जून 17

5.6.17

कुण्डलिया

आया ऐसा दौर है,निपट निराला आज।
बन बैठा इंसान है,माँस नोंचता बाज।
माँस नोंचता बाज,कुरेदे घाव हरे जो।
नहीं नरक से हाय,किसी भी हाल डरे जो।
कहे 'ललित' ये प्यार,मुहब्बत में भरमाया।
नफरत की ये लाश,नहीं क्यूँ दफना आया।

'ललित'

कुण्डलिया

भोले के दरबार में,अर्पण कर जल-पाव।
दिल के तेरे साहिबा,भर जाएंगे घाव।

भर जाएंगे घाव,समय से धीरे धीरे।
भूल जरा हर पीर,अभी मस्ती में जी रे।

'ललित' समय के साथ,चला चल हौले हौले।
पार लगेगी नाव,जपे जा भोले भोले।
'ललित'

लेना चाहे
काव्यसृजन परिवार,निरंतर उन्नति करता।
छंदों का दे ज्ञान,सृजन की क्षमता भरता।
'ललित' तजो अभिमान,सीख सबको ही देना।
सब को दे सम्मान,नहीं कुछ भी है लेना।

7.6.17
मुक्तक

कितना निर्दय होगया,हे ईश्वर तू आज।
माँ की गोद उजाड़ते,तुझे न आई लाज।
माँ के दिल में झाँककर,देख जरा ओ देव।
कितनी हैं चीखें वहाँ,जहाँ गिराई गाज।

'ललित'

कुण्डलिया
कान्हा तेरी प्रीत में,है थोड़ी सी खोट।
प्यार जिन्हें करता उन्हें,देता गहरी चोट।
देता गहरी चोट,उन्हें तू है तड़पाता।
जो हैं तेरे दास,उन्हीं को तू हड़काता।
रहा 'ललित'ये सोच,राधिका ऐसी चेरी।
नाचे सारी रात,प्रीत में कान्हा तेरी।

'ललित'

कुछ दोहे

हिंदी में ही बोलिए,अंग्रेजी को भूल।
हिंदी की सुरताल से,झड़ें लबों से फूल।।

हिंदी में जो शान है,उसको तू पहचान।
इतना निश्चय जान ले,हिंदी तेरी जान।।

हिंदी में जो लिख सके,वो है बड़ा अमीर।
हिंदी को जो पढ़ सके,खुल जाए तकदीर।।

राधे-राधे बोलता,हिंदी में जो आज।
उसके पीछे डोलता,कान्हा करता नाज।।

हिंदी में जो मान है,हिंदी में जो प्यार।
दूजी भाषा में नहीं,देखा सब संसार।।

'ललित'

कुण्डलिया

शिव शंकर भोले सुनो,भक्त पुकारे आज।
जो मन भावे सो करो,लेकिन रखना लाज।
लेकिन रखना लाज,कृपा रहना बरसाते।
भरे हुए भण्डार,मुझे फिर क्यों तरसाते।
कहे 'ललित' कर जोड़,धरा ये डगमग डोले।
करते तांडव नाच,जब शिवशंकर भोले।
'ललित'

कुण्डलिया

कैसा अद्भुत खेल ये,कलियुग है दिखलाय।
पीछे चले पतंग के,हवा दिवानी हाय।
हवा दिवानी हाय,नयी नित चालें चलती।
सभी कुटिल हैं और,कुटिलता सबको खलती।
कहे 'ललित' समझाय,पहन लो बाना ऐसा।
लगे न कोई दाग,भले काजल हो कैसा।
ललित

[15/06/17
कुण्डलिनी छंद

खुद में खुद को ढूँढता,खुद से ही अंजान।
जीवन में सुख चाहता,बौराया इंसान।
बौराया इंसान,नहीं खुद को पहचाने।
विपदा में हर बार,प्रभो को देता ताने।

