कुकुभ छंद विधान एवँ रचनाएँ 25.07.16


कुकुभ छंद
25.07.16


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     -------कुकुभ छंद विधान-----

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1.यह कुल 30 मात्राओं वाला मात्रिक छंद है।

2.इसमें 16,14 मात्राओं पर यति होती है।

3.इस छंद के अंत में दो गुरुवर्ण होना अनिवार्य है उससे पूर्व दो लघु वर्ण होने चाहिए।

4. अंत में दो लघु वर्णों को गुरु वर्ण नहीं माना जा सकता।

5.क्रमानुसार दो- दो पंक्तियों में समतुकांत रखे जाते हैं।


            **** उदाहरण ****

                  कुकुभ छंद

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कान्हा की वंशी की सरगम,कानों में मधुरस घोले।
राधा की पायल की छम-छम,सुन कान्हा का मन डोले।
राधा जी का रूप निहारें,मोहन तिरछी अँखियों से।
राधा जी अन्जानी बनकर,बतियाती हैं सखियों से।

*************रचनाकार****************

               ललित किशोर 'ललित'

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कुकुभ छंद रचनाएँ

1.

मोड़

किसी मोड़ पर हार गए तो,मन से हार नहीं मानो।
वही मोड़ इक दिन जीतोगे,मन में यह निश्चय जानो।
हार गया जो उसे चिढ़ाना,सबको अच्छे से आता।
हारे को सम्बल देना बस,कुछ ही लोगों को भाता।

ललित किशोर 'ललित'

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2.

माँ शारद

माँ शारद की किरपा से ये,मन भावों में बहता है।
छंदो की नक्काशी से कवि,सुंदर कविता कहता है।
गुरू ज्ञान की सरिता से ही,'काव्य सृजन' ये निखरा है।
गुरू बिना तो मानो सब कुछ,रहता बिखरा बिखरा है।

ललित किशोर 'ललित'

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3.

काँटे

काँटों की पहरेदारी में,फूल सुगंधित खिलते हैं।
प्यार करें कंटक फूलों से,रोज गले वो मिलते हैं।
दुश्मन के हाथों में चुभकर,शूल पुष्प को सहलाएं।
वो कंटक बदनाम हुए क्यों,जो फूलों को बहलाएं।

ललित किशोर 'ललित'

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4. 

फूल और कंटक

फूल बना कोई इस जग में,कोई कंटक बन आया।
एक बीज से दोनों उपजे,एक जमीं से जल पाया।
जिसका जैसा अंतर्मन हो,वैसी काया मिलती है।
सुरभित सुंदर तन लेकर यूँ,कोमल कलियाँ खिलती हैं।

ललित किशोर 'ललित'

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5.

वादे

प्रेम जगत के सुंदर सुंदर,ख्वाब हमें क्यूँ दिखलाए?
बरखा-सावन के वो नगमे,क्यूँ हमको थे सिखलाए?
झूँठी प्रीत तुम्हारी निकली,झूँठे निकले सब वादे।
दिल को टीस दिया करती हैं,हाय तुम्हारी सब यादें।

ललित किशोर 'ललित'

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6.

प्रभो

प्रभो आपके चरणों में ये,छोटा सा दिल रखता हूँ।
ध्यान धारणा नहीं जानता,राम नाम रस चखता हूँ।
ऐसी किरपा कर दो भगवन,नाम तुम्हारा नित गाऊँ।
राम नाम ही मुख से निकले,दुनिया से मैं जब जाऊँ।

ललित किशोर 'ललित'

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7.

अंत समय

अंत समय पर जो काशी में, राम नाम ले मरते हैं।
भवसागर से पार करें शिव,ध्यान राम का करते हैं।
राम सुमिरते हैं शिव जी को,करें सदा मानस पूजा।
राम और शिव मय जग सारा,और नहीं है कुछ दूजा।

ललित किशोर 'ललित'

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8.

भोर

प्राची ने ओढ़ी है चुनरी,चमके ज्यों केसर क्यारी।
कलियों ने मुस्कान सजाली,अधरों पर निर्मल प्यारी।
तारों ने अम्बर को छोड़ा,सूरज की है अब बारी।
हर हर हर हर महादेव का,घोष कर रहे नर नारी।

ललित किशोर 'ललित'

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9.

संसारी

इस दुनिया से जाने वाले,जाते कहाँ प्रभू जानें।
पंचतत्व में मिल जाते हैं,सब संसारी यह मानें।
ऐसी माया रचदी हरि ने,प्राणी नहीं समझ पाया।
अंत समय तक समझे खुद को,हिलती डुलती इक काया।

ललित किशोर 'ललित'

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10.

कड़वा सत्य

कड़वा सत्य न सुनना चाहें,लगता झूँठ जिन्हें प्यारा।
झूँठों की इस दुनिया से तो,हर सच्चा मानव हारा।
निगल सत्य के सुंदर मोती,रिश्वतखोरी पनपे है
कच्चे गोटे के बागे अब,ठाकुर जी के तन पे हैं।

ललित किशोर 'ललित'

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11.

