कण्डलिनी रचना(काव्य सृजन)


राधागोविन्द17-2-17
कुण्डलिनी
सुन कान्हा की बाँसुरी,हृदय कमल खिल जाय।
हर गोपी को रास में,नटनागर मिल जाय।
नटनागर मिल जाय,सुने वो दिल की बतियाँ।
चले रास अविराम,दिन हों चाहे रतियाँ।
'ललित'

कुण्डलिनी छंद (काव्य सृजन)

झूठी तारीफ

गुब्बारे सा फूलता,देखा मानव ढोल।
सुनता जब तारीफ के,झूठे-सच्चे बोल।।

झूठे-सच्चे बोल,कहें जो दुनिया वाले।
लगते हैंं अनमोल,झूठ के वो सब प्याले।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

गंगा

लहर लहर को चूमती,लहर लहर लहराय।
लहर लहर में झूमती,गंगा बहती जाय।
गंगा बहती जाय ,जगत को पावन करती।
खुद मैली हो जाय,पाप सब के है हरत़ी।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

हर सिंगार के पुष्प

हर सिंगार निशा ढले,पुष्प कुंद बरसाय।
केसरिया तन पिस बने,चंदन तिलक सहाय।
चंदन तिलक सहाय,गंध पावन मदमाती।
प्रभु के मन को भाय,राधिका को हर्षाती।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद
चित्र आधारित

काहे पकड़े साँवरे,ये चुनरी का छोर।
हाथ जोड़ विनती करूँ,मत कर जोरा-जोर।।
मत कर जोरा-जोर,सजन अब घर है जाना।
नहिं पहुंची जो भोर,सखी सब देंगीं ताना।।

'ललित'
राधा गोविंद 10.2.17
कुण्डलिनी छंद
कटार ,छुरी

चाक हृदय होता रहा,झेल वार पर वार।
तेज छुरी से भी बुरी,उसकी नैन कटार।
उसकी नैन कटार,बला की है कजरारी।
हौले से बल खाय,चले ज्यूँ दिल पर आरी।

'ललित'
राधा गोविंद 11-2-17
कुण्डलिनी छंद

लट

उलझा सब संसार है,तेरी लट में श्याम।
नाचें सारी गोपियाँ,भूल घरों के काम।।
भूल घरों के काम,लटकती लटें निहारें।
राधा जी हर शाम,संग ब्रजधाम गुजारें।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

लट,जुल्फ

उलझी लट सुलझा रहा,बैठ जुल्फ की छाँव।
उलझ लटों में जब गया,भूल गया निज गाँव।
भूल गया निज गाँव,सखा भाई वो सारे।
मात-पिता-सुत-भ्रात,पत्नी सब ही बिसारे।

'ललित'

3.3.16
कुण्डलिनी छंद

मीठी बोली

कड़वी बोली से जहाँ,शहद नहीं बिक पाय।
मीठी बोली से वहाँ,मिर्ची भी बिक जाय।।

मिर्ची भी बिक जाय,मधुर वाणी जो बोले।
सबका दिल हर्षाय,मीत वो हौले हौले।।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

अँगुली था वो थामता,जब छोटे थे पाँव।
बड़े हुए जब पाँव तो,भूला अपना गाँव।।

भूला अपना गाँव,पिता की जूती पहने।
चला गया जिस ठाँव,अजी उस के क्या कहने।।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

पीजा

पीजा खाकर चल पड़ी,इठलाती इक नार।
होटल वाला टोकता,चल दी पहले कार।

चल दी पहले कार,उड़ाती धूल धमासा।
हँसती दुनिया देख,हुआ ये खूब तमाशा।

'ललित'

कुण्डलिनी छंद

मोबाइल ले हाथ में,चली जा रही मेम।
सड़क पार करते हुए,खेल रही थी गेम।।

खेल रही थी गेम,बला की सुंदर थी वो।
पल में आई वैन,उसी के अंदर थी वो।।

'ललित'
गथा पुराण

पगडंडी पर इक गधा,बोझा ढोता जाय।
मालिक लठ ले हाथ में,रोता रोता जाय।

रोता रोता जाय,प्रेरणा हमको देता।
गधा बड़ा चालाक,दुलत्ती भी दे लेता।

ललित

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