नवम्बर 2019 की रचनाएँ

नवम्बर 2019


विधाता छंद
मुस्कान पत्नी की

बड़ी शीतल बड़ी प्यारी,बड़ी शालीन मुस्कानें।

हँसे पत्नी तभी लगता,कि लेगी जान ही जाने।

जरा सा मुस्कुराएँ हम,चलें बाज़ार कहती वो।

दिला बस एक साड़ी दो,इसी को प्यार कहती वो।

ललित



विधाता छंद
मुस्कान रहित

मिली है अफसरी उनको,अजी क्या बात है उनकी?
नहीं वो मुस्कुरा सकते ,बड़ी औकात है उनकी।
नहीं वो हँस सकें ढँग से,सदा गर्दन अकड़ती है।
न जाने अफसरी की बू  ,उन्हीं को क्यूँ जकड़ती है?

ललित




विधाता छंद
सरल मुस्कान

सरल मुस्कान पोती की,बढाए शान दादू की।
मगर दादू यही सोचे,छड़ी मिल जाय जादू की।
बचाए पोतियों को जो,दरिंदों की निगाहों से।
नहीं सरकार से आशा,हटाए शूल राहों से।

ललित

 
विधाता छंद
मधुर मुस्कान
मधुर मुस्कान तो केवल,दिखे उस श्याम के मुख पर।

सदा जो मुस्कुराता है,दुखी होता नहीं दुख पर।

उसी मुस्कान की वो राधिका रानी दिवानी थी।

समाई बाँसुरी में प्रीत की ये ही कहानी थी।

ललित



विधाता छंद
सहज मुस्कान

सहज मुस्कान अधरों पर,दिखे मन-भावनी न्यारी ।
सुने जब झुन-झुने की धुन,ममा की लाडली प्यारी। 
कभी हँस दे इशारों पर,बजा 'जयकृष्ण' पर ताली।
कभी गुम-सुम दिखाई दे,
हिलाए हाथ वो खाली।

ललित

30.11.19

मुक्तक

आदमी की मुस्कुराहट खो गई जाने कहां?
हर कली की चुलबुलाहट खो गई जाने कहाँ?
हाथ मोबाइल लिए हर आदमी खुद में रमा।
वो हँसी वो खिलखिलाहट खो गई जाने कहाँ?

ललित

कुटिल मुस्कान

सरल मुस्कान मुखड़े पर,दिखे जब वोट माँगे वो।
बने मंत्री,तभी मुख पर,कुटिल मुस्कान टाँगे वो।
नहीं फिर हाथ जोड़े वो,न वादे याद ही करता।
नहीं जनता दिखे उसको,उड़ानें खूब है भरता।

ललित

29.11.19
नकली मुस्कुराहट

बाग में कुछ लोग मिलकर,नित लगाते हैं ठहाके।
गम भुलाने को सभी वो,साथ मिलकर चहचहाते।
मुस्कुराहट ओढ़ नकली,बाग में फिर हैं टहलते।
इस बहाने से सभी के, गम-भरे दिल हैं बहलते।

ललित


विधाता छंद

कभी वो मुस्कुराते हैं,कभी नज़रें झुका लेते।
कभी तिरछी निगाहों को,गगन में वो टिका देते।
न हम कुछ भी समझ पाते,हँसे हैं या फँसे हैं वो।
कि हमको ही फँसाकर बेतहाशा यूँ हँसे हैं वो।

ललित


28.11.19
विधाता छंद

तुम्हारी मुस्कुराने की,अदाएँ ही निराली हैं।
नज़र के तीर चलने दो,निगाहें क्यूँ चुराली हैं।
धरा को चूमती देखो,धवल ये चाँदनी प्यारी।
तुम्हारी मुस्कुराहट पर,हसीं ये चाँदनी वारी।

ललित


गीतिका छंद

मुस्कुराने के लिए बस इक बहाना चाहिए।
एक सुंदर सा मुबाइल साथ लाना चाहिए।
सैलफी अपनी जरा सा मुस्कुरा कर लीजिए।
और अपने मित्रगण को भेज जल्दी दीजिए।

ललित


27.11.19
मुस्कान
मुक्तक 16:14

कुछ मुस्कानें अपने भीतर,दर्द समेटे हैं होतीं।
अधर-मधुर मुस्कान बिखेरें,पलकें छुप-छुप कर रोतीं।
बुझी-बुझी सी आँखें दिल का,दर्द बयाँ हैं कर देती।
चिंता के गहरे सागर से,अँखियाँ ले आतीं मोती।

ललित



मुक्तक

मुस्कुराहट के यहाँ दिखते कईआयाम हैं।

मदभरी मुस्कान में मय के छलकते जाम हैं।

कौन सी मुस्कान अधरों पर सजानी है कहाँ?