माया

झूँठ सत्य की इस माया में,सच्चा मानव  पिसता है।
इन दोनों का आपस में इक,अन्जाना सा रिश्ता है।
झूँठे रँग में रँगा हुआ सच,ठोकर खाता दिखता है।
सत् में लिपटा हुआ असत् भी,महँगे दामों बिकता है।

ललित किशोर 'ललित'

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12.

गरीब माँ बेटे

बोझ किताबों का बस्ते में,लादे बच्चा चलता है।
खेल कूद सब भूल गया वो,झोंपड़िया में पलता है।
बैशकीमती बचपन खोया,राजधानियाँ रटने में।
माँ का जीवन उलझ रहा है,आज रोटियाँ बँटने में।

ललित किशोर 'ललित'

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13.

कान्हा

वो ही तो है जो मेरे इस,दिल को हर पल धड़काता।
वो ही तो है जो मेरे हर ,दुश्मन को है हड़काता।
वो ही मेरी नस नस में यूँ,जीवन बनकर बहता है।
जो कान्हा मेरी साँसों में,प्राण वायु बन रहता है।

ललित किशोर 'ललित'

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14.

रुबाई
चलो देश में आजादी की,फिर से अलख जगाते हैं।
लूट रहे जो आज देश को,उनको दूर भगाते हैं।
राम राज्य का सपना अब हम,सच करके दिखलाएंगें।
भ्रष्टाचारी शासन में हम,मिल कर सेंध लगाते हैं।

ललित किशोर 'ललित'

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15.

भारत की मिट्टी

भारत की मिट्टी में पलकर,भारत को मत बिसराओ।
ऊँची शिक्षा पाते पाते,मत विदेश में बस जाओ।
मातृभूमि का कर्ज चुकाने,तुम भारत वापस आना।
अपना ज्ञान देश की सेवा,मे ही अर्पण कर जाना।

ललित किशोर 'ललित'

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16.
श्रृंगार रस

राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

शीतल शांत सरोवर जल में,बिम्ब चाँद का हिलता है।
जलक्रीड़ा में मस्त चाँदनी,चाँद गले आ मिलता है।
हौले हौले हिण्डोले दे,पवन मगन हो मुसकाए।
दिनकर की आहट सुन दोनों,सर के तल में घुस जाएं।

ललित किशोर 'ललित'

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17.

कोटा में परसों एक बच्ची
सडक पर बैल की टक्कर से
असमय मृत्यु का ग्रास बन गई
उसे विनम्र श्रृद्धांजलि

सुंदर होनहार बच्ची थी,नाम अंजना जिसका था।
हरदम हँसती रहती थी वो,काम हँसाना उसका था।
नज़र लग गई नगर निगम की,एक बैल आ टकराया।
पल में वो गिर पड़ी धरा पर,शव ही वापस घर आया।

सूना घर अब सूनी गलियाँ,सूने हैं मंजर सारे।
माँ की आँखों मेंआँसू हैं,तात भ्रात रोकर हारे।
विद्यालय में शिक्षक रोते,आँसू रोकें सहपाठी ।
आँखें मूँद बैठना कोटा,नगर निगम की परिपाटी।

भगवन उस प्यारी बेटी को,चरण शरण में रख लेना।
मात-पिता भ्राता को ये दुख,सहने की ताकत देना।
कोटा के सब नगर निवासी,प्रभु से विनती करते हैं।
उस आत्मा को सद्गति देना,शीश चरण में धरते हैं।

ललित किशोर 'ललित'

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18.

सतरंगी दनिया

सतरंगी दुनिया के सातों,रंग बड़े सुंदर प्यारे।
ममता रूपी रंग जहाँ हो,फीके रंग वहाँ सारे।
जितना प्यार करे माँ सुत को,उतना रंग निखरता है।
लेकिन सुत को बूढ़ी माँ का,निश्छल रंग अखरता है।

ललित किशोर 'ललित'

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19.

दो रोटी

बच्चो को दो रोटी देकर,माँ खुद भूखी रहती है।
फटी साड़ियों से तन ढकती,बच्चों को खुश रखती है।
बच्चों को सूखे में रखकर,माँ गीले में पड़ जाए।
अपने बच्चों की खातिर वो,दुनिया भर से लड़ जाए।

ललित किशोर 'ललित'

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20.

माँ का दिल

माँ के दिल के कोने में इक,छोटी दुनिया रहती है।
प्यारा सा इक मुन्ना रहता,चंचल मुनिया रहती है।
माँ की पलकों की कोरों में,सुंदर सपने रहते हैं।
बच्चे जग में नाम करेंगें,वो सपने ये कहते हैं।

ललित किशोर 'ललित'

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21.

भारत माँ

भारत माँ अपने बच्चों की,खातिर सब दुख सहती है।
पूर्व दिशा में खड़ा हिमालय,पावन गंगा बहती है।
हर भारतवासी को माता,जीवन के सब सुख देती।
फिर भी मुख वो मोड़े माँ से,

ललित किशोर 'ललित'

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22.

