दिग्पाल/मृदुगति छंद रचनाएँ

04.07.16

  🍁 दिग्पाल छंद 🍁
221  2122,    221   2122
प्रथम प्रयास समीक्षा हेतु

गोविन्द नाम का ही,अब है मुझे सहारा।
नौका फँसी भँवर में,मिल जायगा किनारा।
द्वारे खड़ा सुदामा,कान्हा तुझे पुकारे।
दर्शन नहीं दिए तो,किस काम का सखा रे।

ललित

  🍁 दिग्पाल छंद 🍁

बादल बड़ा हठीला,आकाश से चिढ़ाए।
धरती लजा रही है,वो धड़कनें बढ़ाए।
बरसात की झड़ी में,वो बिजलियाँ गिराता।
नवयौवना भिगो दी,मुख फेर मुस्कुराता।

'ललित'

🍁 दिग्पाल छंद 🍁

3

जो तीन लोक स्वामी,दानव गिरा रहा है।
वो कृष्ण आज देखो,माखन चुरा रहा है।

फूला नहीं समाता,वो रास का रचैया।
वंशी बजा लुभाता,वो राधिका नचैया।

यों मुस्कुरा रही है,नन्हीं परी हमारी।
सब को हँसा रही है,माँ तात की दुलारी।
हर पल खुशी बिखेरे,इक पल न चैन लेती।

दिग्पाल

वो वोट माँगते थे,नेता बड़े खिलाड़ी।
हम वोट डाल आए,हर खेल में अनाड़ी।
वो सीट के पुजारी,अब भाव खा रहे हैं।
पी कर लहू हमारा,आँखें दिखा रहे हैं।

ललित

दिग्पाल छंद

भजन की कोशिश

गौविन्द नाम भज रे,गोपाल नाम भज रे।

मिल जायगा कन्हैया,तू लोभ काम तज रे।

यमुना पुकारती है,गोकुल पुकारता है

जो श्याम नाम सुमिरे,घनश्याम तारता है

ललित

दिग्पाल छंद

कैसी नजाकतें हैं,कैसी शरारतें हैं।
वो आँख के इशारे,कैसी इबारतें हैं।

दिल ढूँढता जिसे था,वो मीत मिल गया है।
जो जोड़ दे दिलों को,वो गीत मिल गया है।

ललित

दिग्पाल छंद
काव्यसृजन को समर्पित
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

ऐसा कहीं न देखा,परिवार काव्यमय जो।
हर बात छंद में हो,लय छंद में विलय हो।
सब दूर के निवासी,लेकिन हृदय निकट हैं।
भागीरथी सृजन की,परिवार एक तट है।

ललित
दिग्पाल छंद
समीक्षा हेतु

तन काव्यमय तुम्हारा,मन प्रेम रस बहाता।
प्यासा हृदय हमारा,जिसमें रहे नहाता।
कविता तुम्हीं हमारी,लय छंद मय बनी हो।
तुम से जगत हमारा,तुम ही हृदय बनी हो।

ललित

दिग्पाल छंद

जिस प्यार का सलीका,तुमने हमें सिखाया।

उस प्यार का नतीजा,तुमने हमें दिखाया।

दिल प्रेम का दिवाना,तुमने मगर न जाना।

हर रोज ला रही हो,कोई नया बहाना।

तुम को समझ न पाए,हम थे निरे अनाड़ी।

हम थे नए सिखक्कड़,तुम प्रेम की खिलाड़ी।

क्या मिल गया तुम्हें यूँ  ,उल्लू हमें बनाकर।

इक दिन जहाँ हँसेगा,उल्लू तुम्हें बनाकर।

ललित

दिग्पाल छंद

वो भोर का दिवाकर,क्यूँ मुस्कुरा रहा है?
हँसकर जरा निशा का,दामन गिरा रहा है।

इतरा रही हवाएं,शीतल बयार देकर।
शर्मा रहीं दिशाएं,सब लाल गाल लेकर।

वो चाँद औ' सितारे,क्यूँ मुख छुपा रहे हैं?
सूरज दिखा तभी से,वो कसमसा रहे हैं।

ये वक्त का तकाजा,ये वक्त की नजाकत।
सब को न रास आये,ये वक्त की हिमाकत।

'ललित'

दिग्पाल छंद

पागल हुआ भ्रमर वो,रस रंग का पुजारी।
हर फूल खूब प्यारा,वो बाग का शिकारी।

हर पुष्प हर कली से,वो प्यार है जताता।
पर प्यार को निभाना,हर बार भूल जाता।

ललित

दिग्पाल छंद

सुंदर कली तुम्हें मैं,किस ओर से निहारूँ।

जलती मशाल सी तुम,जिस छोर से निहारूँ।

धधकाय मदन ज्वाला,कातिल वदन तुम्हारा।

बारिश दियासलाई,तुम सींक बेसहारा।

'ललित'