जानता ये बात जो उसके सँवरते काम हैं।

ललित




26.11.19
गीतिका छंद

मुस्कुराते हैं कई जन,इक अलग अंदाज से।
भींच लेते हैं अधर वो,दीखते नाराज से।
अति कुटिल मुस्कान से कुछ,पातकी नर यों हँसें।
सोचने लगते सभी हम,क्यों यहाँ पर आ फँसे?

ललित


26.12.19
महाश्रृंगार छंद
श्रृंगार प्रयास

नैन शर्बतिया गोरे गाल,मटकती मटकी वाली नार।
चली पनघट से भरकर नीर,साथ में कमसिन सखियाँ चार।
सभी इठलाकर करती बात,सुनातीं-सुनतीं 
हँस-हँस राज।
राज की बातें ऐसी खास,जिन्हें सुन शर्माए खुद लाज।


'ललित'


26.11.19
गीतिका छंद

मुस्कुराने का खजाना खोजना मुश्किल हुआ।
क्यों कहाँ कब मुस्कुराएँ सोचना मुश्किल हुआ?

मुस्कुराने की अदाएँ इस कदर महँगी हुई।
आदमी में मुस्कुराहट पोसना मुश्किल हुआ।

ललित

25.11.19
महाश्रृंगार छंद

चला आ कान्हा यमुना-तीर,राह देखें सब गोपी-ग्वाल।
सुना है नन्हा सा गोपाल,बजाए वंशी बड़ी कमाल।
राधिका भी सखियों के साथ,करेगी रास आज की रात।
चाँद का भी निखरा है रूप,चाँदनी भिगो रही है गात।

ललित


24.11.19
छंदमुक्त 
चिंता

मन कहता है
चिंता मत कर चिंतन कर।
मगर दिल...
वह तो चिंतन को 
चिंता में बदल देता है।
और दिमाग...
मत पूछिए
दिन भर में चिंता के
हजारों शूल पैदा कर देता है
जो चुभ-चुभ कर 
प्राणों को घायल करते रहते हैं।
सोचिए जरा...
ये दिल,दिमाग और मन 
क्या हैं?
कहाँ रहते हैं?
इंसान के वश में क्यों नहीं आते?
प्राणों को क्यों हैं तड़पाते?
और चिंता करने से...
क्या झंझावात नहीं आते?

महाश्रृंगार छंद
आज का प्रयास
समीक्षा हेतु


प्रार्थना इतनी सी है श्याम,करो तुम सदा हृदय में वास।
बंद जब नैन करूँ गोपाल,दिखो राधा सँग करते  रास।
मुझे दिल की धड़कन में श्याम,सुनाई दे वंशी की तान।
अंत जब निकलें तन से प्राण,करे हर साँस श्याम गुण-गान।

ललित



महाश्रृंगार छंद

पुष्प से करते हैं सब प्यार,फूल के कदमों तले बहार।
बहारों का मतलब है फूल,पुष्प के पीछे चले बहार।
न हो जिसको फूलों से प्यार,उसी को तो कहते हैं शूल।
शूल को भी पनपाएँ खूब,बहारें करती भारी भूल।

ललित


गीतिका

क्यों ललित मन बावरा ये लिख ग़ज़ल सकता नहीं?
दूर लिखना तो बहुत ये कर नकल सकता नहीं।

ज़िंदगी भर जब ललित बोता रहा था आम तू।
क्यों अभी फिर आम की तू पा फसल सकता नहीं?

क्या हुआ कैसे हुआ ये ज़िंदगी की शाम में?
सोच बैठा क्यों ललित तू ,फल बदल सकता नहीं?

