गीत संग्रह 2
दुर्मिल सवैया छंद
गीत
पहला भाग
समीक्षा हेतु
9
करुणा करके करुणा निधि जी,हर लो सब पीर बसो मन में।
हर पातक लो विनती सुन लो, उजियार भरो इस जीवन में।
मन के तम को अब दूर करो,विनती करता कर जोड़ हरे।
इस जीवन में अब आस यही,कर दो मन की सब त्रास परे।
प्रभु आप अधार हो प्राणन के, जब होय कृपा हर ताप टरे।
हर लो अब घोर निशा तम को, मम जीवन में नव दीप जरे।
तुम दीनदयाल कहावत हो, भर दो खुशियाँ मन पावन में।
हर पातक लो विनती सुन लो, उजियार भरो इस जीवन में।
दिग्पाल छंद(सुधारना है)
सम्पूर्ण गीत
3
कमनीय कामिनी ज्यों,दिल पे सवार हो तुम।
शीतल सहज सुहानी,सुरभित बयार हो तुम।
सारे हसीं नजारे,तुम से निखार पाएं।
ये चाँद और तारे,तुम पे निसार जाएं।
है जिंदगी तुम्हीं से,दिल का करार हो तुम।
शीतल सहज सुहानी,सुरभित बयार हो तुम।
धड़कन बता रही हैं,हो प्रीत का समंदर।
गजलें बनी तुम्हीं पे,तुम शायरी निरंतर।
हो प्रीत तुम रसीली,मादक बहार हो तुम।
शीतल सहज सुहानी,सुरभित बयार हो तुम।
कायल हुआ तुम्हारे,इस हुस्न का जमाना।
घायल हुए उन्हें तुम,मत और आजमाना।
हो रात की खुमारी,दिन का उतार हो तुम।
शीतल सहज सुहानी,सुरभित बयार हो तुम।
दिल की किताब मेरी,कोरी बिना तुम्हारे।
हर दिल अजीज हो तुम,कहती यही बहारें।
जज्बात शायराना,सुंदर विचार हो तुम।
शीतल सहज सुहानी,सुरभित बयार हो तुम।
ललित
समाप्त
शुभ संध्या मित्रों...🙏� ए
दोपहर से वायरल की चपेट में हूँ....🙏�😊🙏�
आप सभी ने अपने बेहतरीन गीतों से पटल को सजाया...हार्दिक बधाई...🙏�💐😊💐🙏�🙏�🙏�
मणि जी ....
सुन्दर सृजन....शब्द संयोजन ज़रा ठीक करने पर लाज़वाब...
आपके गीत का स्थायी...
मत जान और ले तू। 👈🏻 जान एक बार में ही जानी है...बार बार नहीं...😊😊😊🙏�
ये कथ्य ऐसे होता....
घूँघट ज़रा हटा दो, मत जान लो हमारी। 👈🏻 तो अधिक सटीक होता....नीचे की पंक्ति में भी जान शब्द की आवृत्ति हो गई....जो नहीं होनी चाहिए.....
मम्मी कही...निश्चित रूप से इसका भाव मम्मी ने कहा ही निकल रहा है...आप बिलकुल सही हैं किंतु ललित जी के अनुसार 👉🏻माँ ने कहा 👈🏻 यह एकदम उचित और सटीक है क्योंकि मम्मी 👈🏻 अंग्रेजी शब्द है और 👉🏻 माँ शुद्ध साहित्यिक हिंदी शब्द...आप दोनों ही बिलकुल सही हैं...किन्तु माँ ने कहा, तुलनात्मक दृष्टि से अधिक सही है....👍🏻😊👍🏻
सूना हूँ। चुना हूँ। के स्थान पर आपके तुकान्त ये होने चाहिए तब वाक्य शुद्ध होगा...
