जून 2018 --हरिपद छंद,रूपमाला छंद,पंच चामर छंद,विष्णुपद छंद,तोटक छंद
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हरिपद
झूम-झूम कर नाचें सखियाँ,देख घटा घनघोर।
सुंदर-सुंदर मोर मचलते,देख गगन की ओर।
मदमाती लहरें नदिया की,तोड़ रही हैं बंध।
आती है माटी से महकी,सौंधी-सौंधी गंध।
ललित
हरिपद
बेटी की शादी करने की,चिन्ता में है तात।
पर दहेज का दानव कब है,बनने देता बात?
खून-पसीना बहा कमाया,जीवन भर धन खूब।
दे दहेज फिर भी जाएगा,कर्जे में वो डूब।
ललित
हरिपद /सरसी छंद
याद आ रहे हैं मुरली के,मधुर-मधुर वो राग।
बरखा की बूँदे भी तन में,लगा रही हैं आग।
डरा रही वृषभानुसुता को,बिजली की चमकार।
कहे राधिका वापस आजा,कान्हा तू इक बार।
ललित
हरिपद /सरसी छंद
घन-घन-घन-घन गरज-गरज कर,बरसें बदरा आज।
टप-टप-टप-टप करती बूँदें,छेड़ रही हैं साज।
लहर-लहर लहराए नदिया,झरने करते शोर।
मंद-मंद मुस्काए सजनी,नाचे मन का मोर।
ललित
हरिपद /सरसी छंद
स्वप्न सुंदरी से भी सुंदर,भीगी-भीगी रात।
टप-टप टप-टप करती बूँदें,भिगो रही हैं गात।
वसन भीग चिपके हैं तन से,सजनी सिमटी जाय।
साजन के अधरों से हर -पल,निकल रही है हाय।
ललित
हरिपद /सरसी छंद
प्याज और रोटी मिल जाए,बच्चों को भरपूर।
इतनी सी आशा रखता है,वो बूढ़ा मजदूर।
पत्नी भी बीमार पड़ी है,महँगा बड़ा इलाज।
भरी-आँख से उसे दिलासा,दे आया था आज।
ललित
हरिपद /सरसी छंद
रिमझिम-रिमझिम बरसें बदरा,बुझी धरा की प्यास।
सजनी के मन में भी जागी,मधुर-मिलन की आस।
शर्माई सकुचाई अँखियाँ ,छुपा रहीहैं चाव।
महक रहा है चंदन सा तन,पाने को ठहराव।
ललित
26.6.18
हरिपद /सरसी छंद
अपनी अपनी नैया से है,सबको इतना प्यार।
जूझ रहे हैं लहरों से सब,ले अपनी पतवार।
चिन्ता कौन करे दूजे की,कौन भरे अब घाव?
सोच रहे हैं सब ही अपनी,पार उतारें नाव।
ललित
25.6.18
हरिपद /सरसी छंद
मात-पिता की सेवा कर लो, काम-काज सब भूल।
कंटकीय जीवन-राहों में,बिछ जाएँगें फूल।
अपनों बच्चों से यदि चाहो,पाना निश्छल प्यार।
मात-पिता की इज्जत करते,रहो सदा तुम यार।
ललित
हरिपद /सरसी छंद
कारे-कारे कान्हा तूने,खूब निभाया साथ।
भूल बिरज मथुरा जा बैठा,छोड़ राधिका हाथ।
साफ अगर जो दिल हो तेरा,आ जाना इक बार।
खरे प्यार का राधा से तू,कर जाना इकरार।
ललित
हरिपद /सरसी छंद
योगी आया द्वारे मैया,अजब अमंगल भेष।
उसने अंग भभूत रमाई ,जटा-जूट हैं केश।
तन पर लिपटेसर्प विषैले,डमरू संग त्रिशूल।
नर मुंडों की माल गले में,कैलाशी है मूल।
पूछ रहा है हमसे मैया,कान्हा के वो हाल।
कहता है इक बार दिखा दो,कृष्ण कन्हैया लाल।
भांग-धतूरे के मद में हैं,नैन नशे में चूर।
अपने लल्ला को रखना तुम,मैया उससे दूर।
ललित
हरिपद /सरसी छंद
रुपया-पैसा खूब कमाया ,महल झरोखे दार।
ठाठ-बाट से कटी जिन्दगी,संग बहुत से यार।
अंत समय कुछ काम न आये,जो भी थे गठ-जोड़।
हीरे-मोती पत्नी-रोती,गया यहीं सब छोड़।
ललित
हरिपद /सरसी छंद
बेटा गुम-सुम पत्नी रोती,बिलख रहे हैं यार।
हाय अचानक चला गया वो,छोड़ सभी घर-बार।
साथ ले गया लेकिन अपने,पुण्यों की जागीर।
दान-पुण्य से बदली अपनी,आत्मा की तकदीर।
ललित
हरिपद /सरसी छंद
स्वप्न सुनहरे लेकर आई,है ये सुंदर भोर।
कोयल कूक रही बागों में,नाच रहे हैं मोर।
तारों की छाया में मुनि-गण,करते हैं सब योग।
तम जाता है प्रकाश आता,अद्भुत ये संजोग।
ललित
हरिपद /सरसी छंद
आजादी के स्वप्न सुनहरे,रंग खो रहे आज।
नेताओं से बढ़कर कोई,आज नहीं है खाज।
आओ बसाएँ मिलकर सारे,इक ऐसा संसार।
जहाँ नहीं नेता हो कोई ,आपस में हो प्यार।
ललित
रूपमाला छंद
दूसरों को सात साढ़े,शनि बताते क्रूर।
और फिर उपचार करके,जो हुए मशहूर।
आज वो ही सात साढ़े,के हुए क्यों दास?
