दिसम्बर 2019 की रचनाएँ
शायद...।
सदियों पुरानी है ये कहावत
'देर है अंधेर नहीं'
मगर शायद न्याय-पालिका से
कभी किसी ने नहीं पूछा
इस देर की कोई सीमा है या नहीं?
सीमा नहीं है तो क्यों नहीं है?
और यदि सीमा है तो कितनी है?
कितनी है सीमा उस देर की?
वह सीमाहीन देर क्या
त्वरित अंधेर को जन्म नहीं देगी?
9.12.19
मुक्तक
मौत की मुस्कान
दर्द-दुख-गम से भरा संसार नर पाता यहां।
मौत सम्मुख देख लेकिन,कौन मुस्काता
यहाँ?
लाख दुख भोगे भले पर चाहता जाना नहीं।
मुस्कुराते-मुस्कुराते कौन है जाता वहाँ?
ललित
5.12.19
गीतिका छंद
मुस्कान ममतामयी
गर्भ में नौ माह रख निज,रक्त से सींचा जिसे।
प्रसव-पीड़ा झेल माँ संसार में लाई उसे।
देख उसकी इक झलक माँ भूल अपना दुख गई।
प्यार-ममता से भरी मुस्कान चमका मुख गई।
ललित
05.12.19
गीतिका छंद
फूल की मुस्कान
फूल ऐसे मुस्कुराएँ,भोर से संध्या तलक।
सूँघते सौरभ सभी हैं,बंद कर अपनी पलक।
खुशबुओं का है खजाना,पुष्प की मुस्कान में।
हर खुशी का आशियाना,पुष्प की मुस्कान में।
ललित
05.12.19
गीतिका छंद
बिन बात मुस्कुराना
मुस्कुराहट का दिवाना,यार हर कोई जहाँ।
मुस्कुराकर बेच देते,माल घटिया भी वहाँ।
मुस्कुराने की अदा उन,सेल्स गर्लों में दिखे।
बात बिन जो मुस्कुरातीं,माल चुटकी में बिके।
ललित
शक्ति छंद
बहे दर्द के अश्रु इतने कहीं।
बचा आँख में एक आँसू नहीं।
ग़मो से भरा दिल सिसकता रहा।
नहीं दर्द अपना किसी से कहा।
जली मोमबत्ती कहे ये कथा।
सुनेगा यहाँ कौन दिल की व्यथा?
वही देश है ये वही राज है।
जहाँ द्रोपदी थी वहीं आज है।
ललित
शक्ति छंद
मटकती हुई चाँदनी आ गई।
धवल-कांति-काया ज़मीं पा गई।
मिली चाँदनी से धरा यूँ गले।
कि जैसे सखी इक सखी से मिले।
मुलाकात वो रात ही भर चली।
हुई भोर फिर चाँदनी घर चली।
धरा ओढ़ स्वर्णिम चुनरिया हँसी।
हँसा चाँद अब चाँदनी थी फँसी।
ललित
10.12.19
शक्ति छंद
हवा प्यार की बाग में यूँ चले।
भ्रमर मिल रहे हर कली से गले।
नहीं प्यार ये वासना है खरी।
कली रो पड़ी लाज से वो मरी।
ललित
10.12.19
शक्ति छंद
चटकने लगी हर कली धूप में।
नई ताज़गी भर गई रूप में।
महकने लगे पुष्प जब बाग में।
भ्रमर खो गए प्यार के राग में।
हवा प्यार की बाग में यूँ चले।
भ्रमर मिल रहे हर कली से गले।
पिया ओ भ्रमर अब न जाना कहीं।
किसी और से दिल लगाना नहीं।
भ्रमर हर कली को लगा चूमने।
दिवाना हुआ वो लगा झूमने।
नहीं प्यार ये वासना है खरी।
कली रो पड़ी लाज से वो मरी।
ललित
11.12.19
शक्ति छंद
गुलों से महकती हुई क्यारियाँ।
खुशी बाँटती शोख फुलवारियाँ।
मिली बाग में चार सखियाँ जहाँ।
हँसी की खिली फूलझड़ियाँ वहाँ।
ललित
शक्ति छंद
बपावर गाँव-ननिहाल
'बपावर' यही नाम था गाँव का।
कि ननिहाल रूपी घनी छाँव का।
रहा शाँत वातावरण जो वहाँ।
दिखेगा शहर में भला वो कहाँ?
