जून 2018 --हरिपद छंद,रूपमाला छंद,पंच चामर छंद,विष्णुपद छंद,तोटक छंद

जून 2018 --हरिपद छंद,रूपमाला छंद,पंच चामर छंद,विष्णुपद छंद,तोटक छंद
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हरिपद

झूम-झूम कर नाचें सखियाँ,देख घटा घनघोर।
सुंदर-सुंदर मोर मचलते,देख गगन की ओर।
मदमाती लहरें नदिया की,तोड़ रही हैं बंध।
आती है माटी से महकी,सौंधी-सौंधी गंध।

ललित

हरिपद
बेटी की शादी करने की,चिन्ता में है तात।
पर दहेज का दानव कब है,बनने देता बात?
खून-पसीना बहा कमाया,जीवन भर धन खूब।
दे दहेज फिर भी जाएगा,कर्जे में वो डूब।

ललित

हरिपद /सरसी छंद

याद आ रहे हैं मुरली के,मधुर-मधुर वो राग।

बरखा की बूँदे भी तन में,लगा रही हैं आग।

डरा रही वृषभानुसुता को,बिजली की चमकार।

कहे राधिका वापस आजा,कान्हा तू इक बार।

ललित

हरिपद /सरसी छंद

घन-घन-घन-घन गरज-गरज कर,बरसें बदरा आज।
टप-टप-टप-टप करती बूँदें,छेड़ रही हैं साज।
लहर-लहर लहराए नदिया,झरने करते शोर।
मंद-मंद मुस्काए सजनी,नाचे मन का मोर।

ललित

हरिपद /सरसी छंद

स्वप्न सुंदरी से भी सुंदर,भीगी-भीगी रात।

टप-टप टप-टप करती बूँदें,भिगो रही हैं गात।

वसन भीग चिपके हैं तन से,सजनी सिमटी जाय।

साजन के अधरों से हर -पल,निकल रही है हाय।

ललित

हरिपद /सरसी छंद

प्याज और रोटी मिल जाए,बच्चों को भरपूर।
इतनी सी आशा रखता है,वो बूढ़ा मजदूर।
पत्नी भी बीमार पड़ी है,महँगा बड़ा इलाज।
भरी-आँख से उसे दिलासा,दे आया था आज।

ललित

हरिपद /सरसी छंद

रिमझिम-रिमझिम बरसें बदरा,बुझी धरा की प्यास।
सजनी के मन में भी जागी,मधुर-मिलन की आस।
शर्माई सकुचाई अँखियाँ ,छुपा रहीहैं चाव।
महक रहा है चंदन सा तन,पाने को ठहराव।

ललित

26.6.18
हरिपद /सरसी छंद

अपनी अपनी नैया से है,सबको इतना प्यार।
जूझ रहे हैं लहरों से सब,ले अपनी पतवार।
चिन्ता कौन करे दूजे की,कौन भरे अब घाव?
सोच रहे हैं सब ही अपनी,पार उतारें नाव।

ललित

25.6.18
हरिपद /सरसी छंद

मात-पिता की सेवा कर लो, काम-काज सब भूल।
कंटकीय जीवन-राहों में,बिछ जाएँगें फूल।

अपनों बच्चों से यदि चाहो,पाना निश्छल प्यार।
मात-पिता की इज्जत करते,रहो सदा तुम यार।

ललित

हरिपद /सरसी छंद

कारे-कारे कान्हा तूने,खूब निभाया साथ।
भूल बिरज मथुरा जा बैठा,छोड़ राधिका हाथ।
साफ अगर जो दिल हो तेरा,आ जाना इक बार।
खरे प्यार का राधा से तू,कर जाना इकरार।

ललित

हरिपद /सरसी छंद

योगी आया द्वारे मैया,अजब अमंगल भेष।
उसने अंग भभूत रमाई ,जटा-जूट हैं केश।
तन पर लिपटेसर्प विषैले,डमरू संग त्रिशूल।
नर मुंडों की माल गले में,कैलाशी है मूल।

पूछ रहा है हमसे मैया,कान्हा के वो हाल।
कहता है इक बार दिखा दो,कृष्ण कन्हैया लाल।
भांग-धतूरे के मद में हैं,नैन नशे में चूर।
अपने लल्ला को रखना तुम,मैया उससे दूर।

ललित

हरिपद /सरसी छंद

रुपया-पैसा खूब कमाया ,महल झरोखे दार।
ठाठ-बाट से कटी जिन्दगी,संग बहुत से यार।
अंत समय कुछ काम न आये,जो भी थे गठ-जोड़।
हीरे-मोती पत्नी-रोती,गया यहीं सब छोड़।

ललित

हरिपद /सरसी छंद

बेटा गुम-सुम पत्नी रोती,बिलख रहे हैं यार।
हाय अचानक चला गया वो,छोड़ सभी घर-बार।
साथ ले गया लेकिन अपने,पुण्यों की जागीर।
दान-पुण्य से बदली अपनी,आत्मा की तकदीर।

ललित

हरिपद /सरसी छंद

स्वप्न सुनहरे लेकर आई,है ये सुंदर भोर।
कोयल कूक रही बागों में,नाच रहे हैं मोर।
तारों की छाया में मुनि-गण,करते हैं सब योग।
तम जाता है प्रकाश आता,अद्भुत ये संजोग।

ललित

हरिपद /सरसी छंद

आजादी के स्वप्न सुनहरे,रंग खो रहे आज।
नेताओं से बढ़कर कोई,आज नहीं है खाज।
आओ बसाएँ मिलकर सारे,इक ऐसा संसार।
जहाँ नहीं नेता हो कोई ,आपस में हो प्यार।

ललित

रूपमाला छंद

दूसरों को सात साढ़े,शनि बताते क्रूर।
और फिर उपचार करके,जो हुए मशहूर।
आज वो ही सात साढ़े,के हुए क्यों दास?
और क्यों शनिदेव उनके,अब नहीं हैं खास?