माँ

याद आ रही हैं वो बातें,माँ जो मुझसे कहती थी।
उसके नैनों से हरदम जो,अमृत गंगा बहती थी।
मेरे मन की दुविधा को वो,आँखों से थी
पढ़ लेती।
मुझे दिलासा देने को थी,नई कहानी गढ़ लेती।

ललित किशोर 'ललित'

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आल्हा छंद विधान एवँ रचनाएँ

18.07.16

प्रणाम मित्रों 


13.01.2021

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 ----- आल्हा छंद विधान---

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1.सममात्रिक छंद

 2.कुल चार चरण।

3.विषम (पहले व तीसरे) चरण में 16 मात्रा 

4.सम (दूसरे व चौथे) चरण में 15  मात्रा

5.अंत सदैव गुरु लघु वर्ण से होता है

6.यति पूर्व गुरु+ गुरु वर्ण  (2 गुरु वर्ण)

होते हैं।

7.दो- दो पंक्तियों में तुकांत सुमेलित किया जाता है।

8.इसे वीर छंद भी कहते हैं।योद्धाओं का जोश बढाने के लिए इस छंद में सृजन किया जाता है।

9.किसी प्रसंग या कथा को आगे बढाने वाला जोशीली लय वाला छंद है।


            *** उदाहरण ****

                  आल्हा छंद


बदल गई सब परिभाषाएँ,बदले सब आचार-विचार।

निर्विकार वो कहलाते हैं,जिनके मन में भरे विकार।

फटे वस्त्र से बढ़ती शोभा,धनवानों की वैसे आज।

साजों का पारंगत जैसे,बजा रहा हो बिगड़े साज।

********रचनाकार*************

       ललित किशोर 'ललित'

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आल्हा छंद रचनाएँ

1

सोच रही हूं आज यही मैं,भर लूँ इक ऐसी परवाज।
नीलगगन में मैं उड़ जाऊँ,छेड़ूँ अपने मन के साज।
काम करूँ जग में कुछ ऐसे,ऊँचा होवे मेरा नाम।
बेटी होकर भी कर डालूँ,बेटे जैसा कोई काम।

'ललित'

आल्हा छंद
2

आल्हा छंद
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित

आज गुरू चरणो में मेरा,नमस्कार है बारम्बार।
छंद और लय ज्ञान दिया है,और दिया है बेहद प्यार।
शब्दों का संयोजन सीखा,उनसे ही है मैंने आज।
छंदों की रचना में खोया,भरता हूँ मैं नित परवाज

गुरू देव की इच्छा में ही,मिल जाती है
जिनकी चाह।
ऊँची फिर परवाज भरें वो,और सुगम हो जाती राह।
नियमों का पालन करने से,लेखन पाता और निखार।
माँ शारद को हैं वो प्यारे,जो नर करें गुरू से प्यार।

गुरू रूप में ईश्वर आए,देने हमें ज्ञान भण्डार।
गुरू तत्व को तुम पहचानो,इसकी महिमा अपरम्पार।
मंगल सदा शिष्य का होता,गुरू कृपा से ही तो खास।
गुरू शिष्य का बंधन ऐसा,जो आता है दिल को रास।

मात-पिता गुरु के चरणों में,जो नित अपना शीश झुकाय।
सदा विजय उसकी है होती,मनचाही मंजिल वो पाय।
एकलव्य सा शिष्य मिले तो,गुरु मूरत भी दे दे ज्ञान।
गुरू द्रोण की किरपा से ही,अर्जुन ने सीखा संधान।

'ललित'

3

आल्हा छंद

दीपक कहाँ जला करता है,बाती ही जलती हर बार।
पिघल-पिघल कर घी जलता है,दीपक की होती जयकार।
सबकी अपनी अपनी गाथा,अपने-अपने चरित्र खास।
घी बाती औ' दीपक तीनों,मिलकर फिर भी करें उजास।

'ललित'

आल्हा
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

सात सुरों में नहीं समाए,क्यूँ गाते हो ऐसा गीत?
हर उलझन में उलझोगे तो,कैसे पाओगे तुम जीत?
मछली की आँखों को देखो,मछली को तुम जाओ भूल।
अर्जुन से तुम सीख जरा लो,लक्ष्य साधने का ये मूल।

'ललित'
कृष्ण कहें अर्जुन से रण में,खास बात ये तू ले जान।
सुख दुख लाभ हानियों को तू ,मान सदा ही एक समान।
स्वर्ग मिलेगा मरने पर तो,राज्य मिलेगा पाकर जीत।
मन में कर ले निश्चय रण का,युद्ध पुकारे तुझ को मीत।

ललित

आल्हा
1

सात सुरों में नहीं समाए,क्यूँ गाते हो ऐसा गीत?
हर उलझन में उलझोगे तो,कैसे पाओगे तुम जीत?
मछली की आँखों को देखो,मछली को तुम जाओ भूल।
अर्जुन से तुम सीख जरा लो,लक्ष्य साधने का ये मूल।

'ललित'

आल्हा

इस मन को कितना समझाया,मत चलना तू टेढ़ी चाल।
लेकिन यह कुछ बेढंगे से,कर बैठा अनबूझ सवाल।
सीधे सीधे चलने वाले,क्यों होते हैं सदा हलाल?
टेढ़ी चाल चलें जो नेता,नहीं करें क्यो कभी मलाल?

