विष्णुपद
सपना
सपनों से अब नाता तोड़ो,समझो जीवन को।
सपनों की माया में क्यों तुम,उलझाते मन को।
चंचल मानव-मन को हरदम,बहलाता सपना।
सपना वो ही तोड़ेगा जो,कहलाता अपना।
ललित
विष्णुपद छंद
अरजी
रद्दी में मत डाले कान्हा,मेरी ये अरजी।
अरजी तो पढ़ले तू करना,तेरी जो मरजी।
चरण-शरण में ले ले मुझको,अपना दास बना।
या मुझको तू अर्जुन जैसा,चेला खास बना।
ललित किशोर 'ललित'
फूल कहे काँटों से भैया,ध्यान ज़रा रखना।
दानव भौंरे जबरन चाहें,रस मेरा चखना।
प्रीत उसी से होती है जो,दिल से प्यार करे।
रस का लोभी भँवरा हरदम,छुपकर वार करे।
ललित
विष्णुपद
असली नकली
जिनके नथुनों में सौरभ के,बीज नहीं उगते।
नकली फूल उन्हें असली से,सुंदर हैं लगते।
असली नकली की माया में,मानव उलझ गया।
नकली सीता को हरकर भी,रावण सुलझ गया।
ललित
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