कुकुभ छंद रचनाएँ

16.11.15
कुकुभ छंद

1

समय

समय बड़ा नखराला भैया,
          नखरे अनगिन करता है।
भोर रुके नहि साँय रुके औ',
            लम्बे डग ये भरता है।
इसे पकड़ नहि पाये कोई,
             बहुत बड़ा ये छलिया रे।
तोड़े ये अभिमान सभी का,
              करत गेहुँ का दलिया रे।

ललित

2

कुकुभ छंद

जिसने जैसी श्रृद्धा राखी,
वैसा उसने फल पाया।
गोवर्धन गिरधारी तूने,
भक्तों पर रस छलकाया।
मैं भी आया मन में लेकर, आशा की इक चिंगारी।
भर दो मेरी झोली भी अब,
झलक दिखा दो बनवारी।

ललित

3

कुकुभ छंद

दिल में अगन लगी हो जिनके,
फिर प्रभु से क्या वह चाहें?
ऐसा जल भी नहीं बना है,
शीतल कर दे जो आहें।
दुख की तपन सही कब जाए,
मन को हरदम तड़पाती।
दृश्य मनोहर नहींं सुहाते,
खुशियाँ भी हैं हड़काती।

ललित

17.11.15

4

कुकुभ छंद

नज़रें

भाग १

नज़रों से वो करे इशारे,
               नज़रों पर जो मरता है।
नज़रें उसकी कातिल जैसी,
                नज़रों से दिल हरता है।
नज़रों का सब खेला यारों,
                नज़रों में प्रिय बसता है।
प्रिय के दिल में स जाने का,
                 नज़रों से ही रस्ता है।

ललित

5
कुकुभ छद

नज़रें

भाग २

अपनों के प्रति ममता-आदर,
                     नज़रें ही तो दिखलाएं।
नज़रें अपनी कभी न बदलो,
                     गुरुजन ये ही सिखलाएं।
नज़रों से सम्मान सभी का,
                     कर सकते हैं हम भारी।
नज़रों से अपमान किया तो,
                     दिल पर चलती बस आरी।
  
ललित         
6
  
कुकुभ छंद

नज़रें

भाग ३

कुछ लोगों की घातक नज़रें,
          बच्चों को हैं लग जाती।
नज़र उतारे मैया उसकी,
          नींदों से जग जग जाती।
काला टीका लगा उसे वो,
          खूब बलैयाँ फिर लेती।
नज़र लगे न लाल को मेरे,
          लाख दुआएँ फिर देती।

ललित

7

कुकुभ छंद

नज़रें

भाग ४

मनख-मनख की नज़रों में भी,
          फर्क बड़ा ही दिखता है।
नज़र आसमाँ में रख कोई,
          पैर ज़मीं पर रखता है।
नज़र रखे धरती पर कोई,
           करनी ऊँची करता है।
पर उपकार करे वह जग में,
           झोली सबकी भरता है।

ललित

18.11.15

8

कुकुभ छं

नज़रें
भाग ५

काम कभी ऐसा मत करना,
         नज़र झुकानी पड़ जाए।
एक बार नज़रों से गिरकर,
         कभी नहीं फिर उठ पाए।
नज़र रखो अपनी करनी पर,
          करनी ऐसी कर जाओ।
याद करे दुनिया वर्षों तक,
         नज़र मोड़ जब मर जाओ।

ललित

9

कुकुभ छंद

नज़रें
भाग ६

जैसा चश्मा नज़रों पर हो,
     दुनिया वैसी दिखती है।
काम-वासना के चश्मे से,
     कामी जैसी दिखती है।
नज़रों में इक प्रभु की छवि हो,
      चश्मा हो भगवद् गीता ।
भगवद् गीता जिसने पढ़ ली,
       समझो उसने जग जीता।

ललित
   

19.11.15

10

कुकुभ छंद
आर जी 7.2.17
नज़रें
भाग ७

नज़र बचा कर चोरी करता,
          गोपी का माखन कान्हा।
नजर मिलाकर चोरी करता,
          हर गोपी का मन कान्हा।
कान्हा ऐसी किरपा करदो,
          नज़रों में तुम बस जाओ।
पलक बन्द हों फिर भी कान्हा,
          नज़र सदा बस तुम आओ।

