ंमार्च 18 ई मेल भेजा 31.3.18
31.3.18
दोहा
जीवन में जो भी मिला,मान और अपमान।
अंत समय में सब यहीं,छोड़ चला इंसान।
27.3.18
ताटंक छंद
2
देखी कुछ सुंदर तस्वीतरें,मनहर मंजर भी देखे।
फूलों के तन में चुभते कुछ,तीखे खंजर भी देखे।
साथ समय के इंसानों के,बदले तेवर भी देखे।
बड़े-बड़े सेठों के तन पर,नकली जेवर भी देखे।
ताटंक
रास में आए भोले बाबा
छम-छम-छम बाजे पायलिया,नाच रही राधा गोरी।
बाँसुरिया की मधुर तान पे,ठुमक रही बाँकी छोरी।
भोला-बाबा ओढ़ चुनरिया,नाच रहा है मस्ती में।
शमशानों का वासी वो शिव,झूम रहा है बस्ती में।
ललित
ताटंक
कुछ मन की बात
देखी दुनियादारी हमने,देख लिए दुनिया वाले।
घाव सभी के अपने-अपने,और टीसते हैं छाले।
मिर्च मिलाकर मरहम में सब,बड़े प्यार से हैं लाते।
छालों को सहला-सहला कर,और घाव हैं दे जाते।
ललित
26.3.18
ताटंक छंद
कान्हा इतनी किरपा कर दे,पल भर भी न तुझे भूलूँ।
राधे-कृष्णा नाम स्वरूपी,झूले में मन से झूलूँ।
मन-मन्दिर में दर्शन होवें,नयनों में झाँकी तेरी।
अधरों से वो लगी बाँसुरी,चितवन वो बाँकी तेरी।
ललित
ताटंक मुक्तक
🙏🌹🙏
जो जिव्हा निशि-दिन राम रटे,उस का तो कहना क्या है?
धारण की जो तुलसी माला,उस जैसा गहना क्या है?
राम नाम नित सुमिरन करना,और हमें करना क्या है?
राम सुधा सरिता में बह कर,और कहीं बहना क्या है?
ललित
ताटंक छंद
2
चंचल मन में एक मिनट में,भाव हजारों हैं आते।
पलक झपकते ही जो मन को,मील हजारों ले जाते।
मन की गति को रोक सकें वो,मानव दुर्लभ हैं होते।
स्वप्न हजारों रंगों के इस, मानव मन में हैं सोते।
ललित
23.3.18
एक अदना प्रयास
देवहूति माता ने अपने पुत्र कपिल भगवान से निम्न प्रश्न किए
ताटंक छंद
कपिल-गीता
1
कपिल देव को सद्गुरु माने,वन्दन करती है माता।
प्रश्न पूछने हैं कुछ मुझको,आज्ञा जो दे दो दाता।
पूछो माँ वो प्रश्न आप जो,मन में उठते हैं सारे।
सच्चा सुख किसको कहते हैं,और कहाँ सुख के द्वारे?
2
देवहूति पूछे दुनिया में,सच्चा सुख होता है क्या?
अविनाशी सुख के ये मानव,बीज कहीं बोता है क्या?
ऐसा परमानंद चाहिए,जो अखण्ड अविनाशी हो।
दुख जीवन में कभी न आए,मन सुख का आभासी हो।
3
भोग सुखों का शान्ति दिलाता,सदा मानती थी ऐसा।
दुख का अंत नहीं होता पर,सुख भोगो चाहे जैसा।
सुख से थोड़ी शान्ति मिले फिर,मन चंचल हो जाता है।
हर इन्द्रिय का सुख भोगा पर,शान्ति नहीं
मन पाता है।
4
सदा रहे जो मन में कायम,जिसका नाश नहीं होता।
क्या ऐसा आनन्द प्रभो जी,प्राणाधार कहीं होता?
दुर्बल-रोगी-वृद्ध हुआ तन,नहीं छोड़ता भोगों को।
इन्द्रिय-सुख देता है तन में,नित्य बुलावा रोगों को।
5
बहुत त्रास देती है मन को,भोग और सुख की माया।
नहीं निकलती मन से क्यों ये,काम-वासना की छाया?
