6-5-17
1
मुक्तक 16:14ताटंक आधारित
परिधान
कैसे कैसे परिधानों में,नारी खुशियाँ है पाती
सोच सोच कर सोचो इसमें,समझ कहाँ से है आती।
क्या ये कहना चाह रही है,कैसी इसकी है भाषा?
तम्बू जैसा पहन लबादा,क्यूँ ये खुद को दर्शाती?
1.5.17
2
ताटंक मुक्तक
सपने
टूटे सपनों की कुछ किरचें,बाकी हैं अब झोली में।
कैसे कैसे रंग दिखे हैं,सपनों की इस होली में।
स्वप्न सुनहरे खो देते हैं,कब क्यूँ अपने रंगों को?
बेरंगा मन बैठा रहता,क्यूँ सपनों की डोली में?
ललित
27.2.17
3
ताटंक छंद मुक्तक
माँ
क्यूँ होता है अक्सर ऐसा,माँ छुप-छुप कर रोती है?
बेटा नजरें फेर रहा क्यूँ,सोच दुखी वो होती है।
माँ के अरमानों का सूरज,दिन में क्यूँ ढल जाता है?
एक अँधेरे कोने में वो,बेबस सी क्यूँ सोती है?
4
ताटंक मुक्तक
माँ की याद
उलझा आज हुआ है जीवन,जैसे झंझावातों में।
याद मुझे आती है माँ की,ऐसी गमगीं रातों में।
माँ के दामन की खुशबू ही,गम सारे हर लेती थी।
हल कर देती थी मेरी हर,मुश्किल को वो बातों में।
5
ताटंक मुक्तक
अरमान
कितने अरमानों से बेटे,मैंने तुझको पाला था।
जग की सारी खुशियाँ तुझको,देता मैं मतवाला था।
आज उन्हीं खुशियों के बदले,हार गमों के देता तू।
जिन खुशियों की खातिर मैंने,खुद को ही मथ डाला था।
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6
ताटंक मुक्तक
रिश्ते (भाग 1)
सड़े-गले रिश्तों की बदबू ,जबरन सहनी है होती।
उन रिश्तों की बोरी सिर पर,काया जबरन है ढोती।
प्यार कभी जिनमें बसता था,वो रिश्ते अब हैं सूने।
पावन मन की सारी खुशबू,उन रिश्तों में है खोती।
7
ताटंक मुक्तक
रिश्ते (भाग 2)
मानव से मानव का रिश्ता,चलता है बस पैसे से।
प्यार भरे दिल में भी रिश्ता,पलता है बस पैसे से।
प्यार और पैसे का रिश्ता,मानव तोड़ कहाँ पाता?
देवालय का घण्ट जहाँ पर,हिलता है बस पैसे से।
8
ताटंक मुक्तक
रिश्ते (भाग 3)
क्यूँ बँधता है रिश्तों में मन,क्यूँ उलझा है रिश्तों में?
प्यार जहाँ मिलता है उसको,छोटी छोटी किश्तों में।
जग से जीत गया जो मानव,रिश्तों से वो है हारा ।
प्यार लुटाने वाला दिल तो,होता खास फरिश्तों में।
9
ताटंक मुक्तक
रिश्ते (भाग 4)
कुछ रिश्ते ऐसे होते जो,मानव छोड़ नहीं पाए।
कुछ रिश्तों का बन्धन भी तो,ये मन तोड़ नहीं पाए।
आस करे रिश्तों से मानव,रिश्ते धोखा दे जाते।
रिश्ते के टूटे धागे को,गाँठें जोड़ नहीं पाएं।
10
ताटंक मुक्तक
रिश्ते(भाग 5)
जितनी भी सुलझाएँ गाँठें,और उलझती जाती हैं।
गाँठें भी शायद मानव की,चाल समझती जाती हैं।
गाँठ गाँठ में गाँठ लगी हो,तो कैसे सुलझा पाएँ।
थोड़ी ढीली कर दो तो हर,गाँठ सुलझती जाती है।
11
ताटंक मुक्तक
रिश्ते (भाग 6)
मन करता है अब तो मेरा,दूर कहीं उड़ मैं जाऊँ।
रिशतों की दुनिया से अपना,पिण्ड छुड़ा फिर मैं पाऊँ।
जिन रिश्तों में उलझ उलझ कर,आज दुखी मन है होता।
भूल उन्हें अपने जीवन में,सारी खुशियाँ ले आऊँ।
12
ताटंक मुक्तक
रिश्ते (भाग 7)
बड़ी अनोखी माया नगरी,रिश्तों की मैंने पाई।
खास जहाँ रिश्तेदारी थी,पीर वहीं से है आई।
तिल तिल कर जलता है ये मन,इन रिश्तों के शोलों में।
अब तो करले रिश्ते दारी,राम नाम से ही भाई।
13
ताटंक मुक्तक
रिश्ते (भाग 8)
जो कान्हा से रिश्ता जोड़े,संग राधिका नाचेगा।
दुखते रिश्तों की पोथी फिर,उसका मन क्यूँ बाँचेगा।
राधा रूपी रंग रचाया,हो जब अपने हाथों में।
रंग भला पिसते रिश्तों का,हाथों में क्यूँ राचेगा?
