समान/सनाई छंद रचनाएँ

 
समान/सनाई छंद रचनाएँ

5.9.16

समान छंद
प्रथम प्रयास
राकेश जी के सुझाव से परि

श्री राम तुभ्हारे चरणों में,ये शीश झुकाने आया हूँ।
मेरे अपराध क्षमा करना,यह अरज लगाने आया हूँ।
जप तप पूजा मैं क्या जानूँ,मन में सुमिरन कर लेता हूँ।
भवसागर से तरना चाहूँ,तन मन अर्पण कर देता हूँ।

ललित

समान छंद
प्रथम प्रयास
राकेश जी के सुझाव से परि

जीवन में कभी निराशा की,जब छाया इक घिर आती है।
उस जीवन दाता की मुझको,छवि याद बहुत फिर आती है।
मन से फरियाद निकलती है,इस मन को कुछ संबल दे दो।
हर लो मन का संताप प्रभो,खुशियों के पल दो पल दे दो।

ललित

समान छंद
दूसरा प्रयास

चंचल सजनी सुंदर सजना,जब यौवन का सुख लेते हैं।
हर ओर बहारें दिखती हैं,सब सपने भी सुख देते हैं।
हर ओर दिखे है खुशहाली,इक दूजे में खो रहते हैं।
जग की उनको परवाह कहाँ,मदमस्ती में जो रहते हैं?

'ललित'

जीवन में कभी निराशा की, जब छाया इक घिर आती है। 👈🏻 ऐसे करें ललित जी....बहुत सुंदर सृजन...हार्दिक बधाई..👍🏻💐💐💐👍🏻

समान छंद
तीसरा प्रयास

वो अपने भी क्या अपने हैं,जो खुद सपनों में डूबे हैं?
जिनकी आँखो में हरदम ही,बस दिखते निज मंसूबे हैं।
दिखता हर रिश्ते में लालच,हर दिल में गहरी खाई है।
अपनों से हर आशा छोड़ी,अब खुद ही अलख जगाई है।

'ललित'

समान छंद
गीत का मुखड़ा और एक अंतरा
राकेश जी के सुझाव से परि

क्यूँ छोड़ दिया ब्रज को तूने,क्यूँ राधा रानी बिसरायी?
नटवर नागर तेरी लीला,राधा रानी न समझ पायी।

जब जाना ही था मथुरा तो,फिर ब्रज में धूम मचायी क्यों?
रास रचाकर रातों में यूँ, गोपियाँ तूने नचायी क्यों?
क्यूँ नजर चुरा कर देखा था,जब राधा ने ली अँगड़ायी?
नटवर नागर तेरी लीला,राधा रानी न समझ पायी।

'ललित'

दूसरा अंतरा

तू तीन लोक का स्वामी था,गोकुल की धरती भायी क्यों?
मुख में ब्रम्हाण्ड समाया था,फिर माटी तूने खायी क्यों?
जब द्वार सुदामा आया तो,क्यों आँखें तेरी भर आयी?
नटवर नागर तेरी लीला,राधा रानी न समझ पायी।

'ललित'

समान छंद

अपनों -सपनों में भेद यहाँ,कब कौन सदा कर सकता है?
अपने तो हरदम साथ रहें,कब कौन जुदा कर सकता है?
इस चंचल दिल की घातों से,अपने दिखते हैं सपनों से।
इस दिल पर एक नशा छाए,अपने मिलते जब अपनों से।

'ललित'

समान छंद

हमने मुट्ठी में पकड़ा जो,वो रेती का ढेला निकला।
समझे थे शीतल धार जिसे,वो शोलों का रेला निकला।
जो फूल बहारें लाता था,वो ही पतझड़ को ले आया।
जो पेड़ हवाएं देता था,वो ही अंधड़ को ले आया।

'ललित'

समान छंद

कैसी लीला है तेरी प्रभु,कैसा ये संसार बसाया ?
नीला अम्बर जब भी रोया,धरती का मन है हर्षाया ।
प्रीत शमा से करे पतंगा,उसमें ही जल जान गँवाए।
और शमा उसका रस पीती,प्रीत कभी भी जान न पाए।

'ललित'

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