उल्लाला/चंद्र मणि सृजन 2

16.9.16

कलियुगी सत्य

नगर निगम जिस शहर में,जनता का धन खाय है।
खुश होकर जनता वहाँ,जय-जय-जय-जय गाय है।

मेला देखन मैं गया,नगर निगम की ओर जी।
देखा मेला लुट रहा,पकड़ न आएं चोर जी।

बच्चों का सब अन्न जो,कच्चा ही खा जाय रे।
वो फिर जाकर जेल में,पकी रोटियाँ खाय रे।

'ललित'

उल्लाला
1

तरसे है मन आज क्यों,खुशियों के संसार को?
समझ नहीं क्यों पा रहा,अपनों के व्यवहार को?

ऊपर से खुश दीखता, मन का पागल मोर है।
खुशी चुराकर हँस रहा,कान्हा पक्का चोर है।

ललित

उल्लाला
2

छीन झपट कर था मिला,मन का थोड़ा चैन जो।
लहरों में ही खो गया,ज्यों सागर का फैन वो।

हाय नहीं मिल पा रहे,कान्हा से ये नैन क्यों?
चादर मैली देख के,मनवा है बेचैन क्यों?

ललित

अपने ही करने लगे,इस दिल पर आघात क्यों?
अपने ही समझें नहीं,इस दिल के जजबात क्यों?

उल्लाला
1
राकेश जी के सुझाव से परि
नदी नाव की दोसती,जैसा ये संयोग है
हरे घाव को देखकर,नमक लगाते लोग हैं।
एक जरा से छेद से,नैया जाती डूब है।
खुद ही तरना सीख लो,नदिया गहरी खूब है।

'ललित'

उल्लाला
2
याकेश जी के सुझाव से संशोधित

पल पल बीता जा रहा,बिना किए आवाज रे।
हर पल का उपयोग कर,बजा कर्म का साज रे।।
पाना चाहे मोक्ष तो,हर पल हरि का नाम ले।
नश्वर तन ये है भला,कुछ तो इससे काम ले।।

'ललित'

उल्लाला

मन में मूरत साँवरी,उस चंचल चितचोर की।
राधा नैन न खोलती,सुने मुरलिया भोर की।।
राधा वन वन डोलती,ढूँढे निर्मम श्याम को।
वादा था जिसने किया,मगर न आया शाम को।

'ललित'

उल्लाला

राकेश जी के सुझाव से परि

सुख के पीछे भागता,देखा हर इंसान है।
छोटा सा दुख सालता,सुख अंतर की शान है।

सुख दुख मन के भाव हैं,मन को जो भटकायँ हैं।
दुख से जो ऊपर उठें,सुख में डूबे जायँ हैं।

ललित

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