प्रभो वासना से मुझको अब,छुटकारा दिलवा दो जी।
दुःख मिटे आनन्द मिले वो,हाला तुम पिलवा दो जी।
ललित
23.3.18
ताटंक छंद
वंशी मधुर बजा कर कान्हा,मधु-रस कानों में घोले।
नैन-सुधा बरसाता मोहन,नैनों से हौले-हौले।
मोरपंख जो सिर पर धारा,दिल उसमें अटका मेरा।
देकर झटका तूने कान्हा,दिल नीचे पटका मेरा।
ललित
22.3.18
मुक्तक (उल्लाला आधारित)
उलझन सुलझाने चला,चंचल मन के साथ मैं।
और उलझ बैठा वहीं,अपने मन के हाथ मैं।
मन तो मन की ही करे,जोड़े हाथ विवेक है।
परिणामों को देखकर,पकड़ूँ अपना माथ मैं।
ललित किशोर 'ललित'
21.3.18
उल्लाला
उलझन सुलझाने चला,चंचल मन के साथ मैं।
और उलझ बैठा वहीं,अपने मन के हाथ मैं।
मन तो मन की ही कहे,जोड़े हाथ विवेक है।
मन की ही रहती सदा, टँगड़ी ऊँची एक है।
ललित
20.3.18
उल्लाला छंद
रंग बदल गिरगिट करे,रक्षा अपनी जान की।
नेता बदले रंग है,बलि देने को आन की।
उल्लाला छंद
केवट प्रसंग
पत्थर से नारी बनी,तव चरणों की धूल से।
नाव काठ की ये प्रभो,छू मत देना भूल से।
चरण पखारूँ आपके ,शुद्धोदक से नाथ मैं।
ले जाऊंगा पार फिर, बड़ी खुशी के साथ मैं।
गंगा पार उतारती,नैया मेरी खास है ।
तारोगे भव से मुझे,इतना तो विश्वास है।
ललित
माँ तेरे इस लाल को, कहीं न मिलती छांव है ।
पीपल बरगद सब कटे ,कंकरीट का गांव है ।
मोबाइल हावी हुआ,कल पुर्जों के देश में। अनपढ़ मोबाइल रखें ,पढ़े लिखो के वेश में।
19.3.18
उल्लाला
करें दिखावा नेह का,नाते रिश्तेदार सब।
वक्त पड़े पहनायगें,काँटों का वो हार सब।
नाव हमारे प्यार की,डूब गई मझधार में।
लहरें ही थी मौज में,खोट न थी पतवार में।
'राज' गुरू के प्यार में,कितनी मधुर मिठास है।
हुशियारों की डाकटर,आज करे आभास है।
शब्दों की जादूगरी,शब्दों का ही खेल है।
शब्द साधना से फले,काव्य सृजन की बेल है।
काव्य सृजन की बेल ये,छंदों को ले साथ में।
फूलों से लद जाय है,लय को लेकर हाथ में।
ललित
भाव उठें मन में जहाँ,और कलम चल जाय है।
सुंदर छंदों में वहीं,काव्य सृजन ढल जाय है।
'काव्य सृजन' की प्रार्थना,माँ शारद से आज है।
'राज' गुरू किरपा करें,जिन पर हमको नाज है।
ललित
18.3.18
उल्लाला
बिटिया खेले आँगना,छोटे-छोटे पाँव हैं।
लेकिन क्या माता-पिता,देते उसको छाँव हैं?
बेटे-बेटी में बड़ा,फर्क करें कुछ लोग हैं।
क्या बेटे के भेष में,कुछ सुखकर संजोग हैं?
समय बड़ा बैरी हुआ,वृद्धावस्था देख के।
अब तक पन्ने बंद थे,विधना के इस लेख के।
सपने कितने देखता,जीवन भर इंसान है।
सारे सपने तोड़ता,समय बड़ा बलवान है।
माया में उलझा रहा,जीवन भर जो शान से।
राम-कथा चाही नहीं,सुननी जिसने कान से।
पचपन का होकर वही,जपता काहे राम है?
क्यों उसको लगने लगा,सच्चा प्रभु का नाम है?
ललित
उल्लाला छंद
नव वर्ष प्रार्थना
सोचो इस नव वर्ष में,क्या करना है काम जी?
काम करोगे कुछ नया,या करना आराम जी?