है अभी दम बाजुओं में,कर ज़रा तदबीर तू।
कौन कहता है अभी खिल नव-कमल सकता नहीं?

ललित

20.11.19
महाश्रृंगार छंद

बहन की प्रीत बड़ी निःस्वार्थ,प्रेम भाई का
ज्यों सौगात।
सुता-सुत की वो भोली जिद्द,लुभाती पत्नी की हर बात।
पिता के दिल में छिपा सनेह,छलकता माँ का निश्छल प्यार।
प्यार के पहियों पर ही यार,टिका है यह सारा संसार।

ललित


20.11.19
महाश्रृंगार छंद


हुई हमसे ये कमसिन भूल,कि कर बैठे हम उनसे प्यार।
नहीं है जिन्हें प्यार की कद्र,उन्हीं को पहना बैठे हार।
अटपटा इकतरफा ये प्यार,चुभे ज्यों पग में कोई शूल।
चल रही इक पहिए पर हाय,गई ये गाड़ी रस्ता भूल।

ललित



महाश्रृंगार छंद

ज़रा दे दो मुझको घनश्याम,तुम्हारे चरणों की वो धूल।
जिसे लूँ मैं अपने सिर वार,खिले फिर मेरे मन का फूल।
ज़रा मेरे नयनों में श्याम,बसेरा कर लो राधा संग।
मगन हो किया करूँ दीदार,खिले फिर मेरा हर इक अंग।

ललित


महाश्रृंगार छंद

यशोदा माँ का पकड़े हाथ,ठुमक-ठुम ठुमके नंद-कुमार।
बजे पायल छुटके के पाँव,चले जब फुदक-फुदक सुकुमार।
सुनहरी बाँसुरिया ली थाम,हिलाए छोटे-छोटे हाथ।
हिले सिर मोर-पंख का ताज,किलोलें करे जगत का नाथ।

ललित


18.11.19
महाश्रृंगार छंद

अरे ओ मुरलीधर घनश्याम,सुना दे वो वंशी इक बार।
जिसे सुनते ही नंगे पाँव,दौड़ आती थी हर व्रज-नार।
भाग्य मुरली सा दे-दे श्याम, करूँ मैं नित अधरामृत पान।
भूल कर जग के सारे काम,सुनूँ मैं बाँसुरिया की तान।

ललित

मुक्तामणि छंद

कभी ज़िंदगी के लिए,प्यार जताना सीखा। 
कभी बंदगी के लिए,फूल चढ़ाना सीखा।

निखर उठी ये ज़िंदगी,प्यार तुम्हारा पाया।
निखर उठी जब बंदगी,फूल चढ़ाना आया।

ललित

मुक्तक

राधा गोरी हुई बावरी,श्याम तुम्हारे लिए।
भूल गई कान्हा खुद का भी,नाम तुम्हारे लिए।
बैठी रहती है पनघट पर,प्यासी तव दर्शन की।
भूल गई सुबहा वो भूली,शाम तुम्हारे लिए।

ललित


मुक्तामणि छंद


पायल के घुँघरू बजें,मधुर ताल से जैसे।
इठलाती नवयौवना,चली जा रही ऐसे।

घूँघट में से झाँकते,कजरारे दो नैना।
इक पल में ही ले गए,साजन जी का चैना।

दिल की धड़कन हो गई,दिल से गायब जैसे।
चैन चुरा कर ले गयी,मतवाली वो ऐसे।

गगरी में पानी भरा,कुछ ऐसे गोरी ने।
पल्लू ढलका कर किया,दिल घायल छोरी ने।

ललित



15.11.19
कुण्डलिया छंद

चौराया जो एक है,नयापुरा में खास।
बृजटाकिज में से यहाँ,आती दूषित बास।

आती दूषित बास,यहाँ नित कचरे में से।
लगे कचोरी स्वाद, भला बदबू में कैसे?

