हरिगीतिका सृजन 9.5.16 से


9.05.16

हरि गीतिका
1

तुम प्रार्थना मेरी प्रभू सुन,लो पुकारूँ जब जहाँ।
चिन्ता मुझे कोई नहीं हो श्याम जब रक्षक वहाँ।
अब भूल मेरी माफ कर दो,नाथ तुम सा है कहाँ?
तव दर्शनों की आस में मैं,होरहा व्याकुल यहाँ।

हरि गीतिका
2
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

अब छोड़ ये घर आँगना ये,लाडली तेरी चली।
वो जा रही अब घर पराए,नाज से जो थी पली।
जाने नहीं  दुख दर्द कोई, जो दुआओं से फली।
खुशबू बिखेरेगी सदा इस,बाग की नाजुक कली ।

हरि गीतिका
3

नारी नहीं इक शक्ति हूँ मैं,जान मानव ले अभी।
तू वासना की पूर्ति का साधन समझना मत कभी।
ये नारियों का प्रण नराधम,दानवों सुन लो सभी।
देंगी तुम्हारे हर सितम का,ये तुम्हें उत्तर तभी।
'ललित'

हरि गीतिका
4

आया तुम्हारी शरण में मैं,छोड़ सारे दर हरे।
नाचूँ तुम्हारी चरण रज मैं,नाथ माथे पर धरे।
हो नाम का अब जाप निशिदिन,कामना मन ये करे।
मर्जी तुम्हारी ही करो ये,भाव मन में हैं  भरे।
हरि गीतिका
5

क्या भेंट चरणों में रखूँ मैं,सोच पाता हूँ नहीं।
सब कुछ बनाया है तुम्हीं ने,श्याम समझा हूँ यही।
जितना दिया है आपने प्रभु,खूब लगता है वही।
मर्जी न हो जो आपकी तो,कौन पाता है कहीं।
ललित

हरि गीतिका
6

अनमोल जो गहना बढाता,आदमी की शान को।
वो मोतियों का हार दीना,मात ने हनुमान को।
हनुमान ने तब तोड़ देखा,मोतियों को ध्यान से।
उनमें नहीं थे राम सीता,जो पियारे प्रान से।

'ललित'

हरि गीतिका छंद
7
माँ शारदे ये लाल तेरा,छंद लिखना चाहता।
संसार-दर्पण सा दिखे वो,बंध लिखना चाहता।
खोलो पिटारी ज्ञान की माँ,इस पुजारी के लिए।
हर राग की सरिता बहा माँ,जान कारी के लिए।

कुछ लय सिखा माँ दे दिशा इस,मूढ़ अपने लाल को।
माँ भाव सुंदर का समंदर,दे बना इस बाल को।
हो जाय पूजा माँ तुम्हारी,जब लिखूँ मैं ध्यान से।
इस लेखनी से वो सृजन हो,पूर्ण हो जो ज्ञान से।

'ललित'

हरि गीतिका छंद
8
माँ की याद

माँ आज तेरी याद में मन,चाहता है डूबना।
हर ओर खुशियाँ तैरती पर,मन न चाहे झूमना।
वो डाँट के आँखे दिखाना,वो झिड़कना प्यार से।
फिर लाड से मुझको मनाना,चूमना मनुहार से।
हर बात आती याद जैसे,बात हो कल रात की।
क्यों मैं न तेरा प्यार समझा,कलयुगी सुत पातकी।
इस लाडले की जिन्दगी की,डोर तूने थी बुनी।
पर कब कहाँ बातें तुम्हारी,मूढ़ सुत ने थी सुनी।

'ललित'
हरि गीतिका
9

वो आज बोली प्यार से इक,शर्ट सिलवा लो नई।
हम हो बड़े खुश सोचते थे,यार किरपा होगई।
जब शर्ट लेने को गये हम,शाम को बाजार में।
तो श्रीमती ने साथ साड़ी,एक लेली प्यार में।