दिग्पाल छंद

शीतल सहज सुहानी,सुरभित बयार हो तुम।
कमनीय कामिनी ज्यों,दिल पे सवार हो तुम।
हो प्रीत की छुअन तुम,सागर समान गहरी।
चंचल नजर हमारी,पाकर बहार ठहरी।

ललित

दिग्पाल छंद

थी चाल वो लचीली,कोमल कमर तुम्हारी।
दिल चीरती हठीली,मादक नजर तुम्हारी।
कैसे तुम्हें बताऊँ,सब याद आ रहे हैं।
हम दाल में मिलाकर,बस भात खा रहे हैं।

ललित

पूरी रचना
दिग्पाल छंद

जीवन जिया लचीला,रस-रास मय रसीला।
हर बात में हठीला,धन-धान्य मय नशीला।
सब कुछ मिला यहीं पर,कुछ भी न साथ लाया।
रह जायगा यहीं सब,क्यूँ लोभ है बढ़ाया?

दुनिया नहीं किसी की,होती कभी सगी है।
हर मीत स्वार्थ देखे,रिश्ते करें ठगी हैं।
इक राम ही सगा है,ले नाम का सहारा।
अब त्याग दे पिपासा,मिल जायगा किनारा।

कोई न साथ देता,ये रीत है जहाँ की।
प्रीतम न प्यार करता,ये प्रीत है कहाँ की।
संसार एक धोखा,क्यों तू समझ न पाया?
सुत तात मात भ्राता,सब में असत्य माया।

कुछ तो विचार कर ले,ओ देह के निवासी।
तू देह छोड़ इक दिन,हो जायगा प्रवासी।
कर साधना यहाँ तू,अब राम नाम जप ले।
भव बन्ध काटने को,कर दान यज्ञ तप ले।

'ललित'

दिग्पाल छंद

शुभरात्रि रचना
😀😀😀😀😀😀

वो बात गोल कर यों,खींसें निपोर देते।
हम दाँत पीस कर फिर,नींबू
निचोड़ देते।
हम हर सितम सहें यों,बेजान की तरह से।
वो और जुल्म ढायें,अंजान की तरह से।
ललित

8.7.16

दिग्पाल छंद
माता का पुत्री को आशीर्वाद

बेटी तुझे कभी भी,कोई कमी न होगी।
खुशियाँ सदा मिलेंगीं,कोई गमी न होगी।
तेरे लिए झुकेगा,हर इक शिखर जहाँ में।
तू बुद्धि में रहेगी,सबसे प्रखर जहाँ में।

'ललित'

दिग्पाल छंद

क्यूँ बात तात की ये,सुनना न पूत चाहें?
जब हाय होगई हैं,कमजोर ये निगाहें।
क्यूँ आज दे न सकते,ऐनक दिला सहारा?
जब बाप ने सदा ही,था प्यार से निहारा।

ललित

दिग्पाल छंद

माँ

कैसे चली गयीं तुम,मुझको बिसार कर माँ?
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

यूँ आज घुल गई हो,आकाश की हवा में।
तुम गूँजती हमेशा,दिल से उठी दुआ में।
ये सुत तुम्हें पुकारे,बाहें पसार कर माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

कैसे ज़मीर माना,मझधार हाथ छोड़ा?
जग हो गया पराया,दुख ने मुझे निचोड़ा।
मन आज रो रहा है,ये ही विचार कर  माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

आँखें सदा तुम्हारी,सुत को निहारती हैं।
शिक्षा सदा तुम्हारी,पथ को सँवारती है।
जीना मुझे सिखाया,खुद को निसार कर माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

यूँ तो कभी तुम्हारी,पूरी कमी न होगी।
सिर आसमाँ हमारे,पाँवों ज़मीं न होगी।
इंसाँ मुझे बनाया,तुमने निखार कर माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

कैसे चली गयीं तुम,मुझको बिसार कर माँ?
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।

'ललित'

राधे राधे
🌺🙏🌺

जो आज जी रहे हम,क्या जिन्दगी यही है?
कर्त्तव्य सब निभाए,क्या बन्दगी यही है?
हम क्यूँ समझ न पाए,जीवन किसे कहेंगें?
हरि भजन कर जिया जो,जीवन उसे कहेगें।

'ललित'

दिग्पाल छंद

दो चार पल खुशी के,चोरी किये गमों से।
वो आज खुश हुआ है,खा कर गरम समोसे।
गम हों हजार दिल में,पर मुख रहे दमकता।
उस खुश मिजाज नर का,जीवन सदा चमकता।

