पसन्द अपनी अपनी में प्रस्तुत

पसन्द अपनी अपनी
22.10.16

ताटंक छंद

घर की दीवारों की भाषा,मानव समझ कहाँ पाया?
मौन खड़ी मीनारों से भी,ये मन सुलझ कहाँ पाया?
ताजमहल क्या कभी किसी को,अंदर का सुख दे पाया?
रिश्तों की दुनिया से भी क्या,ये मन वो सुख ले पाया?

पकड़ नहीं पाता क्यों सुख को,मन ये अपनी मुट्ठी में?
माँ भी नहीं पिला सकती क्यों,सुख बचपन की घुट्टी में?
कितना समझाया इस मन को,मत भागो सुख के पीछे।
लेकिन ये तो दीवाना सा,भाग रहा आँखे मींचे।

दुख में कोई हँसता देखा,कोई सुख कम ही आँके।
खुद के सुख को भूला कोई,दूजे के सुख में झाँके।
दूजे का दुख हरकर कोई,अंदर का सुख पाता है।
अंदर का सुख पाकर मानव,मंद मंद मुस्काता है।

सुख दुख के बादल इस नभ में,रह रह कर
यूँ छाते हैं।
बिन बरसात किये ही बादल,दूर कहीं उड़ जाते हैं।
पर मानव क्यूँ डर जाता है,देख बादलों को आया।
सूरज पर विश्वास करें तो,मिले बादलों से छाया।

रंग चढ़ा सुख दुख के मन को,रब ने खूब निचोड़ा है।
सुख दुख में गोते खाता ये,मानव तभी निगोड़ा है।
मन हरदम उलझा रहता है,सुख दुख की परिभाषा में।
सुख हाथों से निकला जाए,और सुखों की आशा में।

'ललित'

27.10.16
सिंहावलोकन घनाक्षरी
6

थक गये अब नाथ,
नैया खेते मेरे हाथ।
आप ही सँभालो अब,
पतवार नाव की।

पतवार नाव की लो.
थाम करकमलों में।
झलक दिखादो जरा,
दयालु स्वभाव की।

दयालु स्वभाव की वो,
छवि तारणहार की।
दवा आज दे दो प्रभु,
मेरे हर घाव की।

मेरे हर घाव की वो,
दवा राम नाम की जो।
लगन लगा दो तव,
चरणों में चाव की।

ललित
31.3.17
ताटंक छंद

देखी दुनिया दारी हमने,देख लिये दुनियावाले।
माँ की सूनी आँखें देखी,देख लिये दिल के छाले।
चार चार बेटों की माँ को,रोते भी हमने देखा।
बेटों की आँखों को क्रोधित,होते भी हमने देखा।

माँ की आँखो की कोरें अब,टूटे ख्वाब सँजोती हैं।
रानी बनकर आई थी अब,लगती एक पनोती है।
जिस घर की ईंटो को उसने,रात रात भर था सींचा।
आज उसी घर से बेटों ने,हाथ पकड़ कर है खींचा।

'ललित'

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