कवि सम्मेलन


अपने आगमन का सम्भावित समय अवश्य बताएँ...3 जून को शाम 4 बजे तक आपको
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पैलेस के सामने, गुलाब बाग़, धौलपुर ( राज.) आना है।
1
हरि गीतिका
बाल विवाह
क्या भूल मुझसे होगयी माँ,त्याग जो मुझको रही।
यदि प्यार करती है मुझे तू,ज्ञान दे मुझको सही।
बाली उमर में ब्याह मत माँ,दे मुझे परवाज तू।
इस बाग की नाजुक कली को,दे विदा मत आज तू।
देखा नहीं जाना नहीं है,जिंदगी के खेल को।
तू दे सहारा बेसहारा,बाग की इस बेल को।
देखे निराले स्वप्न मैं ने,क्या बताऊँ माँ तुझे।
हों स्वप्न वो साकार माँ दे,एक मौका तू मुझे।

'ललित'
2
हरिगीतिका छंद
16:12
बाल विवाह

बाली उमर में ब्याह जीवन ,नष्ट मत कर दीजिए।
पढ़-लिख बनूँ मैं आत्म-निर्भर,नेक अवसर दीजिए।
नाजुक कली हूँ बाग की मैं,रौंद यूँ मत डालिये।
सौरभ बनूँ इस बाग की मैं,नेह से यूँ पालिये।।

ललित
3
जलहरण घनाक्षरी
कन्या भ्रूण हत्या
अजन्मी की व्यथा

मुख मत मोड़ना माँ,मुझे मत मारना माँ।
तेरी परछाई हूँ मैं,कातिल ये जहान है।

चलती है पुरवाई,बरखा है बरसती
दुनिया है फुलवारी,गायब बागबान है

लहराता समंदर,ऊपर नीला अम्बर।
सतरंगी बहार है,ये प्यारा गुलिस्तान है।

घूमी लख चौरासी मैं,मानुष योनि पाने को।
मुझको भी देखने दे,दुनिया आलीशान है।

'ललित'
4
रुबाई

माँ तेरे दामन की खुशबू,मन को शीतल कर जाए।
तेरे ये दो नैना मुझ पर,स्नेह सुधा नित बरसाएँ।
पथ में जो काँटे बिखरे माँ,दूर उन्हें तुम कर देना।
तेरे आँचल की छाया माँ,मन में खुशियाँ भर जाए।
माँ-बेटी का होता जग में,सबसे सुंदर नाता है।
प्यार दिया जो तू ने मुझको,झोली में न समाता है।
अपनी इस बेटी का दामन,खुशियों से माँ भर देना।
चूमे जब तू माथा मेरा,रोम रोम खिल जाता है।

'ललित'
5
ताटंक छंद

माँ की याद में

माँ मैं मूरख समझ न पाया,तेरे दिल की बातों को।
मेरी राह तका करती थी,क्यूँ सर्दी की रातों को?
मेरे सारे सपनों को माँ,तू ही तो पर देती थी।
मेरी हर इक चिन्ता को तू,आँचल में भर लेती थी।
आज अकेला भटक रहा हूँ,मैं इस जग के मेले में।
तेरी कमी अखरती है माँ,जब भी पड़ूँ झमेले में।
माँ तेरी यादों में मेरी,आँखें नीर बहाती हैं।
तेरी सीखें अब भी मुझको,राह सदा दिखलाती हैं।

1
कन्या भ्रूण हत्या

माँ तू नारी होकर इतनी,निष्ठुर क्यूँ बन जाती है।
कन्या की आहट सुन तेरी,चिन्ता क्यूँ बढ़ जाती है।
तेरी हिम्मत से ही माता,युग परिवर्तन आएगा।
तू आवाज उठाएगी तो,कोई दबा न  पाएगा।
माँ मै तुझ सी प्यारी सूरत,लेकर जग में आऊँगी।
किलकारी से घर भर दूँगी,पैंजनियाँ छनकाऊँगी।
तेरी गोद हरी कर दूँगी,साँस मुझे भी लेने दे।
जीवन रूपी रथ की ऐ माँ,रास मुझे भी लेने दे।
जब तू मुझको छूती है माँ,अपने मन की आँखों से।
मन करता है उड़ जाऊँ मैं,तेरे मन की पाँखों से।
माँ इतना ही वादा कर ले,मुझको जग में लाएगी।
किसी दुष्ट की बातों में आ,मुझको नहीं मिटाएगी।