ललित
दिग्पाल छंद
गोपी उद्धव संवाद

मोहन बिना हमारा,होता नहीं गुजारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।
हम प्रेम में पली हैं,औ' प्यार में ढली हैं
बस प्रीत से मिलेगा,कान्हा बड़ा छली है।

इस प्रीत से बँधा है,संसार आज सारा।
है प्रेम के बिना तो,ये व्यर्थ ज्ञान धारा।
हम ज्ञान का करें क्या,कान्हा बसा हृदय में।
क्यों ज्ञान चक्षु खोलें,जब कृष्ण साँस लय में।

बजती न आज वंशी,सुनसान ब्रज धरा है।
घनश्याम के बिना तो,सबका हृदय भरा है।
इस प्यार से बँधा जो,कब तक न आयगा वो।
वंशी नहीं बजाकर,कब तक सतायगा वो।

ललित
दिग्पाल छंद
गीत

मोहन बिना हमारा,होता नहीं गुजारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

हम प्रेम में पली हैं,औ' प्यार में ढली हैं
बस प्रीत से मिलेगा,कान्हा बड़ा छली है।
है प्रेम के बिना तो,ये व्यर्थ ज्ञान धारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

हम ज्ञान का करें क्या,कान्हा बसा हृदय में।
क्यों ज्ञान चक्षु खोलें,जब कृष्ण साँस लय में।
बस प्रीत में छिपा है,हर जीत का इशारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

बजती न आज वंशी,सुनसान ब्रज धरा है।
घनश्याम के बिना तो,सबका हृदय भरा है।
मनमोहना पिया पे,सारा जहान वारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

इस प्यार से बँधा जो,कब तक न आयगा वो।
वंशी नहीं बजाकर,कब तक सतायगा वो।
कर पायगा न कान्हा,राधा बिना गुजारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।

समाप्त

ललित

01.9.16

दिग्पाल छंद
1

किश्ती पुकारती है,लहरों न साथ छोड़ो।
यूँ बीच धार लाकर,मेरा न हाथ छोड़ो।
बढ़ते रहें सदा जो,हम हाथ थाम यूँ ही।
मिल जायगा हमारा,हमको मुकाम यूँ ही।

ललित

सारा समाँ महकता,इन खिलखिलाहटों से।
है आसमाँ चहकता,इन झिलमिलाहटों से।

दिग्पाल छंद

कैसे बने जलेबी,ये भी जरा बता दो।
क्यों चाशनी सनी है,ये भी हमें जता दो।
अच्छा लगे समोसा,हम मानते नहीं हैं।
काहे तिकोन होता,हम जानते नहीं हैं।

ललित

दिग्पाल छंद

क्या खूब है कहानी,शैतान राज करते।
जो 'आप' 'आप' जपते,वो पाप आज करते।
हम 'आप' और सब में,उलझी हुई कहानी।
जब राज खुल गया ये,है 'आप' का न सानी।

'ललित'

दिग्पाल छंद
जीवन-मृत्यु

गठ जोड़ जिन्दगी से,कुछ भी न काम आया।
मृत देह अब पड़ी है,ले साँस भी न पाया।
जो तार तार करके,दौलत रहा कमाता।
वो देह का निवासी,अब क्यूँ नजर न आता?

हैं तात भ्रात रोते,अर्द्धांगिनी बिलखती।
हैं बंधु आज रोते,माँ शून्य में निरखती।
काहे समझ न पाया,वो मौत की कहानी?
जीवन सगा नहीं है,ये बात क्यूँ न मानी?

'ललित'

दिग्पाल छंद
मैंने बकरा कुर्बान होता कभी नही देखा।
कल्पना की है ईस दृश्य की जब बकरा कुर्बान किया जाता है
या
किसी आदमी को बलि का बकरा बनाया जाता है।

राजनीति में कुछ लोग बलि का बकरा बना दिए जाते हैं तो कुछ स्वयमेव बन जाते हैं।
देखिए कैसे.....

दिग्पाल छंद

वो शानदार बकरा,जो खूब सज रहा था।
कुर्बान हो रहा था,तब ढोल बज रहा था।
कुछ लोग झूमकर यूँ,ताली बजा रहे थे।
कुछ दूर बैठ अपनी ,थाली सजा रहे थे।

'ललित'

1 comment:

  1. बढ़िया लिखा है । लेकिन छंदों में उर्दू शब्दों से नहीं बचना चाहिये क्या। जबकि आप गुरु को दो लघु में भी बदलने की सुविधा ले रहे हैं। हालाँकि इन्हें छन्द न कहकर छन्द आधारित रचनाएँ कहना ज्यादा उचित है। लेकिन लिखा अच्छा है आपने। बधाई।
    मेरा नम्बर है - 9871987947

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