पसन्द अपनी अपनी

30.12.16

आदरणीय प्रधान सम्पादक महोदय,
दैनिक भास्कर
अहा!ज़िंदगी के नई कलम कॉलम में
प्रकाशन हेतु मेरी निम्न रचना सादर प्रेषित है...

मनोरम छंद
वृद्धावस्था

आँसुओं से तर बतर था,एक बेबस वृद्ध नर था।
देह जर्जर हो गई थी,वासना भी सो गई थी।

प्यार की प्यासी निगाहें,जो खुली रहना न चाहें।
हर तरफ पसरी उदासी,दे खुशी क्यों कर जरा सी।

याद आती है जवानी,जब नसों में थी रवानी।
पाल बच्चों को लिया था,दो जहाँ का सुख दिया था।

बन गये लायक सभी वो,सुख न दे पाए कभी वो।
व्यस्त सब बच्चे हुए हैं,कान के कच्चे हुए हैं।

स्वप्न सब बिखरे सुनहरे,होगए हैं पूत बहरे।
दर्द में डूबी निगाहें,कण्ठ से निकलें कराहें।

हाय जीवन क्या बला है?जिन्दगी की क्या कला है?
जान जीवन भर न पाया.बालकों ने जो दिखाया।

देह में रमता रहा था,नेह में जीवन बहा था।
स्वार्थमय जीवन जिया था,याद कब रब को किया था।

आज रब है याद आता,भूल इक पल वो न पाता।
या खुदा अब तो रहम कर,दु:ख दारुण ये खतम कर।

प्यार जो उसने दिया था,त्याग जो उसने किया था
काश बच्चे जान पाते,दर्द को पहचान पाते।

नेह से नजरें मिलाकर,दीप आशा का जलाकर।
घाव पर मरहम लगाते,बोल मीठे बोल जाते।

ललित किशोर 'ललित'
#5, मारुति कॉलोनी,
नयापुरा ,कोटा
मो.9784136478

ताटंक सृजन 4 राधा जी

ताटंक छंद 3
26.12.16

राधा वियोगी

कान्हा तेरे सुख की खातिर,ये वियोग सह लूँगी मैं।
तेरी बाहों के झूले की,यादों में रह लूँगी मैं।

फूल बिछा दूँगी राहों में,चुन लूँगी पथ के काँटे।
हँस कर झेलूँगी सब दुख जो,किस्मत ने मुझको बाँटे।

ललित

पीर पराई किसने जानी,किसने पर-पीड़ा भोगी।
जो औरों के दुख को समझे,वो होगा कोई योगी।
दु:खों की गंगा में गोता,हर मानव ही खाता है।
हरपल याद रखे जो हरि को,वो भव से तर जाता है।

'ललित'

छोटा सा है जीवन अपना,चार दिनों का है मेला।
इक दिन धोखा दे जाएगा,चलती साँसों का रेला।
कर लो सबसे प्यार जगत में,प्रीत बिना कैसा जीना?
जीवन को संगीत बना लो,गीत बिना कैसा जीना?

'ललित'
नव वर्ष

करने को श्रृंगार धरा का,दिनकर पूरब से आया।
ढकने को धरती का आँचल,स्वर्ण चुनर प्यारी लाया।
नये वर्ष में नये रूप में,नयी उमंगें ले आया।
तूफानों को मायूसी की,कटी पतंगें दे आया।

ताटंक छंद
राधा-उद्धव संवाद
1
उन सुजान कान्हा को उद्धव,भूल भला सकती कैसे?
जिनकी याद बसी आत्मा में,जीवन-प्राणों में ऐसे।
नित्य निरंतर ये मन प्रिय की,मधुरिम यादों मे खोया।
प्राणि,पदार्थ,परिस्थिति-सब को,भूल गया है ये गोया।

क्रमश:

'ललित'

ताटंक छंद
राधा-उद्धव संवाद
2
सुंदरता,माधुर्य,रूप जो,नित्य नऐ धर लेते हैं।
नित नव नेह,प्रेम,प्रीती से,मन मेरा हर लेते हैं।
नित नवीन भावों की यादें,शोभित हैं मन में मेरे।
नित नवीन संगम की यादें,रहें मधुर मन को घेरे।

क्रमश:

'ललित'

नये वर्ष में नयी धुनों पर,मुरली श्याम बजा देना।
मेरे अधरों पर मंगलमय,नित नव गीत सजा देना।
मनमंदिर में मूरत तेरी,संग राधिका प्यारी हो।
दिन तो दिन है कान्हा मेरी,नहीं रात भी कारी हो।
'ललित'