ललित
समाप्त
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14
ताटंक मुक्तक
लीला
रच डाला संसार सुहाना,रंग भरा प्यारा-प्यारा।
संग राधिका रास रचाता,फिर ब्रज में कान्हा कारा।
ऐसी लीला करी बिरज में,असुर कंस भी था काँपा।
छोड़ दिए सब रास-रसीले,और कंस को जा मारा।
15
ताटंक मुक्तक
कजरा
श्याम तुम्हारे नयनों का ये,कजरा मुझे सताता है।
कान्हा की आँखों में रहता,कहकर ये इतराता है।
आज तुम्हीं सच कहना कान्हा,देखो झूँठ नहीं बोलो।
क्या ये काला काजल तुमको,मुझसे ज्यादा भाता है।
16
ताटंक मुक्तक
पत्थर
पत्थर पत्थर में भी देखो,कितना अन्तर है होता।
इक मूरत बन पूजा जाता,इक नाली में है रोता।
इस किस्मत का खेल निराला,कर्मों का सब है खेला।
धनवानों की नींद उड़ी है,रंक चैन से है सोता।
17
ताटंक मुक्तक
बरसात
सावन की रिमझिम बरसातें,ये झूलों की सौगातें।
और झूलती सखियाँ सारी,करती चुहल भरी बातें।
शीतल बूँदे टप-टप-टप-टप,तन में आग लगाती हैं।
साजन की बाहों में कितनी ,छोटी लगती हैं रातें।
18
ताटंक मुक्तक
शीतलता
पूनम का जो चाँद गगन से,शीतलता बरसाता है।
देख तुम्हारी शीतलता को,मन ही मन शरमाता है।
फूलों का मादक रस पी जो,भँवरा मदमाता घूमे।
देख तुम्हारे मादक नैना,वो भी भरमा जाता है।
19
ताटंक मुक्तक
आहें
देख तुम्हारे कोमल तन को,फूलों की निकलें आहें।
छूकर तुम्हें हवा जो गुजरे,सौरभ से महकें राहें।
वसन भीग कर चिपके तन से,बरखा की मनमानी से।
नख शिख सुंदर रूप तुम्हारा,जिसे निरखना सब चाहें।
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20
ताटंक मुक्तक
सुख दुख -1
गम हरदम ही देकर जाते,खुशियों की कुछ सौगातें।
खुशियाँ जाते जाते कहतीं,कानों में गम की बातें।
सुख औ' दुख मिलकर इस जीवन,को रंगीन बनाते हैं।
मत उलझो सुख-दुख में यारों,ये तो हैं आते जाते।
21
ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 2
घर की दीवारों की भाषा,मानव समझ कहाँ पाया?
मौन खड़ी मीनारों से भी,ये मन सुलझ कहाँ पाया?
ताजमहल क्या कभी किसी को,अंदर का सुख दे पाया?
रिश्तों की दुनिया में भी तो,ये मन सहज कहाँ पाया?
22
ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 3
पकड़ नहीं पाता क्यों सुख को,मन ये अपनी मुट्ठी में?
माँ भी नहीं पिला सकती क्यों,सुख बचपन की घुट्टी में?
