ताटंक सृजन 3 दि15.8.16 से


ताटंक छंद
15.8.16

पायी है आजादी हमने,दे बलिदान जवानों के।
व्यर्थ न होने देंगे हम अब,वो

ताटंक

घर की दीवारों की भाषा,मानव समझ कहाँ पाया?
मौन खड़ी मीनारों से भी,ये मन सुलझ कहाँ पाया?
ताजमहल क्या कभी किसी को,अंदर का सुख दे पाया?
रिश्तों की दुनिया से भी क्या,ये मन वो सुख ले पाया?

पकड़ नहीं पाता क्यों सुख को,मन ये अपनी मुट्ठी में?
माँ भी नहीं पिला सकती क्यों,सुख बचपन की घुट्टी में?
कितना समझाया इस मन को,मत भागो सुख के पीछे।
लेकिन ये तो दीवाना सा,भाग रहा आँखे मींचे।

दुख में कोई हँसता देखा,कोई सुख कम ही आँके।
खुद के सुख को भूला कोई,दूजे के सुख में झाँके।
दूजे का दुख हरकर कोई,अंदर का सुख पाता है।
अंदर का सुख पाकर मानव,मंद मंद मुस्काता है।

सुख दुख के बादल इस नभ में,रह रह कर
यूँ छाते हैं।
बिन बरसात किये ही बादल,दूर कहीं उड़ जाते हैं।
पर मानव क्यूँ डर जाता है,देख बादलों को आया।
सूरज पर विश्वास करें तो,मिले बादलों से छाया।

रंग चढ़ा सुख दुख के मन को,रब ने खूब निचोड़ा है।
सुख दुख में गोते खाता ये,मानव तभी निगोड़ा है।
मन हरदम उलझा रहता है,सुख दुख की परिभाषा में।
सुख हाथों से निकला जाए,और सुखों की आशा में।

'ललित'

ताटंक
6

मन्दिर की दीवारों से भी,सुख का संदेशा पाया।
मूरत ने वो रूप दिखाया,मन में था जैसा ध्याया।
मन मंदिर में बस वो मूरत,भीतर सुख उपजाती है।
जीवन सुख से रौशन होता,दुख की बुझती बाती है।
ललित

17.8.16
श्रृंगार रस
ताटंक छंद

पूनम का जो चाँद गगन से,शीतलता बरसाता है।
देख तुम्हारी शीतलता को,वो भी शरमा जाता है।
फूलों का मादक रस पी जो,भँवरा मदमाता घूमे।
देख तुम्हारे मादक नैना,फूलों को फिर से चूमे।

देख तुम्हारे कोमल तन को,फूलों की निकलें आहें।
छूकर तुम्हें हवा जो गुजरे,सौरभ से महकें राहें।
वसन भीग कर चिपके तन से,बरखा की मनमानी से।
नख शिख सुंदर रूप तुम्हारा,और निखरता पानी से।

'ललित'

ताटंक
राखी

राखी के धागों की भाषा,हर भाषा से न्यारी है।
अपनी गुड़िया जैसी बहना,हर भाई को प्यारी है।
बहना जब राखी बाँधे तो,रोम रोम उसका बोले।
हर धागे में प्यार भरा है,मैंन आज बिना तोले।

'ललित'

ताटंक

देख रहा राखी वो भाई,हसरत भरी निगाहों से।
बहना को दफना आया जो,छोटी छोटी बाहों से।
थी मासूम कली मुस्काती,घर भर को महकाती थी।
इक दानव ने ऐसा मसला,बिखर गई हर पाती थी।

'ललित'

ताटंक

भेज रही हूँ भैया तुमको,मैं सुंदर राखी  प्यारी।
बँधी हुई है इस राखी में,सपनों की दुनिया सारी।
प्यार भरी उम्मीदें इसमें,नेह भरी कुछ यादें हैं।
ध्यान बहन का सदा रखोगे,ऐसे भी कुछ वादे हैं।

ललित

ताटंक
पहला चित्र आधारित

बाँध रही हूँ भैया राखी,आज कलाई में तेरी।
आन पड़े जब मुश्किल कोई,लाज बचा लेना मेरी।
इस कच्चे धागे में मैंने,लाख दुआएं हैं बाँधी।
रोक न पाएगी अब भैया,दुख की कोई भी आँधी।

ललित

ताटंक
दूसरे  चित्र पर आधारित

सावन की रिमझिम बरसातें,ये झूलों की सौगातें।
और झूलती सखियाँ सारी,करती चुहल भरी बातें।
नैनों में हैं सपन सुहाने,मन में साजन की यादें।
वन उपवन सब सुंदर इतने,जितने साजन के वादे।

'ललित'

ताटंक
तीसरा चित्र

उलझा आज हुआ है जीवन,जैसे झंझावातों में।
याद मुझे आती है माँ की,ऐसी गमगीं रातों में।
माँ के दामन की खुशबू ही,गम सारे हर लेती थी।
मेरी हर विपदा को ही माँ,ले अपने सर लेती थी।

'ललित'
ताटंक

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छद श्री सम्मान