'ललित'

आल्हा
शिव धनुष खण्डन

मन में नमन किया गुरुवर को,उठा लिया शिव-धनुष विशाल।
धनुष तेज से चमक उठा था,काँपे धरती औ' पाताल।
फुर्ती से खींची प्रत्यंचा,देख नहीं पाए नर-नार।
हुआ भयंकर शोर मच गया,तीन लोक में हाहाकार।

ललित
क्रमश:

आल्हा
चिन्ता नहीं करूँगा कोई,मानव मन में करे विचार।
लेकिन चिन्ता चुपके से आ,कर लेती मन पर अधिकार।
सुलगा कर फिर तनमन को वो,चिन्ता रूप धरे विकराल।
भूख-नींद सब हर लेती वो,और श्वेत कर देती बाल।

ललित

उल्लाला छंद रचना


उल्लाला छद
प्रथम प्रयास

मात पिता के प्रेम की,परिभाषा सबसे अलग।
सुत को कब आए समझ,ये नाता सबसे अलग।
तात और माता जिसे,लाड प्यार से पालते।
उसी सुत को मात पिता,कंटक ज्यों हैं सालते।

'ललित'

उल्लाला छंद

आज किटी में जा रही,मैडम सज धज के बड़ी।
नारंगी चश्मा लगा,छतरी लेकर है खड़ी।

पैसे डाले पर्स में,हाऊ जी ले हाथ में।
अॉटो रिक्शा में चढ़ी,चार सहेली साथ में।

करतीं सब अठखेलियाँ,बच्चों की किसको पड़ी।
दुल्हन सी सब सज रहीं,करती डिस्को हैं बड़ी।

खाने पीने का मजा,मौसम भी दे साथ है।
बातों की चटखारियाँ,ले हाथों में हाथ हैं।

ललित

उल्लाला छंद
पसन्द अपनी अपनी
29-07-16
छोड़ो भी ये बाँसुरी,राधा बोली श्याम से।
तेरी राह निहारती,बैठी हूँ मैं शाम से।

मुझ को अधरों से लगा,घूँघट के पट खोल दो।
बाहों में भर लो मुझे,कानों में कुछ बोल दो।

ब्रज का कण कण बोलता,अमर हमारी प्रीत है।
यमुना का जल बोलता,जीवन ये संगीत है।

तेरी नीयत में मुझे,लगता है कुछ खोट है।
नाचे गोपी संग तू,वंशी की ले ओट है।

बरसाने की छोकरी,देती तुझ पर जान है।
सब कुछ है तुझ को पता,क्यूँ बनता अंजान है?

साँझ सवेरे छेड़ता,धुन मुरली से प्रीत की।
लौकिक तो लगती नहीं,लय तेरे संगीत की।

प्रेम तरंगें उठ रहीं,यमुना की रसधार से।
सुरभित शीतल ये हवा,छूती कितने प्यार से।

इतना निष्ठुर क्यूँ भला,मोहन होता आज है।
ज्यादा क्या तुझ से कहूँ,आती मुझको लाज है।

ललित

पसन्द अपनी अपनी
29.07.16
उल्लाला छंद

मन्दिर मन्दिर घूमता,उसे न मिलता राम है।
राम वास करते जहाँ,साँस साँस में नाम है।

दौलत में सुख देखते,जो नर आठों याम हैं।
उनके मन में तो सदा,बसता केवल काम है।

'ललित'

उल्लाला छंद
दूसरा प्रयास

बस दिल में ही राखिए,दिल में जो भी दर्द है।
सुन कर हँसी उड़ायगी,दुनिया ये बेदर्द है।

दूजे की सुनकर व्यथा,बोलो उससे प्यार से।
वह कुछ राहत पायगा,शायद इस व्यवहार से।

'ललित'

उल्लाला छंद
तीसरा प्रयास

अपना दुख किससे कहूँ,सुनने वाला कौन है?
मंदिर का भगवान भी,सुनकर रहता मौन है।

कैसा वो भगवान जो,देता दर्शन खास को।
वी आई पी आदमी,तोड़े हैं विश्वास को।

'ललित'

उल्लाला छंद
चतुर्थ प्रयास

सरवर तीरे चूमती,ठण्डी मुझे बयार है।
बहने लगती फिर नए,छंदों की रसधार है।

मन में उठते भाव जो,लय में उनको ढाल दो।
छंदों के नियमों तले,कविता में फिर डाल दो।

ललित

उल्लाला छंद
प्रथम प्रयास

हनुमान जी

जाम्बवान बोले सुनो,चुप क्यों हो बलवान जी।
बल में पवन समान हो,पवन पुत्र हनुमान जी।

बुधि विवेक विज्ञान के,तुम तो अतुलित धाम हो।
याद करो उस बात को,जन्म लिए जिस काम हो।