कितना समझाया इस मन को,मत भागो सुख के पीछे।
लेकिन ये तो दीवाना सा,सुख को खोजे छुट्टी में।
23
ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 4
दुख में कोई हँसता देखा,कोई सुख कम ही आँके।
खुद के सुख को भूला कोई,दूजे के सुख में झाँके।
दूजे का दुख हरकर कोई,अंदर का सुख पाता है।
अंदर का सुख पाकर मानव,इत उत कभी नहीं ताँके।
24
ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 5
सुख दुख के बादल इस नभ में,रह रह कर यूँ छाते हैं।
बिन बरसात किये ही बादल,दूर कहीं उड़ जाते हैं।
पर मानव क्यूँ डर जाता है,देख बादलों को आया।
सूरज पर विश्वास करें तो,घन छाया ले आते हैं।
25
ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 6
रंग चढ़ा सुख दुख के मन को,रब ने खूब निचोड़ा है।
सुख दुख में गोते खाता ये,मानव तभी निगोड़ा है।
मन हरदम उलझा रहता है,सुख दुख की परिभाषा में।
सुख हाथों से निकला जाए,हर सुख लगता थोड़ा है।
26
ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 7
मन्दिर की दीवारों से भी,सुख का संदेशा आये।
मूरत वो ही रूप दिखाये,मन में तू जैसा ध्याये।
मन मंदिर में बस वो मूरत,भीतर सुख उपजाती है।
जीवन सुख से रौशन होवे,दारुण-दुख कम हो जाये।
'ललित'
27
ताटंक मुक्तक
सुख-दुख - 8
पायी थी कुछ खुशियाँ मैंने,जीवन की फुलवारी से।
पर दुख ने भी डेरे डाले,रुक-रुक बारी बारी से।
सुख-दुख के झोंको ने ऐसा,नाच मुझे नचवाया है।
अब तो मन बहला रहता है,सुख-दुख की हर पारी से।
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28
ताटंक मुक्तक
नादान
पूछ रही हैं आज हवाएं,हम मूरख नादानों से।
कैसे अपनी लाज बचाएं,धरती के हैवानों से।
नदियाँ सूखी,पर्वत रूखे,इनकी कारस्तानी से।
कहलाते जो बाग कभी थे,दिखते आज मसानों से।
29
ताटंक मुक्तक
नेता
खोल रहे हैं सारे नेता,एक दूसरे की पोलें।
लेकिन भारत के विकास के,ताले कौन यहाँ खोलें।
जितने सीधे हैं ये नेता,वोटर उतने ही टेढ़े।
पैसे लेकर नेताओं की,जय जय जय जय जो बोलें।
30
ताटंक मुक्तक
जीवन-नैया
डूबी जीवन नैया उसकी,उथले उथले पानी में।
जीवन भर जो रहा तैरता,यौवन की नादानी में।
जीने की जो कला सीख ले,नदिया के उन धारों से।
क्यों डूबेगी नौका उसकी,किसी नदी अनजानी में?
31
ताटंक मुक्तक
कान्हा
उन सुजान कान्हा को अब मैं,भूल भला सकती कैसे?
जिनकी याद बसी आत्मा में,जीवन प्राणों में ऐसे।
नित्य निरंतर खोया है मन,प्रिय की अनन्य यादों में।
नित्य नवीन भावों की यादें,संचित हैं मन मे
जैसे।
32
ताटंक मुक्तक 16 ..14
पतवार
बिन पतवार चले ये नैया,
कुछ हिचकोले खाती रे।
नज़र न आये माँझी कोई,
नदिया भी गहराती रे।
मन कहता है मेरा कान्हा,
तुम वो अंतर्यामी हो।
पार करे जो नैया सबकी,
बिना अरज बिन पाती रे।
33
ताटंक मुक्तक
पाक
अब तो तेरी बर्बरता ने,सारी सीमायें तोड़ी।
देख जरा अब आईना तू,शर्म जरा करले थोड़ी।
लेंगें हम चुन -चुन कर बदला,तेरी सब करतूतों का।
ओ नापाक पाक अब तेरी,बनने वाली है घोड़ी।
34
ताटंक मुक्तक
बेगाने
अपनों की बस्ती में मैंने,कुछ बेगाने देखे हैं।
बेगानों से प्यार करें जो,वो मस्ताने देखे हैं।
भेद नहीं कर पाता अब मैं,अपनों और परायों में।
पैरों के नीचे दबते कुछ,फूल पुराने देखे हैं।
'ललित'
35
ताटंक मुक्तक
भेद
कुछ तो भेद छिपा है तेरी,प्यार भरी इन बातों में।
कुछ तो भेद छिपा है प्यारी,प्यारी इन सौगातों में।
दिल मेरा कहता है तेरे,दिल में कुछ कुछ होता है।
तभी चली आती है मेरे,सपनों की बारातों में।
ललित
36
ताटंक मुक्तक
साथी
कौन यहाँ अब अपना साथी,सब को मतलब है घेरे।
आग जली थी मतलब से ही,मतलब से ही थे फेरे।
आग भुला दी मण्डप की वो,जिसकी कसमें खाई थी।
जाएगा जब देह छोड़ तू,साथ कौन जाए तेरे?
ललित
37
ताटंक मुक्तक
चाँद
खिला है चाँद भी पूरा चँदनिया गुनगुनाती है।
सितारों के लगे मेले हवा दामन हिलाती है।
तुम्हारे नाम की मेहंदी रचाई आज हाथों में।
चले आओ सजन मेरे तुम्हारी याद आती है।
ललित