चाट चाट कर अँगुली से जब,चाट आपने खायी थी।
याद करो सोला का वो दिन,जब भाभी बहलायी थी।
अब सतरा में उस भाभी को,भूल नहीं जाना प्यारे।
चाँद नहीं ला सकते तो तुम,ला देना थोड़े तारे।

ललित

कान्हा की वंशी की धुन सुन,

करने को श्रृंगार धरा का,दिनकर पूरब से आया।
ढकने को धरती का आँचल,स्वर्ण चुनर प्यारी लाया।
नये वर्ष में नये रूप में,नयी उमंगें ले आया।
तूफानों को मायूसी की,कटी पतंगें दे आया।

छोटा सा है जीवन अपना,चार दिनों का है मेला।
इक दिन धोखा दे जाएगा,चलती साँसों का रेला।
कर लो सबसे प्यार जगत में,प्रीत बिना कैसा जीना?
जीवन को संगीत बना लो,गीत बिना कैसा जीना?

चाट चाट कर अँगुली से जब,चाट आपने खायी थी।
याद करो सतरा का वो दिन,जब भाभी बहलायी थी।
अट्ठारा में उस भाभी को,भूल नहीं जाना प्यारे।
चाँद नहीं ला सकते तो तुम,ला देना थोड़े तारे।
'ललित'

ताटंक
गीत

देखो री वो कुँवर कन्हाई,अब तक लौट न आयो री।
भोर भये जो नंदनवन में,मुरली मधुर बजायो री।

पाँवों में पैंजनियाँ बाजें,मोर मुकुट सिर धारौ है।
वाकी तिरछी चितवन ऊपर, मैंने तो जग वारौ है।
उस नटखट नागर कान्हा ने,सबको नाच नचायो री।
भोर भये जो नंदनवन में,मुरली मधुर बजायो री।

गोप-गोपियों का प्यारा जो,गौओं का रखवाला है।
चोरी करता माखन की वो,माखन-चोर निराला है।
एक वही बदनाम हुआ क्यों,माखन सबने खायो री?
भोर भये जो नंदनवन में,मुरली मधुर बजायो री।

लीलाधर वंशीधर गिरधर,वैजंती माला धारी।
नाम जपा है जिसने निश-दिन,उसकी ही नैया तारी।
बेड़ा पार करे वो भव से,जाने वाको ध्यायो री।
भोर भये जो नंदनवन में,मुरली मधुर बजायो री।
ललित

सर्वश्रेष्ठ 13.12.16

कुण्डलिया छंद रचनाएँ 3

कुण्डलिया सृजन 3

कुण्डलिया

जय माखन चोर की
💐🌿💐🌿💐🌿💐

खोजत हारीं गोपियाँ,वन-उपवन हर छोर।
नन्दभवन में जा छुपा,वो माखन का चोर।

वो माखन का चोर,बड़ा बनता है भोला।
घट माखन के देख,सदा जिसका मन डोला।

कहे 'ललित' कविराय,विविध ढँग सोचत हारीं ।
छुप गयो नंदकिशोर, गोपियाँ खोजत हारीं।।

ललित
✈✈✈✈✈✈✈

हर लो हे मनमोहना,मेरे मन का राग।
मान और यशकामना,विषय सुखों की आग।
विषय सुखों की आग,बुझा दो किरपा जल से।
मिलें आत्म-परमात्म,तुम्हारे ही दल-बल से।
कहे 'ललित' कर जोड़,मुझे बाहों में भर लो।
दे दो दर्शन श्याम,सभी पापों को हर लो।

'ललित'

कुण्डलिया सृजन 2 E MAIL

19.12.16
कुण्डलिया सृजन 2
1
मोहन

प्यारे मोहन देखलो,हमको भी इक बार।
माखन घट स्वीकार लो,करदो अब उद्धार।

कर दो अब उद्धार,पिलादो प्रेम पियाले।
मुरली की अब तान,सुना दो मुरली वाले।

आज ललित की पीर,हरो ओ ग्वाल सखा रे।
नटखट नटवर श्याम, अरे ओ मोहन प्यारे।

कुण्डलिया सृजन 2
2
नाते

नाते-रिश्तेदार भी,देखे हमने खूब।
जो नोटों के भँवर में,रहे गले तक डूब।

रहे गले तक डूब,खड़े हम नदी किनारे।
टूटी हर पतवार,तेज हैं इतने धारे।
कहे 'ललित' ए काश,अकेले हम चल पाते।
झूठे हैं अब यार,यहाँ सब रिश्ते-नाते।