'ललित'
[15/06/17
मुक्तक

छम-छम करती चली जा रही,राधा आगे-आगे।
पीछे पीछे मुरली वाला,रास रचैया भागे।
नंदनवन का पत्ता पत्ता,निरखे अद्भुत लीला।
वो ही समझ सकें ये लीला,जो अपने में जागे।

'ललित'

मुक्तक 16.12

🙏🌺🙏

तीन लोक का स्वामी नन्हा,कान्हा बनकर आया।
मात यशोदा को निज मुख में,सब ब्रम्हाण्ड दिखाया।
विस्मित मैया ने घबराकर,आँख बन्द फिर कर ली।
नटखट मोहन को झट अपनी,छाती से चिपटाया।

ललित

दोहे

धरती बंजर हो गयी, धूमिल है आकाश।
अधकचरे विज्ञान ने,ऐसा बाँधा पाश।

धरती का दुश्मन बना,धरती का ही लाल।
काट दिए जंगल सभी,प्राणी हैं बेहाल।

ललित

दोहे
सवाल

भोर सुनहरी पूछती,केवल एक सवाल।
उस सुंदर से चाँद के,कैसे हैं अब हाल?

चाँद चाँदनी छिप गए,किस कोने में हाय।
मैं खुद ही में मस्त थी,कर न सकी बा-बाय।
क्या वो गोरी चाँदनी,थी मुझसे भी बीस?
मेरा उज्ज्वल रूप क्या,है उससे उन्नीस?

ललित

दोहे
यूँ ही बैठे बैठे

भाव भरे कुछ शब्द हों,स्याही के अरमान।
दोहे जैसा छंद हो,तो लिखना आसान।

यौवन के कुछ रंग हों,कुछ पतझड़ के पात।
दोहे में कर बंद दो,तो बन जाए बात।

काव्यसृजन करते रहो,'काव्यसृजन' में आप।
'काव्यसृजन' ले आयगा,खुशियाँ फिर बेमाप।

कुछ सोचो कुछ बोल दो,कुछ लिख डालो
आप।
कुछ देशी कुछ फारसी,भावों की हो थाप।

ललित
दोहे

देह और मन का यहाँ,अद्भुत बेढ़ब मेल।
दोनों मालिक बन रहें,करें निराला खेल।

मन का मालिक कौन है,मन का कौन गुलाम।
गुत्थी ये सुलझे नहीं,मन का क्या है काम?

