त्रिभंगी छंद
श्रृंगार रस
ओ अधर रसीले,नैन नशीले,गजरे पीले,वाली रे।
ओ मीठी बोली,सुंदर चोली,अँखियन गोली,घाली रे।
आ नयन लड़ा लें,प्रीत बढ़ा लें,नींद उड़ा लें,थोड़ी सी।
ये मधुरिम रजनी,काहे तजनी,आजा सजनी, दौड़ी सी।
ललित
28.2.18
त्रिभंगी छंद
श्रृंगार रस
ओ रँग रंगीली,छैल-छबीली,
जरा हठीली,छोरी रे।
नाजुक फूलों सी,कटि कमलों सी,
छवि गजरों सी,गोरी रे।
आ पास जरा तू,लट बिखरा तू,
मत इतरा तू,ओ सजनी।
बाहों में आजा,मधु बिखराजा,
मधुर बना जा,ये रजनी।
ललित
27.2.18
त्रिभंगी छंद
होली
साजनवा हाए,रँग बरसाए,भीग न जाए,चोली रे।
मत पीकर हाला,हो मतवाला,खेले आला,होली रे।
आ प्रेम-रतन-धन,ढूँढ मगन-मन,होली साजन,खेलें रे।
तू भर ले अँग में,झूमें भँग में,सुख-दुख सँग में,झेलें रे।
ललित
त्रिभंगी छंद
यशुदा का प्यारा,राज-दुलारा,
सबसे न्यारा,श्याम कहा।
वंशीवट नियरे,यमुना-तीरे,
वंशी धीरे,बजा रहा।
गौ-गोपी ग्वाले,सब व्रज वाले,
कान्हा काले,रास करें।
नंदन-वन डोले,मुरली बोले,नारी- भोले,हास करें।
ललित
त्रिभंगी छंद
कुछ-कुछ शरमाती,कुछ इतराती,कुछ इठलाती,रूप डली।
वो नैन मिलाती,नजर झुकाती,नख सहलाती,कुसुम कली।
जो अधर न खोले,चुप-चुप डोले,मधुरस घोले,मधुवन में।
वो राधा आती,रास रचाती,नाच नचाती ,निधि वन में।
ललित
10,8,8,6
त्रिभंगी छंद
एक प्रयास
माखन चोरी का
नटखट मन मोहन,चोरे माखन,साथ देत सब,बाल सखा।
नैना मटकाएँ,हँस-हँस खाएँ,वानर सँग सब,ग्वाल सखा।
यशुदा जब देखे,कृत्य अनोखे,नटवर नागर,
के प्यारे।
हिय में हरषाए,अति सुख पाए,श्याम हरेंगें,अघ सारे।
ललित
त्रिभंगी छंद
बरसाने वाली,निपट-निराली,राधा प्यारी,जब आए।
वो नटवर नागर,श्याम सुखागर,मुरली से रस,बरसाए।
नंदनवन पावन,मनहर सावन,राधा-मोहन,को प्यारा।
वृषभानु-सुता सँग,साँवरिया रँग,लगता सबको,अति न्यारा।
ललित
त्रिभंगी छंद
इक सुंदर प्यारी,न्यारी न्यारी,बिटिया मेरे,घर आई।
शीतल पुरवाई,अति सुखदाई,अँगना खुशियाँ,भर लाई।
कहती है दादा,तुमसे वादा,करती हूँ मैं,
ये सच्चा।
शिक्षा मैं पाऊँ,नाम कमाऊँ,निर्भर होगा,ये बच्चा।
ललित
25.2.18
सभी मित्र हास्य, शांत,रस के साथ दो रचनाएँ अपने इच्छित विषय पर पियूष वर्ष छंद में लिखें..
पियूष वर्ष छंद
फूल कम, कंटक अधिक हम को मिले।
ज़िन्दगी से आज बस इतने गिले।
ज़िंदगी का ये अजब दस्तूर है।
हर खुशी बालिश्त भर ही दूर है।
ललित
पियूष वर्ष छंद
छोड़कर दुनिया गए हो तुम कहाँ?
त्याग अपनों को हुए हो गुम कहाँ?
हाय कदमों के निशाँ भी तो नहीं।
दूर दिखता आशियाँ भी तो नहीं। .........
ललित
👆🏻👆🏻😊👆🏻👆🏻
पियूष वर्ष
सादर आभार
जो मिली परिवार की सद्भावना।
जन्म दिन की प्रेम से शुभकामना।
दिल 'ललित' का आज वो सहला गई।
प्यार से अभिभूत मन बहला गई।
ललित
1. भक्ति रस
पियूष वर्ष छंद
शारदा माता कृपा इतनी करो।
काव्य-रस के ज्ञान से झोली भरो।
भाव अद्भुत भर सकूँ हर बंध में।
काव्य रचना कर सकूँ हर छंद में।
ललित
2-करुण रस
पियूष वर्ष छंद
बेटियों का कोख में करते शमन।
पुष्प कैसे अब खिलाएगा चमन।
मात को ही बेटियाँ दुश्मन लगें।
पूत से ही भाग्य क्या सबके जगें?