ललित

11

कुकुभ छंद

नज़रें
भाग ८

कुछ शातिर ऐसे होते हैं,
          मन के भाव न दिखलाएं।
मन में उनके भाव छुपे जो,
           आँखों में न नज़र आयें।
नज़रों से सुर जैसे दिखते,
            अंतर्मन आसुर होता।
ऐसे मानव दानव ही हैं,
            जिनका अंतर्मन सोता।

ललित

12

कुकुभ छंद

नज़रें
भाग ९

मात पिता की नज़रों से जो,
         स्नेह सुतों को मिलता है।
उसी प्यार से जीवन बनता,
         बच्चों का दिल खिलता है।
मात पिता फिर प्यार ढूँढते,
         उन बच्चों की नज़रों में।
लेकिन प्यार कहाँ मिलता है,
           अंधे,गूंगे,बहरों में।
 
ललित      

 13
         
कुकुभ छंद

कौन किसी का सगा जहाँ में,
        सभी पराये मुखड़े हैं।
सबकी अपनी-अपनी दुनिया,
         अपने -अपने दुखड़े हैं।
प्रेम-प्यार का नाम नहीं है,
          मतलब से सब मिलते हैं।
कलियुग में सब फूल-कली भी,
          मतलब से ही खिलते हैं।
ललित

14

कुकुभ छंद

नज़रें
भाग १०

शैल,समन्दर,वन उपवन सब,
       धरती,अम्बर अरु तारे।

सूरज,चँदा,धूप,चाँदनी,
       अगन,वायु, सरवर सारे।

नज़र किये हैं नारायण ने,
        साधन ये जीवन दाता।
        
कितना समझाया है इसको,
       पर मानव न समझ पाता।

ललि
       
20.11.15

15

कुकुभ छंद

कैसी माया प्रभु ने रच दी,
          कैसा मन को भरमाया
मानव तन की कीमत प्राणी,
         जीवन भर न समझ पाया।

पैसा खूब कमाने में ही,
        बीता यह जीवन सारा।
खाली हाथ एक दिन जाए,
        कभी न यह मन में धारा।

ललित

16

कुकुभ छंद

मेरी दुनिया

छोटा सा इक घर है मेरा,
       छोटी सी इक दुनिया है।
उस घर में किलकारी भरती,
       प्यारी सी इक मुनिया है।
फुदक-फुदक कर चलती है वो,
       चल-चल कर फिर गिरती है।
इक पल को भी कहीं न रुकती,
        घर भर में वो फिरती है।
ललित
  
21.11.15     

17

कुकुभ छंद

सपने

भाग-१

सपनों से सुख सपने जैसा,
              हमको जैसे मिलता है।
अपनों से दुख अपना जैसा,
              हमको वैसे मिलता है।
टूट गया इक प्यारा सपना,
             अपना हमसे जब रूठा।
अपना ही वो समझ न पाया,
              सपना अपना कब टूटा।
ललित

18

कुकुभ छंद

जिसकी जैसी करनी होती,
            वैसा ही वो फल पाता।
कर्मों के लेखे के आगे,
           किसका वश है चल पाता।
छोड़ रहा है झूठन कोई,
            कोई भूखा मरता है।
सोता है नोटों पर कोई,
            कोई आहें भरता है।

ललित

19

कुकुभ छंद

माँ तेरे दामन की खुशबू,
         अब भी घर को महकाये।
स्नेह दिया जो तूने मुझको,
        अब भी मन को चहकाये।
क्या तू मुझको देख रही है,
         नील गगन की खिड़की से।
जीवन मेरा सँवर गया माँ,
           तेरी प्यारी झिड़की से।

'ललित'

22.11.15

20

कुकुभ छंद

दीनदयाल कहाते हो तुम,
        दीनों के दुख हरने को।
गौमाता फिर तरस रही क्यों,
        भव से पार उतरने को।
मानव दानव बना हुआ है,
         गौमाता संकट में है।
गौमाता को जीव न समझे,
        दया कहाँ लम्पट में है।

'ललित'

23.11.15

21

कुकुभ छंद

समझें हम साकार जिसे वो,
          निराकार हो रहता है।
कण-कण में वो व्याप रहा है,
          मूरत में जो रहता है।
माया उसकी बड़ी निराली,
           पारवती को भरमाया।
तीन लोक का स्वामी देखो,
          वनवासी बनकर आया।

'ललित'

22

कुकुभ छंद

जग की झूठी माया सच से,
            ओत-प्रोत हो रहती है।
सच की अनगिन पर्तों की वो,
            ओट लिए जो रहती है।
मृग मरीचिका माया मन को,
            यों दबोच कर रखती है।
चंगुल से वो छूट न पाये,
            माया ही सच दिखती है।