'ललित'
3
जीवन

जीवन की तस्वीर में,रंग भरे हर कोय।
किस्मत करे मजाक तो,बदरंगा सब होय।

बदरंगा सब होय,नहीं फिर कुछ भी भाता।
उड़ जाता हर रंग,तोड़ कर उस से नाता।
कहे 'ललित' पछताय,उधड़ जाती हर सीवन।
जितना रखो सँभाल,बिखरता उतना जीवन।
'ललित'

4
दोस्ती

जीवन भर की दोसती,पल में देता छोड़।
मानव मन का आज भी,नहीं दीखता तोड़।

नहीं दीखता तोड़,फिरे ऐसा मदमाता।
दूजे का सुख देख,न जाने क्यों जल जाता?
कहे 'ललित' कविराय,करे मन ऐसी छीजन।
खूब बिगाड़े काम,दुखी कर देता जीवन।

'ललित'
5
राधा
कृषण दीवाने10.1.17
राधा की पायल बजे,छम-छम-छम जब श्याम।
तब तेरी मुरली बजे,मधुर मधुर अविराम।

मधुर मधुर अविराम,कान में रस वो घोले।
मन ही मन में नाम,राधिका का तू बोले।
कहे 'ललित' है श्याम,राधिका के बिन आधा।
करे उसे भव पार,रटे जो राधा-राधा।

'ललित'

6

अपनापन

पाया है जो आपसे,अपनापन सौ बार।
दीवानापन ये नहीं,ये है सच्चा प्यार।

ये है सच्चा प्यार,हमारा दिल है कहता।
दिल में ही तो यार,सदा दिलवर है रहता।

सुनो 'ललित' की बात,विष की खान ये काया।
बन गईअमृत खान,ऐसा प्यार जो पाया।
'ललित'
7
पायल

छम-छम-छम-छम बज रही,पायलिया मुँह जोर।
प्रीतम से मिलने न दे,पनघट के उस छोर।

पनघट के उस छोर,पुकारे साजन प्यारा।
गोरी का दुख देख,हँसे हर झिलमिल तारा।

कहे 'ललित' कविराय,प्रीत की दुश्मन हरदम।
सखियाँ हँसती खाँस,बजे जब पायल छम-छम।

ललित
8
नव दुल्हन
खन-खन खनकें चूड़ियाँ,नव-दुल्हन के हाथ।
अधरों पर नथनी सजे,टीका सोहे माथ।

टीका सोहे माथ,कान में झूले बाली।
पहने मंगल सूत्र,लिये अँखियन में लाली।
कहे 'ललित' सिंगार,करे नव दुल्हन बन-ठन।
घर होता गुलजार,बजे जब चूड़ी खन-खन।

ललित
9
बरगद

देते शीतल छाँव थे, जो बरगद के पेड़।
भूल गए बच्चे उसे,याद रही बस मेड़।

याद रही बस मेड़,न सींचे बरगद पीपल।
बोते हैं जो आज,वही काटेंगें वो कल।
कहे 'ललित' वो छाँव,नहीं बरगद की लेते।
छोड़ो अब ये ठाँव,सीख बरगद को देते।

'ललित'
10
चाँद चाँदनी

होने टिम-टिम-टिम लगे,तारों की चमकार।
चाँद चँदनिया का तभी,करता है श्रृंगार।

करता है श्रृंगार,चाँदनी का वो ऐसे।
दुल्हन नई नकोर,सजी हो कोई जैसे।

देख 'ललित' ये प्यार,चँदनिया लगती रोने।
बूँदों की बरसात,लगे टिम-टिम-टिम होने।

'ललित'
11

बादल बिजली

बादल बिजली में दिखे,बड़ा अनोखा प्यार।
घन का पथ रोशन करे,शम्पा की चमकार।

शम्पा की चमकार,लगे नीरद को प्यारी।
बरसादो रसधार,कहे बिजुरी उजियारी।

'ललित' गाज के अधर,चूमता वारिद का दल।
करने को बौछार,मिलें बिजली औ' बादल।

'ललित'
12
सावन

मदमाती बूँदे गिरें,सावन की चहुँ ओर।
दादुर टर-टर कर रहे,नाचे वन में मोर।

नाचे वन में मोर,पपीहा पिहु पिहु गाए।
अमरबेल तज लाज,वृक्ष से लिपटी जाए।

'ललित' चंचला नार,कहे कुछ कुछ शर्माती।
हाय भिगोती गात,गिरें बूँदें मदमाती।

'ललित'
13
लीला

तेरी लीला को प्रभो,मन ये समझ न पाय।
मन चाहा होता नहीं,अनचाहा हो जाय।

अनचाहा हो जाय,नहीं जो मन को भाता।
सुख की होती चाह,मगर दुख फिर फिर आता।
कहे 'ललित' कविराय,देख ली ये अंधेरी।
पापी सब सुख पाय,अजब है लीला तेरी।