इस जग में है कौन सा,काम तुम्हें दुश्वार जी।
राम काज के वासते,आप लिए अवतार जी।

जाम्बवान की बात ये,सुन कर वो हनुमान जी।
विशाल गिरि सम होगए,तन था कनक समान जी।

तन पर तेज विराजता,ज्यों हों पर्वतराज जी।
सिंहनाद कर खेल में,लाँघूँ सागर आज जी।

ललित

माटी में मिल
शीतल शबनम
सौरभ बनी

उल्लाला छंद
द्वितीय प्रयास

शरणागत को दी शरण,आया जो तज देश था।
गले विभीषण को लगा,बना दिया लंकेश था।
शरणागत वत्सल प्रभो,राम सुखों के धाम हैं।
भक्तों के भगवान वो,करते पूरण काम हैं।

ललित

उल्लाला छंद
प्रथम प्रयास

दुख ही है अपना सगा,सुख तो धोखे बाज है।
दुख में से सुख छान लो,दुख ही सुख का
साज है।
सुख दुख में जीवन बहे,रुक जाना तो मौत है।
पीर जीव की संगिनी,खुशियाँ जैसे सौत हैं।

ललित
उल्लाला छंद
द्वितीय प्रयास

उलझी जीवन डोर ये,सुलझेगी इक रोज तो।
पीठ दिखाकर जायगी,ये दु:खों की फौज तो।
हिम्मत का सब खेल है, मन के जीते   जीत है।
हारे से मुख मोड़ती,ये दुनिया की रीत है।

ललित

उल्लाला छंद
तृतीय प्रयास

रिश्तों की देखी यहाँ,ऐसी दौड़म भाग है।
मानव के भीतर छुपा,जैसे कोई नाग है।

भाई का दुश्मन रहा,जीवन भर जो भ्रात है।
भाई मरने पर वही,दुख की करता बात है।

ललित

उल्लाला छंद
चतुर्थ प्रयास

आते आते आयगा,जीवन में विश्राम भी।
जाते जाते जायगा,मानव मन से काम भी।

राम तुम्हें दिखलायगा,जीवन में आराम जी।
इसीलिए सब कहते हैं,जप लो मुख से राम जी।

ललित

उल्लाला छंद
पंचम प्रयास

मन चंचल बस में नहीं,करता सुख की आस है।
क्यों पागल समझे नहीं,सुख दु:खों का दास है?
मन को सुख तब भासता,तब मिलता आराम है।
जब सब कुछ अनुकूल है,नहीं क्लेश का  नाम है।

ललित

उल्लाला छंद
छठा प्रयास
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

साँसों की गठरी लिए,फिरता था दिन रात जी।
वो जीवन अब शांत है,साँसों से खा मात जी।
गठरी जब खाली हुई,टूट गई तब साँस है।
आत्मा छूमंतर हुई,अब हड्डी औ' माँस है।

ललित

[14/07 18:48] Rakesh Raj: आपकी प्रत्येक रचना शानदार और भावपूर्ण ही होती है ललित जी...👍🏻👍🏻😊😊👍🏻👍🏻👍🏻 किन्तु सिलेबस में चार ही रचनाएँ हैं.....😀😀😀🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
[14/07 18:54] Rakesh Raj: खूब लिखिए ललित जी...पटल के प्रति आपकी सक्रियता और सतत् लेखन का ही परिणाम है कि आपकी रचनाएँ....श्रेष्ठ भावपूर्ण और बेहतरीन कथ्ययुक्त होती हैं....👍🏻👍🏻💐💐👍🏻👍🏻🌹🌹🙏🏻🙏🏻

उल्लाला छंद

कनक वर्ण किरणें चलें,प्राची से अवतार ले।
मानव के संकल्प फिर,एक नया आकार लें।
'ललित'

उल्लाला छंद

देवों की यह भूमि है,भारत इसका नाम है।
इसके कण-कण में बसे,कान्हा औ' श्री राम हैं।

गंगा-यमुना नर्मदा,पावन तीरथ धाम हैं।
पत्थर को भी पूजते,गोवर्धन में श्याम हैं।

ललित

उल्लाला
प्रथम प्रयास

जाती सब कुछ हार जो,पालन में परिवार के।
क्या कोई कुछ सोचता,बारे में उस नार के?
जीवन देती वार जो,बच्चों के संसार पे।
क्या बच्चे सुख वारते,उस नारी के प्यार पे?

