेरी,नाक आज कटती।

ललित
विष्णु पद

प्रथम प्रयास
समीक्षा हेतु

रोज कहाँ ऐसा होता है,रोटी प्याज मिले।
दिन भर जो बोझा ढोता वो,मुख को रोज सिले।
पानी पीकर रोज देखता,रोटी के सपने।
भोर हुए जल्दी उठकर फिर,चल देता खपने।

ललित
विष्णु पद

प्रथम प्रयास
समीक्षा हेतु

भौरों का गुंजन सुनते ही,फूल सभी चहके।
पुष्पों की खुशबू मदमाती,भौंरे भी बहके।

शीतल पवन हिलोरें दे जब,ये दोनों मिलते।
इन दोनों की प्रीत देखकर,दिल जवान खिलते।

'ललित'

विष्णु पद

दूसरा प्रयास
समीक्षा हेतु

चंचल हिरणी से दो नैना,छुप-छुप वार करें।
कजरारी अँखियों का कजरा,दिल को चीर धरे।
नैन झुका कर बिन बोले वो,बात कहे मन की।
तन को जिसके सहलाती हैं,बूँदें सावन की।

'ललित'

मुक्तक काव्य निखार 17.9.16 से

मुक्तक 16,,,,,14

कुछ अपनों में कुछ सपनों में,जीवन के दिन बीत गए ।
कुछ पाने में कुछ खोने में,सुंदर सपने रीत गए।
जीवन का सपनों से रिश्ता,मन क्यूँ समझ नहीं पाया।
जिनके सपनों खोया मन,भूल वही मनमीत गए।

'ललित'

अब तो अपने जीवन की तू,अंतिम साँसें गिन प्यारे।
भारत का बच्चा बच्चा भी,हर पल तुझको ललकारे।
सरल शांत भारत को तूने,गम का क्यों सैलाब दिया?
अब तेरी कुछ खैर नहीं है,ओ रे बुजदिल हत्यारे।
'ललित'

मुक्तक 16,,,,,14

जनता को जो मान रहे हैं,भीड़ मकोड़े- कीड़ों की।
लड़ते दिखते रोज लड़ाई,अपने सुंदर नीड़ों की।
कितने शातिर नेता हैं ये,कितनी बेबस जनता है।
भेड़चाल का लाभ उठाते,ये जनता की भीड़ों की।

'ललित'

मुक्तक

अब तो तेरी बर्बरता ने,सारी सीमायें तोड़ी।
देख जरा अब आईना तू,शर्म जरा करले थोड़ी।
लेंगें हम चुन -चुन कर बदला,तेरी सब करतूतों का।
ओ नापाक पाक अब तेरी,बनने वाली है घोड़ी।

'ललित'

मुक्तक  16....14

क्या कहता है दीप सुनो तुम,दीवाली के मस्तानों।
खुद जलकर जग रोशन कर दो,ज्योति जगत के परवानों।
याद करेगी तुमको दुनिया,हर होली दीवाली पर।
दुश्मन को तुम धूल चटा दो,हिन्द फौज के दीवानों।

ललित

मुक्तक  16....14

आज दिवाली  के अवसर पर,याद गुरू को कर लो जी।
प्रेम प्यार से वन्दन करलो,शीश चरण में धर लो जी।
लौह धातु से स्वर्ण बनाने,वाले पारस को पूजो।
कृपा गुरू की बनी रहे ये,माँ लक्ष्मी से वर लो जी।

ललित

मुक्तक  16...14

दीवाली की रौनक है या,चाँद सितारों का मेला।
धरती पर उतरा है जैसे,दीप-बातियों का रेला।
हर आँगन में खनक रही हैं,खन-खन-खन खन-खन खुशियाँ।
लक्ष्मी जी के स्वागत की है,आयी मधुर-मधुर बेला।

'ललित'

