मासिक वेब


कुकुभ छंद रचनाएं

1,

कुछ छोटे कंटक होते हैं,
         चुभने में अतिशय मीठे।
कुछ मध्यम कंटक होते जो,
         घाव करें हरदम ढीठे।
और बड़े कंटक जो सीधे,
          दिल के पार उतरते हैं।
नज़र नहीं आते हैं पर वो,
          दिल को रोज कुतरते हैं।

'ललित'

   
2,
            
दिल छोटा औ' पीर बड़ी है,
            नहीं किसी से कह पाऊँ।
दिल में उठती टीस बड़ी है,
             नहीं जिसे मैं सह पाऊँ।
अपनों ने जो घाव दिए वो,
              दिल में गहरे उतरे हैं।
उन घावों से आज हुए इस,
              दिल के कतरे-कतरे हैं।

'ललित'

3,

समय बड़ा नखराला भैया,
          नखरे अनगिन करता है।
भोर रुके नहि साँय रुके औ',
            लम्बे डग ये भरता है।
इसे पकड़ नहि पाये कोई,
             बहुत बड़ा ये छलिया रे।
तोड़े ये अभिमान सभी का,
              करत गेहुँ का दलिया रे।

ललित

4,

जैसा चश्मा नज़रों पर हो,
     दुनिया वैसी दिखती है।
काम-वासना के चश्मे से,
     कामी जैसी दिखती है।
नज़रों में इक प्रभु की छवि हो,
      चश्मा हो भगवद् गीता ।
भगवद् गीता जिसने पढ़ ली,
       समझो उसने जग जीता।

ललित

5,
     
माँ तेरे दामन की खुशबू,
         अब भी घर को महकाये।
स्नेह दिया जो तूने मुझको,
        अब भी मन को चहकाये।
क्या तू मुझको देख रही है,
         नील गगन की खिड़की से।
जीवन मेरा सँवर गया माँ,
           तेरी प्यारी झिड़की से।

'ललित'

6,

सपनों से सुख सपने जैसा,
              हमको जैसे मिलता है।
अपनों से दुख अपना जैसा,
              हमको वैसे मिलता है।
टूट गया इक प्यारा सपना,
             अपना हमसे जब रूठा।
अपना ही वो समझ न पाया,
              सपना अपना कब टूटा।
ललित

7,

नज़रें    1

नज़र बचा कर चोरी करता,
          गोपी का माखन कान्हा।
नजर मिलाकर चोरी करता,
          हर गोपी का मन कान्हा।
कान्हा ऐसी किरपा करदो,
          नज़रों में तुम बस जाओ।
पलक बन्द हों फिर भी कान्हा,
          नज़र सदा बस तुम आओ।

ललित

8

नज़रें   2

कुछ शातिर ऐसे होते हैं,
          मन के भाव न दिखलाएं।
मन में उनके भाव छुपे जो,
           आँखों में न नज़र आयें।
नज़रों से सुर जैसे दिखते,
            अंतर्मन आसुर होता।
ऐसे मानव दानव ही हैं,
            जिनका अंतर्मन सोता।

ललित

9

नज़रें    3

मात पिता की नज़रों से जो,
         स्नेह सुतों को मिलता है।
उसी प्यार से जीवन बनता,
         बच्चों का दिल खिलता है।
मात पिता फिर प्यार ढूँढते,
         उन बच्चों की नज़रों में।
लेकिन प्यार कहाँ मिलता है,
           अंधे,गूंगे,बहरों में।
 
ललित      

 
10 

कौन किसी का सगा जहाँ में,
        सभी पराये मुखड़े हैं।
सबकी अपनी-अपनी दुनिया,
         अपने -अपने दुखड़े हैं।
प्रेम-प्यार का नाम नहीं है,
          मतलब से सब मिलते हैं।
कलियुग में सब फूल-कली भी,
          मतलब से ही खिलते हैं।

ललित

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