न फैशन न ईर्ष्या भरी होड़ थी।
हवा में घुली प्रीत बेजोड़ थी।
दिलों में बड़ा प्यार देखा वहाँ।
निगाहों में सत्कार देखा वहाँ।
नदी नाम 'परवन' वहाँ बह रही।
कि नानी हमारी जहाँ रह रही।
नहाए बड़े शौक से तैर कर।
पड़ी डाँट लौटे बहुत देर कर।
अभी तक हमें याद है वो घड़ी।
खड़ी द्वार नानी लिए थी छड़ी।
बने दोस्त ऐसे निराले वहाँ।
मिले शुद्ध घी के निवाले वहाँ।
खुशी गाँव के मन्दिरों में मिली।
भजन-भाव-गंगा दिलों में मिली।
न नानी रही अब न ननिहाल है।
'बपावर' मगर गाँव खुशहाल है।
'ललित'
11.12.19
शक्ति छंद
न व्रजधाम सा गाँव देखा कहीं।
कन्हैया नचैया पला था यहीं।
यहीं बाँसुरी थी सुरीली बजी।
यहीं वाटिका थी गुलों से सजी।
हजारों भ्रमर घूमते थे यहाँ।
सभी रास में झूमते थे यहाँ।
यहीं राधिका कृष्ण मिलते रहे।
सुमन प्यार के सुर्ख खिलते रहे।
ललित
14.12.19
शक्ति छंद
सुता
सुता जन्म ले तो मनाओ खुशी।
सुता को पढ़ाकर भुनाओ खुशी।
सलोनी सुघड़ बेटियाँ हों जहाँ।
सुखों के समन्दर सदा हों वहाँ।
धरा भारती की सिखाती यही।
सुतों से नहीं बेटियाँ कम रही।
नहीं भार बेटी बने बाप पर।
मिलाए कदम वक्त की थाप पर।
मिला मार्गदर्शन सदा गर सही।
सुता आसमाँ को झुकाकर रही।
सुता पर खुशी हर निछावर करो।
सदा गर्व अपनी सुता पर करो।
ललित
शक्ति छंद
न देखा कहीं कृष्ण जैसा सखा।
सदा भक्त का ध्यान जिसने रखा।
पुकारा जिसे चोर संसार ने।
रिझाया उसे भक्त के प्यार ने।
कभी रास करता रहा रात-भर।
कभी रूठ बैठा ज़रा बात पर।
कभी राधिका का दिवाना बना।
कभी गोपियों का निशाना बना।
कभी इंद्र को जा चखाया मजा।
कभी पापियों को स्वयं दो सजा।
कभी सत्य का वो बना सारथी।
कभी कृष्ण-गीता सुना सार दी।
चढ़ाएँ कली-फूल या पत्तियाँ।
पढे प्यार से भक्त की चिट्ठियाँ।
जपे कृष्ण का नाम जो प्यार से।
उसे तारते मृत्यु-संसार से।
ललित
मुक्तक
जिंदगी के बाग में हरदम खिलें बस फूल ही।
मत करो ये आस मत इस बात को दो तूल ही।
फूल की आभा क्षणिक बस साँझ तक ही साथ दे।
शूल कोई जब चुभे उसको निकाले शूल ही।
ललित
पीयूष वर्ष छंद
2122 2122 212
पुष्प काँटों से घिरा रहता जहाँ।
फूल से खुशियाँ मिलें सबको वहाँ।
कंटकों बिन फूल की शोभा नहीं।
दुःख में ही सुख छिपा रहता कहीं।
ललित
पीयूष वर्ष छंद
ठंड का मौसम सुहाना आ गया।
गर्म पानी से नहाना भा गया।
धूप में मालिश करें सारा बदन।
झूमने लगता वदन में वो मदन।
ललित
16.12.19
पीयूष वर्ष छंद
सोच सोचो सोचकर सोचो जरा।
स्वर्ण सा अब कौन कितना है खरा?
आदमी से आदमी है लड़ रहा।
धर्म कोने में पडा़ है सड़ रहा।
ललित
17.12.19
पीयूष वर्ष छंद
ओ कन्हैया! श्याम सुंदर साँवरे।
आ कभी तो देख मेरा गाँव रे।
फिर बजा वंशी मधुर इस ग्राम में।
ज्यों बजाता तू रहा व्रज-धाम में।
बाँसुरी तेरी निराली सोहनी।
तान उसकी है मधुर मनमोहनी।
श्याम तेरी वो मुरलिया जब बजे।
सात सुर से आत्म का मंदिर सजे।
गोप-गोपी झूमते जिस गान पर।
नाचती थी राधिका जिस तान पर।
फिर बजा उस तान में मुरली जरा।
मुस्कुरा दे फिर जरा मुरलीधरा।
मुस्कुराहट से भरी जादूगरी।
नैन मटका कर करे जो मसखरी।
वो अदा हमको दिखा इक बार तो।
आत्म-रस हमको चखा इक बार तो।
ललित
पीयूष वर्ष छंद 2122 2122 212
शीत जैसी शीत हो तो ठीक है।
शीत ने क्यूँ आज छोड़ी लीक है?