'ललित'

23

कुकुभ छंद

बहुत नहीं तो थोड़ा ही दो,
            भक्ति-रस का ज्ञान तो दो।
जीने की कुछ कला सिखा दो,
            मुक्ति का वरदान तो दो।
प्रभु अपने इस बालक को तव,
            चरण-शरण में रहने दो।
साँस-साँस में नाम तुम्हारा,
             मन ही मन में कहने दो।

'ललित'

24.11.15

24

कुकुभ छंद

काव्यांजलि परिवार हमारा,
            ज्ञान-भक्ति रस बरसाये।
जिसमें भी हो लगन सृजन की,
            छंद सीखकर हरषाये।
अपनेपन से गले लगाकर,
            भूल सभी की सुधराता।
हर सदस्य मनभावन पावन,
            नये सृजन लेकर आता।

'ललित'

25

कुकुभ छंद

विष से क्यूँ भर दीनी प्रभु जी,
              मानव की सुंदर काया।
नव द्वारों की देह भेदकर,
               गरल सदा बाहर आया।
ऐसी कृपा करो अब भगवन,
               यह विष अमृत बन जाए।
मानव इस धरती पर हरदम,
                प्रेम सुधा रस बरसाए।

'ललित'

25.11.15

26
 कुकुभ छंद

चाहो यदि तुम नाम कमाना,
           उल्टा सीधा कुछ बोलो।
शाँत बहे जो पावन गंगा,
           उसमें शीत गरल घोलो।
जग में फिर तो नाम तुम्हारा,
            बच्चा -बच्चा सुन लेगा।
लेकिन भारतवासी तुमको,
            मन ही मन क्या चुन लेगा।

'ललित'

27

कुकुभ छंद

आमिर आख्यान

भारत की ये जनता देखो,
          भोली-भाली कितनी है।
सुन लेती है बड़े प्यार से,
           बोली कड़वी जितनी है।
लहू हो गया इसका जैसे,
            पानी से भी पतला है।
देश-धर्म की निंदा करता,
            फिर भी प्यारा पगला है।

ललित

26.11.15

28

कुकुभ छंद

ऐसा वर दो मुझको माता,
           मन की भाषा लिख पाऊँ।
मन के सारे भाव लिए ही,
            पन्नों पर मैं दिख पाऊँ।
छंदबद्ध औ' लय में लिख दूँ,
             ज्ञान-भक्ति मय कुछ बातें,
पढ़कर जिनको मन से भागें,
             तम की अति भीषण घातें।

'ललित'

29

कुकुभ छंद

काव्यांजलि परिवार महकता,
          और चहकता रहता है।
इसकी पावन सौरभ से युत,
           छंदों में रस बहता है।
मात शारदे है ये विनती,
            नये सृजन को गति देना।
प्रेम-प्यार से साथ चलें सब,
              हमको ऐसी मति देना।

ललित

30

कुकुभ छंद

हर मानव आजाद यहाँ पर,
           जहर उगलता मिलता है।
देह मिली कंचन सी फिर भी,
           गरल निगलता मिलता है।
शिव भोला वो निपट निराला,
           जहर कंठ में धारा है।
नीलकंठ तब नाम धराया,
            पारबती को प्यारा है।

'ललित'

27.11.15

31

कुकुभ छंद

भोर भयी अब जागो मोहन,
               चिड़ियाँ चहक-चहक गायें।
देख तुम्हारी श्यामल छवि को,
                मनवा महक-महक जाये।
रोम-रोम अब पुलकित होकर,
                तुम्हें पुकारे बनवारी,
द्वार खड़े हैं दर्शन को हम,
               झलक दिखा दो गिरधारी।

ललित

32

कुकुभ छंद

मध्य पथ

सुख-दुख रूपी पतवारों से,
            जीवन नैया लहराये।
साजन और सजनिया सचमुच,
            जीवन-रथ के द्वय पाये।
कोई बड़ा न कोई छोटा,
             समझ-बूझ से रहते हैं।
दुनिया के सारे सुख उनका,
              पता बूझते रहते हैं।

'ललित'
     
33
        
 कुकुभ छंद

दिल छोटा औ' पीर बड़ी है,
            नहीं किसी से कह पाऊँ।
दिल में उठती टीस बड़ी है,
             नहीं जिसे मैं सह पाऊँ।
अपनों ने जो घाव दिए वो,
              दिल में गहरे उतरे हैं।
उन घावों से आज हुए इस,
              दिल के कतरे-कतरे हैं।