'ललित'

24.6.18
रूपमाला छंद

सामने गहरा भँवर है,मैं फँसा मझधार।
पार कर दो नाव मेरी, थाम लो पतवार।
हे प्रभो कर दो कृपा मुझ,दीन पर भी नाथ।
शीश पर मेरे प्रभो रख आपका दो हाथ।

ललित

रूपमाला छंद

मोरपंखी मुकुटधारी,साँवरे घनश्याम।
बाँसुरी तेरी उचारे,राधिका का नाम।

श्याम सुंदर मदनमोहन,दे मुझे आशीष।
नाम राधा का जपूँ मैं,अनवरत जगदीश।

ललित

रूपमाला छंद

शांति मिलती है कन्हैया,ले तुम्हारा नाम।
तारना हर भक्त की नैया तुम्हारा काम।
श्याम सुंदर नाम भी तो,है सुखों की खान।
नाम में ही दे सुनाई, बाँसुरी की तान।

ललित

24.6.18

रूपमाला छंद

ज्ञान का अमृत पिला दो,शारदे हे मात!
लेखनी नित ही करे नव-छंद की बरसात।
भाव सुंदर शब्द निर्मल,माधुरी लय-ताल।
लिख सके कुछ भजन रसमय,आपका ये लाल।

ललित

23.6.18

2122 2122,2122 21
रूपमाला छंद

रंग गिरगिट से बदलते,राजनेता खूब।
देश की नैया न जाए,हाथ इनके डूब।
सब समझ जनता रही है,रंग इनके आज।
एक दिन के वोट से वो,बदल देगी राज।

'ललित'

18.6.18
रूपमाला छंद

जिंदगी के कारवाँ की , ढल गई यों शाम।
प्यार की  परछाइयाँ  भी, भूल बैठी नाम।
प्रीत की पुरवाइयों से,है  नहीं कुछ आस।
फिर नई इक भोर होगी, है यही विश्वास।

ललित

रूपमाला छंद

छेड़ता है गोपियों को,राह में घनश्याम।
राधिका की बाँह पकड़े,पूछता है नाम।
आँख सबकी वो बचा कर,हाथ लेता चूम।
ताल दे-दे गोप-बालक,सब रहे हैं झूम।

ललित

रूपमाला छंद

आजमाना चाहते क्यों,राधिका को श्याम?
भक्त की लेना परीक्षा,है तुम्हारा काम।
राधिका रोती तड़पती,घूमती दिन-रैन।
नैन आँसू के समन्दर,दिल न पाए चैन।

पंचचामर छंद
सैल्फिश भक्त

कृपानिधान एक बार हाथ थाम लीजिए।
दयालु श्याम आप एक बार दर्श दीजिए।
कि एक बार प्यार की निगाह डाल दो जरा।
कि भक्त साथ चार सेल्फियाँ निकाल दो जरा।

ललित

पंच चामर छंद

प्रभात मंगलीय मंजिलें प्रकाशवान हों।
न कंटकीर्ण राह से डरें वही महान हों।
कि जिंदगी बने वही सुगंध से भरी हुई।
बही चले प्रवाह में उमंग से भरी हुई।

ललित

पंच चामर छंद
सपूत

न मात को गुणी गिने न बात तात की सुने।
सपूत बात-बात का सबूत आप ही चुने।
न चाहिए समाज और गाँव की दुआ उसे।
पढ़ा-लिखा बना नवाब गर्व ने छुआ उसे।

ललित

पंच चामर छंद
स्वदेश

न घूमता विदेश तो स्वदेश तू सँभालता।

स्वदेश घूम देश के विकास को खँगालता।

रमा रहा सदैव तू चुनाव के प्रचार में।

विशाल रैलियाँ जुलूस भाषणी विचार में।

ललित

पंच चामर छंद

जवान शूरवीर हिंद देश के उठो जरा।
दिखा कमाल शत्रु को जवाब दो खरा-खरा।
बुरी निगाह शत्रु की दिखे तुम्हें जहाँ-जहाँ।
तुरंत फोड़ आँख दो जलील की वहाँ-वहाँ।

ललित

पंच चामर छंद

अनेक जातियाँ यहाँ विशाल देश भारती।
सुकर्म ध्यान से करो धरा यही पुकारती।
न जातिवाद हो कहीं समाज का विकास हो।
न द्वेषभाव ही रहे अस्वच्छता न पास हो।