'ललित'
14
काला पीला धवल

काले धन को ढूँढने,निकला 'मोदी' राज।
काला पीला हो गया,बिगड़े सब के काज।

बिगड़े सब के काज,रंग सब हुए पराए।
बैंकर से ही श्वेत,जब काले भी राए।

'ललित' रहा सहलाय,काले दे गये छाले।
धवल खड़े पछतायँ,सयाने थे सब काले।

'ललित'

कुण्डलिनी सृजन 2

कुण्डलिनी सृजन 2श
11.12.16
1
कान्हा तेरी प्रीत में,यही बात है खास।
आत्मा का होता मिलन,चले रात भर रास।
चले रात भर रास,अलौकिक है ये रीती।
नाचा तेरे साथ,उसी ने दुनिया जीती।

'ललित'
2
फूलों को रब से मिली,काँटों की सौगात।
फिर भी वो महकें सदा,दिन हो चाहे रात।

दिन हो चाहे रात,सदा मुस्काते रहते।
प्रेम-प्रीत के भाव,सदा बिखराते रहते।

'ललित'
3
खूब किये जिसने सितम,छीना चैन करार।
उस कातिल की हर अदा,हमें गयी है मार।

हमें गयी है मार,चलाए दिल पर आरी।
भूले हम संसार,हँसे है दुनिया सारी।
ललित
4
कान्हा तेरी बाँसुरी,छेड़े अद्भुत तान।
जिसको सुनने के लिए,तरसें सबके कान।

तरसें सबके कान,गोपियाँ घर को त्यागें।
बरसाने को छोड़,राधिका व्रज को भागें।
ललित

5
कैसा ये अन्याय है,कैसी है ये रीत?
मैया भी सुनती नहीं,जीवन का संगीत।

जीवन का संगीत,अजन्मी कन्या गाए।
इक बेटी का जन्म,नहीं क्यों माँ को भाए?
ललित

6
मिलते नित नव मीत हैं,बिछुड़े हैं कुछ मीत।
रोज बदलता साज ये,जीवन का संगीत।
जीवन का संगीत,भोर में पंछी गाते।
समझें इसका सार,वही आगे बढ़ पाते।

'ललित'

7
अपनी-अपनी है व्यथा,अपने-अपने घाव।
अपनी ही पतवार से,पार लगेगी नाव।
पार लगेगी नाव,मिलेगा उसे किनारा।
देख डोलती नाव,नहीं जो हिम्मत हारा।

'ललित'
8
शीतल सुरभित ये हवा,पिय की याद दिलाय।
छम-छम-छम-छम बाज के,पायल नीद उड़ाय।
पायल नीद उड़ाय,हो रहे नैन गुलाबी।
साजन बैरी हाय,ले गया दिल की चाबी।

ललित

9
कृष्ण दीवाने 15.1.17
राधा गोविंद 15.1.17
कुसुम करें अठखेलियाँ,कलियाँ झूमी जायँ।
जब मुरली की तान पर,गीत गोपियाँ गायँ।

गीत गोपियाँ गायँ,भूल सुध-बुध वो झूमें।
हर गोपी के साथ,रास का रसिया घूमे।
ललित
10

12

कृष्ण दीवाने 22.1.17
राधा गोविंद 22.1.17
कंकर से घट फोड़ता,नटखट माखन चोर।
गोपी पीछे दौड़ती,पकड़ न पाए छोर।

पकड़ न पाए छोर,कन्हैया घर को भागे।
सोये चादर ओढ़,उनींदा सा वो जागे।

'ललित'
13
हे गणनाथ गजानना,नित मैं जोड़ूँ हाथ।
घर मे सदा विराजिए,ऋद्धि सिद्धि के साथ।

ऋद्धि सिद्धि के साथ,कृपा बरसाते रहना।
जो भी आएं विघ्न,उन्हें टरकाते रहना।
ललित
14
जीने की आशा लिए,जीवन बीता जाय।
मौत उसे लगती सगी,जो नर गीता गाय।

जो नर गीता गाय,उसे जीना है आता।
मन में लेता जान,मौत से पक्का नाता।
ललित

15

अदरक वाली चाय से,जिसे नहीं परहेज।
वो दूल्हा स्वीकारता,दुल्हन बिना दहेज।

दुल्हन बिना दहेज,चाँदनी जैसी प्यारी।
देती जो हर रोज,पिया को खुशियाँ सारी।

ललित
16

17
कृष्ण दीवाने 23.1.17
राधा गोविंद 23.1.17
फूल सुगंधित खिल रहे,बगियन में हर ओर।
राधा जी से आ मिले,साँवरिया चितचोर।
साँवरिया चितचोर,आँख से करें इशारे।
जग के सारे फूल,राधिका तुझ पर वारे।

ललित

18
यमुना की लहरें थमीं,सुन मुरली की तान।
तरु-पल्लव सब झूमके,कहते कृपानिधान।

कहते कृपानिधान,नजर भर हमको देखो।
बन जाए कुछ बात,पलट कर हमको देखो।

ललित

19
सूख गयी नदियाँ सभी,लुप्त हुए तालाब।
मानव ने छोड़ा नहीं,आँखों में भी आब।

आँखों में भी आब,नही क्यों अब है दिखता?
क्यों कोड़ी के मोल,यहाँ मानव है बिकता?