ललित
3-ओज
पियूष वर्ष छंद
ऐ जवानों अब नहीं देरी करो।
आग से हर शत्रु की चौकी भरो।
चीरकर रख दो जिगर शैतान का।
नाम बच पाए न पाकिस्तान का।
ललित
4-श्रृंगार रस
पियूष वर्ष छंद
गाल पर लाली लगा नाजुक कली।
तीर नजरों में भरे पथ में मिली।
थे अधर आधे खुले कुछ इस तरह।
चूम लेगी पास आकर जिस तरह।
ललित
पियूष छंद
इबारत
सिर दुपट्टे से ढके नाजुक कली।
इक नजर से तीर सौ बरसा चली।
घायलों के दिल तड़पते रह गए।
हुस्न के मारे कलपते रह गए।
सावनी शीतल फुहारों में खड़ी।
भीगती सिमटी सहे बरखा झड़ी।
जुल्फ में जो बूँद अटकी दिख गई।
प्यार की जैसे इबारत लिख गई।
पियूष वर्ष
उस इबारत को यहाँ जो पढ़ सका।
सीढियाँ वो प्यार की है चढ़ सका।
आदमी समझे जुबाँ जो प्यार की।
जीत लेता हर डगर संसार की।
ललित
पियूष वर्ष छंद
पूरी रचना
श्रृंगार रस एक अलग अंदाज में
प्यार की दीवानगी भी खूब है।
शायरी करता जहाँ महबूब है।
प्रेमिका दिखती उसे वह हूर है।
नैन में जिसके परी सा नूर है।
पायलें बजती बड़ी प्यारी लगें।
धड़कनें रुकती उसे सारी लगें।
जब सजनियाँ अंक में उसके गिरे।
यूँ लगे आकाश तारों से घिरे।
चाँदनी उसको लगे प्यारी बड़ी।
शायरी पे जो सदा भारी पड़ी।
जब सजनियाँ चाँदनी में आ मिले।
भूल जाता प्यार में वो सब गिले।
सावनी शीतल फुहारों के तले।
तन-वदन अंगार पर जैसे जले।
जब सजनियाँ झूलती है बाग में।
डाल देती घी जिगर की आग में।
शायरी करनी जिसे आती न हो।
जुल्फ की छाया जिसे भाती न हो।
कब सजनियाँ फिर उसे प्यारी लगे?
शायरी भी एक बीमारी लगे।
शायरों की शायरी में प्यार है।
शायरी से ही जवाँ संसार है।
शायरी की रूह सजनी जब बने।
खूबसूरत सी गज़ल वो तब बने।
ललित
पियूष वर्ष छंद
श्रृंगार रस एक अलग अंदाज में
प्यार की दीवानगी भी खूब है।
शायरी करता जहाँ महबूब है।
प्रेमिका दिखती उसे वह हूर है।
नैन में जिसके परी सा नूर है।
पायलें बजती बड़ी प्यारी लगें।
धड़कनें रुकती उसे सारी लगें।
जब सजनियाँ अंक में उसके गिरे।
यूँ लगे आकाश तारों से घिरे।
चाँदनी उसको लगे प्यारी बड़ी।
शायरी पे जो सदा भारी पड़ी।
जब सजनियाँ चाँदनी में आ मिले।
भूल जाता प्यार में वो सब गिले।
सावनी शीतल फुहारों के तले।
तन-वदन अंगार पर जैसे जले।
जब सजनियाँ झूलती है बाग में।
डाल देती घी जिगर की आग में।
शायरी करनी जिसे आती न हो।
जुल्फ की छाया जिसे भाती न हो।
कब सजनियाँ फिर उसे प्यारी लगे?
शायरी भी एक बीमारी लगे।
शायरों की शायरी में प्यार है।
शायरी से ही जवाँ संसार है।
शायरी की रूह सजनी जब बने।
खूबसूरत सी गज़ल वो तब बने।
ललित
त्रिभंगी छंद
एक प्रयास
माखन चोरी का
नटखट मन मोहन,चोरे माखन,
साथ देत सब,बाल सखा।
नैना मटकाएँ,हँस-हँस खाएँ,
वानर सँग सब,ग्वाल सखा।
गोपी जब देखे,कृत्य अनोखे,
नटवर नागर,के प्यारे।
हिय में हरषाए,अति सुख पाए,
श्याम हरेंगें,अघ सारे।
ललित
पीयूष वर्ष
प्यार
प्रीत बिकती क्या कभी बाजार में?
प्यार मिलता क्या कभी उपहार में?
प्रेम दिल में ही उपजता है सदा।
और होता प्यार पर ही है फिदा।
कौन किसके प्यार में कब खो गया?
प्रीत में पागल कहाँ कब हो गया?
जान पाता है नहीं संसार ये।
धड़कनों में ही समाता प्यार ये।
प्यार में दो दिल गए जब डूब हों।
ख्वाब में खोए जवाँ महबूब हों।
तब हवा संदेश देती प्यार का।
दो दिलों में उठ रहे इक ज्वार का।
ललित
पीयूष वर्ष छंद
दुआ
फूल उपवन से चले मुख मोड़कर।
क्यारियों में डालियों को छोड़कर।
डालियाँ जड़ से बँधी हरदम रहीं।
और जीवन में सहा कुछ गम नहीं।
पुष्प चल पाए कदम दो चार ही।
और जड़ का पा न पाए प्यार ही।
कौन सुन पाए कभी उन की व्यथा?
भोगते जो आप ही अपनी खता।
दूर रहकर भी जड़ों को पूजते।
पुष्प वो क्यों आज गम से धूजते?
प्यार से देती जड़ें उनको दुआ।
तो हवा भी आज बन जाती दवा।
ललित
पीयूष वर्ष छंद
प्रेम/प्रीत/प्यार
प्यार की दुनिया भुलावा तो नहीं?
प्रीत तेरी इक छलावा तो नहीं?
प्रेम पर विश्वास मैंने है किया।
बुझ न पाए आस का दीपक पिया।
आस पर ही ये टिका संसार है।
प्यार करना क्यूँ बना व्यापार है?
हाथ जो थामा पिया मत छोड़ना।
प्रेम का धागा पिया मत तोड़ना।
है जरूरी प्रीत जीने के लिए।
प्रेम के बिन आदमी कैसे जिए?
प्रीत के बिन है भला क्या जिन्दगी?
