दिग्पाल सृजन 2** 29.8.16 से

दिग्पाल छंद

दिग्पाल छंद

माँ बाप ने किया जो,अहसान तो नहीं था।
मेरा दिमाग आला,सब  ग्यान तो वहीं था।
आकाश को छुआ है,अपनी अकल लगा के।
अप्रेल.फूल देखो,हमको नहीं बनाना।
अंग्रेज की प्रथा ये,हम पर न आजमाना।
वो राधिका दिवानी,घनश्याम साँवरे की।
थी कब हँसी उड़ाती,नंदलाल बावरे की।
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समीक्षा हेतु

हर साँस कह रही जो,वो बात क्यूँ न जानी?
यह देह है परायी,ये बात क्यूँ न मानी?
जीवन सरक रहा है,ये क्यूँ न दे दिखाई?
यौवन गुजर रहा है,ये बात क्यूँ न भाई?

'ललित'

दिग्पाल छंद

राधा प्रेम
स्वपरिष्कृत

जब से मिली नजरिया,कुछ होश ही नहीं है।
हर पल मुझे लगे यूँ,तू पास ही कहीं है।
ये बावरा दिवाना,दिल क्यूँ नहीं धड़कता?
बिन साँवरे कहीं क्यूँ,पत्ता नहीं खड़कता?

बोले पिहू पपीहा,कोयल कुहू पुकारे।
बस श्याम श्याम रटती,वृषभानु की सुता रे।
तेरे बिना कन्हाई,सूखी सभी लताएं।
सखियाँ लगें परायी,पागल मुझे बताएं।

ये शुभ्र चाँदनी भी,तुम बिन नहीं सुहाती।
शीतल बयार भी अब,मनमोहना न भाती।
अँखियाँ तरस गई हैं,तुमको निहारने को।
मन हो रहा न राजी,तुमको बिसारने को।

'ललित'

प्रथम प्रयास
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काफिया  आ
रदीफ  रहा हूँ

एक संत की वाणी

जो दीप बुझ चुके हैं,उनको जला रहा हूँ।
वह आत्म रस यहाँ मैं,सबको चखा रहा हूँ।

यह देह और देही,जिसमें अलग दिखेंगें।
वह ज्ञान का उजाला,सबको दिखा रहा हूँ।

ललित

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