'ललित'
20
ममा मुझे है खेलना,मोबाइल मे खेल।
चाबी वाली ये मुझे,नहीं चलानी रेल।

नहीं चलानी रेल,मुझे बहलाना छोड़ो।
मेरे नाजुक गाल,ममा सहलाना छोड़ो।

'ललित'
21

लेडी फिंगर जी कहें,भिण्डी से सब लोग।
और टमाटर से कहें,कर ले बेटा योग।

कर ले बेटा योग,तभी भिण्डी से शादी।
होगी तेरी और,नहीं होगी बरबादी।

'ललित'

22
बित्ते भर की छोकरी,पहने चूड़ी लाल।
सारी गलियों में फिरे,करती खूब धमाल।

करती खूब धमाल,बाग में झूला झूले।
पाठ किए जो याद,उन्हें पलभर में भूले।

'ललित'

बूफे पार्टी में गये,बंदर जी इक रोज।
इमली की चटनी लिए,रहे समोसा खोज।

रहे समोसा खोज,मगर फिर सू सू आई।
इक कोने को खोज,वहीं पर धार लगाई।

'ललित'

जंगल में मंगल हुआ,नाच रहे सब मोर।
बन्दर जी शादी करें,बाजे का है शोर।

बाजे का है शोर,कोयलें गाती गाना।
भालू चीते शेर,खा रहे जमकर खाना।

'ललित'

अभिव्यक्ति मन से कलम तक


शक्ति छंद

नहीं रास आयी हमें बन्दगी।
हवा में उड़ी जा रही जिन्दगी
सफेदी हमें अब चिढ़ाने लगी।
हसीं कामनाएं बढ़ाने लगी।

कभी हाथ थामे चले जिन्दगी।
कभी रासतों में पले जिन्दगी।
कभी तो लगे ये दुआ जिन्दगी।
कभी क्यों लगे बद्दुआ जिन्दगी?

मिला जिन्दगी से हमें ये सिला।
जवाँ पूत से मत करो कुछ गिला।
पराया हुआ बागबाँ बाग में।
हवन ही धुआँ हो गया आग में।

हवन उम्रभर तात ने यूँ किया।
न बुझने दिया आस का वो दिया।
मगर पूत ने दम किया नाक में।
हवन कुण्ड है अब मिला खाक में।

सलीके सिखाते जवाँ हैं उन्हें।
गयी छोड़ पीछे जवानी जिन्हें।
नये दौर के ये नये रासते।
कभी जिन्दगी के नहीं पास थे।

बनी आज नासूर है जिन्दगी।
दिलों से बड़ी दूर है जिन्दगी।
हँसी औ' खुशी अब हवा  हो गयी।
कि हँसना हँसाना दवा हो गयी।"

ललित किशोर "ललित"

"

21.8.17
अभिव्यक्ति :मन से कलम तक
शीर्षक :मतलबी/मतलब परस्त/स्वार्थी/स्वार्थ परायण
आयोजन अध्यक्ष सम्माननीय विद्या भूषण मिश्र जी एवं सम्मानीय मंच की सेवा में सादर प्रेषित

आधार छंद

कौन  सगा अपना यहाँ,और कौन है मीत?
इस दुविधा को छोड़ दे,गाये जा तू गीत।
सब को खुश कैसे रखे, एक अकेली जान।
मतलब के सब यार हैं,स्वारथ की है प्रीत।

फूल और भँवरे दिखें,इक दूजे के मीत।
भौंरा बस रस चूसता,झूँठी उसकी प्रीत।
प्यार भरे व्यवहार के,पीछे ये ही राज।
जो है अपने काम का,गाओ उस के गीत।

समझ न आता है यहाँ,प्रीत मीत का खेल।
लिपटी है क्यों वृक्ष से,वह कोमल सी बेल?
क्या ये सच्चा प्यार है,या स्वारथ की प्रीत?
मतलब के सब मीत हैं,नहीं प्यार का मेल।