प्रेम ही करना सिखाता बन्दगी।
ललित
पीयूष वर्ष
कुछ यूँ ही
जिन्दगी का इक अजब अन्दाज है।
हर फसाने में छिपा इक राज है।
जिन्दगी ये गुल खिलाती है कभी।
राह में कंटक बिछाती है कभी।
दंश दे देती कभी इतने बुरे।
खवाब में सोचे न थे जितने बुरे।
और बन जाती कभी है बन्दगी।
बन्दगी से ही निखरती जिन्दगी।
कौन जिन्दा है बिना गम के यहाँ।
बस गमों से ही भरा है ये जहाँ।
ईश में विश्वास रखते जो सदा।
हो नहीं पाते कभी वो गमज़दाँ।
ललित
पीयूष वर्ष छंद
दर्द
दर्द घुटनों का हमें यह कह गया।
वक्त जीवन का बहुत कम रह गया।
जिन्दगी में भक्ति कुछ की तो नहीं।
श्याम सुंदर से लगाई लौ नहीं।
सोचते हम रह गये मन में यही।
भक्ति कर लेंगें अभी ठहरो सही।
पर जवानी ने छलावा यूँ किया।
बाल काले कर जिया बहला लिया ।
बाँटते सबको रहे थे ज्ञान हम।
अब करें कुर्सी लगा कर ध्यान हम।
हाय रे चंचल मना अब तो समझ।
ईश की आराधना अब तो न तज।
ललित📣
घुटनों के दर्द का मरीज
पीयूष वर्ष
हम सफर जो साथ मेरे थे चले।
नैन को भी जो रहे लगते भले।
खूब था जिन पर मुझे विश्वास भी।
और जिनसे थी लगाई आस भी।
छोड़ वो मुझको अचानक चल दिए।
प्रीत ने ऐसे भला क्यूँ फल दिए?
नाज था जिस प्यार पर मुझको सदा।
आज वो ही कह गया है क्यों विदा?
ललित
पीयूष वर्ष
क्या हुआ जो यार हम काले हुए।
कौन हैं हम से जिगर वाले हुए?
दिल हथेली पर लिए हम घूमते।
आँख से पी हुस्न को हम झूमते।
ललित
पीयूष वर्ष
देख लो हम को जरा तुम प्यार से।
मानते हो क्यों नहीं मनुहार से?
प्रीत के बिन जिन्दगी दुश्वार है।
जान लो हम को तुम्हीं से प्यार है।
ललित
पीयूष वर्ष छंद
************
2122 2122 212
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प्यार तेरा ये दिखावा तो नहीं।
वासना का इक छलावा तो नहीं।
दूरियों में प्यार की सौरभ
बसे।
प्रीत तन की वासना में कब बसे।
ललित
चित्र आधारित
विष्णु पद छंद
चंचल हिरणी जब नैनों से,छुप-छुप वार करे।
कजरारी अँखियों का कजरा,दिल को चीर धरे।
नैन झुका कर बिन बोले वो,बात कहे मन की।
साजन से जब नैन मिले त़ो,चूड़ी भी खनकी।
मिलने को आतुर हैं सजना,गजरा महक रहा।
सजनी का दिल धक्-धक् करता,थोड़ा बहक रहा।
नैनों में सजनी के सुंदर,सपने चमक रहे।
मादक सपनों में खोए दो,नैना दमक रहे।
कुछ ही पल में मधुर-मिलन के,सच होंगें सपने।
इक दूजे के मन में घुलते,तन होंगें अपने।
सजनी की साँसों में साजन,महकेंगें गुल से।
और करेंगें मीठी-मीठी,बातें बुल-बुल से।
मधुर मिलन की हाय रात ये,छोटी है कितनी।
उम्र सावनी लघु-बूँदों की,होती है जितनी।
साजन-सजनी कहें काश ये,वक्त यहीं ठहरे।
मगर प्यार की विनती सुनकर, वक्त नहीं ठहरे।
ललित किशोर 'ललित'
आदरणीय राकेश जी व भाभीजी को
शादी की वर्ष-गाँठ पर मेरी ओर से अनन्त शुभ कामनाएँ
फूल-बहारों का मौसम ही,जीवन में चहुँ ओर रहे।
यश-माही ललिता जी में भी,प्यार सदा पुर जोर रहे।
माँ शारद की कृपा रहे औ',लक्ष्मी जी धन-धान्य भरें।
हर कवि सम्मेलन में केवल,'राज' 'राज' का शोर रहे।
ललित किशोर 'ललित'
19.2.18
ताटंक छंद गीत
ऐसी सरगम छेड़े नटखट,आलौकिक
धुन में प्यारी।
झूम उठें सब गोप-गोपियाँ,नाचें सब नर औ' नारी।
कान्हा की वंशी क्या बोले,राधा समझ नहीं पाई?
लेकिन वंशी सुनने को वो,नंगे पाँव चली आई।
मुरली की धुन ऐसी प्यारी,भूल गई दुनिया सारी।
ऐसी सरगम छेड़े नटखट,आलौकिक
धुन में प्यारी।
कान्हा की बाहों में आकर,सिमट गई गोरी-राधा।
अधर अधर से मिलना चाहें,डाल रही मुरली बाधा।
वंशी ने क्या पुण्य किये थे,अधरों पर जो है धारी?
ऐसी सरगम छेड़े नटखट,आलौकिक
धुन में प्यारी।
दुनिया में सबसे सुंदर है,राधा कान्हा की जोड़ी।
जिसने हृदय बसा ली ये छवि,प्रीत वही समझा थोड़ी।
इसीलिए राधा-मोहन की,दीवानी दुनिया सारी।
ऐसी सरगम छेड़े नटखट,आलौकिक
धुन में प्यारी।
ललित
कुण्डलिनी
तुलसी
तुलसी का पौधा रखो,घर-आँगन में आप।
शुद्ध रहे घर की हवा,मिटें सभी संताप।
मिटें सभी संताप,करें जो तुलसी पूजा।
लक्ष्मी जी का वास,नहीं तुलसी सा दूजा।
ललित
कुण्डलिनी
जरा सोच कर देखिए,अपने मन में आप।
क्यों ईश्वर ने हैं दिए,इस जीवन में ताप?
इस जीवन में ताप,और दुख इतने सारे।
खुशियों के क्यूँ हाय,नहीं चमकें हैं तारे?
