मई 2017

मई 2017

9.5.17
मुक्तक

दिल का आईना जब टूटे,शोर नहीं क्यूँ कर होता?
आँखें क्यूँ हँसती रहती जब, ये दिल ज़ार ज़ार रोता?
सब अंगों का राजा है दिल,छला यही फिर जाता क्यूँ ?
सब अंगों को पाले जो दिल,तन्हाई में क्यूँ खोता?

9.5.17

मुक्तक

नैनों की भाषा जो समझे,दिल ऐसा कैसे पाऊँ।
नैनों से मदिरा जो पी ले,दिल ऐसा कैसे लाऊँ।
अब तो आस यही है मेरी,इक दिन ऐसा पल आए।
श्याम तुम्हारे अधरामृत को,वंशी बन मैं पी जाऊँ।

ललित

9.5.17

मुक्तक लावणी

कैसी थी वो मुरली कान्हा,कैसा वो यमुनातट था?
कैसे व्रज के गोप गोपियाँ,कैसा वो माखन घट था?
कैसी तेरी रूपमाधुरी,कैसी रूपवती राधा?
एक झलक दिखला दे कान्हा,कैसा वो वंशीवट था?
'ललित'

मुक्तक लावणी

कैसे मटकाता था अखियाँ,तू माखन चोरी करके?
कैसे गायब हो जाता था,मुट्ठी में माखन भर के?
एक बार तो सपने में ही,झाँकी वो दिखला  दे तू?
कैसे इतराता था कान्हा,वसन गोपियोंं के हर के?

'ललित'

मुक्तक लावणी

कैसी थी वो लकुटी तेरी,कैसा काला कम्बल था?
कैसा था वो नाग कालिया,कैसा यमुना का जल था?
वो लीला फिर से दिखला दे,कैसा था वो दीवाना?
राधा जी के पीछे पीछे,जो फिरता हो पागल था।

ललित

मुक्तक लावणी

प्यार भरी मुस्कानें तेरी,स्नेह भरा आलिंगन माँ।
फिर मेरे मस्तक पर तेरा,मीठा सा वो चुंबन माँ।
याद मुझे आती है तेरी,जब भी नींद नहीं आती।
और याद आता है तेरी,लोरी का वो गुंजन माँ।

'ललित'
दो मुक्तक 16 : 14

1 लावणी
क्या फिर बाकी रहा टूटना,शाखा से जब फूल झड़ा।
शाखा को अफसोस यही है,माली क्यूँ चुपचाप खड़ा?
डाली की नादानी ये थी,फूलों को माना अपना।
माली माया-मोह त्याग कर,बन बैठा उस्ताद बड़ा।

2 ताटंक आधारित

फूल एक दिन मुख मोड़ेंगें,माली ने ये था माना ।
फूलों की फितरत से माली,नहीं रहा था अंजाना।
अपना फर्ज मान कर उसने,सींचा था फुलवारी को।
फूलों की दुनिया से नाता,तोड़ चला वो दीवाना।

ललित

मुक्तक

श्याम-साँवरे कब आओगे ,भूली व्रज की गलियों में।
राधा खोज रही है तुमको,नन्दनवन की कलियों में।
भँवरे गुंजन भूल गए हैं,लतिका आलिंगन भूली।
राधा का दिल डूबा रहता,अनजानी खलबलियों में।

'ललित'

चार मुक्तक
रास
212 212 212 212

लो गजब होगया चाँदनी रात में।
श्याम राधा नचें हाथ ले हाथ में।
बाँसुरी जादुई सुर बिखेरे वहाँ।
पायलें गोपियों की बजें साथ में।

कोंपलें नाचती डालियाँ झूमती।
चाँद ठिठका उसे चाँदनी चूमती।
बादलों का नहीं है कहीं कुछ पता।
रात मदहोश होती धरा घूमती।

जुगनुओं की चमक ताल के साथ में।
बिजलियाँ सी चमकने लगी गात में।
हर किसी को यही एक अहसास है।
श्याम है नाचता हाथ ले हाथ में।

आत्मरस की फुहारें भिगोने लगी।
जागती कुण्डली आँख रोने लगी।
गात को भूल सब आत्म में खो गए।
रास ही रास में रात खोने लगी।

ललित

मुक्तक

बात ही बात में बात होने लगी।
चाँदनी में मुलाकात होने लगी।
दिल लबों से जुबाँ से लगे बोलने।
प्यार में मात पे मात होने लगी।
ललित

मुक्तक लावणी
16:14

कितने भी भर लो हाथों को,अंत इन्हें खाली होना।
कितने भी हँस लो जीवन में,अंत हाथ आए रोना।
देह छोड़कर जाना ही है,किसी मील के पत्थर पर।
कितना भी चमका लो तन को,अंत पड़ेगा तन खोना।