ललित

पंच चामर छंद
अभिनव श्रृंगार

सुगंध वो बिखेरती चली गई करीब से।
कि जींस थी फटी हुई सिली नहीं गरीब से।
कटे हुए हसीन केश भाल को ढ़के हुए।
न चूड़ियाँ न कंगना कपोल लालियाँ लिए।

ललित

पंच चामर छंद

न जिन्दगी मिली उसे न मृत्यु को बुला सका।
न दीप प्रेम के जले न प्रीत को भुला सका।
न पुष्प प्यार का खिला अजीब हाल हो गया।
निगाह से निगाह यों मिली हलाल हो गया।

ललित

पंच चामर छंद
12 12 12 12 12 12 12 12

समीक्षा हेतु

जपा न कृष्ण-राधिका न राम नाम ही लिया।
किया न ध्यान-योग ही न दान-यज्ञ ही किया।
असत्य में रमा रहा न ध्यान सत्य में रखा।
करो सहाय श्याम आप सत्य राह दो दिखा।

ललित
क्रमशः

पंच चामर छंद
12 12 12 12 12 12 12 12
कुछ यूँ ही

बहार ही बहार में करार खोजते रहे।
करार पा सके न हाय प्यार खोजते रहे।
न दीप प्रीत का जला न प्रेम का सिला मिला।
न जीत प्यार की हुई न पुष्प प्रीत का खिला।

ललित

पंच चामर छंद
12 12 12 12 12 12 12 12
सुदाम देव

न दक्षिणा न भेंट की न चाह दान की उसे।
न राज्य भूमि की तृषा न चाह मान की उसे।
सुदाम देव नाम द्वारिकाधिराज मित्र वो।
कि दर्श मात्र चाहता दिखे बड़ा विचित्र वो।

ललित

पंच चामर छंद

प्यार का गुलाब

हसीन साथ आपका कभी नहीं मिला हमें।
कि बेपनाह प्यार का मिला यही
सिला हमें।
कि प्रेम की किताब आपने पढ़ी कभी नहीं।
न प्यार का गुलाब आप सूँघ ही सके कहीं।

ललित

पंच चामर छंद
स्वदेश की दशा

पढ़ा लिखा स्वदेश में चला गया विदेश वो।
रहा न भारतीय पूत धार आँग्ल वेश वो।
न मात का न तात का चुका सका उधार ही।
स्वदेश गाँव की दशा न वो सका सुधार ही।

ललित

पंच चामर छंद
कली

बहार पे निखार और फूल बेकरार है।
कली-कली डरी हुई हवा करे प्रहार है।
प्रकाश ही छले उसे न हो सके विकास है।
लहूलुहान हो रही कली बची न आस है।

ललित

पंच चामर छंद
'राज' गुरू

गुरू कृपा करें तभी विकास शिष्य है करे।
प्रसन्न हों गुरू तभी प्रकाश ज्ञान का भरे।
विनम्रता लिए चलो विचार शुद्ध हों सभी।
कि 'राज' नाम के गुरू न क्रुद्ध हो सकें कभी।

ललित

पंच चामर छंद
सुगंध

गुलाब से हसीन गाल भोर के दिखें जहाँ।
बजाय श्याम बाँसुरी सुगंध से भरी वहाँ।
बहार भी झुके वहाँ हजार गोपियाँ नचा।
कि श्याम साँवरा जहाँ धमाल है रहा मचा।

ललित

पंच चामर छंद

फुहार सावनी गिरे बहार   झूमती जहाँ।
सुहाग संग हो विहार पायलें बजें वहाँ।
कि अर्द्ध-रात्रि वेणियाँ गुलाब-मोगरा सजें।
सुहाग की प्रतीक चूड़ियाँ शनैः शनैः बजें।

ललित

विष्णु पद छंद
कान्हा मानस पूजा

कान्हा मेरे मनमन्दिर में, तेरी मूरत हो।
पलकें बन्द करूँ तो दिखती,तेरी सूरत हो।
नयन बन्द करके ही मोहन,पूजा मैं कर लूँ।
तेरे श्री चरणों का कान्हा,ध्यान जरा धर लूँ।

गंगाजल से स्नान करा दूँ ,साँवरिया तुझको।
पीताम्बर धारण करवा दूँ,श्याम पिया तुझको।
केसर-चंदन घिस कर कान्हा,तिलक माथ कर दूँ।
पुष्प हार पहना कर मुरली,हाथों में धर दूँ।
ललित

विष्णुपद छंद
मनमोहन

मोरमुकुट धारी कान्हा तू , क्यों रूठा मुझसे?

धनदौलत सोना-चाँदी की,नहीं चाह तुझसे।

चाह यही बस है मुरलीधर ,अंत समय जब हो।

मनमोहन तेरी सूरत ही , अँखियों में तब हो।

ललित

4.6.18

विष्णुपद छंद

पर्यावरण दिवस पर भाषण,नेता का सुन लो।
कंकरीट के जंगल में फिर,वास एक चुन लो।
वन-उपवन सावन मनभावन,से मुख मोड़ चलो।
तरण-ताल में रोज तैर लो,नदिया छोड़ चलो।

ललित

6.6.18
विष्णुपद छंद
चिड़िया घर

अपनी पोती को चिड़ियाघर,लेकर आज गया।
जहाँ दिखा उसको जीवन का,इक अंदाज नया।
कोयल प्यारी कूक रही थी,मधुर-मधुर स्वर में।
बन्दर राजा उछल रहे थे, इक सुंदर घर में।

शेर चहलकदमी करता था,भालू झूम रहा।
कदमताल करता वनमानुष,इत-उत घूम रहा।
पूछ रही थी पोती मेरी,कंपित-से स्वर थे।
दादू क्या इनके भी कोई,कभी कहीं घर थे?

