शक्ति छंद
नहीं रास आयी हमें बन्दगी।
हवा में उड़ी जा रही जिन्दगी
सफेदी हमें अब चिढ़ाने लगी।
हसीं कामनाएं बढ़ाने लगी।
कभी हाथ थामे चले जिन्दगी।
कभी रासतों में पले जिन्दगी।
कभी तो लगे ये दुआ जिन्दगी।
कभी क्यों लगे बद्दुआ जिन्दगी?
मिला जिन्दगी से हमें ये सिला।
जवाँ पूत से मत करो कुछ गिला।
पराया हुआ बागबाँ बाग में।
हवन ही धुआँ हो गया आग में।
हवन उम्रभर तात ने यूँ किया।
न बुझने दिया आस का वो दिया।
मगर पूत ने दम किया नाक में।
हवन कुण्ड है अब मिला खाक में।
सलीके सिखाते जवाँ हैं उन्हें।
गयी छोड़ पीछे जवानी जिन्हें।
नये दौर के ये नये रासते।
कभी जिन्दगी के नहीं पास थे।
बनी आज नासूर है जिन्दगी।
दिलों से बड़ी दूर है जिन्दगी।
हँसी औ' खुशी अब हवा हो गयी।
कि हँसना हँसाना दवा हो गयी।"
ललित किशोर "ललित"
"
21.8.17
अभिव्यक्ति :मन से कलम तक
शीर्षक :मतलबी/मतलब परस्त/स्वार्थी/स्वार्थ परायण
आयोजन अध्यक्ष सम्माननीय विद्या भूषण मिश्र जी एवं सम्मानीय मंच की सेवा में सादर प्रेषित
आधार छंद
कौन सगा अपना यहाँ,और कौन है मीत?
इस दुविधा को छोड़ दे,गाये जा तू गीत।
सब को खुश कैसे रखे, एक अकेली जान।
मतलब के सब यार हैं,स्वारथ की है प्रीत।
फूल और भँवरे दिखें,इक दूजे के मीत।
भौंरा बस रस चूसता,झूँठी उसकी प्रीत।
प्यार भरे व्यवहार के,पीछे ये ही राज।
जो है अपने काम का,गाओ उस के गीत।
समझ न आता है यहाँ,प्रीत मीत का खेल।
लिपटी है क्यों वृक्ष से,वह कोमल सी बेल?
क्या ये सच्चा प्यार है,या स्वारथ की प्रीत?
मतलब के सब मीत हैं,नहीं प्यार का मेल।
मीरा जैसी प्रीत हो,राधा जैसा प्यार।
गोपी जैसा प्रेम तो,कान्हा जाते हार।
प्रीतम के दुख में दुखी,सुख में सुखिया होय।
पावन बंधन नेह का,क्या जाने संसार।
'ललित'
अभिव्यक्ति मन से कलम तक
11.12.16
यह रचना दि 13.12.16
को सर्वश्रेष्ठ घोषित
रोला छंद
दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।
जिस पर है विश्वास,वही दिल को तोड़ेगा।
जो है अपना खास,वही फिर मुख मोड़ेगा।
सहलाता है घाव,नहीं शीतल सावन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।
जो होता फनकार,यशस्वी वो हो जाता।
दुनिया भर का प्यार,उसे फन है दिलवाता।
दिल के गहरे घाव,नही भर पाता फन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।
ईश्वर से विश्वास,कभी यूँ ही उठ जाता।
जिसकी टूटी आस,नहीं फिर वो उठ पाता।
भर देता है घाव,कभी जानी दुश्मन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।
जीवन भर तो साथ,नहीं तन भी दे पाता।
विषम रोग में साथ,नहीं धन भी दे पाता।
भरें उसी के घाव,करे जो यहाँ भजन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।
दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।
'ललित'
27.12.16
अभिव्यक्ति मन से कलम तक
अतिथि रचना
सम्माननीय मंच को सादर समर्पित
शीर्षक : नजर,आँख,नैन
कुकुभ छंद
काम कभी ऐसा मत करना,नज़र झुकानी पड़ जाए।
एक बार नज़रों से गिरकर,कभी नहीं फिर उठ पाए।
नज़र रखो अपनी करनी पर,करनी ऐसी कर जाओ।
याद करे दुनिया वर्षों तक,नज़र मोड़ जब मर जाओ।
जैसा चश्मा नज़रों पर हो,दुनिया वैसी दिखती है।
काम-वासना के चश्मे से,कामी जैसी दिखती है।
नज़रों में इक प्रभु की छवि हो,चश्मा हो भगवद् गीता ।
भगवद् गीता जिसने पढ़ ली,समझो उसने जग जीता।
मात पिता की नज़रों से जो,स्नेह सुतों को मिलता है।
उसी प्यार से जीवन बनता,बच्चों का दिल खिलता है।
मात पिता फिर प्यार ढूँढते,उन बच्चों की नज़रों में।
लेकिन प्यार कहाँ मिलता हैअंधे,गूंगे,बहरों में।
25.7.17
अभिव्यक्ति : मन से कलम तक
शीर्षक: दुआ/प्रार्थना./अरदास/कामना
आदरणीय गुरुचरण मेहता 'रजत'जी व सम्माननीय मंच को सादर समर्पित
मधुमालती छंद
राधा करे यह कामना,हो श्याम से जब सामना।
दूजा न कोई पास हो,मनमोहना का रास हो।
वंशी अधर से दूर हो,बस राधिका का नूर हो।
इक टक निहारे साँवरा,इस प्रेयसी को बावरा।
राधा दिवानी श्याम की,उस साँवरे के नाम की।
उसकी मुरलिया जब बजे,बस प्रीत का ही सुर सजे।
हर ओर सुंदर श्याम था,हर छोर रस मय नाम था।
था राधिका का साँवरा,या रासमय था बावरा।
वो भूल खुद ही को गई,बस श्याम में ही खो गई।
चलने लगी पुरवाइयाँ,बजने लगीं शहनाइयाँ।
यह प्यार का विश्वास था,या मद भरा अहसास था।
परमातमा से मेल था,या आत्म रस का खेल था।
वो आत्म रस का बोध था,या प्रेम रस का मोद था।
निजतत्व का आभास था,या तत्व ही अब पास था।
दो ज्योतियाँ थी नाचती,हर ज्योत में इक आँच थी।
दो रश्मियाँ थी घुल रही,सब गुत्थियाँ थी खुल रही।
चारों दिशा उल्लास था,मनमोहना का रास था।
कान्हा दिखे हर ओर था,चंचल बड़ा चितचोर था।
परमात्म का वह रास था,यह गोपियों को भास था।
मुरली मनोहर श्याम था,जो नाचता निष्काम था।
'ललित'
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