छंद मुक्त रचनाएं 4

छंद मुक्त रचनाएं   4

1

गम और खुशी

खुशी में ही गम अब समाने लगे हैं
गम में ही खुशी अब मनाने लगे हैं।
गम औ' खुशी को कहाँ तक सहेजें
खुद ही खुद को हम बौराने लगे हैं।

'ललित'

2

सरताज

जिस डाल,जिस पात,जिस परवाज को देखूँ
इक तू नजर आये मैं जिस भी साज को देखूँ ।
समाँ ऐसे भी बदलेगा न सोचा था कभी मैंने,
ख्वाबों में ही आजा, अपने सरताज को देखूँ।

'ललित'

3

काश

काश ऐसा भी कभी नजारा होता
आँख तेरी औ'आँसू हमारा होता।
जागती आँखों से देखे जो सपने
काश तूने ही उनको सँवारा होता।

'ललित'

4

परछाई

आदमी सुबह जागा,
अपनी परछाई के पीछे भागा ।
दोपहर हुई,
परछाई खुद में समा गई,
तबीयत खुश होगई,
शाम हुई,
परछाई पीछे रह गई,
दिन भर भागा,
जीवन भर भागा,

हाथ कुछ न लागा,
परछाई को,
कोई और ले भागा ।

'ललित'

5

खुशियाँ

खुशियाँ करे अठखेलियाँ तुम्हारे द्वारे
हमारा क्या,कल हम रहें ना रहें प्यारे।
जिन्दगी लबरेज रहे खुशियों से सदा
गम को कभी ना मिलें तुम्हारे द्वारे।

उस द्वार से भी गम दूर रहें सारे
जिस द्वार से मिलें तुम्हारे द्वारे।
उन गमों के तलुए में पडे छाला
ढूंढने निकलें जो तुम्हारे द्वारे ।

हर भोर लेकर आये सतरंगे उजारे
हर साँझ देकर जाये खुशनुमा इशारे।
जीवन में कोई भी दिन न आये काला
हर दिन लेकर आये प्रभु की कृपा रे।

'ललित'

6

जीवन का सफर

जीवन का सफर,
लाया है किधर,
अपना सा कोई,
नहीं है जिधर।

इक नयी डगर,
चलना है मगर,
अपना सा कोई,
नहीं है उधर।

सूनी हर डगर,
चलना है मगर,
अपना सा कोई,
कहाँ है किधर?

झूँठी हर डगर,
अब थाम जिगर,
अपना सा कोई ,
नहीं है इधर।

'ललित'

7

संस्कार

छिपाने से संस्कार छिपते नहीँ हैं ,
ज्ञानी भी इकसार दिखते नहीं हैं।
पढे पोथी-पाने जमाने में जितने,
निरर्थक वे सारे दिखते यहीं हैं ।

'ललित'

8

छंद मुक्त मुक्तक

हँसना चहकना मुस्कुराना आ गया,
गम को छिपाकर खिलखिलाना आ गया।
हो जायें दो-दो हाथ अब ऐ जिन्दगी,
हम को भी अपना दिल जलाना आ गया ।

'ललित'

9

दो मुक्तक छंद मुक्त

ज़िन्दगी

पिलायेगी कब तक ग़मों के पियाले,
खिलायेगी कब तक दुखों के निवाले ।
ऐ ज़िन्दगी अब कुछ तो रहम कर,
दिखायेगी कब तक छलों के हिमाले।

दिखा दे हमें सतरंगी उजाले ,
कर दे हमें भी सुखों के हवाले।
ऐ जिन्दगी अब ऐसी दुआ कर,
निकल जायें सब ग़मों के दिवाले ।

'ललित'

10

मुक्तक

सतरंगी दुनिया

सतरंगी दुनिया के सातों रंग बडे ही प्यारे हैं।
उड जाओ अब नील गगन में करते यही इशारे हैं।
जो होगा देखा जायेगा कदम नहीं रुकने पायें।
धरती अपनी,अम्बर अपना दरिया भी हमारे हैं।

'ललित'