सुन बेटी ये शेर कभी था,राजा जिस वन का।
काट दिया लोभी मानव ने,हर तरु उस वन का।
नदियाँ पोखर सूख गए हैं,सूखे सब झरने।
जंगल के पशु आज लगे हैं,प्यासों से मरने।

ललित

विष्णुपद छंद
विरही साजन

गर तुम होती साथ हमारे,फाके क्यूँ करते?
गरम रोटियाँ तो मिल जाती,भूखे क्यूँ मरते?
होटल की रोटी खाकर ये,पेट कहाँ भरता?
याद तुम्हारी में दिल निशि-दिन,आह यहाँ भरता।

ललित

विष्णु पद छंद

चंचल मन माया में फँसता, राम नहीं भजता।
संतों की वाणी सुनकर भी,काम नहीं तजता।
धूप-छाँव से जीवन की कुछ,सार ग्रहण कर ले।
निशि-दिन राम नाम जपकर तू,भव-सागर तर ले।

ललित

तोटक छंद

भज राम सियापति तू सुख से।
जप श्याम सदा नर तू मुख से।
मनवा जपले जय राम हरे।
नर तू रट ले घनश्याम हरे।

छिछले जल में जब नाव तरे।
तब तू न कहे हनुमान हरे।
गहरा भवसागर देख डरे।
तब नैनन में दुख-नीर भरे।

ललित

तोटक छंद
राकेश जी की व्यस्तता कविता में ऐसे उतरी...

भर दोपहरी बजरी छनती।
सरिया जलता छतरी बनती।
करणी चलती बहकी-बहकी।
बगिया लगती महकी-महकी।

ललित

तोटक छंद

नदियों पर बाँध बना हँसता।
यह मानव आप वहाँ फँसता।
जलधार बिना अब है रहती।
कल थी सरिता सुख से बहती।

कल की कब सोच रहा नर ये?
सरि का जल सोख रहा नर ये।
अब ताप बता जलवायु रही।
शठ मानव तू अब सोच सही।

ललित
तोटक छंद

नदिया इठला बहती कब है?
नर ने जल बाँध दिया अब है।
गल घोंट दिया नद का नर ने।
अब घूम रहा घट को भरने।

ललित

मई 2018

मई 2018.
सोरठा,आधार,मनोरम,गीतिका,दोहे,
मुक्तक

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मुक्तक 16:12

अब एक लीटर पेट्रोल पे, एक पैसा क्या बचा?
पत्नी ने जा कोप भवन में,हंगामा दिया मचा।
कहाँ रखा वो पैसा तुमने,जल्दी दो मुझे बता।
वरना मैं भी पीहर जाकर,रख दूँगी तुम्हें नचा।

ललित

मुक्तक 16:14

दिल का दर्द नहीं मिट पाया,मिटने का बस नाम हुआ।
खूब लगाए मरहम लेकिन,हर मरहम नाकाम हुआ।
दर्द लिए सीने में कब से,घूम रहा हूँ बेबस मैं।
दुखती रग को सहलाने से,कब किसको आराम हुआ।
ललित

29.5.18

तोटक छंद
समीक्षा हेतु

विनती यह शारद माँ सुन लो।
तुम शिष्य मुझे अपना चुन लो।
कविता सविता सम ही चमके।
हर शब्द सही लय में दमके।

नव छंद रचूँ नवगीत लिखूँ।
कुछ हार लिखूँ कुछ जीत लिखूँ।
कुछ प्यार भरी कविता लिख दूँ।
कुछ नश्वर की भविता लिख दूँ।

लिख दूँ मन के सब भाव अभी।
दिल के दुखते कुछ घाव अभी।
मन में पलते सुख के सपने।
लिख दूँ सब मीत यहाँ अपने।

ललित
30.5.18
तोटक छंद

जितना समझा जितना परखा।
इस जीवन को जितना निरखा।
उतना उलझा उतना अटका।
इस जीवन ने उतना फटका।

ललित
तोटकछंद

घनश्याम सुनो दिल की बतियाँ।
बिन दर्श नहीं कटती रतियाँ।
रहती नित दर्शन आस हमें।
प्रभु चैन नहीं बिन रास हमें।

मन भावन बाँसुरिया बजती।
वृषभानु-सुता तब है सजती।
नट-नागर कृष्ण कहाँ तुम हो?
सुन लो अरदास जहाँ तुम हो।

ललित

गीतिका छंद

प्यार का पाया समंदर,नेह का दरिया मिला।
बैंगलूरू में हृदय का,ये कमल प्यारा खिला।
आयुषी आद्या उदित के,प्रेम अरु सम्मान से।
आँख में भर अश्रु आए,प्रीत के इस भान से।

