रोला सृजन 26.5.16 से

रोला
1

धरती प्यासी आज,गगन भी रीत रहा है।
लहरें देती थाप,समन्दर बीत रहा है।

धूप जलाए गात,हवा लपटों सी चिपके।
आँसू की बरसात,गाल अन्दर को पिचके।
ललित

कुण्डलिनी

मन ही मन में मत रखो,अपने मन की बात।
मन की कहने को मिली,आँखों की सौगात।
आँखों की सौगात,मिली मानव को ऐसे।
सौरभ की बारात,मिली फूलों को जैसे।

'ललित'

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छद श्री सम्मान