हरिगीतिका
10

बाल विवाह
क्या भूल मुझसे होगयी माँ,त्याग जो मुझको रही।
यदि प्यार करती है मुझे तू,ज्ञान दे मुझको सही।
बाली उमर में ब्याह मत माँ,दे मुझे परवाज तू।
इस बाग की नाजुक कली को,दे विदा मत आज तू।
देखा नहीं जाना नहीं है,जिंदगी के खेल को।
तू दे सहारा बेसहारा,बाग की इस बेल को।
देखे निराले स्वप्न मैं ने,क्या बताऊँ माँ तुझे।
हों स्वप्न वो साकार माँ दे,एक मौका तू मुझे।

'ललित'

हरिगीतिका
11

वो सोचता है लौट घर को, जा रहा क्यों हाय मैं?
दो जून रोटी भी नहीं जो, ला सका कृषकाय मैं।
पैसा कमाने की कला की,कौन देता सीख है?
खुद था गरीबी में पला वो,माँगता अब भीख है।

'ललित'
हरिगीतिका
12

जो दे नई खुशियाँ सभी को,
    नाम उसका भोर है।
जब पूर्व में लाली मचलती,
     नाचता मन मोर है।
चिड़ियाँ लगें जब चहचहाने,
     घण्ट मंदिर में बजें।
प्रभु राम के सुमिरन भजन के,
     भाव तब मन में सजें।
       'ललित'

हरिगीतिका
13
भाव और छंद
राकेश जी के सुझाव से परि
जो भाव मन में आरहे वो,छंद के वश में नहीं।
जो छंद रचता भाव के बिन,धार होती है  नहीं।
सब भाव मन के छंद में जो,
ढंग से है भर सके।
हर शब्द उसके छंद का ही,
कथ्य मुखरित कर सके।
'ललित'

हरिगीतिका
14

प्यार
जो भावनाओं के समंदर,में लगा डुबकी रहे।
हैं प्रेम की मूरत बने वो,प्रीत पा सबकी रहे।
संसार सारा प्यार के ही,बंधनों का सार है।
मतलब न समझा प्यार का तो,जिंदगी बेकार है।
क्या प्यार क्या मनुहार है ये,कृष्ण श्री से जान लो।
क्या जिंदगी का सार है ये,गोपियों से ज्ञान लो।
उद्धव तुम्हारे योग को तुम,पास अपने ही रखो।
जो गोपियों के पास हैं अब,प्रीत के वो फल चखो।

'ललित'

हरि गीतिका
15
करुण रस
गीत
संपूर्ण गीत
अभिव्यक्ति-'मन से कलम तक'
आयोजन अध्यक्ष आदरणीय ओम नीरव जी व मंच की सेवा में
शीर्षक-हक(बेटी का हक)
गीत
अब छोड़ ये घर आँगना ये,लाडली तेरी चली।
खुशबू बिखेरेगी सदा इस,बाग की नाजुक कली ।

क्या भूल मुझसे होगयी माँ,त्याग जो मुझको रही।
यदि प्यार करती है मुझे तू,ज्ञान दे मुझको सही।
जाने नहीं  दुख दर्द कोई, जो दुआओं से फली।
खुशबू बिखेरेगी सदा इस,बाग की नाजुक कली ।

देखा नहीं जाना नहीं है,जिंदगी के खेल को।
तू दे सहारा बेसहारा,बाग की इस बेल को।
वो जा रही अब घर पराए,नाज से जो थी पली।
खुशबू बिखेरेगी सदा इस,बाग की नाजुक कली ।

माँ तात की ये लाडली अब,क्यूँ परायी होगई?
ओ भ्रात तेरी बहन में अब,क्या बुराई होगई?
लगता यही है आज बेटी,इक गई है फिर छली।
खुशबू बिखेरेगी सदा इस,बाग की नाजुक कली ।

वन बाग उपवन वाटिका सब,आज मुझसे पूछते।
इस जिंदगी के सब सुरीले,साज मुझसे पूछते।
तुम जा रही हो छोड़ कर क्यूँ,आज ये अपनी गली?
खुशबू बिखेरेगी सदा इस,बाग की नाजुक कली ।

'ललित'

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