ललित

गीतिका छंद

ज़िन्दगी के सुर निराले,नर समझ पाए कहाँ?
नित-नए सुरताल अपने,ये सुनाती है यहाँ।
प्रीत की पावन तरंगें,दिल लुभाती हैं कभी।
मीत की रुसवाइयाँ दिल,चीर जाती हैं कभी।

ललित

गीतिका छंद

वक्त ही है घाव देता,वक्त ही मरहम बने।
जो कभी दुश्मन बना था,फिर वही हमदम बने।
है निराशा आज तो कल,आस का दीपक जले।
आस के दीपक तले ही,जिन्दगी फूले-फले।

ललित

गीतिका छंद

ये सुनहरी भोर मन को,प्यार से सहला रही।
सूर्य की स्वर्णिम फुहारें,नेह से नहला रहीं।
रैन के सँग मुँह छिपाकर,हर हताशा यों भगी।
भू्ल कल की बात मन में,इक नई आशा जगी।

ललित

गीतिका छंद

राधिका हो कर दिवानी,श्याम के पीछे चली।
पायलें भी मनचली थी,झूमती थी हर कली।
क्या ज़मीँ क्या आसमाँ क्या बाग उपवन वाटिका?
देखना सब चाहते थे,रास लीला नाटिका।

ललित

गीतिका छंद

माँ तुम्हारे प्यार की मैं,अधखिली हूँ इक कली।
आहटें सुन मात मेरी,क्यों मची है खलबली?
अब न माता ये तुम्हारी,कोख जाए फिर छली।
चाहती हूँ देखना मैं ,इस जहाँ की हर गली।

ललित

गीतिका छंद

क्या हुआ जो आज तुझसे,दूर अपने हो गए?
क्या हुआ जो नींद में ही,चूर सपने हो गए?
भोर होगी इक नई फिर,स्वप्न बुनना कुछ नए।
भूलकर बातें पुरानी,लक्ष्य चुनना कुछ नए

ललित

गीतिका छंद

साँवरे इक बार मुझको,देख लो तुम प्यार से।
कष्ट सारे दूर कर दो,इक नजर के वार से।
तप्त मेरी देह है जोे,पाप के संताप से।
शांत शीतल है सके वो,कृष्ण-राधा जाप से।

ललित

गीतिका छंद

चाँदनी चंचल हुई है,चाँद कुछ खामोश है।
बह रही शीतल बयारें,चाँदनी में जोश है।
शाँत सरवर नीर को छू,और चमकी चाँदनी।
चाँद का प्रतिबिम्ब जल में,देख दमकी चाँदनी।

ललित

गीतिका छंद

बेवफाई ये तुम्हारी,जानलेवा कम नहीं।
पर वफा की कद्र भी तो,कर सके थे हम नहीं।
प्यार करने की कला भी,बंदगी से कम कहाँ?
प्रीत का प्याला मिले तो,जिंदगी से कम कहाँ?

ललित

गीतिका छंद

जिंदगी रुकती नहीं है,एक पल को भी कहीं।
दुःख की काली घटाएँ,यूँ सदा छाती नहीं।
जिंदगी को नित्य साक्षी,भाव से देखा करो।
दुःख अरु सुख के लिए सम,भाव तुम मन में भरो।

ललित
गीतिका छंद

जीत अपनी जीत हो तो,जश्न करना ठीक है।
दूसरे की जीत पर क्या,जाम भरना ठीक है?
वक्त की जादूगरी से ,सीख कुछ ले आज तू।
क्यों किसी अनजान से यूँ ,भीख कुछ ले आज तू?

ललित

गीतिका  छंद

नेह की बाती दिए में,रोज़ मैं धरती रही।
दीप आशा का जलाकर,आरती करती रही।
आपकी नज़रें मगर कुछ,इस तरह रूठी रहीं।
प्यार की सब डोरियाँ ही,हाथ से छूटी रहीं।
ललित

गीतिका छंद

क्या हुआ कैसे हुआ ये,प्रीत ने मन को छुआ।
साजना ने किस अदा से,मखमली तन को छुआ?
प्रेम की चंचल तरंगें,किस कदर मन में उठीं?
प्यार पाने की उमंगें,बेवजह तन में उठीं?

ललित

21.5.18
गीतिका छंद

राधिका का नूर ऐसा,श्याम निरखे जा रहा।
कनखियों ही कनखियों में,प्रीत परखे जा रहा।
श्याम की वंशी बजे तो,प्रीत के ही सुर सजें।
बाँसुरी की तान सुनकर,पायलें छम-छम बजें।

ललित

दोहा

पहले से दूजा लड़ा,तीजा था हुशियार।
दो की बंदर बाँट में,तीजे के पौबार।

मनोरम छंद

सेतु निर्मित हो रहा था।
प्रेम सिंचित हो रहा था।
'राम' जिन पर लिख रहे थे।
तैरते वो दिख रहे थे।

पत्थरों की देख माया।
राम को ये सोच आया।
तैरते पत्थर भला क्यों?
नाम में ही है कला क्यों?

