सार छंद 2

सार छंद
रचना

रचना सबको वो ही भाती,भाव भरी जो होती।
सबके दिल को जो हर्षाती,बीज प्रीत के बोती।
लिखने में जो धीरज रखता,भावों में खो जाता।
संयोजन की माला में फिर,शब्दों को पो जाता।
ललित

सार छंद
दिन चर्या

रोज सुबह जल्दी उठकर तुम, दाँत साफ कर लेना।
अपने नाखूनों को बच्चों,कभी न बढने देना।
मात-पिता के चरणों में तुम,नित ही शीश
झुकाना।
कर लेना हर पाठ याद फिर,दिन भर तुम मुस्काना।

1.4.17
सार छंद
भूल-भुलैया

जीवन की ये भूल-भुलैया,सबको है भटकाती।
आती-जाती साँसों को ये,हौले से अटकाती।
कौन कहाँ कैसे जाएगा,छोड़ जगत का मेला?
जान नहीं पाता है कोई,कैसा है ये खेला?

ललित
साधू

बोली आज हुलस कर हमसे,पत्नी जी अलबेली।
चलो आप साधू बन जाओ,मैं बन जाऊँ चेली।
योगी योगी जाप करूँगी,मैं फिर शाम सवेरे।
जिस दिन तुमको वोट मिलेंगें,दिन पलटेंगें मेरे।

ललित

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