दोहा दंगल


7.6.17
1
खुश हो करता आदमी,धन के जमा पहाड़।
लेकिन काल कराल वो,छीने छप्पर फाड़।

2
कलियुग में करना नहीं,संतानों से आस।
वृद्धावस्था के लिए,कुछ धन रखना पास।

3
शीतल सुरभित चाँदनी,और सजन का साथ।
रास   रचाए     राधिका,  ले  हाथों   में  हाथ।
ललित किशोर 'ललित'

4
कैसा अद्भुत खेल ये,कलियुग है दिखलाय।
पीछे चले पतंग के,हवा दिवानी हाय।

5
बहस अनर्गल सब करें,नेता-मंत्री आज।
सब को सब खुश कर रहे,फिर भी सब नाराज।

6
कहे विभीषण राम हैं,श्री भगवत अवतार।
रावण सच माने नहीं,राम उतारें पार।

7
सुख में बैरी मन करे,और सुखों की चाह।
दुख में सबसे पूछता,हरि मन्दिर की राह।

8
रहना हरि के ध्यान में,कहलाता उपवास।
राजनीति में वास ही,बन जाता उपहास।

9
छीन झपट कर जो मिला,मन का थोड़ा चैन।
लहरों में वो खो गया,ज्यों सागर का फैन।

10
हाय नहीं मिल पा रहे,कान्हा से ये नैन।
चादर मैली देख के,मनवा है बेचैन।

11
एक जरा से छेद से,नैया जाती डूब।
स्वयं तैरना सीख लो,नदिया गहरी खूब।

12
बित्ते भर का छोकरा,व्रज में धूम मचाय।
माखन की चोरी करे,निश-दिन रास रचाय।

13

कैसे कह दूँ साजना,तुझको मैं नादान।
नादानी के ढोंग से,ले ली मेरी जान।

14

सुंदर काया मोहिनी,देख मोर इतराय।
मलिन पैर फिर देखके,नैनन नीर बहाय।

छीन झपट कर जो मिला,मन का थोड़ा चैन।
लहरों में वो खो गया,ज्यों सागर का फैन।

सुख में बैरी मन करे,और सुखों की चाह।
दुख में सबसे पूछता,हरि मन्दिर की राह।

कंचन सी काया मिली,मन दर्पण सा नेक।
ईश्वर को ध्याया नहीं,माया का अतिरेक।

अति सुंदर जो देह थी,यौवन से भरपूर।
साथ समय जर्जर हुई,सुंदरता अति दूर।

हाय नहीं मिल पा रहे,कान्हा से ये नैन।
चादर मैली देख के,मनवा है बेचैन।

एक जरा से छेद से,नैया जाती डूब।
स्वयं तैरना सीख लो,नदिया गहरी खूब।

ललित किशोर 'ललित'

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