2
गर्भवती माँ की संवेदना

मेरे अन्दर पनप रही जो,एक कली अरमानों की।
नजर न लगने दूँगी उसको,इन बेदर्द सयानों की।
बेटी मेरी माँ बनने की,आस तभी पूरी होगी।
गोदी में खेलेगी जब तू,नहीं तनिक दूरी होगी।
लड़ जाऊँगी मैं दुनिया से,बेटी तुझे बचाने को।
सीखूँगी सब दाँव पेंच मैं,ताण्डव नाच नचाने को।
मेरे आँगन में किलकारी,भरने तू ही आएगी।
तेरी जान बचाने में ये,जान भले ही जाएगी।
'ललित'
नारी शक्ति
3
नारी शोषण

मन ही मन में खुश होकर हम, नारा खूब लगाते हैं।
जहाँ होय नारी की पूजा ,देव वहीं रम जाते हैं।
नारा देने वाले ने यह,सपने में कब सोचा है।
नारी के अधिकारों को तो,हर युग में ही नोंचा है।
4
बेटी
"चार कदम"
मुक्तक दिवस 157
समारोह अध्यक्ष आदरणीय आर.सी.शर्मा.
आर सी जी को समर्पित

मुक्तक

बेटी बनकर जन्मी हो तुम,बेटा बनकर जी जाओ।
अपनी रक्षा करने के गुर,घुट्टी में ही पी जाओ।
जिसने मन में ठानी उसके,कदमों तले जमाना है।
पीछे मुड़कर नहीं देखना,आगे बढ़ती ही जाओ।

'ललित'
11
हरि गीतिका

माँ की याद

माँ आज तेरी याद में मन,चाहता है डूबना।
हर ओर खुशियाँ तैरती पर,मन न चाहे झूमना।
वो डाँट के आँखे दिखाना,वो झिड़कना प्यार से।
फिर लाड से मुझको मनाना,चूमना मनुहार से।
हर बात आती याद जैसे,बात हो कल रात की।
क्यों मैं न तेरा प्यार समझा,कलयुगी सुत पातकी।
इस लाडले की जिन्दगी की,डोर तूने थी बुनी।
पर कब कहाँ बातें तुम्हारी,मूढ सुत ने थी सुनी।

'ललित'

विधाता छंद

सुखों को भोगने में ही,जवानी तू बिताता क्यूँ।
बुढापे के दुखों का डर,नहीं तुझको सताता क्यूँ।।
जवानी के दिनों में ही,प्रभू का नाम चख ले रे।
बुढापे के सुखों की तू,अभी से नींव रख ले रे।।
'ललित'

वाहह्ह्ह ललित जी.....लाज़वाब सृजन...सर्वकालिक...श्रेष्ठ रचना...हार्दिक बधाई....👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👍🏻👍🏻👍🏻💐💐💐🙏🏻🙏🏻🙏🏻
24
विधाता छंद

भला क्या है बुरा क्या है,नहीं तू जो समझ पाये।
लगा ले आत्म में गोता,वहीं से ज्ञान ये आये।।
जरा तू मौन रहने की,अदा भी सीख ले प्यारे।
जमीं,आकाश औ' तारे,सदा से मौन हैं सारे।
'
ललित'

ताटंक छंद

कितने अरमानों से बेटे,मैंने तुझको पाला था।
जग की सारी खुशियाँ तुझको,देता मैं मतवाला था।
आज उन्हीं खुशियों के बदले,हार गमों के देता तू।
कब जाओगे दुनिया से तुम,पूछ प्यार से लेता तू।

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