सोरठा(का/सृजन)रचनाएं

14.01.16
1
सोरठा

नयी नवेली नार,इठलाती जैसे चले।
नयी भोर हर बार,मदमाती वैसे दिखे।

कलियों की मुस्कान,भौरों की अठखेलियाँ।
बगिया आलीशान,चूनर ओढ़े भोर में।

'ललित'
2
एक हास्य सोरठा

सूट पहन हम साब,बूफे पार्टी में गये।
सभी लोग बेताब,झपट झपट कर खा रहे।।

हम भी थे उस्ताद,दूध जलेबी पा लिया।
सूट हुआ बर्बाद,धक्का कोई दे गया।।

'ललित'
3
सोरठा

बेशुमार था प्यार,शादी कर के आ गये।
खुशियाँ मिली अपार,सपने जो सच हो गये।
बच्चों की बरसात,अँगना में होने लगी।
नहीं चाँदनी रात,अब दोनों को भा रही।

'ललित'

4
सोरठा

राम चले वनवास,लक्ष्मण भैया साथ में।
सीता करती आस,चरणों की सेवा मिले।

पदचिन्हों को चूम,चल दी छाया रूप वो।
देव रहे सब झूम,पुष्पों की वर्षा करें।

'ललित'

5
सोरठा

हलधर देखा आज,प्यारा सा हमने यहाँ।
पैदा करे अनाज,खूब पसीना वो बहा।

धरती का सरताज,हर मौसम में जूझता।
इन्दर भूले काज,सावन सूखा
है पड़ा।

'ललित'

15.01.16
6
केडीआरजी29.1.17
सोरठा

ज्यों काँटों के बीच,फूल गुलाबी खिल उठे।
दलदल में अति नीच,कमल पुष्प दल ज्यों खिले।
ज्यों ठोकर की धूल,लगे गगन को चूमने ।
त्यों पूजा के फूल, प्रकट करें घनश्याम को।

'ललित'
7
सोरठा

जीवन की इक भूल,जीना आज सिखा गई।
दुख का तीखा शूल, दुनिया मुझे चुभा गई।

हुए पराये मीत,किस को हम अपना कहें।
जीवन की ये रीत,कंटक सदा हरे रहें।

ललित

8
सोरठा
बचपन

बचपन आया याद, नाती पोते देखके।
लगते थे जब स्वाद,बेर आम खट्टे पके।।

काश लौट फिर आज,आ जाये वो बचपना।
गिल्ली डंडा बाज,बन जायें हम सब जहाँ।

ललित

9
सोरठा

बेटी

बाबुल के जजबात,समझे है बेटी सदा।
ईश्वर की सौगात,बेटी है प्यारी परी।।

चल दी वो ससुराल,छोड़ गली औ' आँगना।
दिल में भरे मलाल,चली सजन के गाँव है।

ललित

10
सोरठा

सूना है ब्रजधाम,सूनी ब्रज की वीथियाँ।
कान्हा तेरा नाम,हर धड़कन में रम गया।।

आ जाओ इक बार,तड़पें सारी गोपियाँ।
कुछ तो करो विचार,मुरलीधर मनमोहना।

ललित

11
सोरठा

कान्हा तेरे द्वार,मीत सुदामा आ गया।
ले चावल उपहार,प्रीत निभाने आ गया।

जपता तेरा नाम,एक दिवाना आगया।
मन से वो निष्काम,भेंट द्वारका आ गया।

ललित

01.03.16

12
सोरठा

लेता है हरिनाम,सुख के रहते जो सदा।
दुख का है क्या काम,जीवन में उसके भला।।
दुख को दुख मत मान,सहले मन को कर कड़ा।
दुख है सुख की खान,दुख के पीछे सुख छिपा।।

13
नीति सोरठा

चलता चल अविराम,सूरज शिक्षा दे यही।
थक जायेगी शाम,कब तक रोकेगी तुझे।।

करो कर्म निष्काम,गीता शिक्षा दे यही।
फल देना हरि काम,यही सोच मन में रखो।

14

सोरठा
चाय और वंदना

चार बजे की चाय,बीवी शौहर पी रहे।
कलम रही मुस्काय,मन से छंद चुरा रही।

छंदों की सुरताल,भावों को नहला रही।
बिना बजे करताल,शारद वंदन हो रहा।

शारद माँ दातार,भाव अनोखे दे रही।
मन के उलझे तार,सहला कर सुलझा रही।

विनती माँ से आज,दिल मेरा ये कर रहा।
ऐसा हो परवाज,मन पंछी बस में रहे।

ललित

15
सोरठा

सोने सी हो बात,चाँदी जैसे तोलिए।
भर मन के जजबात,मीठा मीठा बोलिए।

दुश्मन से भी आप,कडवा कभी न बोलिए।
मन का सब संताप,हरि के सम्मुख ही कहो।

जीवन हो निष्पाप,ऐसी हम कोशिश करें।
निशिदिन मन में जाप,साँस साँस में हम करें।
3.4.17
16
सोरठा

बातों के उस्ताद,जीवन में इतने मिले।
आई कभी न याद,हमको अपनी जीभ की।
करने को तो बात,सब करते हैं काम की।
लेकिन उनके गात,आलस करते काम में।
ललित