ललित
कुण्डलिनी
घोषणा
जो मारेगा सेंचुरी,काव्य सृजन कर आज।
उसको ही गुरु 'राज' जी,पहना देंगें ताज।
पहना देंगें ताज,दुआएँ सुंदर देंगें।
कवियों का सरताज,उसे घोषित कर देंगें।
कुण्डलिनी
विचारणीय
मंदिर में जो बोलता,जय-जय-जय श्री राम।
बाहर आ वो ही कहे,बहुत पड़े हैं काम।
बहुत पड़े हैं काम,मुझे जल्दी निपटाने।
राम भरोसे छोड़,नहीं पूरे हो पाने।
ललित
कुण्डलिनी
दिल-दिमाग दोनों रखें,अलग-अलग जजबात।
दोनों मिल कर दे न दें,कहीं आपको मात।
कहीं आपको मात,जरा मन में भी तोलो।
जो हो सच्ची बात,उसे ही मुख से बोलो।
ललित
कुण्डलिनी
भाँग
कौन पकौड़े तल रहा,ऊँचे आसन बैठ।
कौन बैंक को लूटता,किसकी ऊँची पैठ?
किसकी ऊँची पैठ,सोचता काहे प्यारे?
आज कुएँ में भाँग,घोल बैठे हैं सारे।
ललित
कुण्डलिनी
पटल जिंदाबाद
जैसा भी है पटल ये,हम सबकी है जान।
रोक नहीं सकता हमें,कोई भी तूफान।
कोई भी तूफान,पटल को हिला न सकता।
कोटा राजस्थान,धौलपुर में ये टिकता।
ललित
कुण्डलिनी
सूर्य देव
सूर्य-देव को अर्घ्य दे,प्रात काल जो रोज।
यश-वैभव-विद्या-विनय,लेते उसको खोज।
लेते उसको खोज,बढ़े नित आभा मुख की।
सूर्य-देव भगवान,वृद्धि कर देंगें सुख की।
ललित
कुण्डलिनी
सावन और कवि
सावन की बातें मधुर,मधुर कोकिला गान।
कवियों का मन मोहती,सावन की मुस्कान।
सावन की मुस्कान,लेखनी में रस घोले।
कविता हो या शै'र,झमाझम झम-झम बोले।
ललित
कुण्डलिनी
लाईव टेलीकास्ट
सब मिल कर लिखते चलो,मन चाहे कुछ गीत।
काव्य सृजन परिवार की,ये है सुंदर रीत।
ये है सुंदर रीत,लिखो सब अपने मन की।
कुछ अनुभव की बात,और कुछ हो सावन की।
ललित
कुण्डलिनी
राज
काव्य सृजन परिवार में,सुंदर सुंदर रत्न।
निखरे सब का रूप ये,करें 'राज' जी यत्न।
करें 'राज' जी यत्न,तपाते रोज उन्हें वो।
सुंदर सुंदर छंद,सिखाते खूब जिन्हें वो।
ललित
कुण्डलिनी
बरसाने की राधिका,पकड़ प्रीत का छोर।
वंशी सुन हो बावरी,चली बिरज की ओर।
चली बिरज की ओर,बनी नयनों की दासी।
अँखियाँ हैं चितचोर,श्याम दर्शन की प्यासी।
ललित
कुण्डलिनी छंद
प्यारी होती है सुता,प्यारा उसका साथ।
हो जाती इक दिन विदा,थाम सजन का हाथ।
थाम सजन का हाथ,चली जाती है जैसे।
उसके दिल की पीर,समझ आएगी कैसे?
ललित
कुण्डलिनी
नहीं हुआ पैदा अभी,कवि-लेखक निष्णात।
शब्दों में जो लिख सके,माँ-मन के जजबात।
माँ-मन के जजबात,समन्दर से भी गहरे।
इतने शांत कि पूत,नहीं सुन सकते बहरे।
ललित
कुण्डलिनी
मटकी माखन से भरी,लटकाई है दूर।
माखन का तो नाम है,प्यार भरा भरपूर।
प्यार भरा भरपूर,कन्हैया कैसे छोड़े?
गोपी खुश हो जाय,मटकी श्याम जो फोड़े।
ललित
कुण्डलिनी
वोटों की बौछार से,भिगो दिए जब आप।
नहीं भला क्यों हर सके,जनता के संताप?
जनता के संताप,बढ़े हैं हद से ज़्यादा।
कितनी जल्दी भूल,गए हो अपना वादा।
ललित
कुण्डलिनी
दुश्मन तेरी राह में,कंटक जो बरसायँ।
किस्मत में यदि फूल हों,काँटे भी गल जायँ।
काँटे भी गल जायँ,दूर हो सारी बाधा।
भव-सागर तर जाय,जपे जा राधा-राधा।
ललित
कुण्डलिनी
प्यार तुझे यदि चाहिए,बाँट प्यार सौ बार।
बाँटे से फूले-फले,ये ऐसा व्यापार।
ये ऐसा व्यापार,नहीं जिसमें है घाटा।
जितना बाँटे प्यार,रहेगा उतना ठाटा।
ललित
कुण्डलिनी
यश
देखी यश की गायकी,और मधुर मुस्कान।
सुर औ' लय को साधकर,देता अद्भुत तान।
देता अद्भुत तान,गीत है गाता ऐसे।
बड़े मंच पर गीत,कुशल कवि गाते जैसे।
ललित
बाल कुण्डलिनी
माथन तू देती नहीं,आँख दिखाती थूब।
बलछाने की लाधिका,मुझे छकाती थूब।
मुझे छकाती थूब,बाँछुली मेली छीनी।
पप्पी मेले गाल ,छबके छामने लीनी।
ललित
माखन,खूब,बरसाने,राधिका,बाँसुरी,मेरी,मेरे,सबके,सामने।
कुण्डलिनी
एंड्रायड का एक तो,मोबाइल दो लाय।
और स्केटिंग के लिए,शूज करा दो बाय।
शूज करा दो बाय,करूँगा खूब स्केटिंग।
सब को पीछे छोड़,बनू्ँगा स्पोर्ट किंग।
ललित
रोज किटी में यूँ ममा,जाती हो क्यूँ आप?
