विष्णुपद सृजन 3

1
विष्णु पद
श्रृंगार रस
प्यार मुहब्बत की पुरवाई,छूती जब मन को।
सजनी की मादक अँगड़ाई,छेड़े साजन को।
छन छन छन छन छनकर आती,चँदा की सजनी।
चाँद चँदनिया की मस्ती से,बहक रही रजनी।
2
विष्णु पद
श्रृंगार रस
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

वृक्षों से आलिंगन करती,लतिकाएं महकें।
सावन के झूलों में सजनी,का मन भी बहके।
अधनींदी अँखियों से घर को,लौट रही सजनी?
साजन की बाहों में अब तो,बीते है रजनी।

विष्णु पद
कृष्ण

राधा के नयनों से आँसू,छलक छलक छलकें।
मनमन्दिर में कान्हा दिखते,खुलें नहीं पलकें।
क्यों रूठे हैं श्याम साँवरे,सखियाँ पूछ रहीं।
कान्हा जी दर्शन कब देंगें,अँखियाँ पूछ रहीं।
ललित
विष्णुपद
राकेश जी के सुझाव से परिष्कृत

अंतर में जो उथल पुथल है,सागर नहीं कहे।
पीकर खुद अपने ही आँसू,खारा बना रहे।
सागर की उन्मुक्त तरंगें,हर तदबीर करें।
छूने को उत्तुंग शिखर वो,नभ को चीर धरें।

ललित

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