माँ शारद की साधना,करनी हमको रोज है।
काव्य सृजन परिवार में,करनी हमको मौज है।
माँ शारद से प्रार्थना,आज करो कर जोड़ के।
माँ शारद मत रूठना,मत जाना मुख मोड़ के।
काव्य सृजन का ये पटल,महके नव मकरंद सा।
हर साथी लिखता रहे,नित नव सुंदर छंद सा।
ललित
17.3.18
उल्लाला
इंतजार कब तक करूँ,सजना तेरी ट्रेन का।
प्लेटफार्म की बेंच पर,भुर्ता बनता ब्रेन का।
ललित
14.3.18
चंद्रमणि छंद
1
स्वर्ण चुनरिया ओढ़ के,प्राची निखरी प्यार से।
हर्षित सब सरवर हुए,स्वर्णमयी श्रृंगार से।
15.3.18
1
चंद्र मणि छंद
बचपन छूटा हाथ से,घुसी जवानी देह में।
रूठ जवानी भी गई,भरे सावनी मेह में।
वृद्धावस्था आ घुसी,काले-काले केश में।
अपने बेगाने हुए,अब अपने ही देश में।
ललित
2
बाँसुरिया है हाथ में,छोटे से गोपाल के।
मोर मुकुट सिर सोहता,कृष्ण कन्हैया लाल के।
गैयन के पीछे चले,फुदक-फुदक वनराह में।
बाल सखा सब घेरते,शुभ-दर्शन की चाह में।
3
मात यशोदा का लला,राधा का चितचोर वो।
राधा का दिल ले गया,चोरों का सिरमोर वो।
नंदनवन पावन हुआ,नंद लला के पाँव से।
यमुना-तट शीतल हुआ,वंशी वट की छाँव से।
ललित
4
चंद्रमणि छंद
निश्छल निर्मल प्रेम की,सबको होती चाह है।
प्रेम सदा सबसे करो,ये ही सच्ची राह है।
होड़ा होड़ी मत करो,जीवन की इस राह में।
खुशियाँ छूटी जा रही,और खुशी की चाह में।
ललित
दिल की सारी धड़कनें,लेती जिसका नाम हैं।
मनमोहन घनश्याम वो,कान्हा जी सुखधाम हैं।
राधा-राधा जो जपे,कान्हा उसका दास है।
कान्हा का नाजुक जिया,राधा जी के पास है।
ललित
16.3.18
1
उल्लाला छंद
रहती हमें निहारती,खिड़की से इक नार थी।
सपने में आकर हमें,करती बेहद प्यार थी।
सपना टूटा एक दिन,नींद उड़ी मझधार में।
टूटे दिल को हम लिए,फिरते हैं बाजार में।
ललित
उल्लाला छंद
3
आया हूं कैलाश से,श्याम दर्श की आस में।
मैया तेरे लाल को, ले आ मेरे पास में ।
एक नजर मैं देख लूं,तेरे शिशु के भाल को।
ले लूँ अपनी गोद में,उस नटखट गोपाल को।
बाबा ले लो भेंट तुम,जो चाहो भंडार से। डर जाएगा लाल तो,नागों के इस हार से।
अलख निरंजन जब सुना,साँवरे नंदलाल ने।
शिव दर्शन की कामना,ठानी उस गोपाल ने।
जोर-जोर से फिर लला, करने लगा विलाप जी ।
भोले के दर्शन मुझे,करने दो माँ आप जी।
खूब जताया लाल से, प्यार यशोदा मात ने।
क्यों रोया लल्ला अभी,चौंकाया इस बात ने।
हँसकर बोले शिव तभी, मात हमारी बात सुन।
चुप हो जाएगा लला, हमें देख कर मात सुन।
ले आई मैया तभी,श्याम लला को गोद में। बाबा के दर्शन किए,श्याम हुआ चुप मोद में।
ललित
ललित
16.3.18
4
उल्लाला छंद
ढैंचू ढैंचू जो करे,पूर्ण गधा श्रीमान हो।
दोस्त उसी को लो बना,यदि उसमें कुछ जान हो।
आधा टुकड़ा दो उसे,आधा अपने पास हो।
फिर देखो बिन कुछ किए,जनता अपनी दास हो।
ललित
13.3.18
1
रूपमाला छंद
रास में तेरे कन्हैया,क्या छुपा है राज? दौड़ आती गोपियां सब,छोड़ घर के काज।
बाँसुरी जादू भरी तू ,है बजाता खूब।
चर-अचर सब झूम उठते,आत्म रस में डूब।
नैन तेरे हैं समंदर,नील-वर्णी श्याम।
गोप-गोपी राधिका सब,डूबते निष्काम।चाँद-तारे व्रज-धरा औ',वायु जल आकाश।
कृष्ण-राधा मय हुए सब,तोड़ सारे पाश।
रूपमाला छंद
राधा विरह
राधिका हर पल निहारे राह तेरी श्याम।
भोर से तक हो न जाए,आज फिर से शाम।
चूड़ियां खनकें नहीं अब, पायलें भी मौन। राधिका के आँसुओं को,देख सकता कौन?