टोपियाँ मफलर बिगाड़ें रूप को।
हम खड़े छत पर तरसते धूप को।
ओढ़ भाया ओढ़ ले दादी कहे।
पैर-नंगे घूमते बालक रहे।
नाक बहती है बड़ी रफ्तार से।
विक्स डॉक्टर सब लगें बेकार से।
ललित
पीयूष वर्ष छंद
चाँदनी के दर्प से उकता गए।
वो सितारे सब धरा पर आ गए।
आसमाँ सूना हुआ रौनक गई।
चाँदनी आँसू बहाकर थक गई।
चाँद भी गुम-सुम हुआ बौरा गया।
चाँदनी को पड़ हृदय-दौरा गया।
सब सितारे मौन हो पछता रहे।
लौटकर सब आसमाँ में आ रहे।
ललित
पीयूष वर्ष छंद
पूर्व में लाली मचलती जोर की।
आसमाँ में खूबसूरत भोर की।
शीत का कुहरा धरा को घेरता।
चाँद भी अब मुख धरा से फेरता।
वाटिका-वन और उपवन बाग में।
चहचहाते खग अनोखे राग में।
मस्त नर-नारी भ्रमण में योग में।
और कुछ निद्रा-स्वपन में भोग में।
ललित
छंदमुक्त रचना
ज़िन्दगी क्या है.......?
कुछ मोतियों को माला में पिरोने का प्रयास,
कुछ को सहेज कर रखने की आस।
कुछ मोतियों का बिखर जाना...
कुछ का माला में बँधकर चिकने हो जाना।
कुछ मोतियों का रंग बदल जाना,
और कुछ का हर रंग में ढल जाना।
कुछ मोतियों का बेवजह मुस्कुराना,
और कुछ का तमतमाना।
कुछ मोतियों की कुटिल मुस्कुराहट
और कुछ की हसीन चहचहाहट।
कुछ के ग़मगीन चेहरे,
और कुछ कानों से बहरे।
कुछ माला में बँधने का दर्द महसूस करते हुए,
और कुछ सहज मुस्कान से माला को सुशोभित करते हुए।
इन्हीं मोतियों के इर्द-गिर्द जो घूमती है,
रेंगती है या दौड़ती है.......बस...
वही है ज़िंदगी.....!
ललित
पीयूष वर्ष छंद
चित्रानुसार सृजन
चूड़ियाँ सुंदर हरी गगरी भरी।
सुर्ख साड़ी की किनारी भी हरी।
केश काले रूप निखरा धूप में।
शूल क्यूँ आकर चुभा इस रूप में
ललित
पीयूषवर्ष छंद
पैर-नंगे राह शूलों से भरी।
कंटकों से कब यहाँ नारी डरी।
कंटकों के बीच ही फूली-फली।
शुद्ध-जल भरने कली पनघट चली।
ललित
पीयूषवर्ष छंद
नीर भरने जब चले गजगामिनी।
कंटकों से कब डरे वो दामिनी।
राह में चाहे बिछे हों शूल ही।
छू वदन चंचल बनें वो फूल ही।
ललित
21.12.19
मुक्तक
देश हमारा धरती अपनी,फिर काहे ये आग लगाई?
देख मनुज का ऐसा ताण्डव,अग्नि देव को लज्जा आई।
लिए मशालें घूम रहे जो,लगा रहे हैं अद्भुत नारे।
देश किसे कहते वो अपना,धर्म कौन सा उनका भाई?