नगर-निगम ये हाय,'ललित' कैसा बौराया?
बना नरक का द्वार,दिया है ये चौराया।

ललित

मुक्तामणि छंद

कई भाँति के लोग हैं,जीवन है इक मेला।
कुछ के मुख मुस्कान है,कुछ पर ग़म का रेला।

कुछ कड़वे-तीखे यहाँ,कुछ स्वभाव से मीठे।
कुछ निर्मल मन के धनी,कुछ चिकने अरु चीठे।

उनमें कुछ अपने लगें,सुंदर सपने जैसे।
जिनके हिय में प्यार हो,मीत मिलें कुछ ऐसे।

सबसे रीत निभाइए,प्रीत दिखा संसारी।
सबको गले लगाइए,मुस्कानें दे प्यारी।

ललित




15.11.19

मुक्तामणि छंद

चंचल मन चिंता करे,सोच-सोच मर जाए।
होनी तो होकर रहे,मनवा रोक न पाए।

होनी जब टलती नहीं,करो यत्न कितना भी।
मनवा चिंता मत करे,मत सोचे इतना भी।

ललित

मुक्तक 16-16

आज अचानक याद आ गये,गिल्ली-डण्डा,कंचे खो-खो।
रस्सा-कशी आईस-पाईस,छुपम-छुपाई हो-हो-हो-हो।
सतोलिया चौपड़ चंगा-पो,पोषम्पा भई पोषम्पा।
रस्सी-कूद कबड्डी हॉकी,धड़ी-मार-घूँसा दो-दो-दो।

ललित


मुक्तामणि छंद

दिल की धड़कन क्या कहे,मीत ज़रा सुन मेरे।
क्या होती है प्यार की,आहट दिल में तेरे?

धड़कन दिल की तेज है,साँसें रुक-रुक जाती।
दिल झूमे है प्यार से,कहे नज़र मदमाती।

ललित

11.11.19
मुक्तामणि छंद
13:12
यति पूर्व लघु गुरू
अंत दो गुरू
दो-दो समतुकांत

मुक्तामणि छंद

अनगिन स्वर्णिम रश्मियाँ,छुएँ धरा को ऐसे।
रात नहीं इक युग हुआ,मिले बिना हो जैसे।
धवल-चाँदनी रात में,धरती पर बिछ जाए।
सखी-धरा पर चाँदनी,प्यार-छटा बिखराए।

ललित


मुक्तामणि छंद

सुख-दुख की सरिता बहे,अविरल जीवन सारे।
वो पाए आनन्द जो,कभी न गोता मारे।

मन-मौजी बन कर रहो,कटी पतँग के जैसे।
संग हवा के चल पड़ो,दुख व्यापेगा कैसे?

ललित


कुण्डलिनी छंद

खेल चुका हर रंग से,हुआ वृद्ध वो आज।
अब हर रँग फीका दिखे,करें न नैना काज।
करें न नैना काज,दर्द घुटनों में होता।
माया-ममता-मोह,लगाएँ मन में गोता।

ललित



जयकारी छंद
समीक्षा हेतु

भिन्न जातियों वाला देश।
सब धर्मों का जहाँ प्रवेश।
अलग-अलग हैं भाषा-भेष।
प्रेम-प्यार का दे संदेश।

नहीं विश्व में कोई देश।
रखता भारत सा परिवेश।
ब्रम्हा-विष्णु-महेश-गणेश।
राम-कृष्ण के भक्त अशेष।

भगवदगीता और कुरान।
इनसे महके हिंदुस्तान।
गुरूग्रंथ साहिब दे ज्ञान।
सब धर्मों का हो सम्मान।

हिंदू-मुस्लिम औ सरदार।
मन्दिर-मस्जिद अरु गुरुद्वार।
गिरिजाघर में भली प्रकार। 
पूजा करते सब नर-नार।



ललित


कुण्डलिनी छंद

कान्हा तेरे प्यार की,कर दे इतनी छाँव।
जिसमें परमानन्द की,हो थोड़ी सी ठाँव।
हो थोड़ी सी ठाँव,ध्यान-जप मन को भाए।
सुख-दुख की बरसात,नहीं मन को छू पाए।

ललित


7.11.19

जयकारी छंद

स्वच्छ रखो नाली घर-द्वार।
शौचालय अरु स्नानागार।
छोटी सी ये मानो बात।
मच्छर से फिर मिले निजात।

पानी भरे न घर के पास।
साफ नीर मच्छर का वास।
उसमें डालो थोड़ा तेल।
हो जाए मच्छर को जेल।

ललित

5.11.19

गीतिका छंद

गूँजती हरदम जहाँ हैं,प्यार की शहनाइयाँ।
प्रीत की खुशबू हवा में,ले जहाँ अँगड़ाइयाँ।
आँख मींचे साथ मेरे,हमसफर तू चल वहाँ।
चल पड़ी है साथ तो मत,सोच मंजिल है कहाँ?