मीरा जैसी प्रीत हो,राधा जैसा प्यार।
गोपी जैसा प्रेम तो,कान्हा जाते हार।
प्रीतम के दुख में दुखी,सुख में सुखिया होय।
पावन बंधन नेह का,क्या जाने संसार।

'ललित'

अभिव्यक्ति मन से कलम तक
11.12.16
यह रचना दि 13.12.16
को सर्वश्रेष्ठ घोषित
रोला छंद

दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जिस पर है विश्वास,वही दिल को तोड़ेगा।
जो है अपना खास,वही फिर मुख मोड़ेगा।
सहलाता है घाव,नहीं शीतल सावन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जो होता फनकार,यशस्वी वो हो जाता।
दुनिया भर का प्यार,उसे फन है दिलवाता।
दिल के गहरे घाव,नही भर पाता फन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

ईश्वर से विश्वास,कभी यूँ ही उठ जाता।
जिसकी टूटी आस,नहीं फिर वो उठ पाता।
भर देता है घाव,कभी जानी दुश्मन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जीवन भर तो साथ,नहीं तन भी दे पाता।
विषम रोग में साथ,नहीं धन भी दे पाता।
भरें उसी के घाव,करे जो यहाँ भजन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

'ललित'

27.12.16
अभिव्यक्ति मन से कलम तक
अतिथि रचना
सम्माननीय मंच को सादर समर्पित
शीर्षक : नजर,आँख,नैन
कुकुभ छंद

काम कभी ऐसा मत करना,नज़र झुकानी पड़ जाए।
एक बार नज़रों से गिरकर,कभी नहीं फिर उठ पाए।
नज़र रखो अपनी करनी पर,करनी ऐसी कर जाओ।
याद करे दुनिया वर्षों तक,नज़र मोड़ जब मर जाओ।

जैसा चश्मा नज़रों पर हो,दुनिया वैसी दिखती है।
काम-वासना के चश्मे से,कामी जैसी दिखती है।
नज़रों में इक प्रभु की छवि हो,चश्मा हो भगवद् गीता ।
भगवद् गीता जिसने पढ़ ली,समझो उसने जग जीता।

मात पिता की नज़रों से जो,स्नेह सुतों को मिलता है।
उसी प्यार से जीवन बनता,बच्चों का दिल खिलता है।
मात पिता फिर प्यार ढूँढते,उन बच्चों की नज़रों में।
लेकिन प्यार कहाँ मिलता हैअंधे,गूंगे,बहरों में।

25.7.17

अभिव्यक्ति : मन से कलम तक
शीर्षक: दुआ/प्रार्थना./अरदास/कामना

आदरणीय गुरुचरण मेहता 'रजत'जी व सम्माननीय मंच को सादर समर्पित

मधुमालती छंद

राधा करे यह कामना,हो श्याम से जब सामना।
दूजा न कोई पास हो,मनमोहना का रास हो।

वंशी अधर से दूर हो,बस राधिका का नूर हो।
इक टक निहारे साँवरा,इस प्रेयसी को बावरा।

राधा दिवानी श्याम की,उस साँवरे के नाम की।
उसकी मुरलिया जब बजे,बस प्रीत का ही सुर सजे।

हर ओर सुंदर श्याम था,हर छोर रस मय नाम था।
था राधिका का साँवरा,या रासमय था बावरा।

वो भूल खुद ही को गई,बस श्याम में ही खो गई।
चलने लगी पुरवाइयाँ,बजने लगीं शहनाइयाँ।

यह प्यार का विश्वास था,या मद भरा अहसास था।
परमातमा से मेल था,या आत्म रस का खेल था।

वो आत्म रस का बोध था,या प्रेम रस का मोद था।
निजतत्व का आभास था,या तत्व ही अब पास था।

दो ज्योतियाँ थी नाचती,हर ज्योत में इक आँच थी।
दो रश्मियाँ थी घुल रही,सब गुत्थियाँ थी खुल रही।

चारों दिशा उल्लास था,मनमोहना का रास था।
कान्हा दिखे हर ओर था,चंचल बड़ा चितचोर था।

परमात्म का वह रास था,यह गोपियों को भास था।
मुरली मनोहर श्याम था,जो नाचता निष्काम था।

'ललित'

गीत संग्रह 2 E MAIL

गीत संग्रह 2

दुर्मिल सवैया छंद
गीत
पहला भाग
समीक्षा हेतु
9
करुणा करके करुणा निधि जी,हर लो सब पीर बसो मन में।
हर पातक लो विनती सुन लो, उजियार भरो  इस जीवन में।