तुमको अभी न देखा, बस नाम ही सुना है।
माँ ने कहा तभी तो, हमने तुम्हें चुना है। 👍🏻👍🏻😊😊👍🏻👍🏻 शेष बेहतरीन गीत बधाई.....👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻😊😊👍🏻👍🏻😊😊😊
ललित जी....शानदार गीत प्रस्तुति....👍🏻👍🏻👍🏻😊😊👍🏻👍🏻
लहरें ब
रोला छंद
जीवन है अनमोल,समय क्यूँ खोवे अपना।
करना इसका मान,नाम कान्हा का जपना।
अपनी गठरी खोल,पुण्य से झोली भरले।
इत-उत भी मत डोल,पाप मत सिर पे धरले।
इक दिन जग को छोड़,द्वार है हरि के जाना।
तन जब जाए छोड़,काम मन को है आना।।
खुली आँख से देख,जिन्दगी है इक सपना।
करना इसका मान,नाम कान्हा का जपना।
अपने दिल की पीर,सदा दिल में ही रखना।
तेरे दुख का स्वाद,न चाहे कोई चखना।
नहीं पराया दर्द,किसी ने अपना जाना।
नहीं बने हमदर्द,बड़ा बेदर्द जमाना।
पर दुख मे तो आज,न चाहे कोई खपना।
करना इसका मान,नाम कान्हा का जपना।
दुनिया धोखेबाज,किसी का साथ न देती।
छोड़े ये मझधार,डुबा के खुश हो लेती।
खुद ही तरना सीख,मिलेंगें तुझको मोती।
क्यों तू माँगे भीख,खुशी अन्दर ही होती
पाने को आनन्द,अभी है तुझको तपना।
करना इसका मान,नाम कान्हा का जपना।
'ललित'
समाप्त
08.12.16
रोला छंद
गीत
दिल के रिसते घाव,छिपाकर जग में डोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।
देखे सुंदर मीत,देख ली प्रीत अनोखी।
केवल अपनी जीत,लगे है सबको चोखी।
जब भी बोलो बात,जरा मन ही मन तोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।
झूठा ये संसार,यहाँ की रस्में झूठी।
जो होता गमगीन,उसी से रहती रूठी।
पी लो गम के घूँट,मगर तुम मुँह मत खोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।
दुनिया की है रीत,किसी के साथ न रोये।
हँसी उड़ाये और,राह में काँटे बोये।
जपलो हरि का नाम,पाप खुद अपने धोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।
भगवन दयानिधान,उन्हीं से विनती करलो।
हरि को अपना मान,शीश चरणों में धरलो।
तर जाएगी नाव,प्रभू के आगे रो लो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।
ललित
रोला छंध
गीत 2
पहला भाग
देखा ये संसार,देख ली दुनियादारी।
बेटे से है प्यार,लगे कब बेटी प्यारी।
बेटी चाहे प्यार,नहीं कुछ चाहे ज्यादा।
देगी दो कुल तार,करे वो सच्चा वादा।
बेटे से ही आस,लगाती दुनिया सारी।
बेटे से है प्यार,लगे कब बेटी प्यारी।
ललित
अभिव्यक्ति मन से कलम तक
11.12.16
दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।
जिस पर है विश्वास,वही दिल को तोड़ेगा।
जो है अपना खास,वही फिर मुख मोड़ेगा।
सहलाता है घाव,नहीं शीतल सावन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।
जो होता फनकार,यशस्वी वो हो जाता।
दुनिया भर का प्यार,उसे फन है दिलवाता।
दिल के गहरे घाव,नही भर पाता फन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।
ईश्वर से विश्वास,कभी यूँ ही उठ जाता।
जिसकी टूटी आस,नहीं फिर वो उठ पाता।
भर देता है घाव,कभी जानी दुश्मन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।
जीवन भर तो साथ,नहीं तन भी दे पाता।
विषम रोग में साथ,नहीं धन भी दे पाता।
भरें उसी के घाव,करे जो यहाँ भजन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।
दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।
'ललित'
दिग्पाल छंद
माँ
कैसे चली गयीं तुम,मुझको बिसार कर माँ?
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।
यूँ आज घुल गई हो,आकाश की हवा में।
तुम गूँजती हमेशा,दिल से उठी दुआ में।
ये सुत तुम्हें पुकारे,बाहें पसार कर माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।
कैसे ज़मीर माना,मझधार हाथ छोड़ा?
जग हो गया पराया,दुख ने मुझे निचोड़ा।
मन आज रो रहा है,ये ही विचार कर माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।
आँखें सदा तुम्हारी,सुत को निहारती हैं।
शिक्षा सदा तुम्हारी,पथ को सँवारती है।
जीना मुझे सिखाया,खुद को निसार कर माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।
यूँ तो कभी तुम्हारी,पूरी कमी न होगी।
सिर आसमाँ हमारे,पाँवों ज़मीं न होगी।
इंसाँ मुझे बनाया,तुमने निखार कर माँ।
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।
कैसे चली गयीं तुम,मुझको बिसार कर माँ?
इक बार सोच लेतीं,मुझको निहार कर माँ।
'ललित'
दिग्पाल छंद
गीत
मोहन बिना हमारा,होता नहीं गुजारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।
हम प्रेम में पली हैं,औ' प्यार में ढली हैं
बस प्रीत से मिलेगा,कान्हा बड़ा छली है।
है प्रेम के बिना तो,ये व्यर्थ ज्ञान धारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।
हम ज्ञान का करें क्या,कान्हा बसा हृदय में।
क्यों ज्ञान चक्षु खोलें,जब कृष्ण साँस लय में।
बस प्रीत में छिपा है,हर जीत का इशारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।
बजती न आज वंशी,सुनसान ब्रज धरा है।
घनश्याम के बिना तो,सबका हृदय भरा है।
मनमोहना पिया पे,सारा जहान वारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।
इस प्यार से बँधा जो,कब तक न आयगा वो।
वंशी नहीं बजाकर,कब तक सतायगा वो।
कर पायगा न कान्हा,राधा बिना गुजारा।
ऊधो तुम्हें मुबारक,ये ज्ञान ध्यान सारा।
समाप्त
ललित
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