मनमन्दिर में जब बसें,मनमोहन घनश्याम।
तन-मन मिलकर तब जपें,श्याम नाम अविराम।

ललित

दोहे

मन मूरख मन बावरा,मन चंचल दिन रैन।
मन की देह गुलाम ये,कहीं न पाए चैन।

मन संतोष न कर सके,कितना भी धन पाय।
जिसके मन संतोष है,वो मानव तर जाय।

मन ये धोखेबाज है,गलत राह दिखलाय।
मन से धोखा खायके,हर मानव पछताय।

'ललित'
दोहे

मन कहता है प्रेम से,कर दुनिया की सैर।
देखा सब जग घूम के,मन से गया न बैर।

पाले मन में बैर जो,बैरी खुद का होय।
उसकी नैया डूबती,बचा सके कब कोय।

सुंदर मन सुंदर वचन,सुंदर जिसके भाव।
उसकी राधेश्याम ही,पार लगाते नाव।
'ललित'
दोहे

मन के भाव छिपे रहें,सुंदर तन की ओट।
मुस्कानों में दब रहें,मन के सारे खोट।

तन से सुंदर दीखते,मन के काले लोग।
मन सुंदर जब हो तभी,हरि से हो संयोग।

तन पूजा में बैठता,मनवा भरे उड़ान।
मन निश्चय कर बैठता,मिलें तभी भगवान।

ललित
20.6.17
सोरठा छंद

सुख की करता खोज,मन दुनिया की मौज में।
दुख से डरता रोज,मन ही मन काँपा करे।

मिलता आनंद खूब,भजन भक्ति औ' ध्यान में।
जाता मन जब डूब,कान्हा जी के प्यार में।

ललित
रोला छंद

नस-नाड़ी औ' देह,निरोगी सबको कर दे।
बढ़ा ईश से नेह,योग आत्मा को बल दे।

आसन प्राणायाम,गुरू सम्मुख जो करता।
प्राण वायु से जोश,तन और मन में भरता।

मुनियों का ये योग,मिला देता ईश्वर से।
मिट जाता हर रोग,ध्यान धारण के बल से।

ललित

सोरठा छंद
क्या होता है योग,समझें कोई नहीं इसे।
प्राणायामी लोग,समझें योगा होगया।

मन ईश्वर में लीन,करे ध्यान औ' धारणा।
भोजन तामस हीन,समझो योगा होगया।

ललित
22.6.17
मुक्तक

कुछ अपनों में कुछ सपनों में,जीवन के दिन बीत गए।
कुछ पाने में कुछ खोने में,सुंदर सपने रीत गए।
दिखे स्वप्न में साँवल कान्हा,साथ राधिका  रानी हो।
ऐसा जब होने लग जाए,समझो हम जग जीत गए।
'ललित'

23.6.17
सोरठा
आ जाओ घनश्याम,राह निहारे राधिका।
सूना है व्रजधाम,सूना यमुनातीर है।

मथुरा में क्या काम,वंशीधर गोपाल का।
तुझे पुकारे श्याम,कण-कण गोकुल ग्राम का।

गोप-ग्वाल सब गाय,तरसें तेरे दर्श को।
आँसू नित छलकाय,राधा तेरी याद में।

'ललित'
सोरठा

छंदों का हो ज्ञान,मात्रा सब गिनती करें।
रचना भाव प्रधान,लिखने की कोशिश करें।

सब चरणों में भाव,मिलते जुलते हों सदा।
हर दिल में इक चाव,रचना वो पैदा करे।

निश्चित मात्रा भार,औ' तुकांत के मेल से।
रचना ले आकार,भाव बिना पर सून है।

ललित
लावणी मुक्तक
छैलछबीला

जिसकी मूरत इतनी सुंदर,वो कितना सुंदर होगा?
राधा का चित-चोर कन्हैया,कैसा वंशीधर होगा?
गोप-गोपियाँ और राधिका,सब ही जिसके दीवाने।
छैल-छबीले उस बाँके का,रूप बड़ा मनहर होगा।
'ललित'

सोरठा छंद
समीक्षा हेतु

कैसे कैसे मित्र,जीवन में मिलते यहाँ।
जिनके खेल विचित्र,मित्रों को छलते सदा।

मित्रों की पहचान,करना मुश्किल है बड़ा।
विरले ही इंसान,समझें मतलब दोस्त का।

एक इष्ट भगवान,सबसे प्यारा मित्र है।
करे वही कल्यान,भव से वो ही तारता।

लीला अपरम्पार,उस मानव के यार की।
भर देता भंडार,अपने भक्तों के सदा।

उसे बना लो यार,करो प्रेम उस एक से।
रहे खुला दरबार,अलख निरंजन का सदा।

'ललित'

सोरठा छंद

मीत किसी का कौन,कौन किसी का है सगा।
सबसे प्यारा मौन,ध्यान धारणा मीत है।

सुंदर काया पाय,मानव मन इतराय है।
चाम सुंदरी हाय,इक दिन छोड़े साथ है।

ललित

28.6.17

चौपाई

चाँद निहारे राह तुम्हारी।
आ जाओ अब कृष्ण मुरारी।

नंदनवन में रास रचाने।
वृंदावन में रस बरसाने।

गोप-गोपियाँ सारे आए।
हाथों में करतालें लाए।

कुछ मुरली से रस बरसाओ।
मत श्रवणों को अब तरसाओ।

राधा जी के व्याकुल नैना
जागें हैं अब सारी रैना।

वंशीवट को भूल गए क्या?
यमुना तट को भूल गए क्या?

दोहा
श्याम तुम्हारी याद में,राधा जी के नैन।
खान मोतियों की बने,बरसत हैं दिन-रैन।

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छद श्री सम्मान