कुकुभ छंद
में रचना
समय
समय बड़ा नखराला भैया,
नखरे अनगिन करता है।
भोर रुके नहि साँय रुके औ',
लम्बे डग ये भरता है।
इसे पकड़ नहि पाये कोई,
बहुत बड़ा ये छलिया रे।
तोड़े ये अभिमान सभी का,
करत गेहुँ का दलिया रे।
ललित
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