और लेती बाल बना,काले फुग्गे छाप?
काले फुग्गे छाप,बाल चश्मा नारंगी।
छतरी लेकर चाल,चलो हो क्यूँ बेढंगी?
ललित
कुण्डलिनी
आता है क्यूँ बर्थ डे, इतने दिन के बाद?
और नहीं क्यूँ आपको,रहता है वो याद?
रहता है वो याद,बर्थ डे प्यारा प्यारा।
जब मैं काटूँ केक,चॉकलेटी वो न्यारा।
ललित
कुण्डलिनी
शादी मेरी भी ममा,करवा दो ना आप।
ला दो इक देशी परी,जरा विदेशी छाप।
जरा विदेशी छाप,कुड़ी जो इँगलिश बोले।
आँगन में दिन-रात,खुशी से नाचे डोले।
ललित
कुण्डलिनी
बन्दर की बारात में,खूब मची थी धूम।
नाच रहे सब मोर थे,शेर रहे थे झूम।
शेर रहे थे झूम,लगा डिस्को पर ठुमके।
दुल्हनियाँ ने पहन,रखे हीरे के झुमके।
ललित
मुक्तक (ताटंक आधारित)
साठ बहारें देख चुके अब,रहा देखना बाकी क्या?
खूब पी चुके हाला अब हम,पिलवाएगी साकी क्या?
छंदों से ही भर देते हैं,दिल की हसरत का प्याला।
श्वेत हो गए बाल सभी अब,क्या काला औ' खाकी क्या?
ललित
कुण्डलिनी
प्रेम दिलों का देवता,करे दिलों में वास।
जब दो प्रेमी दिल मिलें,हो जाए मधुमास।
हो जाए मधुमास,समय भी रुक जाता है।
देख धरा की प्यास,गगन भी झुक जाता है।
ललित
कुण्डलिनी
याद आज दिन आ रहे,जब थे जवाँ 'किशोर'।
नजर उठाना पाप था,तब लड़की की ओर।
तब लड़की की ओर,नजर कब उठ पाती थी।
संस्कारों की सीख,बीच में आ जाती थी।
ललित
कुण्डलिनी
प्रेम भरे मधुमास में,ले हाथों में हाथ।
कितने सपने थे बुने,सजनी तेरे साथ।
सजनी तेरे साथ,बहारों के वो झूले।
फूलों की बरसात,नहीं अब तक हम भूले।
ललित
कुण्डलिनी छंद
वैलेंटाइन डे हुआ,दुनिया में मशहूर।
हूर खोजते मर्द हैं,सुंदर औ' मगरूर।
सुंदर औ' मगरूर,मिले जो प्यारी लैला।
वैलेंटाइन मीत,बनाए उसको छैला।
ललित
कुण्डलिनी
लेखन में उत्साह हो,और भाव गंभीर।
कुण्डलिनी में बाँध दो,अपने मन की पीर।
अपने मन की पीर,छंद में गाकर भर दो।
सुंदर लय के साथ,पटल पर उसको धर दो।
ललित
13.2.18
कुण्डलिनी छंद
वैलेंटाइन डे विशेष
हो जाते यदि हम कभी,थोड़े से मशहूर।
हसरत से कहती पिया,हसीं परी मगरूर।
हसीं परी मगरूर,गले से हमें लगाती।
वैलेंटाइन मीत,कहकर हमें बुलाती।
ललित
सिंंहावलोकन घनाक्षरी
शिव-शिव-शिव-शिव
भोला-भोला-भोला-भोला।
बम-बम-बम-बम
जपते ही रहिए।
जपते ही रहिए जी
निशि-दिन प्यारा नाम।
एक लोटा जल चढ़ा
शिव-शिव कहिए।
शिव-शिव कहिए जी
राम जी का प्यारा नाम।
शिव जी सुखों के धाम
काहे दुख सहिए।
काहे दुख सहिए यूँ
शिव जी के होते हुए।
नाम जप धार में ही
आठों याम बहिए।
ललित
सुप्रभात
सिंहावलोकन
राधे-राधे जी
राधे-राधे जपो नाम
निशि-दिन अविराम।
राधे-राधे जपमें ही
मन को लगाइए।
मन को लगाइए जी
राधे जी के चरणों में।
कान्हा की दुलारी राधा
मन में बसाइए।
मन में बसाइए यूँ
प्यारी-प्यारी राधिका को।
श्याम दौड़े आएँ पीछे
राधे राधे गाइए।
राधे राधे गाइए तो
खुशियों की बरसात।
जीवन में दिन-रात
होती हुई पाइए।
ललित
12.2.18
सिंहावलोकन घनाक्षरी
साँवरा सलोना श्याम
गोप-गोपियों के साथ।
तान पे बाँसुरिया की
नाचे सारी रात है।
नाचे सारी रात झूम
बिरज का नन्दलाल
राधा जी के सँग करे
प्यारी प्यारी बात है।
प्यारी प्यारी बात करे
अँखियों से वार करे।
राधा जी दीवानी हुई
कैसी करामात है।
कैसी करामात करे,
बाँसुरी में भर प्यार,
चौसठ कलाएँ देखो,
साँवरे के हाथ है।
ललित
सार
जीवन का सार
आज फैमिली की परिभाषा,का आधार यही है।
मैं,मेरी बीवी और बच्चे,बस परिवार यही है।
काश फैमिली में बच्चों के,दादा-दादी होते।
तो क्यों अम्मा-बाबा घर-घर ,यूँ फरियादी होते।
ललित
सार सपने
कैसे-कैसे सपने हमको,दिखलाए थे तुमने?
और उन्हीं सपनों में सुंदर,रंग भरे थे हमने।
आज उन्हीं रंगों में घुलकर,बिखरे सारे सपने।
सपने तो टूटे जो टूटे,रूठ गए सब अपने।
ललित
सार
फूल बिछाए थे हमने जिन,बच्चों की राहों में।
और झुलाया झूला जिनको,था अपनी बाहों में।
आज वही क्यूँ राह बदलकर,भूल गए हैं हम को?