मैं स्वयँ जब राम हूँ तो।
पूर्ण जब निष्काम हूँ तो।
एक पत्थर फेंकता हूँ।
तैरता क्या देखता हूँ।

फेंकते थे राम जिसको।
तैरना आता न उसको।
डूब वो पत्थर रहे थे।
फेंक जो रघुवर रहे थे।

ललित

मनोरम छंद
वनवास

भावनाओं का समन्दर।
उठ रहा है आज अन्दर।
सोचता है भरत भाई।
लाज मैया को न आई।

राम को वनवास दे कर।
क्या मिला यूँ त्रास देकर?
राज्य की थी कामना क्यों?
राम से दुर्भावना क्यों?

राम हैं भगवान मेरे।
हैं उन्हीं में प्राण मेरे।
शीश चरणों में धरूँगा।
राज मैं क्यूँ कर करूँगा?

वर्ष चौदह वन रहेंगें।
राम-सीता दुख सहेंगें।
पाप ये भारी हुआ है।
हाय किसकी बद्दुआ है?

हे प्रभो अब क्या करूँ मैं?
राज्य को कैसे वरूँ मै?
राम वापस लौट आएँ।
तो सभी सन्तोष पाएँ।

ललित

दोहा

वोट बिका वोटी बिका,बिकी जीत भी आज।
जीत छुपी थी हार में,हार पहनती ताज।

ललित

मनोरम छंद

भोर की बेला सुहानी।
कह रही मनहर कहानी।
पूर्व से आता उजाला।
ओढ़ कर स्वर्णिम दुशाला।

गीत गाती सी पवन है।
झूमता सा ये गगन है।
ओस की बूँदें चमकती।
हर कली खुश हो दमकती।

ललित

मनोरम छंद

सास मेरी गाँव की थी।
शीत देती छाँव सी थी।
प्यार ममता से भरी वो।
देखने में थी परी वो।

होंठ जब भी खोलती थी।
तौलकर ही बोलती थी।
थी सरल सीधी सलोनी।
छाछ आती थी बिलोनी।

मनोरम छंद

प्यार का संदेश देखा।
प्रेम का परिवेश देखा।
था जहाँ ससुराल मेरा।
सोलवाँ था साल मेरा।

थी कमर उसकी बला की।
पढ़ रही बी.ए. कला की।
फेल तो होती नहीं थी।
पास कब होती कहीं थी।

मनोरम छंद

प्यार के दो पल मिलें तो।
खुशबुओं के गुल खिलें तो।
डूब खुशबू में न जाओ।
प्यार को दिल में न लाओ।

प्यार में धोखा मिले तो।
गुल न बागों में खिले तो।
तुम नहीं फिर कसमसाओ।
प्यार को दिल में न लाओ।

ललित

मनोरम छंद

खूब सूरत हैं नतीजे।
जीत पाए कब भतीजे।
जीत है आधी-अधूरी।
कामना होगी न पूरी।

जीत भी धाँसू नहीं है।
आँख में आँसू नहीं हैं।
हार भी मानी न जाए।
जीत भी पूरी न पाए।

ललित

मनोरम छंद

जिंदगी जी भी न पाया।
जोड़ भी पाया न माया।
सूँघ वो पाया न मन से।
उड़ गई खुशबू चमन से।

कामनाएँ सिर उठाती।
नित नए सपने दिखाती।
एक सपना पूर्ण होता।
दूसरा मन को भिगोता।

हाय मन कैसा बनाया।
एक पल भी रुक न पाया।
भागता ऊँचे गगन में।
झूमता अपनी लगन में।

मन खुशी की चाह करता।
और दुख से खूब डरता।
आदमी को ये नचाता।
शोर अंतर में मचाता।

हाय मन बस में न आए।
आदमी कुछ कर न पाए।
सीख उल्टी दे सदा ये।
कामना पर है फिदा ये।

कामनाएँ कुछ अधूरी।
भाग्य से जो हों न पूरी।
मन वहीं अटका रहे ये।
नर वहीं भटका रहे ये।

है कठिन मन को मनाना।
कामनाओं को मिटाना।
है नहीं दुष्कर मगर ये।
ठान ले जो आज नर ये।

ललित

मुक्तक

मातृ दिवस पर आ गई,माँ की जैसी याद।
पितृ-दिवस पर छा गई,बिलकुल  वैसी याद।
बाकी दिन पोंछी नहीं,तस्वीरों की धूल।
कैसा ये सम्मान है,धुँधली कैसी याद।

ललित किशोर 'ललित'

मुक्तक
माँ
1
कोई मूरत हो सकती क्या,माँ की सूरत से प्यारी?
सन्तानों की शुभचिन्तक क्या,हो सकती माँ से न्यारी?
लगा दाँव पर खुद का जीवन,जनती है जो बच्चों को।
बच्चों की दुनिया में सुंदर,रँग भरती वो महतारी।

ललित

आधार छंद

याद मुझे माँ आ रहा,तेरा निश्छल प्यार।
छाती से चिपटा मुझे,करना लाड़-दुलार।
कैसे सकता भूल मैं,वो प्यारे पल आज।
इक-पल तेरा डाँटना,दूजे पल मनुहार।
ललित