और क्यों शनिदेव उनके,अब नहीं हैं खास?
'ललित'
24.6.18
रूपमाला छंद
सामने गहरा भँवर है,मैं फँसा मझधार।
पार कर दो नाव मेरी, थाम लो पतवार।
हे प्रभो कर दो कृपा मुझ,दीन पर भी नाथ।
शीश पर मेरे प्रभो रख आपका दो हाथ।
ललित
रूपमाला छंद
मोरपंखी मुकुटधारी,साँवरे घनश्याम।
बाँसुरी तेरी उचारे,राधिका का नाम।
श्याम सुंदर मदनमोहन,दे मुझे आशीष।
नाम राधा का जपूँ मैं,अनवरत जगदीश।
ललित
रूपमाला छंद
शांति मिलती है कन्हैया,ले तुम्हारा नाम।
तारना हर भक्त की नैया तुम्हारा काम।
श्याम सुंदर नाम भी तो,है सुखों की खान।
नाम में ही दे सुनाई, बाँसुरी की तान।
ललित
24.6.18
रूपमाला छंद
ज्ञान का अमृत पिला दो,शारदे हे मात!
लेखनी नित ही करे नव-छंद की बरसात।
भाव सुंदर शब्द निर्मल,माधुरी लय-ताल।
लिख सके कुछ भजन रसमय,आपका ये लाल।
ललित
23.6.18
2122 2122,2122 21
रूपमाला छंद
रंग गिरगिट से बदलते,राजनेता खूब।
देश की नैया न जाए,हाथ इनके डूब।
सब समझ जनता रही है,रंग इनके आज।
एक दिन के वोट से वो,बदल देगी राज।
'ललित'
18.6.18
रूपमाला छंद
जिंदगी के कारवाँ की , ढल गई यों शाम।
प्यार की परछाइयाँ भी, भूल बैठी नाम।
प्रीत की पुरवाइयों से,है नहीं कुछ आस।
फिर नई इक भोर होगी, है यही विश्वास।
ललित
रूपमाला छंद
छेड़ता है गोपियों को,राह में घनश्याम।
राधिका की बाँह पकड़े,पूछता है नाम।
आँख सबकी वो बचा कर,हाथ लेता चूम।
ताल दे-दे गोप-बालक,सब रहे हैं झूम।
ललित
रूपमाला छंद
आजमाना चाहते क्यों,राधिका को श्याम?