अपने दामन में थे लेते, भर हम जिनके गम को।
ललित
सार
कितनी दूर चले आए हैं,हम अपनी मंजिल से।
टूट गए हैं स्वप्न सुनहरे,नहीं मिलें दिल दिल से।
हर दिल में थी आजादी की,हमने अलख जगाई।दुरुपयोग कर आजादी का,घर में आग लगाई।
ललित
सार सार सार
👏👏👏👏👏👏
काव्य सृजन का पटल महकता,मणि जैसे कवियों से।
दिल्ली में जा चमक बिखेरी,ज्यादा सौ रवियों से।
राज ललित अणु सत्य विवेकी,और पटल की बहनें।
सबको आज खुशी है जितनी,
उसके हैं क्या कहने?
ललित
👏👏👏👏👏👏
सार छंद
चंचल हिरणी से दो नयनों,वाली वो मतवाली।
चाल देख जिसकी झुक जाती,थी फूलों की डाली।
जींस-टॉप नारंगी चश्मे,में खोई कुछ ऐसे।
बिन छंदों की कविता में हों,छंद खो गए जैसे।
'ललित'
सार छंद
क्या ये सही है?
कोई तो है अगम अगोचर,हम सब का रखवाला।
खम्भे से भी निकल पड़े बन,सिंह बड़े नखवाला।
शिव भोला भंडारी बन जो,गंग-धार सिर धारे।
शेष-नाग शैया पर बैठा,सब के दुख हरता रे।
ललित
सार छंद
रिश्ते
रिश्तों की अद्भुत डोरी में,मन कुछ ऐसा उलझा।
उलझ-उलझ कर ऐसा उलझा,नहीं सका मैं सुलझा।
भगवन मेरी इस डोरी को,सुलझा दो कुछ ऐसा।
रिश्तों के पावन बन्धन को,तोड़ न पाए पैसा।
ललित
सार छंद
वाद-विवाद
रोज निहारूँ राह श्याम कब,दर्शन तेरा होगा?
तेरी एक झलक से शीतल,कब मन मेरा होगा?
नटखट मोहन श्याम साँवरे,चोरी-चोरी आजा।
मेरी कुटिया पावन कर जा,माखन थोड़ा खाजा।
गोप-ग्वाल औ' बाल सखा को,साथ लिए तू आना।
वानर सेना को भी मेरा,माखन तू खिलवाना।
मात यशोदा से मैं भी फिर,जा फरियाद करूँगी।
किसने फोड़ी मटकी मेरी,वाद-विवाद करूँगी।
ललित
सार छंद
बगिया-बगिया में भी देखो,कितना अंतर होता।
एक बाग में तो फूलों का, सुंदर मंजर होता।
दूजे के सब पुष्प बाग के ,माली को तड़पाते।
और लगे कुछ कंटक भी जो,फूलों को भड़काते।
ललित
सार छंद
विचार
किस-किस को दिखलाऊँ अब मैं,अपने दिल के छाले?
कौन लगाएगा मरहम जब,सब हैं हँसने वाले?
अपने मन में सोच रहा हूँ,मैं भी क्या कुछ कम था?
कब उसको ढाढस बँधवाया,जिसके दिल में गम था?
सार में सार
बच्चे के मन की सब बातें,हम मूरख कब मानें?
क्यों रूठा वो और मनेगा,कैसे हम क्या जानें?
इक पल को बच्चा बनकर जो,सोच सही पाएँगें।
बच्चे के मन की सच्चाई,जान वही पाएँगें।
ललित
सार छंद
पीते ही इक घूँट चाय का,कविता बनने लगती।
मन में कुछ उत्तम भावों की,सरिता बहने लगती।
माँ शारद की अनुकम्पा से,गुरू 'राज' हैं मिलते।
टूटी-फूटी कविताओं को,जो ढँग से हैं सिलते।
ललित
सार
जीवन सार
जिसका सारा जीवन बीता,खूब कमाई करते।
आज उसी की सेवा उसके,पूत न भाई करते।
एक अँधेरे कोने में वो,पड़ा हुआ मरने को।
लेकिन पास नहीं है कोई,पानी भी भरने को।
ललित
सार
कुछ यूँ ही
इस जीवन की राम-कहानी,नहीं समझ में आई।
पढ़े-लिखों के सिर को झुकवा,देता अनपढ़ नाई।
देखे सीना ताने चलते,बिना मूँछ वाले भी।
मूँछों वालों के मुँह लगते,देखे हैं ताले भी।
ललित
सार छंद
ओल्ड डिमांड
माँ मुझको इक शर्ट सिला दो,नेकर भी हो काला।
और साइकल एक दिला दो,हो जिसमें इक ताला।
माडर्न डिमांड
मम्मा मुझको बर्गर-पिज्जा,होटल में है खाना।
मोबाइल भी मुझे चाहिए,एंड्रॉयड दिलवाना।
ललित
लिए हाथ में बेलन आई,पत्नी हमें डराने।
हमने भी फिर नए-पुराने,छेड़े कई तराने।
बातों में उलझा कर उनको,इक सैल्फी ले डाली।
और डाल दी मुख पोथी पे,सैल्फी बेलन वाली।
ललित
सार
फूल चढें कुछ हरि मस्तक पर,कुछ को भँवरे चूमें।
कुछ मुस्कान बिखेरें जग में,डाली पर जब झूमें।
कुछ माला में बँध जाते हैं,कुछ हारों में सजते।
पहनें नेता विजय-हार तब, ढोल-नगाड़े बजते
ललित
सार छंद
5-6
फूल खिले बगिया में सुंदर, झूमे खुश हो माली।
लेकिन माली की वो खुशियाँ,कब थीं टिकने वाली।
पुष्पों ने बगिया से सुंदर,इक उपवन था देखा।
सोचा वहीं खुलेगी उनकी,किस्मत की हर रेखा।
सारे फूलों ने बगिया से,जाने की फिर ठानी।
माली के सौ आँसू से भी,नहीं रुकी मनमानी।
चले गए सब सुमन छोड़कर,बगिया और झमेला।
सूनी-सूनी है अब बगिया,उपवन में अब मेला।
ललित
सार4
किसका ध्यान करें हम ऊधो,थोड़ा तो समझाओ।
खुली आँख से मोहन दिखता, क्यूँ आखें मिचवाओ?