माँ तू करती है मुझे,कितना निश्छल प्यार।
छाती से चिपटा मुझे,करती लाड़-दुलार।
माथा मेरा चूमकर,सिर पर रखती हाथ।
पहले हड़काती मुझे,फिर करती मनुहार।
'आद्या'

आधार छंद

नभ में चमके चाँदनी,कँगना राधा हाथ।
छम-छम-छम पायल बजे,प्यारे साजन साथ।
नथनी खुश हो झूमती,कजरा तीर चलाय।
नाच रही है राधिका,रास करें व्रज नाथ।

ललित

आधार छंद

गोरी-गोरी राधिका,श्याम संग मुस्काय।
मुक्ता-मणि के हार ज्यों,कृष्ण अंग लग जाय।
बाँसुरिया को छीनकर,अधरों को ले चूम।
सावन के झूले उसे,साँवरिया झुलवाय।

ललित

आधार छंद

साजन-सजनी प्रेम से,रहते हों जब साथ।
जीवन-यापन शुद्ध हो,कर्ज न कोई माथ।

प्रेम-पुष्प हों पल्लवित,मधुर-प्रणय के बीच।
गहने सारे तुच्छ जब,साजन चूमे हाथ।

ललित

आधार छंद

सजी-धजी गजगामिनी,साजन जी के साथ।
सर्राफे में आ गई,लिए हाथ में हाथ।
आभूषण सुंदर लिए,चूड़ी-कँगना-हार।
तीन लाख बिल देखके,पड़ी सिलवटें माथ।
ललित

आधार छंद

सोने की दो चूड़ियाँ,और गले का हार।
हीरे वाली बालियाँ,पायल घुँघरू दार।
साड़ी एक बनारसी,महँगी हो जो खूब।
दिलवा दे साजन मुझे,सच्चा हो जो प्यार।

ललित

आधार छंद
माथे पर बिंदी नहीं,नहीं माँग सिंदूर।
बिछिया पायल भी नहीं,पहने है अब हूर।
कँगना भी भाए नहीं,घड़ी सुहाए खूब।
तारीफें फिर भी करे,साजन वो मजबूर।

ललित
11.5.18
आधार छंद

नाक नथनियाँ झूमती,अधरों पर मुस्कान।
हार गले में नौलखा,चितवन तीर कमान।
पायल की छम-छम करे,खुशियों की बौछार।
दुल्हन के इस रूप पर,दूल्हा है कुर्बान।
या
(सजनी के इस रूप पर,साजन जी कुर्बान।)
ललित
10.5.18

गीतिका छंद

जान ली हमने हकीकत,कौन अपना खास है?
आज तो हर आदमी ही,वासना का दास है।
वासना अपनी खुशी की,और निज परिवार की।
खत्म हो जाती वहीं पर,सब हदें हैं प्यार की।

मई  2018
7.5.18
आधार छंद

चंदन से लिपटे रहें,ज्यों ज़हरीले नाग।
वैसे भारत वृक्ष पर ,नेता रूपी काग।
काँव-काँव करते हुए,नोंच रहे हैं खाल।
सबके अपने स्वार्थ हैं,अपने-अपने राग।

ललित
आधार

वंशीवट की छाँव में,यमुना जी के तीर।
कान्हा की वंशी बजे,हर ले सब की पीर।
मधुर अलौकिक बाँसुरी,छूती मन के तार।
सुन-सुन मदमाती धुनें,राधा खोती धीर।

ललित

आधार छंद

जीवन में उल्लास हो,मन में हो विश्वास।
प्यारी सजनी संग हो,सदा हास-परिहास।
कंटक भी फिर राह के,बन जाते हैं फूल।
चूम सफलता के शिखर,हो जाता नर खास।

ललित
आधार छंद

फटी जींस है शोभती,सुंदर तन पर आज।
बिना फटे कपड़े पहन,आती है अब लाज।
साथ बदलते वक्त के,बदल गया इंसान।
वस्त्र पहन कर नग्न अब,दिखता सभ्य समाज।
ललित

8.5.18
आधार छंद
सुभोर

मुरलीधर मनमोहना,राधा का चितचोर।
बजा बाँसुरी झूमता,नंद-लला हर भोर।
दर्शन कर सब गोपियाँ ,नाचें दे-दे ताल।
पंख खोल कर नाचते,नंदन-वन के मोर।

ललित

आधार छंद
आधुनिक नवयौवना

आई ब्रो बारीक है,और कटे हैं बाल।
गोरे मुखड़े पर किया,मेकप बहुत कमाल।
कजरारे नैना छिपे,काले चश्मे बीच।
मोबाइल है कान पर,गाल धूप में लाल।

ललित

आधार छंद

अनगिन गाँठों से भरी,मेरी जीवन डोर।
सुलझाऊँ कैसे भला,पकड़ न आए छोर।
प्रेम-प्यार अनुनय-विनय,व्यर्थ हुए सब आज।
जीवन की इस साँझ में,कैसे होगी भोर।

ललित

आधार छंद

चंचल मन बस में नहीं,वृद्ध हो गया गात।
बहुत कमाया धन मगर,खाली हैं अब हाथ।
ध्यान-भजन होता नहीं,और न गीता-ज्ञान।
राधा-राधा मैं जपूँ,पार उतारो नाथ।
ललित