उल्लाला/चंद्र मणि सृजन 2

16.9.16

कलियुगी सत्य

नगर निगम जिस शहर में,जनता का धन खाय है।
खुश होकर जनता वहाँ,जय-जय-जय-जय गाय है।

मेला देखन मैं गया,नगर निगम की ओर जी।
देखा मेला लुट रहा,पकड़ न आएं चोर जी।

बच्चों का सब अन्न जो,कच्चा ही खा जाय रे।
वो फिर जाकर जेल में,पकी रोटियाँ खाय रे।

'ललित'

उल्लाला
1

तरसे है मन आज क्यों,खुशियों के संसार को?
समझ नहीं क्यों पा रहा,अपनों के व्यवहार को?

ऊपर से खुश दीखता, मन का पागल मोर है।
खुशी चुराकर हँस रहा,कान्हा पक्का चोर है।

ललित

उल्लाला
2

छीन झपट कर था मिला,मन का थोड़ा चैन जो।
लहरों में ही खो गया,ज्यों सागर का फैन वो।

हाय नहीं मिल पा रहे,कान्हा से ये नैन क्यों?
चादर मैली देख के,मनवा है बेचैन क्यों?

ललित

अपने ही करने लगे,इस दिल पर आघात क्यों?
अपने ही समझें नहीं,इस दिल के जजबात क्यों?

उल्लाला
1
राकेश जी के सुझाव से परि
नदी नाव की दोसती,जैसा ये संयोग है
हरे घाव को देखकर,नमक लगाते लोग हैं।
एक जरा से छेद से,नैया जाती डूब है।
खुद ही तरना सीख लो,नदिया गहरी खूब है।

'ललित'

उल्लाला
2
याकेश जी के सुझाव से संशोधित

पल पल बीता जा रहा,बिना किए आवाज रे।
हर पल का उपयोग कर,बजा कर्म का साज रे।।
पाना चाहे मोक्ष तो,हर पल हरि का नाम ले।
नश्वर तन ये है भला,कुछ तो इससे काम ले।।

'ललित'

उल्लाला

मन में मूरत साँवरी,उस चंचल चितचोर की।
राधा नैन न खोलती,सुने मुरलिया भोर की।।
राधा वन वन डोलती,ढूँढे निर्मम श्याम को।
वादा था जिसने किया,मगर न आया शाम को।

'ललित'

उल्लाला

राकेश जी के सुझाव से परि

सुख के पीछे भागता,देखा हर इंसान है।
छोटा सा दुख सालता,सुख अंतर की शान है।

सुख दुख मन के भाव हैं,मन को जो भटकायँ हैं।
दुख से जो ऊपर उठें,सुख में डूबे जायँ हैं।

ललित

शिप्रा विवाह

14.9.16

ममा पपा की लाडली,चली आज ससुराल।
माँ आँसू भर आँख में,चूमे उसका भाल।

'ललित'