श्याम तेरे दर्शनों की,आस में दिन-रैन।
तू हृदय में है बसा पर,रो रहे हैं नैन।
सावनी शीतल फुहारें,भर रही हैं आग।
नींद नयनों से उड़ी हर,रैन बीते जाग।
नैन तुझ से क्यों लड़ाए,सोचती है आज?
तोड़ कर दिल को कन्हैया,क्यों न आई लाज?
प्रीत जोड़ी राधिका सँग,बाँसुरी ले हाथ।
आज वंशी और राधा,क्यों बिसारे नाथ?
माँ यशोदा गोप-गोपी,और ये व्रज-धाम।
सब पुकारें श्याम सुंदर,आज तेरा नाम।
तू जहाँ भी जा बसे बरसे,खुशी हर ओर।
आ न पाए श्याम तेरे,पास दुख का छोर।
ललित
12.3.18
1
रूपमाला छंद
फूल इक सुंदर खिला था,कंटकों के बीच।
खूँ-पसीने से रहा था,बागबाँ भी सींच।
क्यों मिली फिर बागबाँ को,एक गहरी चोट?
बागबाँ के खूँ-पसीने,में कहाँ थी खोट?
ललित
2
रूपमाला छंद
जिंदगी अनमोल कितनी,जान ले इंसान।
कब न जाने मौत आकर,छीन ले ये जान।
मौत जब चुपचाप आती,और करती घात।
तब कहीं इंसान को ये,समझ आती बात।
ललित
3
रूपमाला छंद
देश की तकदीर जिनके,हाथ में है आज।
राज-नेता दल-बदल वो,भर रहे परवाज।
मूक जनता भ्रष्ट नेता,को करे स्वीकार।
फिर कहाँ होगा भला इस,देश का उद्धार।
ललित
11.3.18
रूपमाला छंद
देवता ऋषि और मानव,और सारे संत।
दोस्त-दुश्मन मात-शारद,और सब सामंत।
दें मुझे आशीष ऐसा,हों सृजित यूँ छंद।
भाव पूरित ताल-लय में,हो सजा हर बंध
ललित
रूपमाला छंद
प्रेम की ले लो परीक्षा,ओ हसीं दिलदार।
या करो तुम मीत मेरे,प्यार को स्वीकार।
है तुम्हीं से प्यार मुझको,मान लो ये बात।
थाम लो कर आ गई है,ये सुहानी रात।
ललित
अभी अभी मन में आया
मुक्तक
✈✈✈✈✈✈
कितना भी समझालो मन को,
समझ नहीं ये पाता है।
मायावी दुनिया में निश-दिन,
और उलझता जाता है।
उस राधा का नाम न जपता,
जिसका मोहन दीवाना।
अपनी ही दारा में खोया,
राधा को बिसराता है।
ललित किशोर 'ललित'
📣📣📣📣📣📣
त्रिभंगी छंद
ओ धेनु चरैया,रास-रचैया,नाग-नथैया,
श्याम-लला।
गोवर्धन-धारी,कृष्ण-मुरारी,डोर हमारी।
थाम लला।
वन-उपवन सारे,यमुना धारे,तुझे पुकारें,आ जा रे।
बाँसुरिया वारे,गोप सखा रे,माखन- मिश्री ,खा जा रे।
ललित
त्रिभंगी छंद
नेता ही तारें,कष्ट निवारें,पार उतारें,भक्तन को।
नेता ही देवा,उनकी सेवा,देवे मेवा,हर जन को।
भगवान बिसारो,नित्य पुकारो,पाँव पखारो,नेता के।
अब सुनो भारती,करो आरती,पूर्ण स्वारथी,क्रेता के।
ललित
रूपमाला छंद 7.3.18 से प्रारम्भ
7.3.18
रूप माला छंद
प्रार्थना ये शारदा माँ,है हमारी आज।
साधना-पथ में हमारी,आप रखना लाज।
भाव जो मन में उठें वो,लिख सकें हम नित्य।
चहुँ दिशा महके हमारा,छंद मय साहित्य।
ललित
रूप माला छंद
छोटका प्यारा कन्हैया,बाँसुरी ले हाथ।
नाचता है ठुमक-ठुम्मक,राधिका के साथ।
ताल देती है यशोदा,झूमते हैं ग्वाल।
नंद बाबा श्याम के बस,चूमते हैं गाल।
'ललित'
रूपमाला छंद
क्या कुछ विचारणीय बन पाया
कामनाएँ सिर उठाती,नित नई अविराम।
हो न पाता मन हमारा,क्यों कभी निष्काम?