भक्त की लेना परीक्षा,है तुम्हारा काम।
राधिका रोती तड़पती,घूमती दिन-रैन।
नैन आँसू के समन्दर,दिल न पाए चैन।
पंचचामर छंद
सैल्फिश भक्त
कृपानिधान एक बार हाथ थाम लीजिए।
दयालु श्याम आप एक बार दर्श दीजिए।
कि एक बार प्यार की निगाह डाल दो जरा।
कि भक्त साथ चार सेल्फियाँ निकाल दो जरा।
ललित
पंच चामर छंद
प्रभात मंगलीय मंजिलें प्रकाशवान हों।
न कंटकीर्ण राह से डरें वही महान हों।
कि जिंदगी बने वही सुगंध से भरी हुई।
बही चले प्रवाह में उमंग से भरी हुई।
ललित
पंच चामर छंद
सपूत
न मात को गुणी गिने न बात तात की सुने।
सपूत बात-बात का सबूत आप ही चुने।
न चाहिए समाज और गाँव की दुआ उसे।
पढ़ा-लिखा बना नवाब गर्व ने छुआ उसे।
ललित
पंच चामर छंद
स्वदेश
न घूमता विदेश तो स्वदेश तू सँभालता।
स्वदेश घूम देश के विकास को खँगालता।
रमा रहा सदैव तू चुनाव के प्रचार में।
विशाल रैलियाँ जुलूस भाषणी विचार में।
ललित
पंच चामर छंद
जवान शूरवीर हिंद देश के उठो जरा।
दिखा कमाल शत्रु को जवाब दो खरा-खरा।
बुरी निगाह शत्रु की दिखे तुम्हें जहाँ-जहाँ।
तुरंत फोड़ आँख दो जलील की वहाँ-वहाँ।
ललित
पंच चामर छंद
अनेक जातियाँ यहाँ विशाल देश भारती।
सुकर्म ध्यान से करो धरा यही पुकारती।
न जातिवाद हो कहीं समाज का विकास हो।
न द्वेषभाव ही रहे अस्वच्छता न पास हो।
ललित
पंच चामर छंद
अभिनव श्रृंगार
सुगंध वो बिखेरती चली गई करीब से।
कि जींस थी फटी हुई सिली नहीं गरीब से।
कटे हुए हसीन केश भाल को ढ़के हुए।
न चूड़ियाँ न कंगना कपोल लालियाँ लिए।
ललित
पंच चामर छंद
न जिन्दगी मिली उसे न मृत्यु को बुला सका।
न दीप प्रेम के जले न प्रीत को भुला सका।
न पुष्प प्यार का खिला अजीब हाल हो गया।
निगाह से निगाह यों मिली हलाल हो गया।
ललित
पंच चामर छंद
12 12 12 12 12 12 12 12
समीक्षा हेतु
जपा न कृष्ण-राधिका न राम नाम ही लिया।
किया न ध्यान-योग ही न दान-यज्ञ ही किया।
असत्य में रमा रहा न ध्यान सत्य में रखा।
करो सहाय श्याम आप सत्य राह दो दिखा।
ललित
क्रमशः
पंच चामर छंद
12 12 12 12 12 12 12 12
कुछ यूँ ही
बहार ही बहार में करार खोजते रहे।
करार पा सके न हाय प्यार खोजते रहे।
न दीप प्रीत का जला न प्रेम का सिला मिला।
न जीत प्यार की हुई न पुष्प प्रीत का खिला।
ललित
पंच चामर छंद
12 12 12 12 12 12 12 12
सुदाम देव
न दक्षिणा न भेंट की न चाह दान की उसे।
न राज्य भूमि की तृषा न चाह मान की उसे।
सुदाम देव नाम द्वारिकाधिराज मित्र वो।
कि दर्श मात्र चाहता दिखे बड़ा विचित्र वो।
ललित
पंच चामर छंद
प्यार का गुलाब
हसीन साथ आपका कभी नहीं मिला हमें।
कि बेपनाह प्यार का मिला यही
सिला हमें।
कि प्रेम की किताब आपने पढ़ी कभी नहीं।
न प्यार का गुलाब आप सूँघ ही सके कहीं।
ललित
पंच चामर छंद
स्वदेश की दशा
पढ़ा लिखा स्वदेश में चला गया विदेश वो।
रहा न भारतीय पूत धार आँग्ल वेश वो।
न मात का न तात का चुका सका उधार ही।
स्वदेश गाँव की दशा न वो सका सुधार ही।
ललित
पंच चामर छंद
कली
बहार पे निखार और फूल बेकरार है।
कली-कली डरी हुई हवा करे प्रहार है।
प्रकाश ही छले उसे न हो सके विकास है।
लहूलुहान हो रही कली बची न आस है।
ललित
पंच चामर छंद
'राज' गुरू
गुरू कृपा करें तभी विकास शिष्य है करे।
प्रसन्न हों गुरू तभी प्रकाश ज्ञान का भरे।
विनम्रता लिए चलो विचार शुद्ध हों सभी।
कि 'राज' नाम के गुरू न क्रुद्ध हो सकें कभी।
ललित
पंच चामर छंद
सुगंध
गुलाब से हसीन गाल भोर के दिखें जहाँ।
बजाय श्याम बाँसुरी सुगंध से भरी वहाँ।
बहार भी झुके वहाँ हजार गोपियाँ नचा।
कि श्याम साँवरा जहाँ धमाल है रहा मचा।
ललित
पंच चामर छंद
फुहार सावनी गिरे बहार झूमती जहाँ।
सुहाग संग हो विहार पायलें बजें वहाँ।
कि अर्द्ध-रात्रि वेणियाँ गुलाब-मोगरा सजें।
सुहाग की प्रतीक चूड़ियाँ शनैः शनैः बजें।
ललित
विष्णु पद छंद
कान्हा मानस पूजा
कान्हा मेरे मनमन्दिर में, तेरी मूरत हो।
पलकें बन्द करूँ तो दिखती,तेरी सूरत हो।
नयन बन्द करके ही मोहन,पूजा मैं कर लूँ।
तेरे श्री चरणों का कान्हा,ध्यान जरा धर लूँ।
गंगाजल से स्नान करा दूँ ,साँवरिया तुझको।
पीताम्बर धारण करवा दूँ,श्याम पिया तुझको।
केसर-चंदन घिस कर कान्हा,तिलक माथ कर दूँ।
पुष्प हार पहना कर मुरली,हाथों में धर दूँ।
ललित
विष्णुपद छंद
मनमोहन
मोरमुकुट धारी कान्हा तू , क्यों रूठा मुझसे?