गज़ल (विधान)रचना

04.09.16

ज़ल विधान

[04/09 08:27] Rakesh Raj: 💐 आज का विषय 💐
आज सभी मित्र मित्र दिग्पाल छंद के विधान पर..अर्थात
2212122, 2212122 की बहर पर एक ग़ज़ल लिखने की कोशिश करें....
कैसे लिखें..?
सर्वप्रथम उपरोक्त बहर ( मात्रा विधान ) के आधार पर दो पंक्तियाँ लिखें जिनके तुकांन्त (काफ़िये) समान हों....इसे ग़ज़ल का मतला कहा जाता है..👈🏻 इसे गीत विधा में स्थायी कहा जाता है....
👉🏻 ततपश्चात उक्त विधान और भाव के अनुसार ही एक पंक्ति लिखें जो तुकांन्त मुक्त अथवा स्वतंत्र तुकांन्त लिए हो। इसके बाद चौथी पंक्ति इसी भाव और विधान के अनुसार लिखें जिसमें मतले की पंक्तियों के अनुसार तुकांन्त (काफ़िया ) मिलाना है....सर्व प्रथम मतला और एक शेर लिखें जो कुल चार पंक्तियाँ होंगी...पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति में तुकांन्त तीसरी पंक्ति स्वतंत्र तुकांन्त होगी.....
👉🏻 छंद की चारों पंक्तियों में एक ही भाव आता है किंतु ग़ज़ल की दो पंक्तियाँ जो शेर कहलातीं हैं उनमें ही भाव और विषय का साम्य रखा जाता है....ग़ज़ल का प्रत्येक शेर अपने आप में पूर्ण ( मुकम्मल ) होता है .. की हुई बात या कथ्य यहां पूर्ण स्पष्ट हो जाता है...यह आवश्यक नहीं है कि अगला शेर पढ़ने के बाद ही ही उसका भाव स्पष्ट हो....केवल दो - दो शेर लिखें...ग़ज़ल में कम से कम 10 पंक्तियाँ जिनमें दो पंक्ति मतला 👈🏻 अंतिम दो पंक्ति जिनमें शायर अपना नाम देता है 👈🏻 इसके अतिरिक्त 3 शेर आवश्यक होते हैं...इस प्रकार 10 पंक्तियों में 3 शेर ही कहे जाते हैं ...शेर हमेशा विषम संख्या में ही लिखे जाते हैं जिनकी संख्या अधिकतम 21 हो सकती है...हमें आज केवल 5 शेर 2 -2 पंक्तियों के और चार लाइन मतले और मक्ता की..कुल 14 पंक्तियाँ ही लिखनी हैं....शीघ्रता न करें....सोच समझ कर लिखें...बेहतर लिखें....विधान और भाव के अनुसार लिखें...बेहतरीन ग़ज़ल 1 सप्ताह में 1..पर्याप्त होती है....👍🏻👍🏻😊😊👍🏻👍🏻
[04/09 08:57] Rakesh Raj: 22 121 22, 22 121 22 की बह्र पर एक ग़ज़ल...

🍃🌻 ग़ज़ल 🌻🍃

होती नहीं कभी ये, रुसवाइयाँ  हमारी।
लेतीं न जान ऐसे, तन्हाइयाँ  हमारी।

👆🏻👆🏻मतला 👆🏻👆🏻

👇🏻👇🏻 शेर 👇🏻👇🏻
हर पोर पोर मेरा, दिन रात दूखता है,
ये मानती न बातें, पुरवाइयाँ हमारी।

अंत में हमारी शब्द यहाँ बार बार रिपीट हो रहा है इसे "रदीफ़" कहते हैं...इससे पूर्व का जो शब्द है
तन्हाइयाँ , रुसवाइयाँ, पुरवाइयाँ 👈🏻 ये सब  तुकांन्त (काफ़िया ) हैं....

👍🏻💐 "राज" दीक्षित 💐👍🏻
[04/09 09:08] Rakesh Raj: आवश्यक नहीं हैं कि हर शेर का विषय और भाव अलग ही हो ललित जी....हो भी सकता है और नहीं भी....👍🏻💐👍🏻
ग़ज़ल में उर्दू शब्दों का प्रयोग किया जाता है...हिंदी छंदों में नहीं....यहाँ काफ़िये का अंतिम वर्ण उसकी ध्वनि के आधार पर भी काफ़िया मिलाया जा सकता है....
जैसे....रहा नहीं, खता नहीं, सजा नहीं, बना नहीं....यहाँ... हिंदी छंदों में रहा/खता/ सजा/ बना 👈🏻 सटीक तुकांन्त नहीं हैं किंतु ये सभी शब्द आकारांत "आ" की ध्वनि होने से ग़ज़ल के उपयुक्त तुकांन्त हो सकते हैं....हिंदी छंद में "ना" का प्रयोग निषेध है किंतु ग़ज़ल में ना का प्रयोग मान्य है....👍🏻👍🏻💐💐👍🏻👍🏻👍🏻