'ललित'

उल्लाला छंद

नारी के रूप

नारी कितने रूप में,बाँटे अपने आप को।
बेटी बन पैदा हुई,देती खुशियाँ बाप को।

सगी बहन बन साथ में,भाई को भी प्यार दे।
पत्नी बन ससुराल में,जीवन को नव धार दे।

बच्चों की किलकारियाँ,सुनती है माँ प्यार से।
सास बने तो माँ वही,मनती है मनुहार से।

दादी बन कर गर्व से,चलती सीना तान जी।
करे राम से प्रार्थना,रखना घर की आन जी।

'ललित'

उल्लाला छंद
3
साड़ी के आँचल तले,ममता की जो छाँव थी।
बच्चे को लगती वही,सबसे प्यारी ठाँव थी।

जीन्स टॉप में डोलती,हिरनी जैसी चाल में।
ममता तो बस खो गई,फैशन के इस जाल में।
ललित

उल्लाला छंद
4

मृगनयनी कैसे कहूँ,चश्मे में वो हूर है।
लजवन्ती कैसे कहूँ,शर्माना तो दूर है।
गलत
नाभि दर्शना,कमर भले उन्चास है।
काले रंगे बाल हैं,रंगों से ही आस है।

'ललित'

यूँ ही
एक उल्लाला
😃😃😃😃😃😃

ये कैसा संसार है,कैसी इसकी रीत है।
लाल रंग खतरा बना.
पीत रंग से प्रीत है।
हरा कहे तू चल जरा,
केसरिया मन मीत है।
काला काजल आँख में,
सुंदरता की जीत है।

ललित

उल्लाला छंद
प्रथम मिलन

देख रहा था मैं खड़ा,मुखड़ा उसका प्यार से।
शर्माती सी वो खड़ी,नजरों के उस वार से।

सुंदर सपना नैन में,यौवन के मधुमास का।
ऐसा था पहला मिलन,जीवन से उल्लास का।

ललित

उल्लाला
2

धक धक धड़के है जिया,सजनी का बरसात में।
कौंध रही हैं बिजलियाँ,भीगे शीतल गात में।
ठण्डी बूँदें छू रहीं,चंचल मन के तार को।
साजन भी पगला गया,भूला सब संसार को।

ललित

दिग्पाल/मृदुगति छंद रचनाएँ

04.07.16

  🍁 दिग्पाल छंद 🍁
221  2122,    221   2122
प्रथम प्रयास समीक्षा हेतु

गोविन्द नाम का ही,अब है मुझे सहारा।
नौका फँसी भँवर में,मिल जायगा किनारा।
द्वारे खड़ा सुदामा,कान्हा तुझे पुकारे।
दर्शन नहीं दिए तो,किस काम का सखा रे।

ललित

  🍁 दिग्पाल छंद 🍁

बादल बड़ा हठीला,आकाश से चिढ़ाए।
धरती लजा रही है,वो धड़कनें बढ़ाए।
बरसात की झड़ी में,वो बिजलियाँ गिराता।
नवयौवना भिगो दी,मुख फेर मुस्कुराता।

'ललित'

🍁 दिग्पाल छंद 🍁

3

जो तीन लोक स्वामी,दानव गिरा रहा है।
वो कृष्ण आज देखो,माखन चुरा रहा है।

फूला नहीं समाता,वो रास का रचैया।
वंशी बजा लुभाता,वो राधिका नचैया।

यों मुस्कुरा रही है,नन्हीं परी हमारी।
सब को हँसा रही है,माँ तात की दुलारी।
हर पल खुशी बिखेरे,इक पल न चैन लेती।

दिग्पाल

वो वोट माँगते थे,नेता बड़े खिलाड़ी।
हम वोट डाल आए,हर खेल में अनाड़ी।
वो सीट के पुजारी,अब भाव खा रहे हैं।
पी कर लहू हमारा,आँखें दिखा रहे हैं।

ललित

दिग्पाल छंद

भजन की कोशिश

गौविन्द नाम भज रे,गोपाल नाम भज रे।

मिल जायगा कन्हैया,तू लोभ काम तज रे।

यमुना पुकारती है,गोकुल पुकारता है

जो श्याम नाम सुमिरे,घनश्याम तारता है

ललित

दिग्पाल छंद

कैसी नजाकतें हैं,कैसी शरारतें हैं।
वो आँख के इशारे,कैसी इबारतें हैं।

दिल ढूँढता जिसे था,वो मीत मिल गया है।
जो जोड़ दे दिलों को,वो गीत मिल गया है।

ललित

दिग्पाल छंद
काव्यसृजन को समर्पित
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

ऐसा कहीं न देखा,परिवार काव्यमय जो।
हर बात छंद में हो,लय छंद में विलय हो।
सब दूर के निवासी,लेकिन हृदय निकट हैं।
भागीरथी सृजन की,परिवार एक तट है।

ललित
दिग्पाल छंद
समीक्षा हेतु

तन काव्यमय तुम्हारा,मन प्रेम रस बहाता।
प्यासा हृदय हमारा,जिसमें रहे नहाता।
कविता तुम्हीं हमारी,लय छंद मय बनी हो।
तुम से जगत हमारा,तुम ही हृदय बनी हो।