ललित

चौपाई

कलियों ने जब घूँघट खोले।बजी बाँसुरी हौले-हौले।
वंशी-वट यमुना के तीरे,झूमे कान्हा धीरे-धीरे।ल

अधर मुरलिया में रस घोलें।गोप-गोपियाँ धुन-सुन डोलें।
नैन कन्हैया के जब मटकें।राधा जी की पलकें अटकें।

पायलिया मुँहजोर हुई है।घुँघरूओं ने तान छुई है।
नारी बन शिव-शम्भू घूमें।घूँघट में 
कान्हा सँग झूमें।

नंदन-वन की शोभा न्यारी।छम-छम नाचें 
कृष्ण-मुरारी।
बेसुध होकर गोपी-ग्वाले,आत्म-ज्ञान के पीते प्याले।

दोहा

बजा सुरीली बाँसुरी,यमुना जी के तीर।
व्रज-वासी नर-नार की,कान्हा हरते पीर।

ललित

ताटंक छंद

जितना कोमल जितना छोटा,प्यारा दिल है सीने में।
उतना ये उत्पात मचाए,मजा न आए जीने में।
रोज़ नया इक स्वप्न दिखाए,नहीं कभी जो हो पूरा।
दिल मुश्किल कर दे जीना जब,अरमानों का हो चूरा।

ललित

चौपई छंद
बाल कविता

चाँद-चाँदनी खाकर पान।
चले घूमने हिंदुस्तान।
देख हिमालय  श्वेत विशाल।
हुई चाँदनी आज निहाल।

गंग नदी की शीतल धार।
भारत-माता का गलहार।
संगमरमरी सुंदर ताज।
चाँद-चाँदनी देखें आज।

लाल-किला दिल्ली की शान।
और स्वच्छता का अभियान।
चमक रहा नव-हिंदुस्तान।
देख चाँद की निकली जान।

ललित


मुक्तक

स्वप्नों की मायानगरी ये,कैसी 
श्याम बना डाली।
झोली भरते जीवन बीते,अंत-समय मिलती खाली।
स्वप्न-स्वप्न बस स्वप्न देखते,समय बिताता जो सारा।
अंत-समय वो मानव पाता,खुद को स्वप्नों से हारा।

ललित

जयकारी छंद

गरल हवा में डाला घोल।
क्या कर बैठा नर तू बोल?
मुश्किल में बच्चों की जान।
नहीं साँस लेना आसान।

अम्बर नीला दिखे न आज।
धूल-धुआँ का है बस राज।
कीचड़ में बदला है आब।
सूखे कूप-नदी तालाब।

लिया दानवों ने है धार।
पॉलीथिन रूपी अवतार।
नर-नारी बालक आवाम।
पॉलीथिन के सभी गुलाम।

निश्चय ग़र कर लें हम आज।
पॉलीथिन का रहे न राज।
आतिश-बाजी कर दें बंद।
रखें हवा को हम स्वच्छंद।

ललित

1.11.19
जयकारी छंद

देख लिया सारा जग घूम।
कहीं नहीं दिल पाया झूम।
सबसे प्यारा हिंदुस्तान।
प्यारी जिसकी है मुस्कान।

स्वर्णिम होती इसकी भोर।
नाच उठे जब मन का मोर।
रंगीली होती हर शाम।
साँध्य-आरती हो निष्काम।

ललित

जयकारी छंद

नारंगी केला अमरूद।
सार-तत्त्व इनमें मौजूद।
कुछ खट्टा कुछ मीठा आम।
उससे मीठा काला जाम।

काजू किशमिश और बदाम।
पिश्ता चिलगोजा के नाम।
रखना बच्चों हरदम याद।
बड़ा अनूठा इनका स्वाद।

ललित