कामनाओं के समन्दर,में रहा मन डूब।
चाहतों ने नित निचोड़ा,मानवी मन खूब।
ललित
रूपमाला छंद
इक परी चंचल सलोनी,चाँदनी सा रूप।
खिलखिलाई आँगना में,भोर की ज्यों धूप।
नाचती है ठुमक-ठुम्मक,खूब सुबहा शाम।
शौक है कहना कहानी,और 'आद्या' नाम।
ललित
रूपमाला छंद
वो मिलन किस काम का जब,हो न दिल में प्रीत?
प्रीत भी क्या प्रीत जिसमें,सिर्फ हो बस जीत ?
धड़कनों में जो बसा हो,बन हृदय का नाथ।
चल पड़ो तुम साथ उसके,हाथ में ले हाथ।
ललित
रूपमाला छंद
चंचला नाजुक कली वो,हुस्न से भरपूर।
नयन चमकें ज्यों सितारे,चाँदनी सा नूर।
पास से जब रूप देखा,रह गया हैरान।
किस बला का रूप इसमें,भर दिया भगवान।
ललित
रूपमाला छंद
रूपसी अनुपम अनोखी,एक देखी आज।
चाँद सा मुखड़ा सलोना,ओट घूँघट लाज।
घाघरा लहँगा बढाता,राजपूती आन।
फैशनेबल युवतियों की,घट रही थी शान।
ललित
रूपमाला छंद
चाँद कुछ रूठा हुआ है,चाँदनी से आज।
बादलों का होगया है,आसमाँ में राज।
चाँदनी गुम हो गयी है,बादलों के पार।
चाँद गुमसुम सा बहाए,आँसुओं की धार।
ललित
रूपमाला छंद
दिल जलाने की अदा क्या,आप में महबूब?
बेवफाई की कला भी,आप में है खूब।
हर कदम करते रहे हम,आप पर विश्वास।
तुम उड़ाते ही रहे इस,प्यार का उपहास।
ललित
रूपमाला छंद
स्वप्न
क्या हुआ जो आज अपने,हो गए हैं दूर?
क्या हुआ जो हो गया है,तू बड़ा मजबूर?
स्वप्न की दुनिया कभी क्या,हो सकी आबाद ?
भूल जा तू स्वप्न सारे,घूम फिर आजाद।
ललित
11.3.18
पहली रचना
रूपमाला छंद
सांवरे इस ओर मुड़कर,देख ले इक बार।
डोलती है नाव मेरी,थाम ले पतवार।
नाव माया के भंवर में, फँस न जाए श्याम।
डूबते को तार देता,एक तेरा नाम।
ललित
रूपमाला छंद
भावपूरित सारगर्भित,हो सृजन हे मात!
काव्य की सुंदर लता का,हो हरित हर पात।
शब्द झंकृत कर रहे हों,हर हृदय के तार।
दें अलंकृत शब्द मेरे,काव्य को विस्तार।
ललित
11.3.18
मुक्तक
फतवा मौत का
मरहम तो दे नहीं सके नश्तर चुभा दिया।
संवेदना की लाश का तकिया बना दिया।
था जो मसीहा अब वही जल्लाद सा दिखे।
इंसानियत को मौत का फतवा सुना दिया।
ललित किशोर 'ललित'
रूपमाला छंद
आज ऐनक हाँफती सी,काँपती सी खूब।
पाल कर रंगीन चश्मा ,खुद रही है डूब।
और अब गोगल दिवाने,का हुआ है राज।
कद्र ऐनक की नहीं है,इस चमन में आज।
ललित