ललित

दिग्पाल छंद

जिस प्यार का सलीका,तुमने हमें सिखाया।

उस प्यार का नतीजा,तुमने हमें दिखाया।

दिल प्रेम का दिवाना,तुमने मगर न जाना।

हर रोज ला रही हो,कोई नया बहाना।

तुम को समझ न पाए,हम थे निरे अनाड़ी।

हम थे नए सिखक्कड़,तुम प्रेम की खिलाड़ी।

क्या मिल गया तुम्हें यूँ  ,उल्लू हमें बनाकर।

इक दिन जहाँ हँसेगा,उल्लू तुम्हें बनाकर।

ललित

दिग्पाल छंद

वो भोर का दिवाकर,क्यूँ मुस्कुरा रहा है?
हँसकर जरा निशा का,दामन गिरा रहा है।

इतरा रही हवाएं,शीतल बयार देकर।
शर्मा रहीं दिशाएं,सब लाल गाल लेकर।

वो चाँद औ' सितारे,क्यूँ मुख छुपा रहे हैं?
सूरज दिखा तभी से,वो कसमसा रहे हैं।

ये वक्त का तकाजा,ये वक्त की नजाकत।
सब को न रास आये,ये वक्त की हिमाकत।

'ललित'

दिग्पाल छंद

पागल हुआ भ्रमर वो,रस रंग का पुजारी।
हर फूल खूब प्यारा,वो बाग का शिकारी।

हर पुष्प हर कली से,वो प्यार है जताता।
पर प्यार को निभाना,हर बार भूल जाता।

ललित

दिग्पाल छंद

सुंदर कली तुम्हें मैं,किस ओर से निहारूँ।

जलती मशाल सी तुम,जिस छोर से निहारूँ।

धधकाय मदन ज्वाला,कातिल वदन तुम्हारा।

बारिश दियासलाई,तुम सींक बेसहारा।

'ललित'

दिग्पाल छंद

शीतल सहज सुहानी,सुरभित बयार हो तुम।
कमनीय कामिनी ज्यों,दिल पे सवार हो तुम।
हो प्रीत की छुअन तुम,सागर समान गहरी।
चंचल नजर हमारी,पाकर बहार ठहरी।

ललित

दिग्पाल छंद

थी चाल वो लचीली,कोमल कमर तुम्हारी।
दिल चीरती हठीली,मादक नजर तुम्हारी।
कैसे तुम्हें बताऊँ,सब याद आ रहे हैं।
हम दाल में मिलाकर,बस भात खा रहे हैं।

ललित

पूरी रचना
दिग्पाल छंद

जीवन जिया लचीला,रस-रास मय रसीला।
हर बात में हठीला,धन-धान्य मय नशीला।
सब कुछ मिला यहीं पर,कुछ भी न साथ लाया।
रह जायगा यहीं सब,क्यूँ लोभ है बढ़ाया?

दुनिया नहीं किसी की,होती कभी सगी है।
हर मीत स्वार्थ देखे,रिश्ते करें ठगी हैं।
इक राम ही सगा है,ले नाम का सहारा।
अब त्याग दे पिपासा,मिल जायगा किनारा।

कोई न साथ देता,ये रीत है जहाँ की।
प्रीतम न प्यार करता,ये प्रीत है कहाँ की।
संसार एक धोखा,क्यों तू समझ न पाया?
सुत तात मात भ्राता,सब में असत्य माया।

कुछ तो विचार कर ले,ओ देह के निवासी।
तू देह छोड़ इक दिन,हो जायगा प्रवासी।
कर साधना यहाँ तू,अब राम नाम जप ले।
भव बन्ध काटने को,कर दान यज्ञ तप ले।

'ललित'

दिग्पाल छंद

शुभरात्रि रचना
😀😀😀😀😀😀

वो बात गोल कर यों,खींसें निपोर देते।
हम दाँत पीस कर फिर,नींबू
निचोड़ देते।
हम हर सितम सहें यों,बेजान की तरह से।
वो और जुल्म ढायें,अंजान की तरह से।
ललित

8.7.16

दिग्पाल छंद
माता का पुत्री को आशीर्वाद

बेटी तुझे कभी भी,कोई कमी न होगी।
खुशियाँ सदा मिलेंगीं,कोई गमी न होगी।
तेरे लिए झुकेगा,हर इक शिखर जहाँ में।
तू बुद्धि में रहेगी,सबसे प्रखर जहाँ में।

'ललित'

दिग्पाल छंद

क्यूँ बात तात की ये,सुनना न पूत चाहें?
जब हाय होगई हैं,कमजोर ये निगाहें।
क्यूँ आज दे न सकते,ऐनक दिला सहारा?
जब बाप ने सदा ही,था प्यार से निहारा।

ललित

दिग्पाल छंद

माँ

कैसे चली गयीं तुम,मुझको बिसार कर माँ?
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

यूँ आज घुल गई हो,आकाश की हवा में।
तुम गूँजती हमेशा,दिल से उठी दुआ में।
ये सुत तुम्हें पुकारे,बाहें पसार कर माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

कैसे ज़मीर माना,मझधार हाथ छोड़ा?
जग हो गया पराया,दुख ने मुझे निचोड़ा।
मन आज रो रहा है,ये ही विचार कर  माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

आँखें सदा तुम्हारी,सुत को निहारती हैं।
शिक्षा सदा तुम्हारी,पथ को सँवारती है।
जीना मुझे सिखाया,खुद को निसार कर माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

यूँ तो कभी तुम्हारी,पूरी कमी न होगी।
सिर आसमाँ हमारे,पाँवों ज़मीं न होगी।
इंसाँ मुझे बनाया,तुमने निखार कर माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