नैन बंद करने से कान्हा,नजर नहीं आएगा।
है विश्वास कभी वह हमको,छोड़ नहीं जाएगा।
ललित
सार छंद
3
केवल प्रीत यहाँ है उद्धव,यहाँ न कोई ज्ञानी।
खास मीत हो कान्हा के तुम,बात तुम्हारी मानी।
मतवाला मोहन है बैठा,दिल में डेरा डाले।
ज्ञान-ध्यान पूजा समझेंगें,क्या हम गोपी-ग्वाले?
सार-रास
2
कान्हा जैसा मीत मिले तो,राधा मैं बन जाऊँ।
अधर लगाए मोहन तो मैं,बाँसुरिया बन गाऊँ।
रास करे मुरलीधर तो मैं,पायल बनना चाहूँ।
पायलिया क्या मैं तो घुँघरू,बनकर बजना चाहूँ।
ललित
8.2.18
सार छंद
1
कुछ अपनों में कुछ सपनों में,जीवन के दिन बीते।
अपनों ने अब तेवर बदले,सपने निकले रीते।
मानव-मन कितना पागल है,सोच नहीं जो पाए।
दोपहरी में गायब होते ,खुद अपने ही साए।
ललित
सार छंद
2
दिल कितना नाजुक होता है,ये हमने अब जाना।
वो ही तोड़ गया इस दिल को,जिसको था रब माना।
दिल के टूटी किरचों की भी,देखी खूब रवानी।
टूट-टूट कर और टूटती,जुड़ने की कब ठानी।
ललित
सार छंद
कौन कहाँ कब दे जाएगा,दर्दे दिल दर्दीला?
जान नहीं पाता है कोई,ये विधना की लीला।
गरज-गरज जो बादल नभ में,झूम-झूम छाते हैं।
बिन बरसे ही जाने क्यों वो,दूर चले जाते हैं?
ललित
सार
8
नभ में काले बादल साजन,और इधर तुम काले।
तुम से तो अच्छे हैं गोरे,चार तुम्हारे साले।
काश तुम्हारा रँग भी साजन,मेरे जैसा होता।
सुंदर सेल्फी हम ले लेते ,बादल नभ में रोता।
ललित
सार
7
साजन तेरी इस सजनी का,जियरा धक-धक करता।
मिलन-प्यास अति बढ़ जाती जब,सावन झर-झर झरता।
क्या तेरे सीने में जालिम,दिल का नाम नहीं है?
या मुझको बाहों में भरना ,तेरा काम नहीं है?
ललित
सार
6
साजन तू क्यों समझ न पाए,उस बादल की बातें?
छोड़ देश परदेश बसा है,सूनी करके रातें।
क्या पैसा ही है सब कुछ ओ,पागल साजन मेरे।
कब तू उसको समझेगा जो,प्रीत बसी मन मेरे?
ललित
सार सार
काले-काले बादल नभ में,उमड़-घुमड़ कर छाएँ।
सावन के झूलों में झूलें,सखियाँ सब इठलाएँ।
कोई चुनरी पहन नाचती,ओढ़ दुपट्टा कोई।
अँखियों में साजन की मूरत,लिए हुए सब खोईं।
ललित
सार
1
सावन बादल और झमाझम,बारिश का यह रैला।
भिगो गया गौरी को नीरद,खेले अद्भुत खेला।
शीतल मंद समीर बिखेरे,खुशबू माटी वाली।
मदहोशी छाई गौरी पर,बढ़ी गाल की लाली।
साजन नजर चुराकर देखे,भीगा तन गौरी का।
कैसे चिपक गया है तन से,चुस्त वसन गौरी का।
शरमा कर फिर नजरें नीची,कर सजनी सकुचाई।
भीगे गालों पर सजना ने,अँगुली एक नचाई।
अँगुली से छूकर साजन ने,कैसी अगन लगा दी?