मन के तम को अब दूर करो,विनती करता कर जोड़ हरे।
इस जीवन में अब आस यही,कर दो मन की सब त्रास परे।
प्रभु आप अधार हो प्राणन के, जब होय कृपा हर ताप टरे।
हर लो अब घोर निशा तम को, मम जीवन में नव दीप जरे।

तुम दीनदयाल कहावत हो, भर दो खुशियाँ मन पावन में।
हर पातक लो विनती सुन लो, उजियार भरो  इस जीवन में।

दिग्पाल छंद(सुधारना है)
सम्पूर्ण गीत
3
कमनीय कामिनी ज्यों,दिल पे सवार हो तुम।
शीतल सहज सुहानी,सुरभित बयार हो तुम।

सारे हसीं नजारे,तुम से निखार पाएं।
ये चाँद और तारे,तुम पे निसार जाएं।
है जिंदगी तुम्हीं से,दिल का करार हो तुम।
शीतल सहज सुहानी,सुरभित बयार हो तुम।

धड़कन बता रही हैं,हो प्रीत का समंदर।
गजलें बनी तुम्हीं पे,तुम शायरी निरंतर।
हो प्रीत तुम रसीली,मादक बहार हो तुम।
शीतल सहज सुहानी,सुरभित बयार हो तुम।

कायल हुआ तुम्हारे,इस हुस्न का जमाना।
घायल हुए उन्हें तुम,मत और आजमाना।
हो रात की खुमारी,दिन का उतार हो तुम।
शीतल सहज सुहानी,सुरभित बयार हो तुम।

दिल की किताब मेरी,कोरी बिना तुम्हारे।
हर दिल अजीज हो तुम,कहती यही बहारें।
जज्बात शायराना,सुंदर विचार हो तुम।
शीतल सहज सुहानी,सुरभित बयार हो तुम।

ललित
समाप्त

शुभ संध्या मित्रों...🙏� ए
दोपहर से वायरल की चपेट में हूँ....🙏�😊🙏�
आप सभी ने अपने बेहतरीन गीतों से पटल को सजाया...हार्दिक बधाई...🙏�💐😊💐🙏�🙏�🙏�
मणि जी ....
सुन्दर सृजन....शब्द संयोजन ज़रा ठीक करने पर लाज़वाब...
आपके गीत का स्थायी...
मत जान और ले तू। 👈🏻 जान एक बार में ही जानी है...बार बार नहीं...😊😊😊🙏�
ये कथ्य ऐसे होता....
घूँघट ज़रा हटा दो, मत जान लो हमारी। 👈🏻 तो अधिक सटीक होता....नीचे की पंक्ति में भी जान शब्द की आवृत्ति हो गई....जो नहीं होनी चाहिए.....
मम्मी कही...निश्चित रूप से इसका भाव मम्मी ने कहा ही निकल रहा है...आप बिलकुल सही हैं किंतु ललित जी के अनुसार 👉🏻माँ ने कहा 👈🏻 यह एकदम उचित और सटीक है क्योंकि मम्मी 👈🏻 अंग्रेजी शब्द है और 👉🏻 माँ शुद्ध साहित्यिक हिंदी शब्द...आप दोनों ही बिलकुल सही हैं...किन्तु माँ ने कहा, तुलनात्मक दृष्टि से अधिक सही है....👍🏻😊👍🏻
सूना हूँ। चुना हूँ। के स्थान पर आपके तुकान्त ये होने चाहिए तब वाक्य शुद्ध होगा...
तुमको अभी न देखा, बस नाम ही सुना है।
माँ ने कहा तभी तो, हमने तुम्हें चुना है।  👍🏻👍🏻😊😊👍🏻👍🏻 शेष बेहतरीन गीत बधाई.....👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻😊😊👍🏻👍🏻😊😊😊
ललित जी....शानदार गीत प्रस्तुति....👍🏻👍🏻👍🏻😊😊👍🏻👍🏻
लहरें ब

रोला छंद

जीवन है अनमोल,समय क्यूँ खोवे अपना।
करना इसका मान,नाम कान्हा का जपना।

अपनी गठरी खोल,पुण्य से झोली भरले।
इत-उत भी मत डोल,पाप मत सिर पे धरले।
इक दिन जग को छोड़,द्वार है हरि के  जाना।
तन जब जाए छोड़,काम मन को है आना।।
खुली आँख से देख,जिन्दगी है इक सपना।
करना इसका मान,नाम कान्हा का जपना।

अपने दिल की पीर,सदा दिल में ही रखना।
तेरे दुख का स्वाद,न  चाहे कोई चखना।
नहीं पराया दर्द,किसी ने अपना जाना।
नहीं बने हमदर्द,बड़ा बेदर्द जमाना।
पर दुख मे तो आज,न चाहे कोई खपना।
करना इसका मान,नाम कान्हा का जपना।