कैसे चली गयीं तुम,मुझको बिसार कर माँ?
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

'ललित'

राधे राधे
🌺🙏🌺

जो आज जी रहे हम,क्या जिन्दगी यही है?
कर्त्तव्य सब निभाए,क्या बन्दगी यही है?
हम क्यूँ समझ न पाए,जीवन किसे कहेंगें?
हरि भजन कर जिया जो,जीवन उसे कहेगें।

'ललित'

दिग्पाल छंद

दो चार पल खुशी के,चोरी किये गमों से।
वो आज खुश हुआ है,खा कर गरम समोसे।
गम हों हजार दिल में,पर मुख रहे दमकता।
उस खुश मिजाज नर का,जीवन सदा चमकता।

ललित
दिग्पाल छंद
गोपी उद्धव संवाद

मोहन बिना हमारा,होता नहीं गुजारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।
हम प्रेम में पली हैं,औ' प्यार में ढली हैं
बस प्रीत से मिलेगा,कान्हा बड़ा छली है।

इस प्रीत से बँधा है,संसार आज सारा।
है प्रेम के बिना तो,ये व्यर्थ ज्ञान धारा।
हम ज्ञान का करें क्या,कान्हा बसा हृदय में।
क्यों ज्ञान चक्षु खोलें,जब कृष्ण साँस लय में।

बजती न आज वंशी,सुनसान ब्रज धरा है।
घनश्याम के बिना तो,सबका हृदय भरा है।
इस प्यार से बँधा जो,कब तक न आयगा वो।
वंशी नहीं बजाकर,कब तक सतायगा वो।

ललित
दिग्पाल छंद
गीत

मोहन बिना हमारा,होता नहीं गुजारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

हम प्रेम में पली हैं,औ' प्यार में ढली हैं
बस प्रीत से मिलेगा,कान्हा बड़ा छली है।
है प्रेम के बिना तो,ये व्यर्थ ज्ञान धारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

हम ज्ञान का करें क्या,कान्हा बसा हृदय में।
क्यों ज्ञान चक्षु खोलें,जब कृष्ण साँस लय में।
बस प्रीत में छिपा है,हर जीत का इशारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

बजती न आज वंशी,सुनसान ब्रज धरा है।
घनश्याम के बिना तो,सबका हृदय भरा है।
मनमोहना पिया पे,सारा जहान वारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

इस प्यार से बँधा जो,कब तक न आयगा वो।
वंशी नहीं बजाकर,कब तक सतायगा वो।
कर पायगा न कान्हा,राधा बिना गुजारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

समाप्त

ललित

01.9.16

दिग्पाल छंद
1

किश्ती पुकारती है,लहरों न साथ छोड़ो।
यूँ बीच धार लाकर,मेरा न हाथ छोड़ो।
बढ़ते रहें सदा जो,हम हाथ थाम यूँ ही।
मिल जायगा हमारा,हमको मुकाम यूँ ही।

ललित

सारा समाँ महकता,इन खिलखिलाहटों से।
है आसमाँ चहकता,इन झिलमिलाहटों से।

दिग्पाल छंद

कैसे बने जलेबी,ये भी जरा बता दो।
क्यों चाशनी सनी है,ये भी हमें जता दो।
अच्छा लगे समोसा,हम मानते नहीं हैं।
काहे तिकोन होता,हम जानते नहीं हैं।

ललित

दिग्पाल छंद

क्या खूब है कहानी,शैतान राज करते।
जो 'आप' 'आप' जपते,वो पाप आज करते।
हम 'आप' और सब में,उलझी हुई कहानी।
जब राज खुल गया ये,है 'आप' का न सानी।

'ललित'

दिग्पाल छंद
जीवन-मृत्यु

गठ जोड़ जिन्दगी से,कुछ भी न काम आया।
मृत देह अब पड़ी है,ले साँस भी न पाया।
जो तार तार करके,दौलत रहा कमाता।
वो देह का निवासी,अब क्यूँ नजर न आता?

हैं तात भ्रात रोते,अर्द्धांगिनी बिलखती।
हैं बंधु आज रोते,माँ शून्य में निरखती।
काहे समझ न पाया,वो मौत की कहानी?
जीवन सगा नहीं है,ये बात क्यूँ न मानी?

'ललित'

दिग्पाल छंद
मैंने बकरा कुर्बान होता कभी नही देखा।
कल्पना की है ईस दृश्य की जब बकरा कुर्बान किया जाता है
या
किसी आदमी को बलि का बकरा बनाया जाता है।

राजनीति में कुछ लोग बलि का बकरा बना दिए जाते हैं तो कुछ स्वयमेव बन जाते हैं।
देखिए कैसे.....

दिग्पाल छंद

वो शानदार बकरा,जो खूब सज रहा था।
कुर्बान हो रहा था,तब ढोल बज रहा था।
कुछ लोग झूमकर यूँ,ताली बजा रहे थे।
कुछ दूर बैठ अपनी ,थाली सजा रहे थे।

'ललित'

छद श्री सम्मान