16.5.17

मुक्तक

देता कौन साथ है दुख में,देता कौन सहारा है।
खुद के गम में खोये नर ने,खुद का घाव निहारा है।
मरहम भी तो कहीं न मिलता,फिरते हैं सब गरल लिए ।
मेरा मेरा करता मानव,अंदर का सुख हारा है।

'ललित'
18.5.17
मुक्तक

इकदीवानी मीरा बाई,इक दीवानी राधा।
इसने विष को गले उतारा,उसने सुर को साधा।
विष अमृत बन गया निराला,सुर मुरली में
गूँजा।
जिसने पाया पूरा पाया,प्यार न होता आधा।
ललित

मुक्तक 16:14

रिश्तों में डूबा मानव मन,रिश्तों से लबरेज हुआ।
रिश्तों के 'पर' रंग न पाया,बावरा रंगरेज हुआ।
फिर भी कितने रंग दिखाते,रिश्तों के 'पर'
तितली से।
अब तो जैसे हर रिश्ता ही,जाति से अंगरेज हुआ।
ललित

मुक्तक
साँस

साँसों की गिनती करना क्यूँ,मानव सीख नहीं पाया?
मरते इंसाँ को साँसों की,दे क्यूँ भीख नहीं पाया?
रह जाता है एक अकेला,नर साँसों के मेले में।
अंतिम साँसें गिनने वाला,नर क्यूँ चीख नहीं पाया?

मदिरा सवैया

जो मुख पे लटकी लट में सबके मन को अटकाय रहा।
वो यमुना तट पे वृषभान-लली मटकी चटकाय रहा।
ग्वाल सखा मनमोहन माखन को छुपके सटकाय रहा।
सुंदर श्यामल कोमल मोहन नैनन को मटकाय रहा।

'ललित'

मुक्तक

कैसे कैसे ख्वाब सुनहरे,इस दिल में पलते?
कैसे कैसे रंगों में दिन,जीवन के ढलते?
जैसे इन्द्रधनुष दिखता है,रिमझिम बारिश में।
वैसे ही सतरंगी सपने,मानव को छलते।

दुर्मिल सवैया छंद

करताल लिए कर में चहकें ,सब गोप सखा नित भोर वहाँ।
पग गोपिन के बजते घुँघरू,मुरलीधर माखनचोर जहाँ।
वृषभानुसुता नित आ धमके,मनमोहन सा चितचोर कहाँ?
रस की बरसात करे नित वो,वसुदेव लला हर ओर यहाँ।

दुर्मिल सवैया छंद

कितना किससे हम प्यार करें,इसका न कहीं अनुबंध मिले।
दिल को अपने कितना मसलें,जिसका न कहीं मकरंद मिले।
मिलता उनसे कब प्यार हमें,जिनको हमसे रसरंग मिले।
मिलती उनसे बस रार हमें,जिनसे नजरें कर बंद मिले।

मुक्तक 16:14
कृष्ण भक्तियोग
चाह यही है कान्हा तेरे,शुभ दर्शन कर पाऊँ मैं।
राधा जी के दर्शन करके,भवसागर तर जाऊँ मैं।
राधिका भी सुना है तेरी,अँखियों में ही बसती है।
तेरे नयनों में ही कान्हा,राधा से मिल आऊँ मैं।
'ललित'

मुक्तक

किस आसानी से तोड़ा ये,दिल नादाँ तुमने मेरा ।
और लगाते हुए ठहाके,मुख मुझसे तुमने फेरा।
लेकिन मुझे बतादो इतना,हाथ जरा दिल पर रखकर।
हँसी ठहाकों के पीछे ही,क्यूँ डाला तुमने डेरा?
ललित

लावणी मुक्तक

जिसकी साँसों की सौरभ से,महक रहा व्रज का कण-कण।
महलों की वो राधा रानी,भटकी फिरती है वन-वन।
नयन श्याम-दर्शन के प्यासे,विरह वेदना तन-मन में।
कान्हा के कदमों की आहट,सुनने को आतुर क्षण-क्षण।
'ललित'

31.5.17
दुर्मिल सवैया

कुछ चंचल सी कुछ निश्चल सी,मचले मचले मन से ठहरी।
कुछ पागल सी कुछ बेसुध सी,सजनी वह श्वास भरे गहरी।
स्वर पायलिया न सुने सजनी,मिल साजन प्रीत हुई बहरी।
मनभावन काम प्रहार हुआ,लतिका अरु पात बने प्रहरी।
'ललित'

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