दुनिया धोखेबाज,किसी का साथ न देती।
छोड़े ये मझधार,डुबा के खुश हो लेती।
खुद ही तरना सीख,मिलेंगें तुझको मोती।
क्यों तू माँगे भीख,खुशी अन्दर ही होती
पाने को आनन्द,अभी है तुझको तपना।
करना इसका मान,नाम कान्हा का जपना।

'ललित'

समाप्त
08.12.16
रोला छंद
गीत

दिल के रिसते घाव,छिपाकर जग में डोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

देखे सुंदर मीत,देख ली प्रीत अनोखी।
केवल अपनी जीत,लगे है सबको चोखी।
जब भी बोलो बात,जरा मन ही मन तोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

झूठा ये संसार,यहाँ की रस्में झूठी।
जो होता गमगीन,उसी से रहती रूठी।
पी लो गम के घूँट,मगर तुम मुँह मत खोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

दुनिया की है रीत,किसी के साथ न रोये।
हँसी उड़ाये और,राह में काँटे बोये।
जपलो हरि का नाम,पाप खुद अपने धोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

भगवन दयानिधान,उन्हीं से विनती करलो।
हरि को अपना मान,शीश चरणों में धरलो।
तर जाएगी नाव,प्रभू के आगे रो लो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

ललित

रोला छंध
गीत 2
पहला भाग

देखा ये संसार,देख ली दुनियादारी।
बेटे से है प्यार,लगे कब बेटी प्यारी।

बेटी चाहे प्यार,नहीं कुछ चाहे ज्यादा।
देगी दो कुल तार,करे वो सच्चा वादा।
बेटे से ही आस,लगाती दुनिया सारी।
बेटे से है प्यार,लगे कब बेटी प्यारी।

ललित

अभिव्यक्ति मन से कलम तक
11.12.16

दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जिस पर है विश्वास,वही दिल को तोड़ेगा।
जो है अपना खास,वही फिर मुख मोड़ेगा।
सहलाता है घाव,नहीं शीतल सावन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जो होता फनकार,यशस्वी वो हो जाता।
दुनिया भर का प्यार,उसे फन है दिलवाता।
दिल के गहरे घाव,नही भर पाता फन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

ईश्वर से विश्वास,कभी यूँ ही उठ जाता।
जिसकी टूटी आस,नहीं फिर वो उठ पाता।
भर देता है घाव,कभी जानी दुश्मन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जीवन भर तो साथ,नहीं तन भी दे पाता।
विषम रोग में साथ,नहीं धन भी दे पाता।
भरें उसी के घाव,करे जो यहाँ भजन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

'ललित'

दिग्पाल छंद

माँ

कैसे चली गयीं तुम,मुझको बिसार कर माँ?
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

यूँ आज घुल गई हो,आकाश की हवा में।
तुम गूँजती हमेशा,दिल से उठी दुआ में।
ये सुत तुम्हें पुकारे,बाहें पसार कर माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

कैसे ज़मीर माना,मझधार हाथ छोड़ा?
जग हो गया पराया,दुख ने मुझे निचोड़ा।
मन आज रो रहा है,ये ही विचार कर  माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

आँखें सदा तुम्हारी,सुत को निहारती हैं।
शिक्षा सदा तुम्हारी,पथ को सँवारती है।
जीना मुझे सिखाया,खुद को निसार कर माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

यूँ तो कभी तुम्हारी,पूरी कमी न होगी।
सिर आसमाँ हमारे,पाँवों ज़मीं न होगी।
इंसाँ मुझे बनाया,तुमने निखार कर माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

कैसे चली गयीं तुम,मुझको बिसार कर माँ?
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

'ललित'

दिग्पाल छंद
गीत

मोहन बिना हमारा,होता नहीं गुजारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

हम प्रेम में पली हैं,औ' प्यार में ढली हैं
बस प्रीत से मिलेगा,कान्हा बड़ा छली है।
है प्रेम के बिना तो,ये व्यर्थ ज्ञान धारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

हम ज्ञान का करें क्या,कान्हा बसा हृदय में।
क्यों ज्ञान चक्षु खोलें,जब कृष्ण साँस लय में।
बस प्रीत में छिपा है,हर जीत का इशारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

बजती न आज वंशी,सुनसान ब्रज धरा है।
घनश्याम के बिना तो,सबका हृदय भरा है।
मनमोहना पिया पे,सारा जहान वारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

इस प्यार से बँधा जो,कब तक न आयगा वो।
वंशी नहीं बजाकर,कब तक सतायगा वो।
कर पायगा न कान्हा,राधा बिना गुजारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

समाप्त

ललित