11

दो मुक्तक -दो पीढियाँ

माँ मुझे इक शर्ट सिला दो,
बाऊजी इक घडी दिला दो।
और नहीं कुछ मुझे चाहिये,
बस इक हॉकी मुझे दिला दो।

मम्मा मझे पिज्जा खाना है,
पापा इक लेप टॉप लाना है ।
और बहुत कुछ मुझे चाहिये,
अभी तो मोबाइल लाना है ।

'ललित'

12

छंद मुक्त मुक्तक

जो माँगा

जो माँगा हरि से पाया है,भक्तों ने हरदम देखो।
मुरली की वो तान सुन रहे,ऋषियों का दमखम देखो।
गोपी बनकर बृज में जन्मे,प्रेम पगे ऋषिवर सारे।
आना पड़ा कान्ह को उनका,बनकर प्रिय हमदम देखो।

ललित

13

एक छंद मुक्त मुक्तक

मुखौटे

जख्मे दिल तो छिपाने ही पडते हैं,
वर्ना लोग जख्म कुरेदने लगते हैं।
यही तो दस्तूर है इस जहाँ का,
हँसी के मुखौटे ही अच्छे लगते हैं।

'ललित'
14

कृष्णा

जिन्दगी है धूप छाँव,
                       तू मेरी परछाई है।
हर घडी हैसाथ तेरा,
                    फिर कहाँ तन्हाई है।

वक्त की गर्दिश में हरदम,
                     साथ तू ही आई है।
देख मेरे गम को हमदम,
                      आँख तेरी भर आई है।

भोर की लाली भी लेती,
                       तुम से ही अरुणाई है।
साथ तेरे हर सुबह,
                       हर शाम इक शहनाई है।

जीवन की इस संध्या में जब,
                       वक्त हुआ हरजाई है।
साथ अपना बना रहे ये,
                        रब से टेर लगाई है।

'ललित'

15

       एक छंद मुक्त रचना

जड़ें

जो जडे हैं वृक्ष को निज रस पिलातीं,
जीना सिखातीं और जीवन दान देतीं ।
थामे रखतीं, हर बला को टालतीं, उन्नत बनातीं।

वे स्वयं पाताल का ही रुख हैं करतीं,
तन जलातीं,खुद को माटी में मिलातीं।

वृक्ष जितना गगन में है सर उठाता,
फूलता-फलता,हवाओं को लजाता।

वे भी उतना और नीचे को हैं जातीं,
नाज करतीं औ' जगत को भूल जातीं।

वृक्ष से वे मन ही मन ये आस करतीं,
पर नहीं लब पर ये अपने बात लातीं।

मैं तुम्हारा स्नेह,आदर,प्यार पाना चाहती हूँ
तुम रहो खुशहाल,सालों-साल,रब से माँगती हूँ

ललित

16
एक छंद मुक्त रचना

सपने

पलकों के पीछे से कोईबोला यूँ चुपके सेआकर,
खोये हो तुम जिन सपनों में,ले जाउंगा उन्हें चुराकर ।
जिसको सपनों में बोया था,जिसके सपनों में खोया था ।
पलकों की कोरों से आकर,ले गया वो,सपनों को चुरा कर ।

सपनों से अब नाता तोड़ो,
केवल रब से नाता जोड़ो ।
केवल रब ही है बस अपना,
सच है वह, न कोई सपना ।

ललित

17

एक छंद मुक्त मुक्तक
'ममता'

नौ माह तक गर्भ में रखकर,
                 ढोया था जिसको मैंने ।
बहा पसीना,लहू पिला कर,
                 सींचा था जिसको मैंने।
मेरे कलेजे का वो टुकडा,
               आखिर पत्थर दिल निकला।
आज ढो रही उस पत्थर को,
                 पाला था जिसको मैंने।
                 
'ललित'

मुक्तक
छतरी

छतरी छोटी लगती अच्छी,नीली नीली सी प्यारी ।
जो इसके नीचे आजाए,उससे किस्मत भी हारी।
छतरी चाहे छोटी हो पर,दिल तो बहुत बडा है जी।
सबको बाँटेगें हम छाते,वर्षा रहने दो जारी।
ललित

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