धनदौलत सोना-चाँदी की,नहीं चाह तुझसे।
चाह यही बस है मुरलीधर ,अंत समय जब हो।
मनमोहन तेरी सूरत ही , अँखियों में तब हो।
ललित
4.6.18
विष्णुपद छंद
पर्यावरण दिवस पर भाषण,नेता का सुन लो।
कंकरीट के जंगल में फिर,वास एक चुन लो।
वन-उपवन सावन मनभावन,से मुख मोड़ चलो।
तरण-ताल में रोज तैर लो,नदिया छोड़ चलो।
ललित
6.6.18
विष्णुपद छंद
चिड़िया घर
अपनी पोती को चिड़ियाघर,लेकर आज गया।
जहाँ दिखा उसको जीवन का,इक अंदाज नया।
कोयल प्यारी कूक रही थी,मधुर-मधुर स्वर में।
बन्दर राजा उछल रहे थे, इक सुंदर घर में।
शेर चहलकदमी करता था,भालू झूम रहा।
कदमताल करता वनमानुष,इत-उत घूम रहा।
पूछ रही थी पोती मेरी,कंपित-से स्वर थे।
दादू क्या इनके भी कोई,कभी कहीं घर थे?
सुन बेटी ये शेर कभी था,राजा जिस वन का।
काट दिया लोभी मानव ने,हर तरु उस वन का।
नदियाँ पोखर सूख गए हैं,सूखे सब झरने।
जंगल के पशु आज लगे हैं,प्यासों से मरने।
ललित
विष्णुपद छंद
विरही साजन
गर तुम होती साथ हमारे,फाके क्यूँ करते?
गरम रोटियाँ तो मिल जाती,भूखे क्यूँ मरते?
होटल की रोटी खाकर ये,पेट कहाँ भरता?
याद तुम्हारी में दिल निशि-दिन,आह यहाँ भरता।
ललित
विष्णु पद छंद
चंचल मन माया में फँसता, राम नहीं भजता।
संतों की वाणी सुनकर भी,काम नहीं तजता।
धूप-छाँव से जीवन की कुछ,सार ग्रहण कर ले।
निशि-दिन राम नाम जपकर तू,भव-सागर तर ले।
ललित
तोटक छंद
भज राम सियापति तू सुख से।
जप श्याम सदा नर तू मुख से।
मनवा जपले जय राम हरे।
नर तू रट ले घनश्याम हरे।
छिछले जल में जब नाव तरे।
तब तू न कहे हनुमान हरे।
गहरा भवसागर देख डरे।
तब नैनन में दुख-नीर भरे।
ललित
तोटक छंद
राकेश जी की व्यस्तता कविता में ऐसे उतरी...
भर दोपहरी बजरी छनती।
सरिया जलता छतरी बनती।
करणी चलती बहकी-बहकी।
बगिया लगती महकी-महकी।
ललित
तोटक छंद
नदियों पर बाँध बना हँसता।
यह मानव आप वहाँ फँसता।
जलधार बिना अब है रहती।
कल थी सरिता सुख से बहती।
कल की कब सोच रहा नर ये?
सरि का जल सोख रहा नर ये।
अब ताप बता जलवायु रही।
शठ मानव तू अब सोच सही।
ललित
तोटक छंद
नदिया इठला बहती कब है?
नर ने जल बाँध दिया अब है।
गल घोंट दिया नद का नर ने।
अब घूम रहा घट को भरने।
ललित