ललित
पियूषवर्ष छंद
शीत
शीत की है रात सजना मदभरी।
जा बसे परदेश तुमने हद करी।
रात ये बाइस दिसंबर की बड़ी।
और धीमे चल रही घर की घड़ी।
ललित
पियूषवर्ष छंद
शीत 2
चाँद को शीतल हवा नहला गई।
चाँदनी भी धुंध में कुम्हला गई।
ठण्ड में टिम-टिम सितारे कर रहे।
कुछ सितारे शीत-मारे फिर रहे।
हर नगर हर गाँव में ठण्डी हवा।
चुभ रही तन में नहीं कोई दवा।
शॉल स्वेटर कार्डिगन फर-कोट भी।
कर न सकते सूट थोड़ी ओट भी।
ललित
23.12.19
मुक्तक
मुस्कुरा कर मुस्कुराना सीख लो।
जिंदगी के गीत गाना सीख लो।
शीत की शीतल सुहानी धूप से।
रूठते को भी मनाना सीख लो।
ललित
छंद रजनी
2122 2122,2122 2
जन्मदिन शुभकामनाएँ,आज हम लाए।
आपकी आभा बढ़े जी,खूब बढ़ जाए।
शारदे माँ साथ दे जी,आपका हरदम।
भोर हर खुशियों भरी हो,छू न पाए ग़म।
ललित
छंद रजनी
2122 2122,2122 2
गूँजता है धड़कनों में,नाम बस तेरा।
रात-दिन ये नाम सुनना,काम बस मेरा।
प्यार में नादान ये दिल,डूबता जाए।
प्रीत के नव-गीत हर-पल,झूमकर गाए।
ललित
छंद रजनी
2122 2122,2122 2
आज जाने किस भँवर में,मित्रता खोई।
मित्र उस घनश्याम जैसा,है नहीं कोई।
जिस सुदामा को लगाया,था गले अपने।
कर दिए साकार उसके अनकहे सपने।
ं
ललित
छंद रजनी
साँवरा नट-खट कन्हैया,नंद का लाला।
भागता माखन चुराकर,कृष्ण मतवाला।
गोपियाँ दौड़ी पकड़ने,श्याम प्यारे को।
माँ यशोदा नंद-बाबा,के दुलारे को।
ललित
दोहा
नव वर्ष
सब ग़म पिछले साल के,भूलें अपनी राह।
मुस्कानें नव-वर्ष में,बढ़ें माह-दर-माह।
ललित
नव-वर्ष
ठण्डे बस्ते में रखो,उन्निस का ये साल।
नव-ग्रह की नव-वर्ष में,सुधरेगी जी चाल।
ललित
छंद रजनी
मान हो,अपमान हो या,औपचारिकता।
मन सदा निर्लिप्तता में,क्यों नहीं टिकता?
मान दौलत का करें नर,शुभ्र-वस्त्रों का।
और कुछ बस मान करते,अस्त्र-शस्त्रों का।
ललित
छंद रजनी
भागता ये वर्ष उन्निस,क्या हमें सिखला गया?
ग़म-खुशी-आनंद-मस्ती,क्या हमें दिखला गया?
जो हुआ अच्छा हुआ उन्नीसवें को भूलिए।
बीसवें नव-वर्ष की संकल्पना में झूलिए।
ललित
माही जन्म दिवस शुभकामना
गीतिका छंद
तात-माँ की लाडली माही सदा महकी रहो।
दे 'ललित' आशीष माही तुम सदा चहकी रहो।
मात शारद की कृपा से विद्वता हासिल करो।
पुष्प राहों में बिछे हों,पार हर मंजिल करो।
ललित
गीतिका छंद
कँप-कँपाती ठण्ड
पूर्व में लाली मचलती,नाचता कुहरा घना।ओस की बूँदें चमकती,सुरमई मोती बना।
मंदिरों में आरती की,घंटियाँ टन-टन बजें।
कँप-कँपाती ठण्ड में कैसे भला बिस्तर तजें?
ललित
गीतिका छंद
नव-वर्ष
क्या हुआ क्यों रूठकर ये,वर्ष उन्निस चल दिया?
दे चला खुशियाँ किसी को,औ' किसी को बल दिया।
हाय रे ज़ालिम ज़माना,भूल उन्निस को गया।
पूजता नव-वर्ष को आती न पिछले पर दया।
ललित
छंद रजनी
ज़िंदगी दो पल कहीं रुक,साँस लेने दे।
दम घुटा जाता ज़रा सा,खाँस लेने दे।
किस भँवर में आ फँसी है,नाव जीवन की?
खींच लूँ मैं डोर थोड़ी,भागते मन की।
ललित
नव-वर्ष
नया साल दे नयी उमंगें,पूर्ण करे सब सपनों को।
सुख-शांति-हर्ष के नव-पल्लव,नव-पंख मिलें सब सपनों को।
विगत वर्ष के भूल तराने,नए गीत अब लिखने हैं।
श्याम-रंग रँग डालो सब,रंग-बिरंगे सपनों को।
ललित