मनोरम छंद
प्रदूषण
बच्चों की नजर से
भोर उपजी है गगन में।
शुद्ध तन में और मन में।
प्यार की गंगा बहाती।
धूप में सरसों नहाती।
क्या कहीं कुछ खो गया है?
आदमी चुप हो गया है।
खूब करता था चुहल जो।
आज सूना है महल वो।
वो हवा दूषित हुई है।
आदमी ने जो छुई है।
आदमी को ढो रही जो।
है धरा अब रो रही वो।
आसमाँ से आग बरसे।
वायु को हर साँस तरसे।
बालकों का नूर गायब।
जग बना है घर अजायब।
पाठशालाएं जहाँ हैं।
आज सन्नाटा वहाँ हैं।
साँस लेने को हवाएं।
बालकों को दे न पाएं।
आज हम पहुँचे जहाँ हैं।
आग के दरिया वहाँ हैं।
बालकों की नम निगाहें।
पूछना क्या कुछ न चाहें?
क्यों न सोचा था किसी ने?
छूट जाएंगें पसीने।
जब हवा बिकने लगेगी।
आँख क्या तब ही खुलेगी?
ललित किशोर 'ललित'
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