सोरठा

जीवन के सब मीत,छूट गए हैं राह में।
करने को अब प्रीत,काँटों के मंजर बचे।

सूनापन हर ओर,जीवन की इस शाम में।
कब तक बाँधे डोर,ढाढस की मन बावरा।

ललित

कैसे कैसे खेल,दिखलाती है जिन्दगी।
जीवन की ये बेल,जड़ को जाती भूल है।

जड़े गई हैं सूख,फल की क्या आशा करें।शाखों की हर भूख,शांत जड़ें फिर भी करे।

रहना माटी साथ,सीख जड़ों ने है लिया।
नहीं किसी का हाथ,नहीं सहारा चाहिए।

क्यों रहना बेचैन,अनुभव का जब साथ है।
कट जाएगी रैन,दाता पर विश्वास है।

ललित

कुछ तो होता खास,जीवन की इस शाम में।
आ जाती कुछ पास,खुशियों की परछाइयाँ।

ऐसे क्यों हर साँस,उखड़ी-उखड़ी सी लगे।
दिल में क्यों इक फाँस,हर-पल चुभती सी रहे?

'ललित'

क्यों आती हैं रास,दिल को ये तनहाइयाँ?
क्यों आती है बास,रिश्ते की हर गाँठ से?

बैठो दो पल पास,सोचें हमको जिन्दगी।
देती क्यों अहसास,कमी कहीं कुछ रह गई?

कुण्डलिनी रचनाए(काव्यांजलि)


11.01.16

कुण्डलिनी छंद
श्रृंगार रस

अलबेली हर शाम थी,हम तुम थे जब साथ।
फिरते रहते थे सदा,ले हाथों में हाथ।

ले हाथों में हाथ,किये जो वादे तुमने।
आते हैं सब याद,जो देखे सपने हमने।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

श्रृंगार रस
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

सुबहा की लाली चुरा,लाल किये हैं गाल।
लाल-लाल से गाल पे,तिल है बड़ा कमाल।।
तिल है बड़ा कमाल,नज़र सबकी है खींचे।
होते कई हलाल,लबों को जब तू भींचे।।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

शांत  रस

मन ही मन में सोचते,रहते सब ये बात।
कैसा वो लावा उठा,कैसी थी वो घात?
कैसी थी वो घात,सभी अपने बिछड़े है।
बिना बात ही आज,हुए दिल के टुकड़े है।

'ललित'

कुण्डलिनी
शांत  रस

मौनी मन कह देत है,मन से मन की बात।
मन का मौन न तोड़िये,बिगड़ें जो हालात।

बिगड़ें जो हालात,कभी मत धीरज खोना।
मन में हो उल्लास,उगे माटी से सोना

'ललित'

प्रकाशन 10 मुक्तक

साथ कुछ दिन जो चला था,राह में ही था मिला।
राह अपनी वो गया तो,अब किसी से क्या गिला।
याद कर जब इस धरा पर,तू नया संगीत था।
रो रहा था तू अकेला,कौन तेरा मीत था।

ज़िन्दगी से आज हमको,चोट इक प्यारी मिली।
कौन सा मरहम लगाएँ,हर दवा खारी मिली।
ज़ख्म जो दिल में हुआ है,दीखता हरदम नहीं।
घाव पर मरहम लगाती,ख्वाहिशें सारी मिली।

फूलों ने हँसना छोड़ा है,कलियाँ भी मुरझाई हैं।
माली सींच रहा बगिया पर,पानी भी हरजाई है।
कली-कली पर भौंरे डोलें,प्रेम नहीं कुछ मन में है।
खिलने से पहले रस चूसा,अब केवल तनहाई है।

चलो इक बार फिर से हम,नयी दुनिया बसाते हैं।
नयी सुर-ताल सरगम पर,नया इक गीत गाते हैं।
गिले-शिकवे दिलों में जो,दिलों में ही दफन कर दें।
चलो पतवार बनकर हम,भँवर को भी हराते हैं।

'

प्रकाशन 9 विधाता छंद


बहारें आज गुलशन में,बिखेरें प्यार के मोती।
चले आओ सजन मेरे ,तुम्हारी राह मैं जोती।
पडे हैं बाग में झूले,मुदित मन मोर भी झूमे।
सितारों के लगे मेले,लताओं पे भ्रमर घूमे।

तुम्हारे नाम की मेहंदी,रचाई आज हाथों में।
तुम्हारे प्यार की मारी,लजाई आज रातों में।
कहे पायल न ठुकराओ,कहे कँगना न बिसराओ।
कहे बिंदिया न तरसाओ,तडपते हैं चले आओ।

हवाओं को बदल देंगें,बता दो आसमानों को।
किसी तूफान से कम मत,समझना हम जवानों को।
असंभव को हमें संभव,यहाँ अब कर दिखाना है।
न रोकेंगें कदम अपने,सितमगर को मिटाना है।

न करते जो जमाने में,कदर माता पिताओं की।
जरा वो सोच लें खुद ही,सजा अपनी खताओं की।
बुजुर्गों की दुआओं का ,असर जो देखना चाहो।
करो सम्मान सब उनका,महर जो देखना चाहो।

छद श्री सम्मान