होली

होली

कुछ तो भेद छुपा है यारों,इन होली के रंगों में।
बेशर्मो से समा गए हैं,जो गोरी के अंगों में।
दूर सदा हम से रहती थी,जो शर्माई गुड़िया सी।
आज हुई खुश हो के शामिल,इन होली के पंगों में।

इश्क का भूत

इश्क बहुत महँगा है हमने,प्यार किया तब ये जाना।
रोज देखना पिक्चर विक्चर,मॉल उन्हें फिर ले जाना।
पिज्जा का भी शौक उन्हें है,होटल पाँच सितारा हो।
घबराकर अब छोड़  दिया है,उनकी गलियों में जाना।

पडोसन से होली

रंग भरी पिचकारी हमसे,हाय पड़ोसन ने छीनी।
रंग हमारा हम पर मारा,पहन रखी साड़ी झीनी।
हमने मग्गा भर पानी का,उनके ऊपर ज्यों डाला।
शर्माकर वो दुबक गई यों,नजरें नीची कर लीनी।

होली या होला

होली है या होला यह तो,हम भी नहीं समझ पाये।
बाजारों का हाल हुआ जो,पत्नी को क्या बतलायें।
नोट भरा थैला ले जाकर,मुट्ठी में कुछ लाते हैं।
अब तो केवल पैठा लाकर,होली घर में मनवायें।

'ललित'

Posted 2nd August 2015 by ललित किशोर गुप्ता

Labels: कावयांजलि 10.11.15

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