30.12.16
आदरणीय प्रधान सम्पादक महोदय,
दैनिक भास्कर
अहा!ज़िंदगी के नई कलम कॉलम में
प्रकाशन हेतु मेरी निम्न रचना सादर प्रेषित है...
मनोरम छंद
वृद्धावस्था
आँसुओं से तर बतर था,एक बेबस वृद्ध नर था।
देह जर्जर हो गई थी,वासना भी सो गई थी।
प्यार की प्यासी निगाहें,जो खुली रहना न चाहें।
हर तरफ पसरी उदासी,दे खुशी क्यों कर जरा सी।
याद आती है जवानी,जब नसों में थी रवानी।
पाल बच्चों को लिया था,दो जहाँ का सुख दिया था।
बन गये लायक सभी वो,सुख न दे पाए कभी वो।
व्यस्त सब बच्चे हुए हैं,कान के कच्चे हुए हैं।
स्वप्न सब बिखरे सुनहरे,होगए हैं पूत बहरे।
दर्द में डूबी निगाहें,कण्ठ से निकलें कराहें।
हाय जीवन क्या बला है?जिन्दगी की क्या कला है?
जान जीवन भर न पाया.बालकों ने जो दिखाया।
देह में रमता रहा था,नेह में जीवन बहा था।
स्वार्थमय जीवन जिया था,याद कब रब को किया था।
आज रब है याद आता,भूल इक पल वो न पाता।
या खुदा अब तो रहम कर,दु:ख दारुण ये खतम कर।
प्यार जो उसने दिया था,त्याग जो उसने किया था
काश बच्चे जान पाते,दर्द को पहचान पाते।
नेह से नजरें मिलाकर,दीप आशा का जलाकर।
घाव पर मरहम लगाते,बोल मीठे बोल जाते।
ललित किशोर 'ललित'
#5, मारुति कॉलोनी,
नयापुरा ,कोटा
मो.9784136478
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