प्रणय-प्यास सजनी के मन में,एकाएक जगा दी।
उलझ गईं मोती-सी बूँदें,गौरी के बालों में।
कुछ बूँदें चम-चम-चम चमकें,गौरी के गालों में।
सिकुड़ी-सिमटी पगली-सी वो,झूम उठी कुछ ऐसे।
आलिंगन में ले साजन ने,चूम लिया हो जैसे।
बदरा भी अब नील-गगन में,दूर कहीं छितराए।
बलखाती सजनी सजना की,बाहों में छिप जाए।
ललित
सार
5
कहने से पहले कुछ सोचें,ऐसे नेता होते।
सच कहता हूँ अच्छे दिन के,बीज आज वो बोते।
बात पकौड़े की बोली है,जिसने आसानी से।
काश सीख लेता तलना वो,खुद अपनी नानी से।
ललित
सार
4
बटन दबाते ही वो मिक्सी,शोर बहुत करती है।
टी वी में आती नौटंकी,बोर बहुत करती है।
पानी की मोटर से मोटी,टंकी भर जाती है।
गंदे कपड़े पत्नी मेरे,आगे धर जाती है।
ललित
सार छंद
टिक-टिक-टिक-टिक करती घड़ियाँ,समय नापती जाती।
अच्छे बुरे पलों की सारी,खबर छापती जाती।
कैसा भी हो समय घड़ी को,फर्क कहाँ है पड़ता।
चलती रहती घड़ियाँ सूरज,गिरता चाहे चढ़ता।
ललित
औ
सार छंद
कविता
कविताओं की भाषा-शैली,सबको ही है भाती।
छंद-बद्ध कविताएँ अद्भुत,ताल-बद्ध हो जाती।
कविताएँ सुनने गाने में,खूब मजा है आता।
काव्य सृजन जो करता वो कवि,आनन्दित हो जाता।
ललित
6.2.18
सार छंद
हर दर्पण में दिखती मुझको,कान्हा सूरत तेरी।
बंद करूँ नैना तो दिखती,प्यारी मूरत तेरी।
दिल में मेरे बैठा कान्हा,जब तू मुस्काता है।
तेरे सिवा नजर जग में कुछ,और नहीं आता है।
ललित
5.2.18
सार छंद
देख तुम्हारे चंचल नैना,धड़कन है बढ़ जाती।
मधुर-मधुर मादकता मेरी,साँसों में चढ़ जाती।
जब रिम-झिम बूँदों से भीगे,वसन गात को चूमें।
मस्त पवन के झोंकों के सँग,नीरद भी तब झूमें।
यौवन के मद में इठलाई,मस्त परी मतवाली।
मस्त-मदन करता है जिसके,यौवन की रखवाली।
धवल चाँदनी शरमा जाए,जब भी तुमको देखे।
बाहों में मेरी आओ ये,नहीं भाग्य के लेखे।
ललित
कर-कर कर-कर कर करे,कर-कर करता राज।
मर-मर मर-मर मर मरे,मर-मर मानव आज।
'ललित'
दोधक
कंटक वार वहाँ करते हैं।
पुष्प विहार जहाँ करते हैं।
फूल खिलें खुशबू बिखराते।
बाग-बहार वहाँ इतराते।
ललित
3.2.18
दोधक छंद
मात-पिता सुत बाँधव दारा।
और सुता सँग जीवन सारा।
केवल बीत गया ममता में।
क्यों न रखा मन को समता में?
बाँध जरा मन को समता में।
डूब नहीं अब तू ममता में।
जीवन है बहती इक धारा।
सागर है वह ईश्वर प्यारा।
प्रेम-सुधा रस जो बरसाता।
मोहन है वह भाग्य-विधाता।
प्रीत उसी सँग तू कर ले रे।
जीवन में रस तू भर ले रे।
नाम यहाँ दिन रात जपे जा।
ये तन है विष-बेल तपे जा।
सार न जीवन में कुछ देखा।
पुण्य किए बदले हर रेखा।
कौन सुता,सुत कौन यहाँ है?
जीवन में कुछ सार कहाँ है?
अंत चले सब छोड़ अकेला।
साथ चले जग का कब मेला?
सोच जरा मन में यह बातें।
जीवन है कुछ ही दिन-रातें।
तोड़ अभी सब बंधन प्यारे।
एक उसी सँग नेह लगा रे।
ललित
2.2.18
दोहा
देखा राजा रंक का,बड़ा अनोखा मेल।
रंकों के कंधों चढ़ा,राजा खेले खेल।
दोधक
काँप रही धरती कुछ ऐसे।
अंतस घायल हो कुछ जैसे।
मानव ने बरबाद किया यूँ।
पूर्ण धरा तल चीर दिया यूँ।
पाट दिए नदियाँ अरु नाले।
खूब किए धरती पर छाले।
मानव के सब काम अनोखे।
हैं पशु भी इनसे सब चोखे।
ताल नदी सब सूख गए हैं।
बादल हो अब मूक गए हैं।
पेड़-पहाड़ न फूल सुहाते।
मानव को वन-बाग न भाते।
ललित
2.2.18
दोधक छंद
जय माँ शारदे
शारद माँ किरपा कर देना।
भाव जरा मन में भर देना।
भाव उठें मन में जितने ही।
सुंदर छंद रचूँ उतने ही।
मंदिर-मंदिर मूरत तेरी।
सुंदर शोभित सूरत तेरी।
मात करूँ नित वंदन तेरा।
भाव रहे अब मंद न मेरा।
ललित
फरवरी 2018
हैं करताल बजावत ग्वाले।
झूम रहे सब हैं व्रज वाले।
बाँसुरिया घनश्याम बजावे।
प्रेम-सुधा-रस वो बरसावे।
ग्वालिन नाच रहीं कुछ ऐसे।
भूल गईं तन की सुध जैसे।
चाँद निहार नहीं थकता है।
मोहन का मुख वो तकता है।
दोधक
2
भक्त-पुकार जरा सुन कान्हा।
दीन-दयाल सुनाम सुजाना।
गोपिन के तुम एक सहारे।
नंद-लला तुम राज दुलारे।
बाँसुरिया अधरों पर सोहे।
जो वृषभानु-सुता मन मोहे।
भूल गई अब वो बरसाना।
भक्त पुकार जरा सुन कान्हा।
रास रचा सब ग्वाल नचाते।
गोपिन के घर माखन खाते।
माखन के घट फोड़ दिए हैं।
गोकुल का घर छोड़ दिए हैं।
भक्तन को मत यूँ तरसाना।
भक्त पुकार जरा सुन कान्हा।
1.2.18
दोधक छंद
प्रार्थना
राम-लला अरजी इतनी है।
ध्यान न दो गलती कितनी है।
मोह-मयी ममता छलती है।
काम-क्षुधा मन में पलती है।
लोभ दिनों दिन खूब बढ़े है।
क्रोध नसों में खूब चढ़े है।
कंचन देह यहीं गलनी है।
राम-लला अरजी इतनी है।
ध्यान न दो...
रैन-दिना बस राम जपूँ मैं।
चाह नहीं अब काम खपूँ मैं।
दूर करो मन का सब मैला।
देख लिया तन का सब खेला।
प्यास नहीं इसकी बुझनी है।
राम-लला अरजी इतनी है।
ध्यान न दो...
पूजन-पाठ-विधान न जानूँ।
शास्त्र -विचार पुरान न जानूँ।
भक्ति-प्रभो मन में भर देना।
पार मुझे भव से कर देना।
पीर हरो मरजी जितनी है।
राम-लला अरजी इतनी है।
ध्यान न दो....
ललित