'ललित'

34

कुकुभ छंद

कुछ छोटे कंटक होते हैं,
         चुभने में अतिशय मीठे।
कुछ मध्यम कंटक होते जो,
         घाव करें हरदम ढीठे।
और बड़े कंटक जो सीधे,
          दिल के पार उतरते हैं।
नज़र नहीं आते हैं पर वो,
          दिल को रोज कुतरते हैं।

'ललित'
               
   28.11.15

35

कुकुभ छंद

पच्चीस साल पहले
की नायिका

दिल ही दिल में प्यार करूँ मैं,
         कहते उससे शर्माऊँ।
नज़रें उससे जब भी मिलती,
         नज़र चुराकर रह जाऊँ।
जब-जब वो खिड़की से झाँके,
          दिल में शोले उठते हैं।
लेकिन दिल के शोले मेरे,
           दिल ही दिल में घुटते हैं।

' ललित'

 36

कुकुभ छंद

कहाँ खो गया कल वो मेरा,
           कल जो मनहर दिखता था।
आज वही कल खाज हुआ जो,
           सपना बनकर दिखता था।
भूला कल के सपनों को मैं,
            हर पल हँसकर अब जीता।
कर्म करूँगा फल बिसराकर,
             पढ़ ली है भगवद् गीता।

           
'ललित'

29.11.15

37

कुकुभ छंद

जिसने ये संसार सुनहरे ,
             रंगों से है मथ डाला।
मोरमुकुट पीताम्बर धारी,
             मुरलीधर है मतवाला।
प्रेम तथा वात्सल्य दिया औ',
             आत्मज्ञान भी बरसाया।
दानव का संहार करन को,
             कुंज गलिन को बिसराया।

'ललित'
   

38       
कुकुभ छंद
कृष्ण दीवाने 13.1.17
आर जी 7.2.17
कान्हा की मानस पूजा

कान्हा मेरे मन मन्दिर में,
            आकर तुम यूँ बस जाओ।
जब भी बन्द करूँ पलकों को,
             रूप मनोहर दरशाओ।
गंगाजल-पंचामृत से प्रभु,
              रोज तुम्हें मैं नहलाऊँ।
वस्त्र और गहने अर्पण कर,
              केसर-चन्दन घिस लाऊँ।

धूप-दीप नेवैद्य चढ़ाकर,
             पुष्प-हार सुन्दर वारूँ।
त्र-गुलाल लगाकर कान्हा,
             चरणों की रज सिर धारूँ।
मन ही मन फिर करूँ आरती,
             चरण-कमल में झुक जाऊँ।
जग की झूठी प्रीत भुलाकर,
              प्यार तुम्हीं से कर पाऊँ।

'ललित'
   
39
    
कुकुभ छंद

बहुत जिये औरों की खातिर,
           अपनी खातिर अब जी लो।
अपनों ने जो दिल है तोड़ा,
           उसके चिथड़े अब सीं लो।
भीतर अपने डूब जरा सा,
           उस प्रभु की छवि तुम खोजो।
ऐसे आत्म ज्ञान को पा लो,
           माया से बढकर हो जो।

'ललित'

40

कुकुभ छंद

जीवन भर काया को सींचा,
            फिर भी है अब तक प्यासी।
मनवा तन की प्यास बढ़ाये,
             काया मन की इक दासी।
देह अगर वश में करनी हो,
              मन को वश में कर लेना।
वशीभूत मन हरदम जाने,
              प्रभु के मन को हर लेना।

'ललित'

41
नवीन जी

छोटा सा परिवार हमारा,छोटी सी इक दुनिया है।
मधुर-मधुर किलकारी भरती,'आद्या' प्यारी मुनिया है।
तुतलाती बोली में बोले,हैप्पी-टू मेरा आया।
इसीलिए मम्मा-पापा ने,केक बड़ा है बनवाया।

42

कुकुभ छंद

मन में जो भी बातें उपजें,
          आने दो वो रचना में।
प्रेम-प्यार से गाते जाओ,
           रस भी घोलो रसना में।
सरल शब्द औ' भाव प्रबल हों,
           बंधी हो रचना छंदों में।
काव्यसृजन के पट पर रख दो,
            अपने साथी बंदों में।
ललित

No comments:

Post a Comment

छद श्री सम्मान