आधार छंद

रच डाला संसार ये,माया से भरपूर।
और तमाशा देखने,जा बैठा तू दूर।
क्या आई मन में बता,तीन लोक के नाथ?
कठ पुतली से नाचते,जीव सभी मजबूर।

डोर लिए तू हाथ में,सबको रहा नचाय।
इक को मिलता राज है ,दूजा ठोकर खाय।
ढीली कर दे डोर ये, थोड़ी सी ओ नाथ।
ज्ञान-दीप ऐसा जले,मोक्ष-मार्ग दिख जाय
ललित

आधार छंद

है मन में संतोष या,उलझा माया बीच?
है इसकी गति उच्च या, करता है अति नीच।?
पूछ धैर्य के साथ तू ,अपने मन से आज।
काम-क्रोध-मद-लोभ की,भाती है क्यों कीच?

ललित

शक्ति छंद
मचलती हुई खुशबुओं के तले।
हसीं  फूल भी रँग,बदलने चले।
कि तस्वीर का है,झमेला वहाँ।
मुहब्बत वतन से,न धेला जहाँ।
' ललित '

सोरठा

महकी महकी शाम,बहके बहके हैं पिया।
अँखियों से ही जाम,सजनी है पिलवा रही।

सजनी की हर साँस,मन की प्यास बढ़ा रही।
मदन-देव की फाँस,दिल में नश्तर सी चुभे।

बरखा की हर बूँद,तन का ताप बढ़ा रही।
सजनी अँखियाँ मूँद,भीग रही हर बूँद से।

कैसी है ये प्यास,तन भीगे त्यों-त्यों बढ़े।
पिया मिलन की आस,मन में आग लगा रही।

चुनरी भी तो हाय,सिर से सरकी जा रही।
गजरा भी मुस्काय,पायल इतराने लगी।

पिय के तिरछे नैन,सजनी को घायल करें।
मीठे-मीठे बैन,शीतल मरहम से लगें।

ललित
सोरठा छंद

राधा से घनश्याम,मुरलीधर से राधिका।
मिलते हैं हर शाम,वंशीवट की छाँव में।

बड़ी अनोखी प्रीत,राधा करती श्याम से।
राधा गाए गीत,कान्हा की मुरली बजे।

मुरली की हर तान,राधा को प्यारी लगे।
वंशी सौत समान,अधरों से चिपकी रहे।

मुरली के बड़-भाग,राधा मन ही मन जले।
छेड़ सुरीले राग,कान्हा की प्यारी बनी।

दिल के ये जज्बात,पलकों के पीछे छिपें।
दिन हो चाहे रात,वंशी क्यों लव को छुए?

जागूँ सारी रात,मैं कान्हा के रास में।
क्यों मन की हर बात,मोहन मुरली से कहे?

ललित

सोरठा छंद

आ जाओ घनश्याम,राह निहारे राधिका।
जपती हर पल नाम,तेरा ही ओ साँवरे।

मथुरा जाकर श्याम,भूले क्यों व्रजधाम को?
तुम तो हो निष्काम,फिर मथुरा क्या काम है?

सोरठा छंद
रास

रास रचाए श्याम,छम-छम नाचे राधिका।
मुरली से अविराम,रस बरसे आनन्द का।

नजरों से ही श्याम,जादू ऐसा कर रहा।
खुशियों से निष्काम,झोली सबकी भर
गई।

नंदनवन व्रजधाम,वन-उपवन अरु वाटिका।
बाल-सखा सँग श्याम,नित्य नयी लीला करे।

कैसा ये भगवान,वृन्दावन में आ गया।
देता गीता-ज्ञान,नित्य रास में झूमता।

नाच रहे सब ग्वाल,नाचे गोरी राधिका।
मुरली करे कमाल,बेसुध हैं सब गोपियाँ।

सुन वंशी की तान,लतिकाएँ सब झूमती।
भूले निज का भान,व्रजवासी आनन्द में।

पूनम की है रात,कितनी खुश है चाँदनी?
नाचे माधव साथ,बौराई सी राधिका।

बरस रही है प्रीत,आलौकिक आनन्द है।
सुन वंशी के गीत,पायलियाँ मदहोश हैं।

हर गोपी के साथ,दिखे नाचता साँवरा।
मुरली की क्या बात ,अधर लगी जो झूमती?

दिखला दे गोपाल,एक झलक उस रास की।
जिसमें दे दे ताल,आत्म मिले परमात्म से।

नंद-यशोदा लाल,बाँके ओ घनश्याम रे।
आँखों देखा हाल,जरा सुना दे रास का।

ललित

सोरठा छंद

बन जाएगी बात,धीरे-धीरे रे मना।
कट जाएगी रात,होगी उजली भोर रे।

रवि को करे प्रणाम,हर सुबहा दे अर्घ्य जो।
यश-वैभव  बल-बुद्धि,बढ़ते हैं उसके सदा।

ललित
2.5.18
सोरठा छंद

सबसे सुंदर नाम,मनमोहन घनश्याम का।
दीवाना है श्याम,राधा जी के नाम का।

राधे-राधे बोल,जो चाहे कल्याण रे।
वाणी में रस घोल,सबसे मीठा बोल रे।

ललित